शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

भ्रम रोमांचित करता है

जब किसी की नई नई तोंद निकलना शुरू होती है तो वो बंदा बड़े दिनों तक डिनायल मोड में रहता है. वह दूसरों के साथ साथ खुद को भी भ्रमित करने की कोशिश में लगा रहता है. कभी टोंकते ही सांस खींच लेगा और कहेगा कहाँ? या कभी कहेगा आज खाना ज्यादा खा लिया तो कभी कमीज टाईट सिल गई जैसे बहाने तब तक बनाता रहता है जब तक कि तोंद छिपाए न छिपे और खुद के बस के बाहर ही न निकल जाए. 
भ्रम रोमांचित करता है इसलिए यथार्थ से अधिक प्रिय होता है. भ्रम आपको अपने मन के मुताबिक़ खुश होने का मौका देते है. आज की भागती दौड़ती जिंदगी में चंद लम्हें भी ख़ुशी के मिल जाएँ तो मानो जीवन सार्थक हो जाता है और भागते दौड़ते रहने के लिए नई ऊर्जा मिल जाती है.. शायद इसी सोच को पोषित करने हेतु ओपिनियन पोल और एक्जिट पोल जैसे खेल बनाये गए होंगे. खेल इसलिए कहा क्यूंकि मुझे तो आजतक कोई नहीं मिला जिससे ओपिनियन ली गई हो या वोट डालकर निकलते वक्त किसे ने पूछा हो कि किसको लगा आये? शायद मेरा ही परिचय का दायरा छोटा हो मगर मेरी बातचीत का आधार तो वही हो सकता है.
जब हम बचपन में परीक्षा देकर घर लौटते तो अम्मा पूछा करती थी कि पेपर कैसा हुआ? हम वही रटा हुआ जबाब देते की १०० में १०० आना चाहिए, पूरा सही किये हैं. जितना वो हमें जानती थीं उतना ही हम उनको जानते थे तो घर लौटने के पहले तेज बच्चो से सारे प्रश्नों का उत्तर पता करके आते और पूछने पर सही वाला बता देते. इन सब खटकर्मों के पीछे मात्र इतनी मंशा होती कि काहे दो बार पिटना? जब रिजल्ट आएगा तब तो फुड़ाई होना ही है, आज तो इत्मिनान से खेलें और खुश हो लें. रिजल्ट आने पर कह देते थे कि मास्साब से ट्यूशन नहीं पढ़ी इसलिए गलत कॉपी जांच दी है, मानो न जीत पाने का आरोप इवीएम पर लगा रहे हों. मगर अम्मा सब समझती थीं. बाद में जब थोड़ा बड़े होने लगे तो हमारा १०० में से १०० का जबाब सुनकर अम्मा एक मुहावरा बोला करतीं:
नाऊ भाई नाऊ भाई कितने बाल..
सरकार दो घड़ी में आगे ही गिरेंगे.. 
मगर आज के ओपिनियन और एक्जिट पोलक नाऊ इतना सीधा और सच्चा कहाँ बोलते हैं? जब से नाऊ की दुकान पार्लर में बदली है, तब से नाऊ भी स्टाइलिस्ट कहलाने लगे हैं. ये वही कहते है जैसा ग्राहक सुनना चाहता है. पहले का नाऊ मोहल्ले भर के खूफिया किस्से सुनाता था और आज का नाऊ ग्राहक की पसंद के नए गानों की प्ले लिस्ट बजाता है. ओपिनियन और एक्जिट पोलक नाऊ को भी पता है कि बस नतीजे आने को ही हैं फिर भी एक अंतिम बार अपने आकाओं को खुश करने के लिए ही सही, उनकी पसंदीदा स्वरलहरी सूनाता है. बिहार में तो असली नतीजे आ जाने पर भी एक्जिट पोल के नतीजे सुना डाले थे.
वैसे इस तरह के पोल के नतीजों की खासियत यह रहती है कि ओपिनयन पोल में जो जीत रहा होता है वो पूरे विश्वास के साथ बताता है कि हम क्या बोलें, आप खुद ही देख लिजिये ओपिनियन पोल के नतीजे..यही जनता की मंशा है और जिसे ओपिनियन पोल हारा दिखा रहे होते हैं वो कल नतीजे आने तक रुकने की बात कहते हुए हमारी अम्मा के मुहावरे का पूर्ण भक्ति भाव से मुस्कराते हुए उच्चारण करता है:
नाऊ भाई नाऊ भाई कितने बाल..
सरकार दो घड़ी में आगे ही गिरेंगे... 

वह एकाएक मंझा हुआ चुनावी विश्लेषक बन जाता है और मय माह और तारीख के पुराने २० सालों के उन सारे ओपिनियन पोलों का ब्यौरा सामने रखने लग जाता है जिसमे ओपिनियन पोल उन्हें हारा दिखा रहे थे और बाद में असली नतीजों में वह जीत गए थे. तारीफी यह कि ब्यौरा देते वक्त वो उन चुनावों को गायब कर जाता है जिसमें ओपिनियन पोल सही साबित हुए थे. ओपिनियन और एक्जिट पोल के नतीज़ों पर यह बात भ्रष्टाचार की तरह ही दलगत राजनीत से ऊपर की है और सभी दल इसका अक्षरशः पालन करते हैं. 
दो घड़ी में असली नतीजे आ ही जाते है. जीते हुए सूरमाओं की जीत की ख़ुशी में बजते ढोल की आवाज में ओपिनियन पोल की आवाज गोल हो जाती है.  .. 
इसके बाद बस टीआरपी का जरिया बदल जाता है – नई सरकार और नया विपक्ष जो आ जाता है.
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर २९, २०१७ के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/23265848

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गुरुवार, अक्तूबर 26, 2017

हे प्रभु, अगले जन्म भी मोहे कचरा ही कीजो!!



किस्मत किस्मत की बात है. 
कहावत है कि किस्मत अच्छी हो तो बदसूरत लड़की भी राजरानी बन जाए और खराब हो तो खूबसूरती भी किसी काम न आये.
कचरों की किस्मत भी कुछ ऐसी ही है.
स्वच्छता अभियान के चलते हाल ऐसा हो लिया की कुछ कचरों को तो खोज कर बुलवाया गया कि आओ,  मंत्री जी के घर के सामने फैल जाओ  ताकि मंत्री जी तुमको साफ कर सकें. कुछ फोटो शोटो अखबार में छपवाए जायें. ये होती है राजरानी वाली किस्मत. मुहावरे बेवजह नहीं होते. मुहावरे और जुमले में यही मूल भेद है.
कल दिवाली बीत गई. सुबह गलियों में पटाखों के कचरे का अंबार है. कल शाम तक दिवाली की पुताई से लेकर सफाई में व्यस्त होने की अथक दुहाई देने वाले रात लक्ष्मी गणेश को पूज कर जब उनके आगमन के लिए निश्चिंत हो गए, तब रात के अँधेरे में पटाखे फोड़ कर गंदगी का ऐसा तांडव मचाया कि सफाई भी सोचने को मजबूर हो गई मानो किसी नेता को मुख्य अतिथि बनवा कर ससम्मान बुलवाया हो और मंच पर बैठाते ही उन पर पथराव करा दिया गया हो.
रात के अँधेरे में कचरा फैलाने वालों ने सुबह के उजाले में कचरे पर नाक भौं सिकोड़ी. कचरों की अपनी दुनिया रही . अपनी अपनी किस्मत के अनुरूप कोई कचरा इठलाया, किसी ने ख़ुशी जाहिर की, कोई दुखी हुआ की उस कचरे की किस्मत मुझ कचरे से बेहतर कैसे? तो किसी ने रोना रोया कि हाय!! ये कहाँ आ गए हम..यूं ही रात ढलते ढलते ..
उस मोहल्ले का कचरा बोला कि मुझे साफ करने तो केंद्रीय मंत्री जी आ रहे है. साथ में पूरे मीडिया का तामझाम होगा. पूरे देश विदेश में मुझे टीवी पर दिखाया जाएगा ..अखबारों के मुख्य पृष्ट पर छापा जाएगा. मंत्री जी मेरे साथ अपनी सेल्फी उतारेंगे. मेरा तो जीवन तर गया. पिछले जन्म में न जाने कौन सा पुण्य किया होगा..न जाने कितने गौर पूजे होंगे जो यह किस्मत पाई. प्रभु से बस एक ही निवेदन है कि हे प्रभु, अगले जन्म भी मोहे कचरा ही कीजो!! कहते कहते कचरे की आँखों में ख़ुशी के आंसू आ गए.
दूसरे एक और मोहल्ले का कचरा भी आत्ममुग्ध सा बैठा था कि विधायक महोदय ऐसे ही तामझाम के साथ उसे नवाजने आ रहे हैं.  हवा उडा कर किनारे ले भी जाए तो पार्टी के कार्यकर्ता वापस लाकर करीने से मुख्य मार्ग पर उसे सजा कर विधायक मोहदय के इंतजार में नारे लगाने लगें.बैनर पोस्टर सजाये गए. याने की कचरे के दिन बहुरे वाली बात एकदम  सच्ची मुच्ची वाली हो गई.  आज उसे भी अपने कचरा होने पर गर्व था. 
फिर एक मोहल्ला ऐसा भी था जहाँ से विपक्षी दल के विधायक जीते थे. वहां तो खैर आमजन की हालत भी कचरा हो चुकी है, तो कचरे की कौन कहें. कुछ कचरा तो हवा उड़ा ले गई. कुछ जूते चप्पलों में चिपक कर तितर बितर हो गए. बाकी पड़े पड़े नगर निगम के भंगी की बाट जोह रहे हैं कि कभी तो हमारी सुध लेंगे. उनकी किस्मत बदलने की भी अजब सूरत है कि या तो विधायक बदले या सरकार बदले तो वो बदले. वैसे एक सूरत और भी है कि विधायक अपना दल ही बदल ले. सोचना चाहिए इस बारे में विधायक महोदय को आखिर कितने कचरों की किस्मत का फैसला इससे जुड़ा है. 
सुना है विपक्षी से पक्षी बनते ही उनमें सुरखाब के पर लगा दिये जाते हैं जो कितने ही कचरों को अपने साथ उड़ा ले जाते हैं. 
-समीर लाल ‘समीर’

पल पल इण्डिया में अक्टूबर२७, २०१७ को प्रकाशित


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बुधवार, अक्तूबर 25, 2017

चिन्तक

साहित्यकारों में कोई कहानीकार होता है, कोई व्यंग्यकार होता है, कोई गीतकार होता है. माननीय स्वयं को चिन्तक बताते हैं. लोग भूलवश उनका परिचय मात्र साहित्यकार के रूप में दे देते हैं तो वह स्वयं माइक पर जाकर भूलसुधार करवाते कि बताइये सबको कि मैं मूलतः चिन्तक हूँ एवं यही मेरी साहित्य साधना का मूल है. चिन्तन करते करते वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लोगों में साहित्यिक चेतना विकसित करना उनके अन्य चिन्तन कार्यों में व्यवधान डाल रहा है अतः उन्होंने अपना तखल्लुस ही चिन्तक रख लिया. राधे श्याम तिवारी ‘चिन्तक’.
चिन्तक हैं तो विभिन्न विषयों पर चिंता स्वाभाविक है. आज उनसे जब उनकी चिंता का विषय जानना चाहा तो बड़ी मुश्किल से खुले. कहने लगे यार, कमाने की तो इच्छा ही मर गई. लिखने से मन हट गया. मैंने उनसे कहा कि माननीय आप तो हिंदी के साहित्यकार हैं. आपकी कमाने की इच्छा और लेखन दो दीगर विषय हैं. इन्हें एक साथ जोड़ कर क्यूँ चिंतित होते हैं? आप अपना लेखन जारी रखें और जहाँ तक कमाई की इच्छा है वो तो पेट अपने आप उसे जगवा देगा. आप ट्यूशन पढ़ा कर काम भर का कमा लेते हैं, काहे चिंतित होते हैं?
कहने लगे तुम नहीं समझोगे. विचार यूँ था की ये ट्यूशन वगैरह का झंझट कुछ दिनों में छोड़ कर पूर्णकालिक लेखक हो जायें. फिर लेखन की कमाई से ख़ुशी ख़ुशी जीवनयापन करें और विश्व भ्रमण कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चिन्तन किया जाए.
मुझे ज्ञात है कि चिन्तक महोदय मदिरापान या अन्य किसी नशाखोरी में लिप्त नहीं हैं फिर इस तरह की बहकी बहकी बातें? हिंदी लेखन और कमाई? मानो की राजनीतिज्ञ और ईमानदार? बहुत मुश्किल से हंसी रोक पाया और मैंने जानना चाहा कि कहीं आप चिन्तक के बदले व्यंग्यकार तो नहीं बनने की कोशिश कर रहे हैं?
कहने लगे ‘मरा हाथी भी तो सवा लाख का’..इतना थोड़ी गिर जाऊँगा. चिंता ये नहीं है कि कमाई कैसे होगी- चिंता यह है कि २८% जीएसटी और फिर इनकम टैक्स भरने के पैसे कहाँ से आवेंगे?
मैंने उन्हें समझाया कि हिंदी लेखन में कमाई है कहाँ, जो आप टैक्स की चिंता कर रहे हो?
उन्होंने समझाया कि देख भई, यूं तो न किसी के पास समय की कमी है और न देश में ट्रैक के हालात ऐसे है, फिर भी साहेब बुलेट ट्रेन की चिंता कर ही रहे न ताकि लोगों का समय बचाया जा सके?
इस तर्क पर भला मैं क्या कहता?
नमन कर वापस चला आया.

-समीर लाल ‘समीर’

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शनिवार, अक्तूबर 21, 2017

भाईचारे के ब्रांड एम्बेसडर

आज ज्ञान पान भंडार पर घंसू सुबह सुबह बड़ी चिंताजनक मुद्रा में बैठे थे. दुकान के बाहर लगा बोर्ड ‘कृपया यहाँ ज्ञान न बांटे, यहाँ सभी ज्ञानी हैं’ तो मानो सरकारी दफ्तर में लगी गांधी जी की तस्वीर हो जो कहने को तो ईमानदारी और सच्ची लगन से देश सेवा का प्रतीक है मगर इसके ठीक उलटे अर्थ ऐसा माना जाता है कि यहाँ बिना भेंट चढ़ाये कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं होगा. ‘ज्ञान पान भंडार‘ पर भी इसी बोर्ड के चलते दिन भर ज्ञान सरिता बहती रहती है.
किसी ने एकाएक घंसू से उनकी चिंता का कारण पूछ लिया. अंधा क्या चाहे दो आँखे. घंसू तो बैठे ही इसी इंतज़ार में थे कि कोई पूछे तो वो शुरू हों.
अरे, ये प्रदुषण भी न..९०० का सूचकांक पार गया है और लोग पटाखा फोड़ने से बाज नहीं आ रहे हैं. हालाँकि होता तो ३००-४०० भी खतरनाक है मगर चलो, उत्ते की तो आदत हो गई है, तो हम चुप लगा जाते हैं मगर ९०० ..न भाई!! इससे तो बेहतर है कि चिलम पी कर मरें, कम से कम आनंद तो आये और लगे हाथों शिव भक्ति भी हो लेगी. सारे गंजेड़ी जब चिलम खींचते हैं तब बम बम तो ऐसा बोलते हैं की मानो उनसे बड़ा शिव भक्त तो कोई और हो ही न. साथ ही उनको देख कर ऐसा लगता है कि देश में भाईचारे की भावना को विस्तार देने के लिए उनसे बेहतर ब्रांड एम्बेसडर तो अमिताभ बच्चन भी नहीं हो सकते. बम बम के जयकारे के साथ गोले में बैठे अगले बन्दे को इतने प्यार से चिलम बढ़ाते है कि आदत न भी तो भी भाई चारे का मान रखने के लिए बन्दा दम लगा ले.
खैर, चिन्तन प्रदुषण पर था. भूकंप, प्रदुषण, साइक्लोन आदि विपदाओं की दुश्वारियों से ज्यादा एक खूबी यह रहती है कि वो अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति को भी अपने विषय का महाज्ञाता बंना जाती है. रिक्शा चलाने वाला बंदा जिसका जीरो बैलेंस खाता आजतक ऑपरेट ही इसलिए नहीं हुआ है क्युकि उसे दस्तखत करना भी नहीं आता वो भी प्रदुषण सूचकांक के आंकलन से लेकर भूकंप के मेगनीटयूड की बात करने लग जाता है. ऐसा अतिशय ज्ञान का विस्तार देखकर कई बार लगने लगता है कि समय समय पर ऐसी विपदाओं को आते रहना चाहिये. ज्ञान बना रहेगा.
वैसे तो ईवीएम की धांधली से प्राप्त ज्ञान वीवीपीएटी (वोट वैरिफिकेशन पेपर ऑडिट ट्रेल) मशीन और नोटबंदी एवं  जीएसटी की कोख से गली गली में पैदा हुए  कुकुरमुत्ता अर्थशास्त्री भी इन कदमों को विपदाओं की श्रेणी में ले आते हैं. वैसे गहराई से सोचो तो है भी यह विपदाएं ही.
सोच उठती है कि इस ९०० सूचकांक वाले प्रदुषण के उपाय तो फिर भी निकल आयेंगे. ओड इवन फेल हो गया तो क्या, शोध करने कुछ मंत्री विदेश जाकर कुछ और रास्ते खोज ही लेंगे. न जाने क्यूँ देश की विकट समस्याओं के रास्ते विदेश में निकलते हैं? इस बार पटाखे की बिक्री पर रोक लगी है, अगली बार फोड़ने पर लगेगी. फिर उसके अगली बार सिर्फ बाबा के प्रदुषणरहित हवन सामग्री वाला धुंआ छोड़ने वाले पटाखे चलाने की अनुमति मिलेगी. तुम भी खुश, हम भी खुश, बाबा भी खुश. आज का लगाया प्रतिबंध का पत्थर कल के एक प्रदुषणरहित हवन सामग्री वाले धुंए के जगमगाते महल का शिलान्यास है.
मगर असली चिंता का विषय है दिमागी प्रदुषण जो एक सोची समझी साजिश के तहत समुदायों को विभाजित करने के लिए फैलाया जा रहा है. इस प्रदूषण का निवारण फिर न तो भाईचारे के ब्रांड एम्बेसडरों की चिलम खींचती बम बम की आवाजें कर पायेंगी और न ही हवन सामग्री का धुंआ छोड़ने वाले पटाखे और न ही कोई अदालाती फरमान.
वक्त रहते अगर इस मानसिक प्रदुषण के विस्तार को न रोका गया तो वह दिन दूर नहीं जब प्रदुषित मानसिकता ऐसा जीना दुभर कर देगी कि उसके सामने यह ९०० पार का वायु प्रदुषण सूचकांक भी जन्नत सा नजर आयेगा.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर २२, २०१७ के अंक में:



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सोमवार, अक्तूबर 16, 2017

यह विकट घेरा बंदी का काल है


आज कहीं अखबार की कटिंग पढ़ी कि अब सोशल मीडिया पर शेखी बघारना मँहगा पड़ेगा. अव्वल तो बात खुद से जुड़ी लगी अतः थोड़ी घबराहट स्वभाविक थी. शेखी तो क्या हम तो पूरे शेख बने फिरते हैं सोशल मीडिया पर. अपनी शेखी भी ऐसी वैसी नहीं, कभी खुद को गालिब तो कभी खुद को बुद्ध घोषित कर जाना तो आम सी बात है.
मगर तभी ख्याल आया कि इसमें महँगा पड़ने जैसी क्या बात है? फ्री है तभी तो सारे लोग जुटे पड़े हैं. प्रति शब्द १० पैसे भी लगा दे फेस बुक या व्हाट्स अप, तो गारंटी है कि ९५% फेसबुकिया कवि कविता लिखना छोड़ देंगे वे तो लिखते ही हैं इसलिए कि फ्री की जगह मिली है, कुछ २० शब्दों की धज्जियाँ उड़ाईं और उसे कविता कह कर छाप डाला. बकिया भी फ्री विचर रहे हैं. मित्र ने छापा है तो लाईक कर ही दिया जाये.
ये वो भीड़ है जिसे थूकदान देखकर ख्याल आता है कि चलो थूक लिया जाये.
फिर आज का माहौल देखकर एकाएक ख्याल आया कि कहीं सोशल मीडिया पर डाली पोस्ट पर भी तो जीएसटी नहीं लगा दिया. क्या भरोसा है इनका? कहते हैं जिस आदमी को चूहा पकड़ने का शौक लग जाये वो जब चूहेदानी लगाता है तब घर में छोटी से छोटी नाली का छेद भी खुला नहीं छोड़ता.
पूरा समाचार पढ़ा तो पता चला कि ये जो फेसबुकिये सबको चिढ़ाने के लिए पोस्ट लगाते हैं..फीलिंग कूल..फ्लाईंग फ्राम नई दिल्ली टू ज्यूरिख..स्विटजरलैण्ड इज कालिंग..जैसे इनमें ही भर सुरखाब के पंख लगे हैं जो इनको बुला रहा है स्विटरजरलैंड..हमें तो भोपाल भी काल नहीं करता. दूसरे चढ़ायेंगे..जस्ट चैक्ड ईन..पार्क हयात गोवा रिसार्ट एण्ड स्पा..टाईम टू रिलेक्स एण्ड हेव फन.ऐसे सारे स्टेटस को पकड कर उनके आयकर में दाखिल रिटर्न से मिलान किया जायेगा और टैक्स लगाया जायेगा. इस हेतु पूरा ठेका ६५० करोड़ में एल एण्ड टी इन्फोटेक को दे दिया गया है.
मने अब किसी को चिढ़ाने पर भी टैक्स. एक यही तो सुकून था कि चलो कहीं जा पाने लायक तो कमाई रह नहीं गई है व्यापार में- कम से कम फेसबुक और व्हाट्सएप से ही चिढ़ा लेंगे पडोसियों को..वो सुख भी जाता रहा.
इनकी स्कीमें देखकर तो लगता है कि जो शोचालय बना रहे हैं कहीं उसी के पीछे लैब में ये न टेस्ट कराने लगे कि बंदे ने कल क्या खाया था और उस पर जीएसटी भरा था कि नहीं.
यह विकट घेरा बंदी का काल है.
-समीर लाल समीर


पल पल इंडिया में प्रकाशित

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शनिवार, अक्तूबर 14, 2017

बारात में चलाये जाने वाले पटाखे क्यूँ नहीं नुकसान पहुँचाते?

मास्साब कक्षा चौथी के बच्चों को पढ़ा रहे हैं. दीवाली असत्य पर सत्य की विजय का त्यौहार है. दीवाली पर खूब साफ सफाई कर दीपक जलाये जाते हैं. रोशनी की झालर लगा कर अंधेरे को भगाया जाता है. दीवाली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है. दीवाली पर लक्ष्मी गणेश की पूजा की  जाती है ताकि धन धान्य की कोई कमी न हो. दीवाली बहुत से व्यापारियों के हिसाब किताब का समय भी है. दीवाली पर मिठाई खाई जाती है. नये कपड़े पहने जाते हैं. पटाखे चलाये जाते हैं...
पटाखे क्यूँ चलाये जाते हैं? राजू पूछ रहा है.
क्यूँकि पटाखे चलाने से रोशनी होती है और धमाके की आवाज होती है जिससे डर कर बुरी बलायें आपके जीवन से भाग जाती हैं और पटाखे के धुँए से मच्छर मख्खी कीड़े मकोड़े आदि भी भाग जाते हैं और सिर्फ खुशहाली खुशहाली ही रह जाती है...मास्साब ने बताया.
तो क्या खुशहाली को पटाखों की आवाज और धुँए से डर नहीं लगता?
नहीं जैसे सत्य किसी से नहीं डरता वैसे ही खुशहाली भी किसी से नहीं डरती.
फिर दिल्ली में पटाखों पर बैन क्यूँ लगा दिया है? राजू ने जानना चाहा.
वो तो प्रदुषण के कारण लगाना पड़ा क्यूँकि दिल्ली में गाड़ियों और पड़ोसी राज्यों की तरफ खेतों के कचरे के जलाये जाने से आते धुँए से वैसे ही बहुत प्रदुषण है, इसलिए अगर उसी में पटाखे भी फोड़े जायेंगे तो प्रदुषण और बढ़ जायेगा. समझा करो..
मगर दीवाली तो एक ही दिन की है. बाकी जो धुँए साल भर होते हैं, उस पर क्यूं नहीं रोक लगाई जाती?
उसके उपाय भी खोजे जा रहे हैं. ऑड ईवन का फार्मुला भी लाया गया था मगर भाईचारे की कमी के कारण कामयाब न हो पाया. अब कुछ नया देखा जायेगा..वो तो सेन्सेशन का सियासी मामला है ..लगातार चलता रहेगा.
वैसे अगर धुँए से कीड़े मकोड़े और मच्छर मख्खी भाग जाते हैं तो फिर दिल्ली में इतने धुँएं के बाद भी डेंगू के मच्छर क्यूँ हैं? क्या यह भी खुशहाली की निशानी है? यह क्यूँ नहीं भागते?
वो बात अलग है..दीवाली पर एकाएक पटाखों से खूब सारा धुँआ और आवाजे हो जाती हैं इसलिए मना किया गया है...कह कर मास्साब ने टालने की कोशिश की.
राजू कलयुग के भी सबसे भीषण युग, इन्टरनेट एवं मीडिया युग का बच्चा है. वह अति जिज्ञासु है.
तब क्या यह शादी बारात, क्रिकेट मैच और चुनाव जीतने वाले जलूसों में भी बैन किया जायेगा?
नहीं नहीं,सिर्फ दिवाली के लिए है. क्रिकेट, शादी, नेतागिरी तो दिल्ली के प्रदुषण की तरह सदा होना है सब धर्म जाति के लोग उसमें शामिल रहते हैं.
राजू कन्फ्यूज है कि जो पटाखा दीवाली के दिन फूटने पर नुकसानदायी है वो नेता के चुनाव, क्रिकेट  जीतने पर या शादी की बारात में क्यूँ नहीं नुकसान पहुँचाता?
अगर मास्साब उसे दीवाली की सफाई से जोड़ कर समझाते तो शायद वो फिर भी समझ जाता.चाहते तो भारत के स्वच्छता अभियान से जोड़ कर भी बात कर सकते थे कि पटाखों से गंदगी फैलती है, कूड़ा मचता है जो दीवाली के मेन्डेट के खिलाफ है. शायद कोई सरकारी अवार्ड भी पा जाते मास्साब ऐसे समर्थन पर.
वैसे राजू अब गहराई से सोच रहा है दीवाली और चुनाव जीतने वाले जलूस के बारे में तो उसे लग रहा है वाकई अन्य शहरों से चुनाव जीत कर पटाखों की आवाज और धुँए से शहर छोड़ आई बलायें  जो दिल्ली की संसद में विराजमान है और उन पटाखों के धुँए से शहर छोड़ कर दिल्ली में आ ठहरे भक्त रुपी मच्छर मख्खी ..उनके बारे में सोचना भी जरुरी है.
ऐसे में अगर दिल्ली में भी पटाखे छोड़े जाने लगे तो यह कहाँ जायेंगे?
बलाओं और मच्छर मक्खियों को भी तो रहने के लिए कोई न कोई ठिकाना चाहिये.
शायद दिल्ली में पटाखों पर बैन ही एक मात्र उपाय है!!
-समीर लाल समीर
भोपाल के सुबह सवेरे में  अक्टूबर १५, २०१७ को प्रकाशित:

http://epaper.subahsavere.news/c/22931075

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रविवार, अक्तूबर 08, 2017

टीआरपी (TRP) के बदले आरआईपी (RIP)

अगर कोई सुन्दर बाला आपसे कहे कि वो २०-२० के क्रिकेट मैच में हिस्सा लेकर लौट रही है, तो सीधा दिमाग में कौंधता है कि चीयर बाला होगी. किसी के दिमाग में यह नहीं आता कि हो सकता है वो महिला लीग का २०-२० खेल कर लौट रही हो. वही हाल हमारा होता है जब शाम को हमारे घर लौटते हुए रास्ते में कोई मिल जाये और उसे हम बतायें कि जिम से लौट रहे हैं. सब समझते हैं कि जिम का ऑडिट करके आ रहे होंगे या जिम में एकाऊन्टेन्ट होंगे. सी ए होने के यह लोचे तो हैं ही. कोई यह सोच ही नहीं पाता कि बंदा कसरत करके लौट रहा है. कई मारवाड़ी मित्र सोचते हैं कि बोलने में मात्रा गलत लगा दी होगी तो पूछते हैं कि कहाँ से जीम के लौट रहे हो? उनको लगता है कि किसी दावत से जीम (खा) कर लौट रहे हैं.
अतः हमने भी अब यह सोच कर बताना ही बंद कर दिया है कि बाद में तब बतायेंगे जब करनी और कथनी एक सी दिखने लगेगी. वरना हमारी हालत भी सरकार वाली हो जायेगी कि जो कुछ भी करेगी, यही कहेगी कि भ्रष्टाचार मिटा रहे हैं और मिटता विटता कुछ नहींहालांकि हम वजन के जिस मुकाम से लौट कर आज जिस मुकाम पर खड़े हैं, इस मुकाम तक आने के भी पहले ही जो बंदे लौट लिए वो देश भर में फिटनेस गुरु से बने फिटनेस के मंत्र बांटते नहीं थक रहे. ऐसा मानो कि कोई एवरेस्ट के बेस कैम्प नेपाल तक जाकर लौट आया हो दिल्ली वापस और देश भर को पर्वतारोहण के तरीके और गुर सिखा रहा हो और मीडिया उसके इर्द गिर्द लट्टू सी नाच रही हो. एक हम हैं कि एवरेस्ट पर झंडा गाड़ कर अभी वापस उतर ही रहे हैं और किसी को दिल्ली में कानों कान खबर तक नहीं है.
मीडिया भी एवरेस्ट पर चढ़कर कवरेज लेने से तो रही और सनसनीखेज की तलाश भी अनवरत बनी हुई है तो ऐसे ही लोग बच रहते हैं जो बेस कैम्प से लौट कर पर्वतारोहण के नुस्खे बांट रहे हों और पत्रकार उनसे पूछ रहे हों कि आप युवाओं को पर्वतारोहण के लिए क्या टिप देना चाहेंगे? और टिप के नाम पर बंदे गुरु मंत्रों का उच्चारण शुरु कर देते हैं.
वक्त वक्त की बात है. एक दिन हम भी एवरेस्ट से उतर कर जब दिल्ली पहुँचेंगे तो तहलका मचायेंगे, ऐसा विचार है मगर तब तक मीडिया ऐसे छद्म पर्वतारोहियों से इन्टरव्यू ले लेकर पर्वतारोहण का ही क्रेज  खत्म कर डालेगी तो हमारी सुनेगा कौन?
ये वैसे ही है जैसे कि बच्चे आज भी बोरवेल में गिरते हैं मगर कोई खबर नहीं लेता. सब मीडिया की अति का कमाल है. एक दिन ऐसा भी आयेगा कि जब मर्डर, रेप, रेल दुर्घटानायें, भ्रष्टाचार, बाबों का सियासत के मिल कर रचा जा रहा सामराज्य एवं तांडव, सिस्टम की कार गुजारियाँ आदि सब बच्चे के बोरवेल में गिरने जैसा ही बिना कान पाया हादसा बन कर रह जायेगा.
सजग होना होगा मीडिया को कि दिल्ली की गोदी से उतर कर हिमालय की वादी तक पहुँचे पर्वतारोहण की खबर जुटाने के लिए. खबर की तह तक जाये. खबर सुनाने पर ध्यान लगाये बजाय खबर बनाने के..उसे फरक करना होगा खबर और सनसनीखेज चमकदार वारदात के बीच...वरना शायद एक रोज टीआरपी (TRP) देने वाले ही न मूँह मोड़ कर आरआईपी (RIP) देने लग जायें....तब हाथ मलने के सिवाय कुछ न बच रहेगा..
याद रहे सोशल मीडिया नित जिम जा जा कर मजबूत हुआ जा रहा है.
-समीर लाल समीर
भोपाल के सुबह सवेरे में आज सोमवार अक्टूबर ९, २०१७ प्रकाशित:

http://epaper.subahsavere.news/c/22756350

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