सन २००६. तब बोलू इस घर में आई थी ऐना की साथी बनकर. नामकरण बोलू करने के पीछे भी एक यादगार कारण ही रहा वरना नाम भला बोलू कौन रखता है.
" हमारी ससुराल मिर्ज़ापुर की है. एक बार जब हम गये वहाँ और हमारे ससुर साहब ने,(जो कि अब नहीं हैं इस दुनिया में), मुझे उनके एक मित्र ,(जो कालिन का धंधा करते थे) की फेक्टरी देखने भेजा ,वहां जाने पर मालिक ने हमारी खातिरदारी की, दामाद जो थे हम और वो भी विदेश से आये. अपने खास नौकर को न जाने क्या समझा कर हमारे साथ किया. वो हमें गोदाम दिखाने लगा, पहली कालीन दिखाई और कहा कि ई बोलू है हम सोचे कि यह कोई क्वालिटी होती होगी. तब तक दूसरी कालीन दिखाई और कहा कि ई रेड है, लाल रंग की थी वो. तब हम यह समझ पाये कि पहले वाली नीली थी इसलिये बोलू (ब्लू)....यह नयी वाली भी नीले रंग की है सो नामकरण हुआ "बोलू". :)
बोलू-एना की साथी-अब दो-तोते |
मगर कुछ दिन का ही साथ रहा दोनों का और ऐना चल बसी. तब बोलू कुछ उदास और बुझी बुझी रहने लगी. बोलू का अकेलापन हमसे देखा नहीं गया और हम इसके लिए भी एक साथी लेते आये. भारतीय हैं तो नाम तो मिलता जुलता रखना ही था रो बेसिर पैर का नाम मोलू नये वाले को मिला. अब बोलू मोलू का साथ हो गया. खूब खेलते आपस में, दिन भर गाना गाते, खाना खाते मगर पिंजड़ा खुला भी रहे तो बाहर न आते. आपस में एक दूसरे का साथ ही इनकी दुनिया बन गई. इन्हें हमारी जरुरत न रही कम से कम खेलने और दिल बहलाने को.
लेकिन फिर भी शायद कभी सोचते हों कि चलो, इतना ख्याल रखते हैं मियां बीबी हमारा तो इनका दिल बहला दें तो पिंजड़े से निकालने पर निकल आते. कुछ देर साथ बैठते और मौका लगते ही पिंजड़े में वापस. माँ बाप को क्या चाहिये कि बच्चे खुश रहे बस!! कभी कभार हाल पूछ लें वरना तो उनकी अपनी दुनिया और उनका अपना परिवार. ये बात ये दोनों भी भली भाँति समझ चुके थे.
इस बीच हमारे घर तोते (इनको मैं तोता कहता हूँ मगर यह उसी प्रजाती के किन्तु बज़्ज़ी कहलाते हैं) का हँसता खेलता परिवार देखकर हमारी अफगानी पड़ोसी भी तोता पालने का मोह लगा बैठी. इन्हीं दोनों की ब्रीड का एक तोता वो भी लेती आई. पिंजड़ा खरीदा, खाना आया. सब करने की कोशिश की हमारी तरह मगर, जैसे छोटे बच्चों की बदमाशी भी तभी अच्छी लगती है, जब वो दूसरों के घर हो रही हो. यह बात हमारे पड़ोसी को भी जल्दी ही समझ आ गई और एक दिन कहने लगी कि मैं उसे उड़ाने जा रही हूँ. मुझसे नहीं पाला जायेगा.
जो बच्चा पैदा होते ही घर में पला हो वो भला जंगल में कैसे रह पायेगा? मुझे चिन्ता होने लगी. जंगल में रहने के कायदे अलग होते हैं, वो इस बच्चे ने कभी सीखे ही नहीं भले ही चिड़िया हो. वही हाल उन भारतियों के बच्चों का होता है जो अमेरीका/कनाडा में जन्म लेते हैं. उन्हें भारत जाकर रहने को बोल दिजिये तो चार दिन न रह पायेंगे. उन्होंने कभी सीखा ही नहीं वो लाईफ स्टाईल जहाँ आपको अपनी जगह खुद बनानी होती है. अपने ही अधिकार को हासिल करने के लिए लड़ना होता है. घूस खिलानी होती है.
यही सब सोच कर मैने पड़ोसी से कहा कि उसे उड़ाओ मत, वो मर जायेगी. एक शेर कहीं पढ़ा था, वो याद हो आया:
क़फ़स से निकल कर किधर जायेगी
रिहाई मिलेगी तो मर जायेगी...
(क़फ़स=पिंजड़ा)
हमने उससे कहा कि हमारे घर तो दो पल ही रही हैं, तीन पल जायेंगी. हमें दे दो. हम पिंजड़ा बड़ा ले आये और तीनों उसमें रहने लगे. इस नये सदस्य का नाम खुशाल रखा गया क्यूँकि उसका प्रारंभिक लालन पालन एक मुसलमान के घर हुआ था. हम चाहते थे कि वो अपनी जड़ों से कटा न महसूस करे तो उसे खुशाल पुकारते. जानवरों में मजहबी विवाद जैसा रोग अभी नहीं पहुँचा है इसलिए तीनों घुल मिल कर रहने लगे, खूब खेलते. गाना गाते तो एक सुर में, चिल्लाते तो एक सुर में, सोते तो एक समय, जगते तो एक समय.
कई बार इच्छा हुई कि हम इन्सान इनसे कुछ सीखें, इनके रहन-सहन पर लिखूँ मगर टलता ही रहा.
तीनों शाम सात बजते ही हल्ला मचाते याने कि अब नींद आ गई है, कंबल उढ़ा दो. जैसे ही कंबल उठाया जाता, तीनों अपने अपने झूले पर सो जाते. सुबह जब तक हम सोते, वो भी सोते रहते मगर जैसे ही मेरे पैर बिस्तर से नीचे उतरते, मेरे कमरे से एक मंजिल नीचे १५ सीढ़ी दूर इन तीनों का कंबल के भीतर से ही कोरस गान शुरु हो जाता. समझते की मम्मी पापा दोनों उठ गये हैं. फिर मैं इनका कंबल हटाता और कहता कि बच्चों, मम्मी अभी सोई हैं. अभी तो हमें ही चहकना अलाऊड नहीं है तो तुम कैसे चहक सकते हो, तो तीनों चुप होकर मम्मी के उठने का इन्तजार करते. जब वो उठती, तो तीनों का फिर चहकना चालू. हालांकि चहक तो हम भी साथ ही उठते थे उस वक्त.
पिछले तीने दिन से ६ साल की बोलू जरा ढीली दिख रही थी. उम्र तो हो ही चली थी. अधिकतर ये प्रजाति ३ से ४ साल जीती है मगर शायद घर का खाना और माहौल उसे ज्यादा उम्र दे गया. बाकी मोलू और खुशाल उसे हैरान करते रहे कि साथ खेलो मगर वो निढाल सी थोड़ा सा खेलती और फिर बैठे बैठे सो जाती. दोनों उसे हिलाते, जगाते तो फिर थोड़ा खेलती. अपने साथियों का मन बहला देती
२१ तारीख को दुनिया खत्म होने की भविष्यवाणी थी. शाम सात बजे बोलू अपने झूले से उतर पिंजड़े के फर्श पर आ बैठी. यह एक प्रकार से इस बात का ऐलान होता है कि मेरे दिन अब पूरे हुए. उसके लिए शायद भविष्यवाणी सही हो रही थी. पत्नी की नजर पड़ी तो उसे सफेद कपड़े में लपेट कर पिंजड़े के बाहर निकाला. अभी सांसे बाकी थी. वो मुझे ताक रही थी. मैने उसके सर पर हाथ फेरा और कहा कि बेटा, निश्चिंत होकर जाओ और अब दादी के साथ वहाँ खेलना. ऐना भी उनके पास है, वो इन्तजर कर रही हैं तुम्हारा. बस दोनों दादी को परेशान मत करना. फिर मैने उसे एक बून्द पानी पिलाया कि प्यासी न जाये. क्या पता कितना लम्बा रास्ता हो दादी के पास तक पहुँचने का. सर पर हाथ फेरा, उसने आँख बंद की और अपनी मम्मी के हाथ में लुढक गई.
हम पति पत्नी एक दूसरे को बहती आँखों से लुटे से देखते रह गये और बोलू चली गई.
सूर्यास्त हो चुका था, इस समय हमारे यहाँ अंतिम संस्कार नहीं किया जाता तो एक डब्बे में उसे आराम से लिटा कर सफेद कपड़ा उढ़ा दिया और अगली सुबह के इन्तजार में अगरबत्ती जला कर रख दी.
मोलू और खुशाल ने फिर कुछ खाया नहीं तो उन्हें भी कंबल से ढक कर सुला दिया. शायद समझ गये हों कि बोलू का साथ यहीं तक था. इतना लम्बा साथ रहा और उसका एकाएक यूँ चले जाना, कैसे कुछ भी खा पाते बेचारे.
सुबह उठकर घर के पास ही बोलू को ओन्टारियों लेक में कुछ पुष्पों के साथ प्रवाहित कर दिया.
मोलू, खुशाल धीरे धीरे सामान्य हो रहे हैं. कुछ खाने भी लगे हैं और बीच बीच में चिल्लाना और गाना भी शुरु कर दिया है मगर ज्यादा तो मिस ही कर रहे हैं अपनी साथी को. जीवन तो रुकता नहीं, फिर सामान्य होना ही होता है.
मुझे पता है कि हमारी प्यारी बिटिया बोलू, दिल की इतनी कोमल और शीशा देखकर अपने चेहरे को निहारने की शौकीन, अगले जन्म में किसी अच्छे घर में सुन्दर सी इन्सानी बिटिया बन कर जन्म लेगी..कभी दिखी तो मैं पहचान लूँगा उसे.
माँ बाप तो बच्चों को हर रुप में पहचान ही जाते हैं.
बहुत याद आ रही हो तुम बोलू.....मुझे, मम्मी को और मोलू और खुशाल को भी. तुम्हारा झूला पिंजड़े में खाली टंगा है, उसे अलग करने की हिम्मत मुझमें अभी तो नहीं है बिटिया. शायद कल को यह हिम्मत हो जाये मगर दिल के पिंजड़े में तो तुम हमेशा टंगी ही रहोगी उस झूले पर गाना गाती.
तुम खुश रहना हमेशा, जहाँ भी रहो!!!!