उधर मुम्बई में बम धमाके हो चले. लोग मर रहे थे, सुरक्षाकर्मी मुस्तैदी के साथ जुटे थे. मंत्रीगण बयानबाजी में व्यस्त थे. गृहमंत्री, हमला रुके तो बयान दें, इस हेतु नया सूट पहन कर कंघी करते चले जा रहे थे मगर हमला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.
मुख्य मुम्बई के समस्त दफ्तर बंद कर दिये गये थे अतः छुट्टी थी और शर्मा जी इसलिये मय परिवार पिकनिक मनाने खंडाला चले गये.
मौसम गुलाबी है और अखबार लाल!!
आपसी मित्र सक्सेना जी ने शर्मा जी को फोन लगाया. मुम्बई धमाकों पर अपना क्रोध, घुटन और सरकार की अक्षमता की लानत मलानत की. विमर्श चला कि कौन लोग हो सकते हैं इस हमले के पीछे. पड़ोसी देश का नाम भी उठा मगर फिर आज के अखबार की खबर को देखते हुए उस पर इल्जाम लगाना ठीक सा नहीं प्रतीत हुआ. खामखां क्यूँ शक करना? अरे, हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है.
अखबार कहता है कि यह देश पर राहू की वक्र दृष्टि की वजह से है जो कि चन्द्र पर पड़ रही है अतः ये तो होना ही था. तब किसे दोष दें. चन्द्रयान तक भेज दिया मगर राहू की हिम्मत देखो कि फिर भी वक्र दृष्टि डालता है. सरकार तो मगर फिर भी गलत कहलाई क्योंकि ज्योतिष और भविष्यवक्ता तो उनके पास भी हैं. पास तो क्या, सभी तो वो सारे भविष्यवक्ता ही हैं. वर्तमान और भूतकाल की कहाँ बात करते हैं? फिर कैसे नहीं जान पाये ये प्रकांड भविष्यवक्ता सारे..
सक्सेना जी ने अपने पिकनिक पर चले आने के प्रयोजन को सार्थक बताते हुए कहा कि ऐसी ही सरकारें उन्हें पसंद नहीं आती इसलिए वो कभी भी वोट नहीं देते.
शर्मा जी ने भी सरकार और उसके सूचना तंत्र को निष्क्रिय और विफल बताते हुए आगे से कभी वोट न देने की लगभग कसम खाते हुए मारे जा रहे लोगों के प्रति अपनी गहरी संवेदनाऐं व्यक्त की और इस बात पर हर्ष भी उनमें से उनकी पहचान वाला कोई नहीं था.
दोनों दोस्तों ने फिर इस सदमे से उबरने के लिए फोन पर ही चियर्स किया और अपने अपने कमरे में सुरापान करते हुए सारे गम गलत किए.परिवार के साथ समय बीता.
अब दोनों अपने अपने शहर में फ्रेश हैं नये सिरे से काम पर लौटने के लिए.
सरकार भी चेहरे बदलने और लोगों का ध्यान बंटाने में मगन हो गई है.
रिमोट वही है .. जनता भी वही है.
निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?
नोट:
आज सुशान्त दुबे ’बवाल’ यह शेर याद आता है:
बवाल मच रहा है, भड़की हैं सब दिशाएँ !
मुक्काबला है इस पे, के कितना लहू बहाएं ?
गुरुवार, नवंबर 27, 2008
कहते हो तो रो लेते हैं!!!
----------------
हम
हल्ला करने को शायर हैं..
तुम खेल सियासी चालों का
हम इक टुकड़ा हैं खालों का...
मारो कि हम हैं सहने को
अब बचा नहीं कुछ कहने को...
क्या शोक जताना काफी है
क्यूँ अब भी जगना बाकी है...
-समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस वक्त
मैं शोक व्यक्त करुँ या
शहीदों को सलाम करुँ या
खुद पर ही इल्जाम धरुँ....
-शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जब आप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितने ही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं..बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर से अब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा.
----------क्या यही ????????????????? बाकी तो कुछ भी जोड़ लो....वाक्य सार्थक ही बनेगा.
आज खुद अपनी परछाई से
घबरा गया हूँ.......
लगे है कि तेरे
दामन में आ गया हूँ....................
-----------विशेष टीप:
आज क्षुब्द मन ने किसी भी ब्लॉग पर टीप करना उचित न समझा...अतः उम्मीद है आप समझेंगे.
सोमवार, नवंबर 24, 2008
तुम तो बस नारे लगाओ!!
वाशिंग्टन से वापस टोरंटो आना था. सुबह नाश्ता किया, जरा हेवी सा हो गया तो लंच गायब कर दिया. सोचा, एयरपोर्ट पर कुछ बर्गर वगैरह खा लूँगा फिर रात घर पहूँच कर तो खाना ही है.
४ बजे जहाज..घर से १५ मिनट की दूरी पर एयरपोर्ट. एक घंटे पहले चेक इन. अतः घर से २.३० बजे घर से निकल लिए. रास्ते में ट्रेफिक. एयरपोर्ट पहूँचते ३.२० हो गया. भागते भागते बोर्डिंग गेट पर पहूँचे. बोर्डिंग एनाउन्समेन्ट चल रह था. जल्दी से चेक ईन किया और घुस लिए जहाज में. वाशिंग्टन से ऑटवा. १ घंटे ४५ मिनट की फ्लाईट. फिर वहाँ २ घंटे रुक कर १ घंटे की टोरंटो की.
हवाई जहाज ऐसा कि मानो दवा वाली केपसूल. बीच में गली और दोनों तरफ दो दो सीटें. कुल मिला कर ३६-४० सीटें और बैठने वाले २५-२६ लोग. हमें लास्ट के कोने में सीट मिली बाथरुम के सामने. छोटा हवाई जहाज तो छोटी छोटी सीटें. हम बैठ गये तो जिसे हमारे बाजू में सीट मिली थी, वो आया और हमें देख और बची जगह का अनुमान लगा लगभग घूरता सा दूसरी खाली सीट पर जा बैठा. हम भी पूरा पसर लिये और खींच तान कर सीट पेटी बाँध ली. फैजाबाद से गौंडा तो जा नहीं रहे कोई जीप में बैठकर कि आधा बाहर टंग कर बैठ लें.
बहुत ही खराब मूँह बनाया था उसने दो छोटी छोटी सीटों में हमें एडजस्ट होता देख कर, मानो उसका दिया खा रहे हों. मन तो किया कि उठ के दो चमाट रसीद कर दें कि एक तो तेरे पास खाने को कुछ है नहीं. मरसिड्डा सा धरा है और हमारी सेहत पर नजर लगाता है. अरे खुद कमाते हैं और खाते हैं, तुझे क्या.
बचपन से हमारी अम्मा से सब हमारी तारीफ करते थे कि कितना तंदरुस्त बच्चा है. अम्मा फूली न समाती और तू नजर लगाता है. अम्मा हमें ठिठोना लगा देती थी काजल का कि किसी की नजर न लग जाये.
बस, अम्मा कि याद हो आई. न जाने कहाँ होगी, कौन दुनिया में. याद भी करती होगी कि नहीं. क्या पता? बस, उसी याद में मन किया और जेब से काली स्याही वाला डॉट पेन निकाल कर कान के पास एक ठो ठिठोना बैठा लिए खुद ही से. बुरी नजर से बचे रहें.
अब भगवान का दिया ऐसा रंग कि कोई जान ही न पाये कि ठिठोना लगाये बैठे हैं और काम भी बन गया कि बुरी नजर से बचे. ईश्वर का बड़ा धन्यवाद किए. ऐसे भाग सबके कहाँ?
ठिठोने ने रक्षा की, तबीयत खराब होने से बच गये. उस मूरख का वो खुद जाने हमें क्या. हम तो हवाई जहाज उड़ने के इन्तजार में लग गये.
हवाई जहाज रन वे पर आकर लाईन में लग लिया. देखते देखते घंटा गुजर गया मगर हवाई जहाज लाईन में ही लगा रहा. बहुत मुश्किल से जहाज उड़ा और चल पड़ा ऑटवा की तरफ मूँह उठाये, अमरीका की राजधानी से कनाडा की राजधानी के लिए.
हम भूखाये परिचारिका के खाना लाने का इन्तजार करने लगे हालांकि खरीद कर खाना था मगर भूख से अंतडियां टेढ़ी हुई जा रही थी. हम आखिरी सीट पर. जब तक हम तक वो पहूँची उसके पास सिर्फ ३ बीफ सेंडविच बचे. हालांकि चढ़े ५ वेजेटेरियन, दो चिकिन और बाकी बीफ के थे. मगर कुछ ईश्वर कृपा से और कुछ इन भड़काऊ लोगों के बयानों से जो दिन रात चिल्लाते रहते है कि शाकाहारी खाओ, स्वर्ग पाओ. शाकाहार से वास्ता...स्वर्ग का रास्ता.७ शाकाहारी और चिकिन खाने वाले मिल गये न हमारे पहले ही २६ लोगों की मात्र जनसंख्या में. अब हम क्या खायें??
हम ठहरे शुद्ध हिन्दु-भूखे मर जायें मगर बीफ, जानते बूझते तो न ही खा पायेंगे, भले चिकन खा लें..खा क्या लें, खा ही लेते हैं मगर बीफ..न जी न!! ऐसा नहीं कि स्वाद बुरा होता है. एक बार चिकिन के झटके में खा लिया था. लगा तो बड़ा टेस्टी था, दूसरा लेने गये तब पता चला कि बीफ है. तो अब गंगाजल तो यहाँ मिलने से रहा. बीयर से मुखशुद्धि की और सकॉच से अँतड़ियाँ. तब जाकर बैचेन दिल को करार आया और फिर चिकन खाया तो पेट को कुछ बेहतर लगा था..
भूख ऐसी लगी थी मगर मना कर दिये कि मोहतमा, बीफ तो न खा पायेंगे. एक गिलास पानी ही दे दो, कुछ तो जाये पेट में.
इतना गुस्सा आ रहा था इन शाकाहारी जलूसियों के उपर..और नारे लगा लो. बनवा दिये न ५ ठो यहाँ पर भी. अब हम क्या खायें..बोलो. ला कर दो खाना हवा में. हल्ला बस मचवा लो तुमसे, इन्तजाम करने बोल दो तो कहाँ से आओगे हवा में..बताओ.
ये हाल तो हुआ तब, जब मात्र २६ लोग थे. अगर पूरी दुनिया तुम्हारे बहकावे में आ गई तो एक दिन सब मरेंगे ऐसे ही हमारी तरह भूखे. अरे भाई, ईकोलॉजिकल बैलेंस ठीक रखने के लिए जहाँ कुछ शाकाहारी आवश्यक है, वहीं मांसाहारी भी. ऐसे ही चलती है दुनिया, काहे हल्ला मचाते हो बिना सोचे समझे. वो तो हमारे जैसा ही शरीर है जो झेल गये वरना तो तुम्हारे चक्कर में वाकई स्वर्ग की प्राप्ति हो लेती आज तो.
उस पर से छोटा सा हवाई जहाज. हिचकोले लेते ऐसे चल रहा है जैसे बिना मध्य प्रदेश की रोड याद दिलाये आज मानेगा नहीं. एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि सब पेटी बाँध लें, सामने तूफान आ रहा है. ये लो, हम तो समझ रहे थे कि हिचकोले तूफान के कारण है मगर वो तो अभी आ रहा है, अब तो भगवान ही मालिक है.
आँख बंद करके लगे पूजा करने कि प्रभु, बचवा लियो आज. कहीं जहाज गिर विर पड़ा तो ये हवाई जहाज वाले तो कम से कम हमारे केस में मेडीकल रिपोर्ट से सिद्ध कर ही लेंगे कि भूख से मरा है, हावई जहाज गिरने से नहीं. अतः घर वालों को नो मुआवजा.
मुआवजे की तो छोड़ो, वजन की वजह से कहो मरणोपरांत आक्षेप लगा दें कि इनके वजन के कारण गिरा है जहाज, अतः घर वाले जुर्माना भरें. अमरीका है भई!! अपने फायदे के लिए जब सद्दाम को चूहे के बिल से पकड़ा दिखा सकता है तो हमारी क्या बिसात.
बस ऑटवा पहूँच ही गये जैसे तैसे. लेट हो गये तो ऑटवा में भी भागते ही अगला हवाई जहाज पकड़े. फ्लाईट कम समय की होने के कारण-नो फूड. जय हो!!
बस, किसी तरह भगवान से मनाते भूखे प्यासे सिंगल पीस घर पहूँचे तो आपसे मुखातिब हो पा रहे है वरना तो उड़न तश्तरी फुस्स्स्स्स्स्स होने में कोई कसर न थी.
४ बजे जहाज..घर से १५ मिनट की दूरी पर एयरपोर्ट. एक घंटे पहले चेक इन. अतः घर से २.३० बजे घर से निकल लिए. रास्ते में ट्रेफिक. एयरपोर्ट पहूँचते ३.२० हो गया. भागते भागते बोर्डिंग गेट पर पहूँचे. बोर्डिंग एनाउन्समेन्ट चल रह था. जल्दी से चेक ईन किया और घुस लिए जहाज में. वाशिंग्टन से ऑटवा. १ घंटे ४५ मिनट की फ्लाईट. फिर वहाँ २ घंटे रुक कर १ घंटे की टोरंटो की.
हवाई जहाज ऐसा कि मानो दवा वाली केपसूल. बीच में गली और दोनों तरफ दो दो सीटें. कुल मिला कर ३६-४० सीटें और बैठने वाले २५-२६ लोग. हमें लास्ट के कोने में सीट मिली बाथरुम के सामने. छोटा हवाई जहाज तो छोटी छोटी सीटें. हम बैठ गये तो जिसे हमारे बाजू में सीट मिली थी, वो आया और हमें देख और बची जगह का अनुमान लगा लगभग घूरता सा दूसरी खाली सीट पर जा बैठा. हम भी पूरा पसर लिये और खींच तान कर सीट पेटी बाँध ली. फैजाबाद से गौंडा तो जा नहीं रहे कोई जीप में बैठकर कि आधा बाहर टंग कर बैठ लें.
Picture Air Canada Jazz |
बहुत ही खराब मूँह बनाया था उसने दो छोटी छोटी सीटों में हमें एडजस्ट होता देख कर, मानो उसका दिया खा रहे हों. मन तो किया कि उठ के दो चमाट रसीद कर दें कि एक तो तेरे पास खाने को कुछ है नहीं. मरसिड्डा सा धरा है और हमारी सेहत पर नजर लगाता है. अरे खुद कमाते हैं और खाते हैं, तुझे क्या.
बचपन से हमारी अम्मा से सब हमारी तारीफ करते थे कि कितना तंदरुस्त बच्चा है. अम्मा फूली न समाती और तू नजर लगाता है. अम्मा हमें ठिठोना लगा देती थी काजल का कि किसी की नजर न लग जाये.
बस, अम्मा कि याद हो आई. न जाने कहाँ होगी, कौन दुनिया में. याद भी करती होगी कि नहीं. क्या पता? बस, उसी याद में मन किया और जेब से काली स्याही वाला डॉट पेन निकाल कर कान के पास एक ठो ठिठोना बैठा लिए खुद ही से. बुरी नजर से बचे रहें.
अब भगवान का दिया ऐसा रंग कि कोई जान ही न पाये कि ठिठोना लगाये बैठे हैं और काम भी बन गया कि बुरी नजर से बचे. ईश्वर का बड़ा धन्यवाद किए. ऐसे भाग सबके कहाँ?
ठिठोने ने रक्षा की, तबीयत खराब होने से बच गये. उस मूरख का वो खुद जाने हमें क्या. हम तो हवाई जहाज उड़ने के इन्तजार में लग गये.
हवाई जहाज रन वे पर आकर लाईन में लग लिया. देखते देखते घंटा गुजर गया मगर हवाई जहाज लाईन में ही लगा रहा. बहुत मुश्किल से जहाज उड़ा और चल पड़ा ऑटवा की तरफ मूँह उठाये, अमरीका की राजधानी से कनाडा की राजधानी के लिए.
हम भूखाये परिचारिका के खाना लाने का इन्तजार करने लगे हालांकि खरीद कर खाना था मगर भूख से अंतडियां टेढ़ी हुई जा रही थी. हम आखिरी सीट पर. जब तक हम तक वो पहूँची उसके पास सिर्फ ३ बीफ सेंडविच बचे. हालांकि चढ़े ५ वेजेटेरियन, दो चिकिन और बाकी बीफ के थे. मगर कुछ ईश्वर कृपा से और कुछ इन भड़काऊ लोगों के बयानों से जो दिन रात चिल्लाते रहते है कि शाकाहारी खाओ, स्वर्ग पाओ. शाकाहार से वास्ता...स्वर्ग का रास्ता.७ शाकाहारी और चिकिन खाने वाले मिल गये न हमारे पहले ही २६ लोगों की मात्र जनसंख्या में. अब हम क्या खायें??
हम ठहरे शुद्ध हिन्दु-भूखे मर जायें मगर बीफ, जानते बूझते तो न ही खा पायेंगे, भले चिकन खा लें..खा क्या लें, खा ही लेते हैं मगर बीफ..न जी न!! ऐसा नहीं कि स्वाद बुरा होता है. एक बार चिकिन के झटके में खा लिया था. लगा तो बड़ा टेस्टी था, दूसरा लेने गये तब पता चला कि बीफ है. तो अब गंगाजल तो यहाँ मिलने से रहा. बीयर से मुखशुद्धि की और सकॉच से अँतड़ियाँ. तब जाकर बैचेन दिल को करार आया और फिर चिकन खाया तो पेट को कुछ बेहतर लगा था..
भूख ऐसी लगी थी मगर मना कर दिये कि मोहतमा, बीफ तो न खा पायेंगे. एक गिलास पानी ही दे दो, कुछ तो जाये पेट में.
इतना गुस्सा आ रहा था इन शाकाहारी जलूसियों के उपर..और नारे लगा लो. बनवा दिये न ५ ठो यहाँ पर भी. अब हम क्या खायें..बोलो. ला कर दो खाना हवा में. हल्ला बस मचवा लो तुमसे, इन्तजाम करने बोल दो तो कहाँ से आओगे हवा में..बताओ.
ये हाल तो हुआ तब, जब मात्र २६ लोग थे. अगर पूरी दुनिया तुम्हारे बहकावे में आ गई तो एक दिन सब मरेंगे ऐसे ही हमारी तरह भूखे. अरे भाई, ईकोलॉजिकल बैलेंस ठीक रखने के लिए जहाँ कुछ शाकाहारी आवश्यक है, वहीं मांसाहारी भी. ऐसे ही चलती है दुनिया, काहे हल्ला मचाते हो बिना सोचे समझे. वो तो हमारे जैसा ही शरीर है जो झेल गये वरना तो तुम्हारे चक्कर में वाकई स्वर्ग की प्राप्ति हो लेती आज तो.
उस पर से छोटा सा हवाई जहाज. हिचकोले लेते ऐसे चल रहा है जैसे बिना मध्य प्रदेश की रोड याद दिलाये आज मानेगा नहीं. एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि सब पेटी बाँध लें, सामने तूफान आ रहा है. ये लो, हम तो समझ रहे थे कि हिचकोले तूफान के कारण है मगर वो तो अभी आ रहा है, अब तो भगवान ही मालिक है.
आँख बंद करके लगे पूजा करने कि प्रभु, बचवा लियो आज. कहीं जहाज गिर विर पड़ा तो ये हवाई जहाज वाले तो कम से कम हमारे केस में मेडीकल रिपोर्ट से सिद्ध कर ही लेंगे कि भूख से मरा है, हावई जहाज गिरने से नहीं. अतः घर वालों को नो मुआवजा.
मुआवजे की तो छोड़ो, वजन की वजह से कहो मरणोपरांत आक्षेप लगा दें कि इनके वजन के कारण गिरा है जहाज, अतः घर वाले जुर्माना भरें. अमरीका है भई!! अपने फायदे के लिए जब सद्दाम को चूहे के बिल से पकड़ा दिखा सकता है तो हमारी क्या बिसात.
बस ऑटवा पहूँच ही गये जैसे तैसे. लेट हो गये तो ऑटवा में भी भागते ही अगला हवाई जहाज पकड़े. फ्लाईट कम समय की होने के कारण-नो फूड. जय हो!!
बस, किसी तरह भगवान से मनाते भूखे प्यासे सिंगल पीस घर पहूँचे तो आपसे मुखातिब हो पा रहे है वरना तो उड़न तश्तरी फुस्स्स्स्स्स्स होने में कोई कसर न थी.
रविवार, नवंबर 16, 2008
एक पाती टोरंटो हवाई अड्डे से
लेसर बी पियरसन एयरपोर्ट. टोरंटो शहर के बीच बसा टोरंटो की शान यहाँ का अंतर्राष्ट्रिय हवाई अड्डा. मैं टोरंटो के पूर्व स्थित एक सबर्ब में रहता हूँ और वहाँ से यहाँ तक आने में लगभग ४०-४५ मिनट लग जाते हैं. लगभग ६० किमी की दूरी आधा शहर पार करते हुए.
काफी बदलाव, साज सजावट की गई है इस हवाई अड्डे की महत्ता बरकरार रखने के लिए और अभी भी काफी काम जारी है. तीन बड़े बड़े टरमिनल हैं और १ नम्बर से अंतर्राष्ट्रिय उड़ाने, २ और ३ से आंतरिक एवं अमरीका की उड़ाने. अमरीका तो लगभग आंतरिक ही कहलाया. पड़ोसी और उस पर लंगोटिया.
आजकल टर्मिनलस को आपस में जोड़ने मोनोरेल भी शुरु हो गई है जिसमें ४ डिब्बे है मगर कोई चालक नहीं. स्वचालित है. शुरु में टेस्टिंग फेज़ में एक ड्राईवरनुमा प्राणी बैठा रहता था, लगता था जैसे वो ही ट्रेन चला रहा हो. लोगों का यह मात्र भ्रम साबित हुआ. ज्ञानी जानते भी थे मगर दिगभ्रमित लोगों को देख उन्हें भी मजा आता था, अतः खुद भी चेहरे पर भ्रम का भाव लिए भीतर भीतर प्रसन्न होते रहते थे.टेस्टिंग पूरी. अब चालक नहीं होता. यह टेस्टिंग प्रक्रिया मात्र ३-४ माह में पूरी हो गई. अब सब जान गये हैं कि मोनोरेल अपने आप चलती है और वो चालक मात्र चलाने का भ्रम पैदा कर रहा था.
और एक हम हैं अब तक भ्रम पाले हैं. ६० साल बीत गये. अभी भी टेस्टिंग फेज़ चालू है. सब सोच रहे हैं कि ये मंत्री देश चला रहे हैं.बहुतेरी जनता तो भ्रमित है और जानकार लोग लोगों के इस भ्रम पर भीतर भीतर मुस्कराते, फायदा उठाते. कब तक परिक्षण चलता रहेगा और हम यूँ ही भ्रमित होते रहेंगे.
आधे घंटे पहले पहुँचा हूँ. काउन्टर पर भारतिय बंदा था. आदतानुसार काम का दिखा अतः मित्र बन गया. कहाँ का रहने वाला है. कब से यहाँ है आदि आदि का आदान प्रदान हुआ और आराम से लगेज चैक इन हो गया है.
सुरक्षा जांच के बाद भीतर चले आये है. भव्य इमारत के उस कोने में जहाँ से हमारी फ्लाईट का गेट है. पूरे १५ मिनल का पैदल रास्ता मगर बेल्ट पर खड़े खड़े. कदम नहीं चलाने पड़े. और क्या चाहिये हमें. हिलना डुलना भी न पड़े और काम बन जाये. इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता.
अभी फ्लाईट में १ घंटे से ज्यादा समय है. फिर शुरु होगी आगे की थकाऊ २० घंटे की हवाई यात्रा २ घंटे ब्रसल्स में रुकते हुए. पत्नि हमेशा की तरह ड्यूटी फ्री शॉपिंग में व्यस्त और मैं हमेशा की तरह अपना कम्प्य़ूटर खोले आपको हाल सुना रहा हूँ.
अभी यहीं तक. पोस्ट करके फिर फ्लाईट पकड़ता हूँ. आगे का हाल भारत पहुँच कर या ब्रसल्स से पोस्ट करने का मौका मिला तो वहाँ से. ब्रसल्स वाले चांसेस तो कम ही मानो मगर आश्वासन देने में क्या जाता हैं. आखिर चुनाव का माहौल चल रहा है कितने ही राज्यों में तो यह अतिश्योक्ति नहीं कहलायेगी.
काफी बदलाव, साज सजावट की गई है इस हवाई अड्डे की महत्ता बरकरार रखने के लिए और अभी भी काफी काम जारी है. तीन बड़े बड़े टरमिनल हैं और १ नम्बर से अंतर्राष्ट्रिय उड़ाने, २ और ३ से आंतरिक एवं अमरीका की उड़ाने. अमरीका तो लगभग आंतरिक ही कहलाया. पड़ोसी और उस पर लंगोटिया.
आजकल टर्मिनलस को आपस में जोड़ने मोनोरेल भी शुरु हो गई है जिसमें ४ डिब्बे है मगर कोई चालक नहीं. स्वचालित है. शुरु में टेस्टिंग फेज़ में एक ड्राईवरनुमा प्राणी बैठा रहता था, लगता था जैसे वो ही ट्रेन चला रहा हो. लोगों का यह मात्र भ्रम साबित हुआ. ज्ञानी जानते भी थे मगर दिगभ्रमित लोगों को देख उन्हें भी मजा आता था, अतः खुद भी चेहरे पर भ्रम का भाव लिए भीतर भीतर प्रसन्न होते रहते थे.टेस्टिंग पूरी. अब चालक नहीं होता. यह टेस्टिंग प्रक्रिया मात्र ३-४ माह में पूरी हो गई. अब सब जान गये हैं कि मोनोरेल अपने आप चलती है और वो चालक मात्र चलाने का भ्रम पैदा कर रहा था.
और एक हम हैं अब तक भ्रम पाले हैं. ६० साल बीत गये. अभी भी टेस्टिंग फेज़ चालू है. सब सोच रहे हैं कि ये मंत्री देश चला रहे हैं.बहुतेरी जनता तो भ्रमित है और जानकार लोग लोगों के इस भ्रम पर भीतर भीतर मुस्कराते, फायदा उठाते. कब तक परिक्षण चलता रहेगा और हम यूँ ही भ्रमित होते रहेंगे.
आधे घंटे पहले पहुँचा हूँ. काउन्टर पर भारतिय बंदा था. आदतानुसार काम का दिखा अतः मित्र बन गया. कहाँ का रहने वाला है. कब से यहाँ है आदि आदि का आदान प्रदान हुआ और आराम से लगेज चैक इन हो गया है.
सुरक्षा जांच के बाद भीतर चले आये है. भव्य इमारत के उस कोने में जहाँ से हमारी फ्लाईट का गेट है. पूरे १५ मिनल का पैदल रास्ता मगर बेल्ट पर खड़े खड़े. कदम नहीं चलाने पड़े. और क्या चाहिये हमें. हिलना डुलना भी न पड़े और काम बन जाये. इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता.
अभी फ्लाईट में १ घंटे से ज्यादा समय है. फिर शुरु होगी आगे की थकाऊ २० घंटे की हवाई यात्रा २ घंटे ब्रसल्स में रुकते हुए. पत्नि हमेशा की तरह ड्यूटी फ्री शॉपिंग में व्यस्त और मैं हमेशा की तरह अपना कम्प्य़ूटर खोले आपको हाल सुना रहा हूँ.
अभी यहीं तक. पोस्ट करके फिर फ्लाईट पकड़ता हूँ. आगे का हाल भारत पहुँच कर या ब्रसल्स से पोस्ट करने का मौका मिला तो वहाँ से. ब्रसल्स वाले चांसेस तो कम ही मानो मगर आश्वासन देने में क्या जाता हैं. आखिर चुनाव का माहौल चल रहा है कितने ही राज्यों में तो यह अतिश्योक्ति नहीं कहलायेगी.
मंगलवार, नवंबर 11, 2008
कुछ न कुछ तो होता ही है.....
आज की बात:
सुसंस्कृत हैं अतः बेवकूफ को भोला कहते हैं. यही वक्त का तकाजा है.
ऐसे ही सुसंस्कृत प्राणी कल टकरा गये. मोटा कहना ठीक न लगा होगा तो कह उठे कि ’आपकी बॉडी में काफी स्वेलिंग (सूजन) सी लग रही है. तबीयत तो ठीक है न?’
सुसंस्कृत हम भी कम नहीं अतः जबाब में बस इतना ही कहा ’ भाई साहब, जरा एलर्जी है.’
वो पूछने लगे कि ’काहे से एलर्जी है भाई’
हमने भी थोड़ा लजाते हुए बता दिया कि ’एक्सर्साइज (व्यायाम) करने से एलर्जी है’
क्या चल रहा है:
भारत निकलने की तैयारी, पैकिंग, भाग दौड़-मानो मिनट भर का समय निकलना भी मुश्किल सा हो रहा है. न कोई ब्लॉग पढ़ पाया कल सारा दिन और न ही कहीं कमेंट. कल कोशिश करुँगा कि कुछ तो देख ही लूँ.
अभी की सोच:
सोचा है अब से अपने पाठकों से जो टिप्पणी करते हैं, उनसे हफ्ते में एक बार बात की जाये और उनके प्रश्नों का जबाब दिया जाये. इस हेतु, भारत पहुँच कर यह साप्ताहिक स्तंभ शुरु करने की योजना है जिसमें कुछ टिप्पणियों द्वारा व्यक्त शंका का समाधान किया जायेगा.
नया क्या है:
नई पोस्ट तो क्या लिखता. बस, दफ्तर आते जाते ट्रेन में चिन्दियों पर की गई कलम घसीटी में से कुछ को आज फिर समेटा और बस, पेश कर दिया. न जाने कब, कौन सा ख्याल आता जाता रहता है और कागजों पर उतर कर ऑफिस बैग के किसी कोने में फंसा रह जाता है. आपस में कोई तारतम्य नहीं, न कोई संपादन-जैसा उतरा वैसा की अनगढ़ सा पेश कर दिया..शायद कहीं कुछ कहता सा प्रतीत हो तो बताईयेगा.
-१-
आज का ताजा अखबार
और
आज की ताजा खबरें!!
मोटे मोटे काले हर्फों में
लाल लाल खून की
जिन्दा तस्वीरें!
ये
इंसानी खून भी
कितनी जल्दी सूख जाता है
लाल ताजा खून
काले हर्फों में बदलता है
और
कुछ पलों में
इंसान उन्हे भूल जाता है!!
-२-
अब आंख नहीं
बस
दिल रोता है
मगर
उसके आंसू
किसी क नहीं दिखते!!
आदमी,
इत्मिनान से
सोता है.
-३-
रात का तीसरा पहर
कागज, कलम , दवात
सब हैं मेरे साथ
जुगनू
ठिठक ठिठक कर
रोशनी देता गया...
और
मैं सिसक सिसक कर
दिल की बात कहता गया....
-४-
फोन की घंटी से
मेरी तंद्रा टूटती है
मैं उसकी
खुशनुमा यादों की
दुनिया से बाहर
आ जाता हूँ
फोन पर
झुंझलाया सा
अनमने ठंग से बात कर
फोन काट देता हूँ..
और फिर
कोशिश करता हूँ
उन्हीं यादों की दुनिया मे
वापस जाने की......
ख्याल झंकझोरता है....
ये फोन
तो
उसी का था!!!
-५-
सुनता हूँ....
घड़ी मेरी
सुबह कहती है..
देखता हूँ....
खिड़की के बाहर
उजाला भी है....
सोचता हूँ...
फिर
आखिर ये रात
जाती क्यूँ नहीं.
-६-
देखता था कभी
कुछ कांटों भरे तार
जो निर्धारित कर रहे थे...
तू पाकिस्तान है
और
मैं हिन्दुस्तान!!
वही कांटे
अब हमारे दिल में
उग आये हैं....
मैं हिन्दु हूँ
और
तू मुसलमान!!
सरहद बांटने वाले कांटे
तो फिर भी हटाये जा सकते हैं...
किन्तु
ये...............
--समीर लाल ’समीर’
बस, आज इतना ही. अब फिर से भारत जाने की तैयारी में जुटता हूँ. ४ दिन ही तो बचे हैं.
सुसंस्कृत हैं अतः बेवकूफ को भोला कहते हैं. यही वक्त का तकाजा है.
ऐसे ही सुसंस्कृत प्राणी कल टकरा गये. मोटा कहना ठीक न लगा होगा तो कह उठे कि ’आपकी बॉडी में काफी स्वेलिंग (सूजन) सी लग रही है. तबीयत तो ठीक है न?’
सुसंस्कृत हम भी कम नहीं अतः जबाब में बस इतना ही कहा ’ भाई साहब, जरा एलर्जी है.’
वो पूछने लगे कि ’काहे से एलर्जी है भाई’
हमने भी थोड़ा लजाते हुए बता दिया कि ’एक्सर्साइज (व्यायाम) करने से एलर्जी है’
क्या चल रहा है:
भारत निकलने की तैयारी, पैकिंग, भाग दौड़-मानो मिनट भर का समय निकलना भी मुश्किल सा हो रहा है. न कोई ब्लॉग पढ़ पाया कल सारा दिन और न ही कहीं कमेंट. कल कोशिश करुँगा कि कुछ तो देख ही लूँ.
अभी की सोच:
सोचा है अब से अपने पाठकों से जो टिप्पणी करते हैं, उनसे हफ्ते में एक बार बात की जाये और उनके प्रश्नों का जबाब दिया जाये. इस हेतु, भारत पहुँच कर यह साप्ताहिक स्तंभ शुरु करने की योजना है जिसमें कुछ टिप्पणियों द्वारा व्यक्त शंका का समाधान किया जायेगा.
नया क्या है:
नई पोस्ट तो क्या लिखता. बस, दफ्तर आते जाते ट्रेन में चिन्दियों पर की गई कलम घसीटी में से कुछ को आज फिर समेटा और बस, पेश कर दिया. न जाने कब, कौन सा ख्याल आता जाता रहता है और कागजों पर उतर कर ऑफिस बैग के किसी कोने में फंसा रह जाता है. आपस में कोई तारतम्य नहीं, न कोई संपादन-जैसा उतरा वैसा की अनगढ़ सा पेश कर दिया..शायद कहीं कुछ कहता सा प्रतीत हो तो बताईयेगा.
-१-
आज का ताजा अखबार
और
आज की ताजा खबरें!!
मोटे मोटे काले हर्फों में
लाल लाल खून की
जिन्दा तस्वीरें!
ये
इंसानी खून भी
कितनी जल्दी सूख जाता है
लाल ताजा खून
काले हर्फों में बदलता है
और
कुछ पलों में
इंसान उन्हे भूल जाता है!!
-२-
अब आंख नहीं
बस
दिल रोता है
मगर
उसके आंसू
किसी क नहीं दिखते!!
आदमी,
इत्मिनान से
सोता है.
-३-
रात का तीसरा पहर
कागज, कलम , दवात
सब हैं मेरे साथ
जुगनू
ठिठक ठिठक कर
रोशनी देता गया...
और
मैं सिसक सिसक कर
दिल की बात कहता गया....
-४-
फोन की घंटी से
मेरी तंद्रा टूटती है
मैं उसकी
खुशनुमा यादों की
दुनिया से बाहर
आ जाता हूँ
फोन पर
झुंझलाया सा
अनमने ठंग से बात कर
फोन काट देता हूँ..
और फिर
कोशिश करता हूँ
उन्हीं यादों की दुनिया मे
वापस जाने की......
ख्याल झंकझोरता है....
ये फोन
तो
उसी का था!!!
-५-
सुनता हूँ....
घड़ी मेरी
सुबह कहती है..
देखता हूँ....
खिड़की के बाहर
उजाला भी है....
सोचता हूँ...
फिर
आखिर ये रात
जाती क्यूँ नहीं.
-६-
देखता था कभी
कुछ कांटों भरे तार
जो निर्धारित कर रहे थे...
तू पाकिस्तान है
और
मैं हिन्दुस्तान!!
वही कांटे
अब हमारे दिल में
उग आये हैं....
मैं हिन्दु हूँ
और
तू मुसलमान!!
सरहद बांटने वाले कांटे
तो फिर भी हटाये जा सकते हैं...
किन्तु
ये...............
--समीर लाल ’समीर’
बस, आज इतना ही. अब फिर से भारत जाने की तैयारी में जुटता हूँ. ४ दिन ही तो बचे हैं.
गुरुवार, नवंबर 06, 2008
ये कैसा उत्सव रे भाई!!!
कुछ साल पहले, भारत से कनाडा आते वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन के लिए रुक गया. सोचा, जरा शहर समझा जाये और बस, इसी उद्देश्य से वहाँ की सबवे(मेट्रो) का डे-पास खरीद कर रवाना हुए. जो भी स्टेशन आये, मैं और मेरी पत्नी उतरें, आस पास घूमें. वहाँ म्यूजियम या दर्शनीय स्थल देखें और लोगों से बात चीत करें, ट्रेन पकड़ें और आगे. यह एक अलग ढंग से घूम रहे थे तो मजा बहुत आ रहा था. जर्मन न आने की वजह से बस कुछ तकलीफ हो रही थी, मगर काम चल जा रहा था.
इसी कड़ी में एक स्टेशन पर उतरे. बाहर निकलते ही मन प्रसन्न हो गया. एकदम उत्सव का सा माहौल. स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे रंग बिरंगी पोशाक में.जोरों से मस्त संगीत बज रहा था. संगीत की तो भाषा होती नहीं वो तो अहसास करने वाले चीज है. इतना बेहतरीन संगीत कि खुद ब खुद आप थिरकने लगें.
खूब बीयर वगैरह पी जा रही थी. जगह जगह रंग बिरंगे गुब्बारे, झंडे और बैनर. क्या पता क्या लिखा था उन पर जर्मन में. शायद ’होली मुबारक’ टाईप उनके त्यौहार का नाम हो.
एक बात जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ कि महिलाऐं एक अलग समूह बना कर नाच रही थीं और पुरुष अलग. न रामलीला जैसे रस्से से बंधा अलग एरिया केवल महिलाओं के लिए और न कोई एनाऊन्समेन्ट कि माताओं, बहनों की अलग व्यवस्था बाईं ओर वाले हिस्से में है, कृप्या कोई पुरुष वहाँ न जाये और न कोई रोकने टोकने वाला. बस, सब स्वतः.
सोचने लगा कि कितने सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं दुनिया के इस हिस्से में भी. महिलाओं के नाचने और उत्सव मनाने की अलग से व्यवस्था. इतनी बीयर चल रही है फिर भी मजाल कि कोई दूसरे पाले में चला जाये नाचते हुए. पत्नी महिलाओं की तरफ जा कर एक तरफ बैन्च पर बैठ गई और हमने बीयर का गिलास उठाया और लगे पुरुष भीड़ के साथ झूम झूम कर नाचने.
अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था. बड़े होकर नाचने का सिलसिला तो आज भी जारी है. वो ही शौक कुलांचे मार रहा होगा.
चारों तरफ नजर दौड़ाई नाचते नाचते तो देखा ढ़ेरों टीवी चैनल वाले, अखबार वाले अपना अपना बैनर कैमरा और संवाददाताओं के साथ इस उत्सव की कवरेज कर रहे थे. लगता है, जर्मनी के होली टाईप किसी उत्सव में आ गये हैं. टीवी वालों को देख उत्साह दुगना हो गया. कमर मटकाने की और झूमने की गति खुद ब खुद बढ गई. झनझना कर लगे नाचने.
दो एक गिलास बीयर और सटक गये. वहीं बीयर स्टॉल के पास एक झंडा भी मिल गया जो बहुत लोग लिए थे. हमने भी उसे उठा लिया..
फिर तो क्या था, झंडा लेकर नाचे. इतनी भीड़ में अकेला भारतीय. प्रेस वाले नजदीक चले आये. टीवी वालों ने पास से कवर किया. प्रेस वालों ने तो नाम भी पूछा और हमने भी असल बात दबा कर बता दिया कि इसी उत्सव के लिए भारत से चले आ रहे हैं और सभी को शुभकामनाऐं दीं.
खूब फोटो खिंची. मजा ही आ गया. खूब रंग बरसाये गये, कईयों ने हमारे गाल पर गुलाबी, हरा रंग भी लगाया, गुब्बरे उडाये गये, फुव्वारे छोड़े गये और हम भीग भीग कर नाचे. कुल मिला कर पूरी तल्लिनता से नाचे और उत्सव मनाये.
भीड़ बढ़ती जा रही थी मगर व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं. स्त्रियाँ अलग और पुरुष अलग. कभी गल्ती से नजर टकरा भी जाये तो तुरंत नीचे. कितने ऊँचे संस्कार हैं. मन श्रृद्धा से भर भर आये. पूरा सम्मान, स्त्री की नजर में पुरुष का और पुरुष की नजर में स्त्री का. एकदम धार्मिक माहौल. जैसे कोई धार्मिक उत्सव हो. शायद वही होगा.
थोड़ी ही देर में भीड़ अच्छी खासी हो गई. प्रेस, प्रशासन सब मुस्दैद. जबकि कोई जरुरत नहीं थी पुलिस की क्यूँकि लोग तो यूँ ही इतने संस्कारी हैं, मगर फिर भी.
अपने यहाँ तो छेड़े जाने की गारंटी रहती है, फिर भी पुलिस वाला ऐन मौके पर गुटका खाने निकल लेता है. मगर यहाँ एकदम मुस्तैद!!
धीरे धीरे भीड़ ने जलूस की शक्ल ले ली. मगर महिलाऐं अलग, पुरुष अलग. वाह!!! निकल पड़ा मूँह से और सब निकल पड़े. पता चला कि अब यह जलूस शहर के सारे मुख्य मार्गों पर घूमेगा. जगह जगह ड्रिंक्स और खाना सर्व होगा. मजा ही आ जायेगा. हम भी इसी बहाने नाचते गाते शहर घूम लेंगे. खाना पीना बोनस और प्रेस कवरेज के क्या कहने. पूरे विश्व में दिखाये जायेंगे.
कई नये लोग जुड़ गये. नये नये बैनर झंडे निकल आये. अबकी अंग्रेजी वाले भी लग लिए. हम भी एक वही पुराना वाला जर्मन झंडा उठाये थे तो सोचा किसी अंग्रेजी से बदल लें. इसलिए पहुँच लिए झंडा बंटने वाली जगह. अंग्रेजी झंडा मिल गया. लेकर लगे नाचने. फिर सोचा कि पढ लें तो कम से कम कोई प्रेस वाला पूछे तो बता तो पायेंगे.
पढ़ा!!!!!!!!!!!!!!
अब तो काटो तो खून नहीं. तुरंत मूँह छिपा कर भागे. पत्नी को साथ लिया और ट्रेन से वापस एअरपोर्ट. मगर अब क्या होना था टीवी और अखबार ने तो अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर कवर कर ही लिया.
दरअसल, अंग्रजी के जो बैनर और झंडॆ पढे तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रिय समलैंगिक महोत्सव मनाया जा रहा था जिसे वो रेनबो परेड कहते हैं और वो झंडा हमारे हाथ में था, कह रहा था कि मुझे समलैंगिक होने का गर्व है. क्या बताये, कैसा कैसा लगने लगा.
कनाडा के जहाज में बैठ कर बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि कोई पहचान वाला इस कवरेज को न देखे या पढ़े.
सोचिये, ऐसा भी होता है कि सी एन एन और बी बी सी टाईप चैनल आपको कवर करे और आप मनायें कि कोई पहचान वाला आपको देखे न.
जबकि जरा सा अखबार में नाम आ जाये या टीवी पर दर्शक दीर्घा में भी हों तो एक पोस्ट लिख कर, ईमेल करके, फोन पर सब पहचान वालों को लिंक, स्कैन कॉपी और प्रोग्राम टाईम बताते नहीं थकते.
सब मौके मौके की बात है. टीवी पर तो तुम बम धमाके करके भी आ सकते हो मगर चाहोगे क्या कि कोई अपना तुम्हें देखे.
वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि इस परेड का अर्थ क्या है? जलूस निकालने और नाचने जैसी आखिर बात क्या है? किस बात की प्रदर्शनी कर रहे हो, क्या बताना चाहते हो?
एक साधारण स्त्री पुरुष तो झंडा उठा उठा कर नाच नाच कर यह नहीं बताते कि हम प्रकृति द्वारा निर्धारित आम प्रवृति के लोग हैं फिर तुम ही क्यूँ यह सब करते हो पूरे विश्व में??
कहीं कुछ कुंठा या हीन भावना तो नहीं?
बताओ न!!!
नोट: इस तरह के संबंधों के प्रति श्रृद्धा रखने वालों की यह कतई खिलाफत न समझी जाये. बस, अपने मन के भाव कहे हैं. अतः वह आहत न हों.
इसी कड़ी में एक स्टेशन पर उतरे. बाहर निकलते ही मन प्रसन्न हो गया. एकदम उत्सव का सा माहौल. स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे रंग बिरंगी पोशाक में.जोरों से मस्त संगीत बज रहा था. संगीत की तो भाषा होती नहीं वो तो अहसास करने वाले चीज है. इतना बेहतरीन संगीत कि खुद ब खुद आप थिरकने लगें.
खूब बीयर वगैरह पी जा रही थी. जगह जगह रंग बिरंगे गुब्बारे, झंडे और बैनर. क्या पता क्या लिखा था उन पर जर्मन में. शायद ’होली मुबारक’ टाईप उनके त्यौहार का नाम हो.
एक बात जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ कि महिलाऐं एक अलग समूह बना कर नाच रही थीं और पुरुष अलग. न रामलीला जैसे रस्से से बंधा अलग एरिया केवल महिलाओं के लिए और न कोई एनाऊन्समेन्ट कि माताओं, बहनों की अलग व्यवस्था बाईं ओर वाले हिस्से में है, कृप्या कोई पुरुष वहाँ न जाये और न कोई रोकने टोकने वाला. बस, सब स्वतः.
सोचने लगा कि कितने सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं दुनिया के इस हिस्से में भी. महिलाओं के नाचने और उत्सव मनाने की अलग से व्यवस्था. इतनी बीयर चल रही है फिर भी मजाल कि कोई दूसरे पाले में चला जाये नाचते हुए. पत्नी महिलाओं की तरफ जा कर एक तरफ बैन्च पर बैठ गई और हमने बीयर का गिलास उठाया और लगे पुरुष भीड़ के साथ झूम झूम कर नाचने.
अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था. बड़े होकर नाचने का सिलसिला तो आज भी जारी है. वो ही शौक कुलांचे मार रहा होगा.
चारों तरफ नजर दौड़ाई नाचते नाचते तो देखा ढ़ेरों टीवी चैनल वाले, अखबार वाले अपना अपना बैनर कैमरा और संवाददाताओं के साथ इस उत्सव की कवरेज कर रहे थे. लगता है, जर्मनी के होली टाईप किसी उत्सव में आ गये हैं. टीवी वालों को देख उत्साह दुगना हो गया. कमर मटकाने की और झूमने की गति खुद ब खुद बढ गई. झनझना कर लगे नाचने.
दो एक गिलास बीयर और सटक गये. वहीं बीयर स्टॉल के पास एक झंडा भी मिल गया जो बहुत लोग लिए थे. हमने भी उसे उठा लिया..
फिर तो क्या था, झंडा लेकर नाचे. इतनी भीड़ में अकेला भारतीय. प्रेस वाले नजदीक चले आये. टीवी वालों ने पास से कवर किया. प्रेस वालों ने तो नाम भी पूछा और हमने भी असल बात दबा कर बता दिया कि इसी उत्सव के लिए भारत से चले आ रहे हैं और सभी को शुभकामनाऐं दीं.
खूब फोटो खिंची. मजा ही आ गया. खूब रंग बरसाये गये, कईयों ने हमारे गाल पर गुलाबी, हरा रंग भी लगाया, गुब्बरे उडाये गये, फुव्वारे छोड़े गये और हम भीग भीग कर नाचे. कुल मिला कर पूरी तल्लिनता से नाचे और उत्सव मनाये.
भीड़ बढ़ती जा रही थी मगर व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं. स्त्रियाँ अलग और पुरुष अलग. कभी गल्ती से नजर टकरा भी जाये तो तुरंत नीचे. कितने ऊँचे संस्कार हैं. मन श्रृद्धा से भर भर आये. पूरा सम्मान, स्त्री की नजर में पुरुष का और पुरुष की नजर में स्त्री का. एकदम धार्मिक माहौल. जैसे कोई धार्मिक उत्सव हो. शायद वही होगा.
थोड़ी ही देर में भीड़ अच्छी खासी हो गई. प्रेस, प्रशासन सब मुस्दैद. जबकि कोई जरुरत नहीं थी पुलिस की क्यूँकि लोग तो यूँ ही इतने संस्कारी हैं, मगर फिर भी.
अपने यहाँ तो छेड़े जाने की गारंटी रहती है, फिर भी पुलिस वाला ऐन मौके पर गुटका खाने निकल लेता है. मगर यहाँ एकदम मुस्तैद!!
धीरे धीरे भीड़ ने जलूस की शक्ल ले ली. मगर महिलाऐं अलग, पुरुष अलग. वाह!!! निकल पड़ा मूँह से और सब निकल पड़े. पता चला कि अब यह जलूस शहर के सारे मुख्य मार्गों पर घूमेगा. जगह जगह ड्रिंक्स और खाना सर्व होगा. मजा ही आ जायेगा. हम भी इसी बहाने नाचते गाते शहर घूम लेंगे. खाना पीना बोनस और प्रेस कवरेज के क्या कहने. पूरे विश्व में दिखाये जायेंगे.
कई नये लोग जुड़ गये. नये नये बैनर झंडे निकल आये. अबकी अंग्रेजी वाले भी लग लिए. हम भी एक वही पुराना वाला जर्मन झंडा उठाये थे तो सोचा किसी अंग्रेजी से बदल लें. इसलिए पहुँच लिए झंडा बंटने वाली जगह. अंग्रेजी झंडा मिल गया. लेकर लगे नाचने. फिर सोचा कि पढ लें तो कम से कम कोई प्रेस वाला पूछे तो बता तो पायेंगे.
पढ़ा!!!!!!!!!!!!!!
अब तो काटो तो खून नहीं. तुरंत मूँह छिपा कर भागे. पत्नी को साथ लिया और ट्रेन से वापस एअरपोर्ट. मगर अब क्या होना था टीवी और अखबार ने तो अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर कवर कर ही लिया.
दरअसल, अंग्रजी के जो बैनर और झंडॆ पढे तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रिय समलैंगिक महोत्सव मनाया जा रहा था जिसे वो रेनबो परेड कहते हैं और वो झंडा हमारे हाथ में था, कह रहा था कि मुझे समलैंगिक होने का गर्व है. क्या बताये, कैसा कैसा लगने लगा.
कनाडा के जहाज में बैठ कर बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि कोई पहचान वाला इस कवरेज को न देखे या पढ़े.
सोचिये, ऐसा भी होता है कि सी एन एन और बी बी सी टाईप चैनल आपको कवर करे और आप मनायें कि कोई पहचान वाला आपको देखे न.
जबकि जरा सा अखबार में नाम आ जाये या टीवी पर दर्शक दीर्घा में भी हों तो एक पोस्ट लिख कर, ईमेल करके, फोन पर सब पहचान वालों को लिंक, स्कैन कॉपी और प्रोग्राम टाईम बताते नहीं थकते.
सब मौके मौके की बात है. टीवी पर तो तुम बम धमाके करके भी आ सकते हो मगर चाहोगे क्या कि कोई अपना तुम्हें देखे.
वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि इस परेड का अर्थ क्या है? जलूस निकालने और नाचने जैसी आखिर बात क्या है? किस बात की प्रदर्शनी कर रहे हो, क्या बताना चाहते हो?
एक साधारण स्त्री पुरुष तो झंडा उठा उठा कर नाच नाच कर यह नहीं बताते कि हम प्रकृति द्वारा निर्धारित आम प्रवृति के लोग हैं फिर तुम ही क्यूँ यह सब करते हो पूरे विश्व में??
कहीं कुछ कुंठा या हीन भावना तो नहीं?
बताओ न!!!
नोट: इस तरह के संबंधों के प्रति श्रृद्धा रखने वालों की यह कतई खिलाफत न समझी जाये. बस, अपने मन के भाव कहे हैं. अतः वह आहत न हों.
सोमवार, नवंबर 03, 2008
बीबी साथ में है फिर कैसा!!!!!!!!
आज शाम भर सोचता रहा कि किस रस में रचना लिखूँ. विचार कई उठे और खारिज होते गये. अधिकतर क्या लगभग सभी का कारण था कि बीबी साथ में है.
देखिये, सोचा विरह गीत लिखूँ मगर कैसे-बीबी साथ में है फिर कैसा विरह और किसका विरह. अतः खारिज.
फिर विचार बना कि वीर रस-मगर फिर वही, बीबी साथ में है तो काहे के वीर. बीबी के सामने तो अच्छे अच्छे पीर तक वीर नहीं हो पाये तो हम क्या होंगे. अतः खारिज.
अब सोचा, प्रेम गीत-मगर बीबी साथ में है. मियां बीबी मे प्रेम तो एक अनुभुति है, एक दिव्य अहसास है, एक साझा है-प्रेम तो इसका एक अंग है और एक अंग पर क्या लिखना. लिखो तो संपूर्ण लिखो वरना खारिज. अतः खारिज.
फिर रहा श्रृंगार रस तो बीबी साथ में है और वो चमेली का तेल लगाती नहीं फिर कैसे होगा पूर्ण श्रृंगार. अपूर्ण पर क्या रचूँ. अतः यह भी खारिज.
बच रहा हास्य रस- तो बीबी साथ हो या न हो. मगर यहाँ ब्लॉग पर हंसना मना है. यह हा हा ठी ठी ठीक नहीं वो भी जब बीबी साथ में हो तो गंभीर रहने की सलाह है. अतः खारिज.
अब क्या करुँ. कई विचारों के बाद नये रस ’टेंशन रस’ की रचना बन पाई यानि किसी भी चीज से बेवजह परेशान. ऐसा होगा तो फिर क्या होगा. वैसा होगा तो फिर क्या होगा. इस तरह की फोकट टेंशन में जीने वाले बहुत से हैं. इस तरह जीना भी एक कला ही कहलाई और जो जिये, वो कलाकार. तो ऐसे सभी कलकारों को प्रणाम करते हुए सादर समर्पित:
चाँद गर रुसवा हो जाये तो फिर क्या होगा
रात थक कर सो जाये तो फिर क्या होगा.
यूँ मैं लबों पर, मुस्कान लिए फिरता हूँ
आँख ही मेरी रो जाये तो फिर क्या होगा.
यों तो मिल कर रहता हूँ सबके साथ में
नफरत अगर कोई बो जाये तो फिर क्या होगा.
कहने मैं निकला हूँ हाल ए दिल अपना
अल्फाज़ कहीं खो जाये तो फिर क्या होगा.
किस्मत की लकीरें हैं हाथों में जो अपने
आंसू उन्हें धो जाये तो फिर क्या होगा.
बहुत अरमां से बनाया था आशियां अपना
बंट टुकड़े में दो जाये तो फिर क्या होगा.
ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर;
हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा.
-समीर लाल ’समीर’
देखिये, सोचा विरह गीत लिखूँ मगर कैसे-बीबी साथ में है फिर कैसा विरह और किसका विरह. अतः खारिज.
फिर विचार बना कि वीर रस-मगर फिर वही, बीबी साथ में है तो काहे के वीर. बीबी के सामने तो अच्छे अच्छे पीर तक वीर नहीं हो पाये तो हम क्या होंगे. अतः खारिज.
अब सोचा, प्रेम गीत-मगर बीबी साथ में है. मियां बीबी मे प्रेम तो एक अनुभुति है, एक दिव्य अहसास है, एक साझा है-प्रेम तो इसका एक अंग है और एक अंग पर क्या लिखना. लिखो तो संपूर्ण लिखो वरना खारिज. अतः खारिज.
फिर रहा श्रृंगार रस तो बीबी साथ में है और वो चमेली का तेल लगाती नहीं फिर कैसे होगा पूर्ण श्रृंगार. अपूर्ण पर क्या रचूँ. अतः यह भी खारिज.
बच रहा हास्य रस- तो बीबी साथ हो या न हो. मगर यहाँ ब्लॉग पर हंसना मना है. यह हा हा ठी ठी ठीक नहीं वो भी जब बीबी साथ में हो तो गंभीर रहने की सलाह है. अतः खारिज.
अब क्या करुँ. कई विचारों के बाद नये रस ’टेंशन रस’ की रचना बन पाई यानि किसी भी चीज से बेवजह परेशान. ऐसा होगा तो फिर क्या होगा. वैसा होगा तो फिर क्या होगा. इस तरह की फोकट टेंशन में जीने वाले बहुत से हैं. इस तरह जीना भी एक कला ही कहलाई और जो जिये, वो कलाकार. तो ऐसे सभी कलकारों को प्रणाम करते हुए सादर समर्पित:
चाँद गर रुसवा हो जाये तो फिर क्या होगा
रात थक कर सो जाये तो फिर क्या होगा.
यूँ मैं लबों पर, मुस्कान लिए फिरता हूँ
आँख ही मेरी रो जाये तो फिर क्या होगा.
यों तो मिल कर रहता हूँ सबके साथ में
नफरत अगर कोई बो जाये तो फिर क्या होगा.
कहने मैं निकला हूँ हाल ए दिल अपना
अल्फाज़ कहीं खो जाये तो फिर क्या होगा.
किस्मत की लकीरें हैं हाथों में जो अपने
आंसू उन्हें धो जाये तो फिर क्या होगा.
बहुत अरमां से बनाया था आशियां अपना
बंट टुकड़े में दो जाये तो फिर क्या होगा.
ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर;
हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा.
-समीर लाल ’समीर’
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