पास के घर से
रेडिओ पर फरमाईशी नगमों के कार्यक्रम में गाना बज रहा था.गाने की फरमाईश इतने लोगों ने की थी कि लगा
जैसे लोगों के पास पोस्ट कार्ड लिखकर गाने की फरमाईश करने के सिवा कोई काम ही नहीं
है. जितनी देर गाना न
बजता, उससे ज्यादा देर
फरमाईश करने वालों के नाम बजते. मेरा बस चलता तो
इस कार्यक्रम का नाम बदल कर नगमों के फरमाईशकर्ताओं के नाम कर देता. नाम बदलने का दौर चल निकला है तो ये भी सही. गाने बजा:
’निंदिया से जागी
बहार,
ऐसा मौसम देखा
पहली बार,
कोयल कुँहके, कुँहके, गाये मल्हार’
बहार जागी कि
नहीं, यह तो पता नहीं
मगर मेरी नींद जरुर खुल गई. आज थक कर बेसमय
सो गया था. शायद गाना या
फरमाईशकर्ताओं के नाम न बजते तो तीन चार घंटे और सोता रहता. मगर कोई मेहनतकश कुछ देर आराम कर ले, यह किसी को कहाँ बर्दाश्त? उल्टे आजकल तो आराम न करने का डंका पिटवाने में
इंसान समय बिता रहा है. बिस्तर पर लेटे लेटे खिड़की के बाहर की बहार का नज़ारा लिया. वाकई हल्की हल्की बारिश हो रही थी.
कहते हैं कभी कभी
किसी की जुबान पर सरस्वती विराजमान हो जाती है और वो जो कहता है वो सच हो जाता है. मुझे लगा कि जैसे आज रेडिओ की जुबान पर सरस्वती
विराजमान हो गई हों, कौन जाने. ऐसा विचार कभी भी रेडिओ पर माननीय की मन की बात
सुनते हुए न आया आज तक न जाने क्यूँ? शायद सरस्वती को
भी इनकी फितरत मालूम हो अतः कभी नहीं आतीं उनकी जुबान पर.
यही कुछ सोचते
जल्दी से मौसम के मिज़ाज के हिसाब से चाय बना लेता हूँ और बाहर छज्जे पर आ जाता हूँ
हाथ में चाय का कप थामें. उम्मीद थी कि
कहीं कोई कोयल मल्हार गा रही होगी.
जैसा कि होता है
अब पड़ोस से गाने की आवाज आना बंद हो गई थी. जब मन है कि वो बजे तब वो गुम. किस्मत का खेला
भी ऐसा है मानो सरकारी योजनायें कि मधुमेह के अस्पताल में मिठाई बंटवाती हैं. कहने को बाँटना भी हो गया और डॉक्टर की पाबंदी से मिला भी किसी को नहीं. बाँटने वाले भी सरकारी और पाबंदी लगाने वाले भी
सरकारी. बादल छाये हैं
मगर बारिश बंद हो गई है.
सामने पेड़ पर
कोयल तो नहीं दिखी. हाँ, एक कौआ कांव कांव जरुर कर रहा था. उसकी कांव कांव की कर्कशता से मेरा मन किया कि
किसी वस्तु को उछाल कर उसे उड़ा दूँ. तभी सामने वाले छज्जे पर नजर पड़ी. वहाँ पांडे जी की पत्नी मुग्ध सी कौव्वे को देख
रही हैं. पांडे जी काफी दिनों से दौरे पर हैं. शायद उनकी पत्नी बिहारी की नायिका की तरह इस
कांव कांव को अपने प्रिय पति के वापसी का संदेशा मान रही हों और सोच रही हों कि
अगर मेरी पति आज आ गये तो तेरी चोंच सोने से मड़वा दूँगी. पांडे जी अच्छे
ओहदे वाले सरकारी अधिकारी हैं. अतः उनकी पत्नी के लिए सोने से कौव्वे की चोंच मड़वाना बायें हाथ का खेल है. वो चाह लें तो कौव्वे
के लिए पूरा पिंजड़ा ही सोने का बनवा दें. दूसरी तरफ छज्जे पर वर्मा जी बहु नजर आई. वो भी कौव्वे को
ही देख रही थी मगर उसकी भाव भंगिमा से लग रहा है कि वो इस कौव्वे की धूर्तता के
बारे में सोच रही है. कैसा मजे से बैठा कांव कांव कर रहा है और उधर बेचारी कोयल इसके अंड़े को भी
अपने समझ कर से रही होगी.
तभी देखा कि स्वर्गीय
गुप्ता जी जिनका आज श्राद्ध है, उनकी पत्नी और
बेटा एक थाली में पकवान सजा कर पेड़ के नीचे रख कर कुछ दूर खड़े हो गये. वे बड़े श्रद्धा
भाव से कौव्वे को हाथ जोड़े प्रणाम कर प्रार्थना कर रहे हैं कि हे कौआ महाराज, आइये और भोजन
ग्रहण करिये ताकि गुप्ता जी आत्मा तृप्त होकर मुक्ति पाये.
कुछ मजदूर पुलिया
पर बैठे बीड़ी पीते हुए सुस्ता रहे हैं. उन्हें न कौव्वे की कांव कांव से कुछ लेना देना
है और न ही मौसम की रुमानियत से. वो तो अपनी दिहाड़ी कमाने में लगे हैं ताकि शाम को घर में खाना बन जाये.
मैं सोचने लगता
हूँ कि एक कौआ और उसकी कांव कांव को सभी किस किस रुप में देख रहे हैं. सबके लिए इसके
मायने उनकी सोच के हिसाब से अलग अलग हैं और किसी के लिए इसका कोई मायने ही नहीं है.
तभी ख्याल आता है
कि मौसम तो आजकल चुनाव का भी है. नेता सारे आ रहे हैं. पेड़ पर तो नहीं मगर मंच से माईक पर जाने क्या क्या बोल रहे हैं. सब अपनी अपनी समझ
से उसका मायने लगा रहे हैं. कोई माईक पर
उनकी आवाज की कर्कशता पर परेशान हो रहा है. कोई अच्छे दिन आने का सपना सजा कर इनको
स्वर्णजड़ित आसन देने का मन बना रहा है. कोई इनकी धूर्तता के बारे में सोच कर खीज रहा है. कुछ श्रद्धावनत
होकर उनको पूजने भी लगे हैं. तो कोई उदासीन
सा उनकी तरफ ध्यान भी न दे रहा है.
एकाएक फिर रेडिओ
पर गाना बज रहा है कहीं:
सच्चाई छुप नहीं सकती, बनावट के उसूलों से
कि खुशबू आ नहीं सकती, कभी कागज़ के फूलों से!
झूठा है तेरा वादा! वादा तेरा वादा, वादा तेरा वादा
वादे पे तेरे मारा गया, बन्दा मैं सीधा साधा
वादा तेरा वादा, वादा तेरा वादा..
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अप्रेल २८, २०१९ को: