रविवार, मई 29, 2011

अभी कुछ और..बाकी है!!!

मित्र प्रवीण पाण्डेय जी का एक बहुत लोकप्रिय ब्लॉग है : न दैन्यं न पलायनम्  उस ब्लॉग पर अपने आस पास की नितचर्या के माध्यम से इतना बेहतरीन जीवन दर्शन का पाठ मिलता है कि हमेशा इन्तजार रहता है कि कब नया आलेख आये और उससे कुछ लाभ मिले. कुछ दिनों पहले वहीं एक आलेख ’जीवन दिग्भ्रम’ पढ़ा था. जाने कैसे पढ़ते पढ़्ते भाव उभरे उस आलेख पर कि एकाएक दिल कह उठा:

इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है

बस, यही शेर दर्ज कर दिया वहाँ टिप्पणी में. टिप्पणी किये पाँच मिनट भी न बीते होंगे कि मित्र नवीन चतुर्वेदी  का ईमेल आ धमका; मस्त मस्त शेर सर जी!!!!!!!!!!!!!!!!! आप का ही है न?

तब हमें समझ आया कि अरे, हम तो शायद कोई शेर कह गये. :)

मेरी स्वीकारोत्ति पाकर उन्होंने इतना अच्छा शेर पीछे छोड़ आने के बतौर जुर्माना आदेश पारित किया कि अब इस पर आप पूरी गज़ल लिखें, तभी बात होगी.

हीरे को पारखी ने पहचान लिया वरना हम तो कोयला समझ छोड़ आये थे वहीं. (आजकल खुद की पीठ ठोंकने में महारत हासिल कर रहा हूँ, नये जमाने का यही चलन है) :) नवीन जी से छंद ज्ञान ले रहे हैं और साथ ही अपनापन सदा से रहा है, तो भला उनका आदेश कैसे टालता, हामी भर दी. लगे जोड़ा जाड़ी करने. रदीफ, काफिया मिलाने. जोड़ जाड़ कर किसी तरह चार दिन भट्टी पर चढ़ाये पकाते रहे, सुबह शाम फेर बदल करते रहे और फिर प्राण शर्मा भाई साहब  का आशीर्वाद लिया अपने लिखे पर और ये देखो, चले आये आपके सामने गज़ल लेकर.

अब आप पढ़े और बतायें:

infinite

इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है


हमेशा ज़ख़्मी दिल को दोस्तो ये खौफ रहता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है


दिखा मैं साथ जो तेरे तो दिल ये हंस के कहता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


ये शायद सोच कर आँसू मेरी आँखों से गिरता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


यही कह कर वो रातों में सभी तारों को गिनता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


हज़ारों ग्रन्थ पढ़ डाले मगर क्यों नित ये लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाकी  है


दिलों के बैर को कोई कुछ ऐसे साफ़ करता  है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


अजब इन्सान का चेहरा हमेशा यूँ ही दिखता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, मई 26, 2011

और उसका यूँ चले जाना.....

सन २००६. तब बोलू इस घर में आई थी ऐना की साथी बनकर. नामकरण बोलू करने के पीछे भी एक यादगार कारण ही रहा वरना नाम भला बोलू कौन रखता है.

" हमारी ससुराल मिर्ज़ापुर की है. एक बार जब हम गये वहाँ और हमारे ससुर साहब ने,(जो कि  अब नहीं हैं इस दुनिया में), मुझे उनके एक मित्र ,(जो कालिन का धंधा करते थे) की फेक्टरी देखने भेजा ,वहां जाने पर मालिक ने हमारी खातिरदारी की, दामाद जो थे हम और वो भी विदेश से आये. अपने खास नौकर को न जाने क्या समझा कर हमारे साथ किया. वो हमें गोदाम दिखाने लगा, पहली कालीन दिखाई और कहा कि ई बोलू है हम सोचे कि यह कोई क्वालिटी होती होगी. तब तक दूसरी कालीन दिखाई और कहा कि ई रेड है, लाल रंग की थी वो. तब हम यह समझ पाये कि पहले वाली नीली थी इसलिये बोलू (ब्लू)....यह नयी वाली भी नीले रंग की है सो नामकरण हुआ "बोलू". :)

बोलू-एना की साथी-अब दो-तोते |

मगर कुछ दिन का ही साथ रहा दोनों का और ऐना चल बसी. तब बोलू कुछ उदास और बुझी बुझी रहने लगी. बोलू का अकेलापन हमसे देखा नहीं गया और हम इसके लिए भी एक साथी लेते आये. भारतीय हैं तो नाम तो मिलता जुलता रखना ही था रो बेसिर पैर का नाम मोलू नये वाले को मिला. अब बोलू मोलू का साथ हो गया. खूब खेलते आपस में, दिन भर गाना गाते, खाना खाते मगर पिंजड़ा खुला भी रहे तो बाहर न आते. आपस में एक दूसरे का साथ ही इनकी दुनिया बन गई. इन्हें हमारी जरुरत न रही कम से कम खेलने और दिल बहलाने को.

लेकिन फिर भी शायद कभी सोचते हों कि चलो, इतना ख्याल रखते हैं मियां बीबी हमारा तो इनका दिल बहला दें तो पिंजड़े से निकालने पर निकल आते. कुछ देर साथ बैठते और मौका लगते ही पिंजड़े में वापस. माँ बाप को क्या चाहिये कि बच्चे खुश रहे बस!! कभी कभार हाल पूछ लें वरना तो उनकी अपनी दुनिया और उनका अपना परिवार. ये बात ये दोनों भी भली भाँति समझ चुके थे.

इस बीच हमारे घर तोते (इनको मैं तोता कहता हूँ मगर यह उसी प्रजाती के किन्तु बज़्ज़ी कहलाते हैं) का हँसता खेलता परिवार देखकर हमारी अफगानी पड़ोसी भी तोता पालने का मोह लगा बैठी. इन्हीं दोनों की ब्रीड का एक तोता वो भी लेती आई. पिंजड़ा खरीदा, खाना आया. सब करने की कोशिश की हमारी तरह मगर, जैसे छोटे बच्चों की बदमाशी भी तभी अच्छी लगती है, जब वो दूसरों के घर हो रही हो. यह बात हमारे पड़ोसी को भी जल्दी ही समझ आ गई और एक दिन कहने लगी कि मैं उसे उड़ाने जा रही हूँ. मुझसे नहीं पाला जायेगा.

जो बच्चा पैदा होते ही घर में पला हो वो भला जंगल में कैसे रह पायेगा? मुझे चिन्ता होने लगी. जंगल में रहने के कायदे अलग होते हैं, वो इस बच्चे ने कभी सीखे ही नहीं भले ही चिड़िया हो. वही हाल उन भारतियों के बच्चों का होता है जो अमेरीका/कनाडा में जन्म लेते हैं. उन्हें भारत जाकर रहने को बोल दिजिये तो चार दिन न रह पायेंगे. उन्होंने कभी सीखा ही नहीं वो लाईफ स्टाईल जहाँ आपको अपनी जगह खुद बनानी होती है. अपने ही अधिकार को हासिल करने के लिए लड़ना होता है. घूस खिलानी होती है.

यही सब सोच कर मैने पड़ोसी से कहा कि उसे उड़ाओ मत, वो मर जायेगी. एक शेर कहीं पढ़ा था, वो याद हो आया:

क़फ़स से निकल कर किधर जायेगी
रिहाई मिलेगी तो मर जायेगी...

(क़फ़स=पिंजड़ा)

हमने उससे कहा कि हमारे घर तो दो पल ही रही हैं, तीन पल जायेंगी. हमें दे दो. हम पिंजड़ा बड़ा ले आये और तीनों उसमें रहने लगे. इस नये सदस्य का नाम खुशाल रखा गया क्यूँकि उसका प्रारंभिक लालन पालन एक मुसलमान के घर हुआ था. हम चाहते थे कि वो अपनी जड़ों से कटा न महसूस करे तो उसे खुशाल पुकारते. जानवरों में मजहबी विवाद जैसा रोग अभी नहीं पहुँचा है इसलिए तीनों घुल मिल कर रहने लगे, खूब खेलते. गाना गाते तो एक सुर में, चिल्लाते तो एक सुर में, सोते तो एक समय, जगते तो एक समय.

कई बार इच्छा हुई कि हम इन्सान इनसे कुछ सीखें, इनके रहन-सहन पर लिखूँ मगर टलता ही रहा.

तीनों शाम सात बजते ही हल्ला मचाते याने कि अब नींद आ गई है, कंबल उढ़ा दो. जैसे ही कंबल उठाया जाता, तीनों अपने अपने झूले पर सो जाते. सुबह जब तक हम सोते, वो भी सोते रहते मगर जैसे ही मेरे पैर बिस्तर से नीचे उतरते, मेरे कमरे से एक मंजिल नीचे १५ सीढ़ी दूर इन तीनों का कंबल के भीतर से ही कोरस गान शुरु हो जाता. समझते की मम्मी पापा दोनों उठ गये हैं. फिर मैं इनका कंबल हटाता और कहता कि बच्चों, मम्मी अभी सोई हैं. अभी तो हमें ही चहकना अलाऊड नहीं है तो तुम कैसे चहक सकते हो, तो तीनों चुप होकर मम्मी के उठने का इन्तजार करते. जब वो उठती, तो तीनों का फिर चहकना चालू. हालांकि चहक तो हम भी साथ ही उठते थे उस वक्त.

पिछले तीने दिन से ६ साल की बोलू जरा ढीली दिख रही थी. उम्र तो हो ही चली थी. अधिकतर ये प्रजाति ३ से ४ साल जीती है मगर शायद घर का खाना और माहौल उसे ज्यादा उम्र दे गया. बाकी मोलू और खुशाल उसे हैरान करते रहे कि साथ खेलो मगर वो निढाल सी थोड़ा सा खेलती और फिर बैठे बैठे सो जाती. दोनों उसे हिलाते, जगाते तो फिर थोड़ा खेलती. अपने साथियों का मन बहला देती

२१ तारीख को दुनिया खत्म होने की भविष्यवाणी थी. शाम सात बजे बोलू अपने झूले से उतर पिंजड़े के फर्श पर आ बैठी. यह एक प्रकार से इस बात का ऐलान होता है कि मेरे दिन अब पूरे हुए. उसके लिए शायद भविष्यवाणी सही हो रही थी. पत्नी की नजर पड़ी तो उसे सफेद कपड़े में लपेट कर पिंजड़े के बाहर निकाला. अभी सांसे बाकी थी. वो मुझे ताक रही थी. मैने उसके सर पर हाथ फेरा और कहा कि बेटा, निश्चिंत होकर जाओ और अब दादी के साथ वहाँ खेलना. ऐना भी उनके पास है, वो इन्तजर कर रही हैं तुम्हारा. बस दोनों दादी को परेशान मत करना. फिर मैने उसे एक बून्द पानी पिलाया कि प्यासी न जाये. क्या पता कितना लम्बा रास्ता हो दादी के पास तक पहुँचने का. सर पर हाथ फेरा, उसने आँख बंद की और अपनी मम्मी के हाथ में लुढक गई.

हम पति पत्नी एक दूसरे को बहती आँखों से लुटे से देखते रह गये और बोलू चली गई.

सूर्यास्त हो चुका था, इस समय हमारे यहाँ अंतिम संस्कार नहीं किया जाता तो एक डब्बे में उसे आराम से लिटा कर सफेद कपड़ा उढ़ा दिया और अगली सुबह के इन्तजार में अगरबत्ती जला कर रख दी.

मोलू और खुशाल ने फिर कुछ खाया नहीं तो उन्हें भी कंबल से ढक कर सुला दिया. शायद समझ गये हों कि बोलू का साथ यहीं तक था. इतना लम्बा साथ रहा और उसका एकाएक यूँ चले जाना, कैसे कुछ भी खा पाते बेचारे.

सुबह उठकर घर के पास ही बोलू को ओन्टारियों लेक में कुछ पुष्पों के साथ प्रवाहित कर दिया.

मोलू, खुशाल धीरे धीरे सामान्य हो रहे हैं. कुछ खाने भी लगे हैं और बीच बीच में चिल्लाना और गाना भी शुरु कर दिया है मगर ज्यादा तो मिस ही कर रहे हैं अपनी साथी को. जीवन तो रुकता नहीं, फिर सामान्य होना ही होता है.

मुझे पता है कि हमारी प्यारी बिटिया बोलू, दिल की इतनी कोमल और शीशा देखकर अपने चेहरे को निहारने की शौकीन, अगले जन्म में किसी अच्छे घर में सुन्दर सी इन्सानी बिटिया बन कर जन्म लेगी..कभी दिखी तो मैं पहचान लूँगा उसे.

माँ बाप तो बच्चों को हर रुप में पहचान ही जाते हैं.

बहुत याद आ रही हो तुम बोलू.....मुझे, मम्मी को और मोलू और खुशाल को भी. तुम्हारा झूला पिंजड़े में खाली टंगा है, उसे अलग करने की हिम्मत मुझमें अभी तो नहीं है बिटिया. शायद कल को यह हिम्मत हो जाये मगर दिल के पिंजड़े में तो तुम हमेशा टंगी ही रहोगी उस झूले पर गाना गाती.

तुम खुश रहना हमेशा, जहाँ भी रहो!!!!

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सोमवार, मई 23, 2011

किसी ने कुछ कहा होगा…

आज सूचना में इस माह विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित मेरी रचनायें:

आस्ट्रेलिया से प्रकाशित ’हिन्दी गौरव’ में हरे सपने...

कनाडा से प्रकाशित हिन्दी चेतना में ’आप जलूल आना, चोनु’

भोपाल से प्रकाशित गर्भनाल के अंक ५४ में ’अंतिम तिथी’

 

अब पढ़े एकदम ताजी गज़ल, मास्साब पंकज सुबीर जी के वरद हस्त के साथ प्रस्तुत:

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न जाने अबके दंगे में, लहू किसका बहा होगा
किसी ने कुछ सहा होगा, किसी ने कुछ सहा होगा.


लगी है भीड़ उस दर पर, हुआ है जिक्र मेरा ही
किसी ने कुछ कहा होगा, किसी ने कुछ कहा होगा.


लिया होगा बहुत मजबूर होकर नाम जब उसने
किसी से कुछ सुना होगा, किसी से कुछ सुना होगा,


नहीं यूँ शोहरतें हासिल, कई किरदार मेरे हैं
किसी ने कुछ चुना होगा, किसी ने कुछ चुना होगा.


यूँ ऐसी शख्शियत मेरी, कई ख्वाबों में पलती है
किसी ने कुछ बुना होगा, किसी ने कुछ बुना होगा.


-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मई 17, 2011

बेढब फेन्टेसिज़

आजकल किताबें पढ़ने में ज्यादा वक्त गुजर रहा है. शायद मूड स्विंग जैसा कुछ हो. कभी मन उचाट होता है तो न लिखने में और न पढ़ने में जी लगता है. कई बार लिखने बैठो तो ऐसा मन में लगता है कि एक कविता लिखना शुरु हो और जब उठे, तो देखा साथ कहानी भी तैयार हो गई. कभी ब्लॉग में मन रम जाता है तो कभी किताब में. कभी घूमने फिरने में तो कभी बस यूँ यूँ बिना कुछ किये खोये खोये बैठे रहने में. कभी संगीत सुनने की धुन चढ़ जाती है तो कभी सिनेमा देखने की. हर वक्त एक जैसा नहीं रहता. सब बदलता रहता है.

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किताबों से यूँ तो लगाव रहा है लेकिन इतना डूब कर पढ़ने का मन बहुत समय बाद बना है जब एक के बाद एक किताब खत्म करते चल रहा हूँ. पढ़कर सीखना, कुछ लेखन की शैलियों से प्रभावित हो उन्हें आत्मसात करना, कुछ विवरणों में खो जाना मानो खुद भी उसके पात्र हो-जाने किस किस मोड़ से गुजर रहा हूँ.

कभी महसूस करता हूँ लेखक की सोच, उसकी मजबूरियाँ, उसकी फैन्टेसिज़, उसकी कल्पनाशीलता, शब्द चित्रण की कला तो कभी खीज भी जाता हूँ बेबात की बात का बतंगड़ बनते देख, दुहराव देख, गैरजरुरी विषय को जरुरत से ज्यादा तूल देते देख.

शायद मेरे लिखे को पढ़ कर भी लोग ऐसा ही कुछ सोचते हों, कौन जाने. लेकिन खुद का लिखा इस तरह से कभी पढ़ा नहीं तो जान भी नहीं पाया.

कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने से मैं खुद को हमेशा रोकता आया हूँ. शायद लिखूँ तो लिख भी पाऊँ मगर एक संकोच का घेरा है. एक दायरा सा है लेखन के विस्तार का जिसके भीतर मैं सहज महसूस करता हूँ. उसके परे जाते ही मुझे सबसे पहले वो चेहरे याद आते हैं जो मुझे जानते हैं और जो निश्चित ही मुझे पढ़ने वाले हैं. मेरे व्यक्तित्व का एक तय खाका है उनके जेहन में. मैं उन्हें तोड़ना नहीं चाहता. जो रंग भरे हैं उन्होंने मेरे व्यक्तित्व में, उसे बदरंग होते देखना मुझे फिलहाल तो मंजूर नहीं. अतः विषय और वृतांतो की व्यापकता एक सीमा रेखा के भीतर बाँधे रखती है मुझको.

हो सकता है अधिक पठन का प्रभाव इस सीमा को तोड़े. विभिन्न शैलियाँ प्रभावित करती हैं और एक से बढ़कर एक वृतांत जिन पर मैं नहीं लिख पाया, उन्हें एक सभ्यता के दायरे में विस्तार पाते देखना सुखद अनुभूति के साथ अचंभित करता है. इस मामले में हाल ही में पढ़ी ’खोया पानी’ के अनेकों वृतांतो नें खासा प्रभावित किया.

वहीं कुछ पुस्तकों में दर्ज फैन्टेसिज़ और विवरणों नें बेहद खीज भी उत्पन्न की. लगा कि कितना अनावश्यक था वह वर्णन किन्तु शायद लेखक कल्पना की उड़ान में जाकर भूल बैठा कि पाठक वर्ग उसकी नितांत व्यक्तिगत फैन्टेसिज़ से कोई साबका नहीं रखता और वो अपने जेहन में लेखक का व्यक्तित्व वैसा ही बनायेगा, जैसा वो उसे पढ़ेगा.

शायद लेखक को व्यक्तिगत रुप से जानने की वजह से इस तरह का लेखन एक भूलभुलैया जैसा वातावरण निर्मित कर देता है. एक बार लगता है कि यह वह नहीं जिसे मैं जानता हूँ. फिर लगता है कि कल्पनाशीलता की उड़ान कब बाँधी जा सकती है किसी दायरे में. फिर तुरंत ही विचार आता है कि कल्पनाशीलता का आसमान भी तो किसी न किसी धरातल का सहारा ले खड़ा होता है.

आज तो नहीं ही उड़ पाता वैसे जैसा कि देखता हूँ लोगों को रचते. शायद कल लिखने लगूँ- कल किसने देखा है.

ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा...

कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, मई 13, 2011

सीखो कुछ तो इस भीषण कांड से....

मात्र १०-१२ घंटों के लिए गुगल का ब्लॉगस्पॉट क्या बैठा कि मानो हर तरफ हाहाकार मच गया. छपास पीड़ा के रोगी ऐसे तड़पे मानो किसी हृदय रोगी से आक्सीजन मास्क खींच ली गई हो. जिसे देखा वो हैरान नजर आया. एक सक्रिय ब्लॉगर होने के नाते चूँकि हमारी हालत भी वही थी तो गाते गाते फेसबुक, ट्विटर,  बज़्ज़, ऑर्कुट पर डोलते रहे:

सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान-सा क्यूं है.
इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यूं है..

सन १७८० के आस पास शाह हातिम के जमाने में भी लगता है ब्लॉगर्स जैसा कोई टंटा रहा होगा. कभी ऐसे ही बैठ गया होगा जैसे कि आज ब्लॉगर बैठा तो हैरान परेशान खुद एवं लोगों की हालत देख शाह हातिम ने लिखा होगा कि:

तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
उठ खड़े हो तो क्या क़यामत हो!!

सब आदत की बात होती. कोई भी आदत शुरु में शौक या मजबूरी से एन्ट्री लेती है और बाद में लत बन जाती है. अच्छी या बुरी दोनों ही बातें अगर लत बन जायें और फिर न उपलब्ध हों तो फिर तकलीफदायी हो चलती हैं. इन्सान छटपटाने लगता है. कुछ भी कर गुजरने को आतुर हो जाता है.

किसी ड्रग के आदी, शराब के लती, सिगरेटबाज और यहाँ तक कि शतरंजी को उपलब्धता के आभाव में तड़पते तो सभी ने देखा ही होगा. शायद शुरु में चार दोस्तों के बीच फैशन में या स्टेटस बघारने को एक पैग स्कॉच ले ली होगी. नशे की किक में मजा आया होगा. फिर कभी कभार और, फिर महिन में एक बार, फिर हफ्ते में, फिर एक दिन छोड़ एक दिन और फिर रोज पीने लग गये होंगे. बस, लग गई लत. अब एक दिन न मिले, तो बिस्तर में उलटते पलटते नजर आयें. नींद न पड़े. बेबात बीबी बच्चों पर बरसने लगें.

तब देखा कि ब्लॉगस्पॉट क्या बैठा, लगे लोग फेस बुक का सत्यानाश करने, ट्विटर पर ट्विटियाने,ऑर्कुट पर ऑर्कुटियाने और बज़्ज़ पर बज़्ज़ियाने- हाय, ब्लॉगर नहीं चल रहा. क्या आपका भी नहीं चल रहा? जबकि ब्लॉगस्पॉट की साईट साफ साफ लिख कर बता रही थी कि मेन्टेनेन्स चल रहा है, अभी आते हैं. मगर लतियों को चैन कहाँ? वो तो लगे यहाँ वहाँ भड़भड़ाहट मचाने. यहाँ तक कि जब ब्लॉगस्पॉट चालू हुआ तो फिर हल्ला मचा और कम से कम १०० फेसबुक, ब्ज़्ज़, ट्विट अपडेट मिले कि हुर्रे, चालू हो गया!! अच्छा है यहाँ चीयर बालाओं का चलन महीं है वरना तो क्या नाच होता कि देखने वाले देखते रह जाते.

blogphoto

लम्बे समय तक कोई आदत रहे तो लत बन जाने पर क्या हालत होती है, उसको जो जायजा आज मिला उसे देख कर एकाएक परेशान हो उठा. सोचने लगा कि भारत का क्या होगा?

सुनते हैं कि अन्ना किसी भी तरह हार मानने को तैयार नहीं. लगे हैं कि १५ अगस्त तक भ्रष्ट्राचार बंद हो ही जाना चाहिये. उनकी इस हठ से और आज के अनुभव से मुझे डर लगने लगा है. न सिर्फ भ्रष्ट्राचारियों से बल्कि उनसे भी जो इतने सालों तक भ्रष्ट्राचार झेलने के आदी हो गये हैं.

यूँ भी पूरा भारत में मात्र दो पार्टियाँ ही हैं जिन्हें मिलाकार भारत कहा जाता है. एक जो भ्रष्ट्राचार करते हैं और एक वो जो भ्रष्ट्राचार झलते हैं.

एकाएक १५ अगस्त को भ्रष्ट्राचार बंद हो जायेगा तो इन दोनों पार्टियों की क्या हालत होगी, ये भी तो सोचो. हर तरफ अफरा तफरी मच जायेगी. हाहाकार का माहौल होगा. आदमी स्टेशन पहुँचेगा, बिना रिश्वत दिये रिजर्वेशन मिल जाने पर भी ट्रेन में चढ़ने की हिम्मत न जुटा पायेगा कि जरुर कुछ घपला है. ऐसे भला रिजर्वेशन मिलता है क्या कहीं. ट्रेन का कन्फर्म टिकिट लिए वो बौखलाया सा बस में बैठ जायेगा. और भी इसी तरह की कितनी विकट स्थितियाँ निर्मित हो जायेंगी-सोच सोच कर माथे की नसें फटी जा रही हैं.

अन्ना, मान जाओ, प्लीज़. कुछ तो सीख लो आज के इस ब्लॉगस्पॉटी भीषण कांड से. क्या १६ अगस्त को अच्छा लगेगा जब सब कहेंगे कि पूरा देश जो तांडव कर रहा है, उसके जिम्मेदार अन्ना हैं? नाहक इस उम्र में आकर इतना बड़ा इल्जाम क्यूँ अपने माथे लगवाना चाहते हैं?

मान जाओ न प्लीज़!!! चलने दो जैसा चल रहा है? कुछ घंटों के लिए मेनटेनेन्स टाईप भ्रष्ट्राचार रुकवाना हो तो पूर्व सूचना देकर रुकवा लो, दोनों पार्टियाँ झेल लेंगी किसी तरह, तुम्हारी भी बात रह जायेगी- मगर ये पूरे से खात्मे की जिद न करो.

प्लीज़!!!!!!

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, मई 09, 2011

हाय!! ये भ्रष्ट्राचार!!!

इधर कुछ व्यक्तिगत विवशतायें बाध्य करती रहीं कि कुछ न लिख पाऊँ और उधर स्नेही अपने हिसाब से मेरे विषयक आलेख छापते रहे. भाई अख्तर खान आकेला  ने छापा और एक अलग अंदाज में भाई जाकिर अली रजनीश जी ने भी जनसंदेश के ब्लॉगवाणी स्तम्भ में छापा. अभिभूत होता रहा उनके स्नेह से और समयाभाव के बीच उतर आई एक गज़ल, तो पेश है आपकी नजर! इस गज़ल को प्राण शर्मा जी का आशीष प्राप्त है.

 slchinta

कब्ज़ियत से जब हुआ बीमार मेरे दोस्तो
तब निकल आये हैं ये उदगार मेरे  दोस्तो


जीत कर इक खेल की  अब ` वार ` मेरे दोस्तो
देश भर में मन रहा  त्यौहार  मेरे  दोस्तो


फिर अजब दीवानगी का दौर है अब हर तरफ
खेल  कैसा बन गया  व्यापार  मेरे दोस्तो


किस कदर जीवन बिके  बेमोल सा बाज़ार  में
आदमी  ही बन गया  हथियार मेरे  दोस्तो


ये निशानी थी कभी ईमान की या धर्म  की
खादी  में  हैं  घुस  गये  गद्दार   मेरे  दोस्तो


एक अन्ना ही बहुत है क्योंकि उसके   सामने
झुक  गयी है  देश की  सरकार  मेरे दोस्तो


भ्रष्ट  खुद हो और जो दे साथ नित ही  भ्रष्ट का
दंडनीय  हैं  दोनों  के  किरदार  मेरे दोस्तो


गंध मुझको मिल सके सोते हुए या जागते
उस चमन की अब रही दरकार मेरे  दोस्तो


चंद काँटे तो चुभेंगे फूल  चुनने को " समीर "
पाप जड़ से ही मिटे इस  बार मेरे  दोस्तो


-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, मई 02, 2011

अंतिम तिथि

गर्भनाल  का ५४ वां इन्टरनेट संस्करण आ चुका है. इस बार मेरा व्यंग्य आलेख ’अंतिम तिथि’ प्रकाशित हुआ है. अभी तक कहीं और नहीं छपा है. आप भी पढ़िये:

सुबह सुबह भईया जी के यहाँ पहुँचा. बड़ी गमगीन मुद्रा में नाश्ता कर रहे थे वे.

मुंशी बाजू में बैठा लिस्ट बना रहा था. भईया जी लिखवाते जा रहे थे:

  • नगर निगम से पानी के दोनों नल रेग्यूलर कराना है.
  • राशन कार्ड से बाबू जी का नाम हटवाना, जिनकी मृत्यु आज से ५ साल पहले हो चुकी है.
  • स्व. पिता जी का नाम वोटर लिस्ट से हटवाना है. ५ साल से टल रहा है.
  • गैस कनेक्शन नौकर के नाम से हटाकर खुद के नाम ट्रांसफर कराना है.
  • २० साल के अनुभव के बाद ड्राईविंग का लर्निंग और फिर मेन लायसेन्स लेना है.
  • २००७ में खरीदी गाड़ी का रजिस्ट्रेशन कराना और लाईफ टाईम टेक्स भरना है.
  • १२ वर्ष पूर्व जारी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का प्रमाण पत्र, भूलवश जारी के पत्र के साथ सरकार को वापस करना है.
  • गैरेज बढ़ाकर दो फुट सड़क घेरने का नक्शा, नक्शा ऑफिस से नियमित कराना है.
  • आयकर विभाग में वालेन्टरी स्कीम में आय घोषित कर टैक्स भरना है.
  • खेत में सिंगल बत्ती कनेक्शन अपने नाम से कराना है.
  • घर के पीछे वाले हिस्से में कटिया हटवाकर कनेक्शन मीटर से करवाना है.
  • बालिकाओं के लिए ’रंगीन तितली’ और महिलाओं के लिए ’माँ वैभव लक्ष्मी’ नामक चार साल पहले बनाये दो एन जी ओ को बंद करवाना है.

और भी जाने क्या क्या काम जिसमें पूर्व की कारगुजारियाँ और कुछ कार्य आने वाले समय में करने के मंसूबे मगर सबके कागजात जल्दी से जल्दी बनवाने की कवायद में लगे थे.

मैने चेहरे पर उभर आई इस परेशानी का कारण पूछा तो कहने लगे कि अब दु-धारी तलवार पर चलने का जमाना आ रहा है तो यह सारी परेशानी तो होना ही है.

तब पता चला कि आधी झंझट तो इससे आन पड़ी कि भईया जी ने खुद ही साथियों को भड़का कर आनन फानन में जो भ्रष्टाचार उन्मूलन समिति बनाकर खुद को स्वयंभू अध्यक्ष घोषित किया था, उसे भईया के दिल्ली वाले संपर्क ने इनका संजीदा कदम मानते हुए मान्यता दिला दी और सरकारी ग्रान्ट और भूमि के आबंटन के लिए दरखास्त भी लगवा दी ताकि एकाध महिने में अप्रूव हो जाये. मौका नाजूक था तो भईया जी मना भी नहीं कर पाये और न ही बता पाये कि यह समिति तो देश का माहौल देखते हुए टेम्परेरी बनाई थी.

फिर उस पर जिस अनशन कार्यक्रम में जोश दिखाते हुए हिस्सा लेने पहुँचे थे, उसके लिए उनकी सोच थी कि अन्य आंदोलनों की तरह यह भी नींबू पानी आदि पिलाकर समाप्त करवा दिया जायेगा और बात आई गई हो जायेगी, साथ ही भईया जी का रुतबा भी बन जायेगा. जनता का क्या है वो तो किसी और मसले में उलझ कर इसे भूल जायेगी. उसकी आदत है. मगर हाय री किस्मत, सरकार आंदोलनकारियों की शर्तें मान गई. सारा का सारा प्लान धाराशाई हो गया.

यूँ तो सरकार हजारों किसानों के मरने पर चुप बैठी रही, नन्दीग्राम में चुप लगा गई, गुर्जरों को बहला फुसला लिया और आज जब भईया जी की बारी सामने आई तो एकदम पलट गई. भईया जी की नजर में यह सरकार की सरासर चीटिंग है. कोई कन्सिस्टेन्सी नाम की कोई चीज ही नहीं है इस सरकार की कार्य प्रणाली में.

किसी के साथ कैसा व्यवहार और किसी के साथ कैसा? ऐसा कहीं होता है क्या..सरकार सरकार खेलना है तो फेयर गेम खेलो या फिर खेलो ही मत. कोई क्रिकेट है क्या कि जिसको मर्जी हो खिलवा लिया, जिसको मर्जी हो बैठाल दिया.

अब भईया जी को चिन्ता सता रही है कि जब इतना हो गया तो कहीं १५ अगस्त से सच में भ्रष्टाचार भी न बंद हो जाये. किसका भरोसा करें? जिस सरकार पर इतने दिन तक भरोसा किया वो तक तो पलट गई तो अब तो समझो कि भरोसा नाम की चिड़िया उड़ गई. १५ अगस्त से तो जानिये गौरैय्या हो गई, विलुप्त प्रजाति.

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अच्छा खासा तो चल रहा था. सब कामों के रेट फिक्स से ही थे फिर भी न जाने किसको क्या दिक्कत हुई, कौन सा काम अटक गया-सारी नौटंकी खड़ी करके रख दी. अरे, एक बार हमसे बता देते तो हम ही करवा देते कुछ ले दे कर...बेवजह का बवाल खड़ा कर दिया. बता दे रहे हैं और चाहो तो स्टॉम्प पेपर पर लिख कर दे दें-ये बुजुर्ग तो भ्रष्टाचार हटवा कर निकल लेंगे, अंजाम हमें आपको और आने वाली जनरेशन को भुगतना होगा. सब पछतायेंगे कि यह क्या कर बैठे. फिर न कहना कि आगाह नहीं किया था..

इतनी बढ़िया व्यवस्था थी, सब काम हुआ जा रहा था. सब मिल कर ऐश कर रहे थे. पता नहीं कैसे और किसको बर्दाश्त नहीं हुआ, अब भुगतो सब और हमारे पास मत आना कि भ्रष्टाचार वापस ले आओ का आंदोलन चलवा दिजिये. ये रोज रोज का टंटा हमको पसंद नहीं है.

बहुत खराब आदत पड़ी है सबकी-एक दिन कहते हैं अंग्रेज भारत छोड़ो..फिर मनाते हैं कि वो ही ठीक थे...वापस आ जाओ. बस, आना जाना ही लगा रहेगा तो काम कब होगा?

अब अगर १५ अगस्त को भ्रष्टाचार बंद हो गया तो यह सारे लिस्ट के काम कैसे होंगे? इसमें से एक भी काम बिना सेटिंग और लेन देन के होता है क्या भला? इसीलिए भलाई इसी में लग रही हैं कि ये सारे काम करवा कर रख लें फिर इत्मिनान से खुल कर नारा लगा पायेंगे- ’भ्रष्टाचार हटाओ, देश बचाओ’

समय मात्र ४ महिने का बचा है और काम का तो मानो ढेर हो.आप भी जाकर अपना बकाया काम निपटाईये, और हमें अभी निपटाने दिजिये.

वैसे भी आपकी जरुरत तो नारा लगाने के लिए ही पड़ेगी, अभी क्यूँ समय खराब करते हैं?

लौटते हुए मैं भी सोचने लगा कि वाकई ऐसे कितने सारे काम पेन्डिंग पड़े हैं जो भ्रष्टाचार खतम हो जाने के बाद तो करवा पाना संभव ही नहीं होंगे. बस यही सोच कर लगा कि समय बहुत कम बचा है. मैंने महसूस किया कि मेरी चाल एकाएक तेज हो गई है और मैं मन ही मन कामों की लिस्ट बनाता घर की तरफ चला जा रहा हूँ.

-समीर लाल ’समीर’

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