सोमवार, अगस्त 28, 2006

हमऊ छुट्टी मनायें...

कुछ समय से लोगों की "छुट्टी का दिन कैसे बीता" पर काफ़ी बेहतरीन गाथाऎं पढ़ रहा था. आज जब नींद खुली तो सोचा, हमऊ हफ़्ते भर का लटका काम निपटाते हुये छुट्टी का सदुपयोग कर डालें.
पहला विचार आया कि कार धोने से शुरुवात की जाये. बस गैराज से गाड़ी निकालने बाहर आ गये. निकलते ही शर्मा जी मिल गये, घूम कर लौट रहे थे. फिर क्या था, चर्चा का दौर चल निकला. फिर सामने ही उनके बरामदे मे बैठ कर चाय पी गई. तब तक मुझे याद आया कि शर्मा जी की एक किताब जो पिछले हफ़्ते लाया था, वो लौटानी है. मै घर के भीतर लौट आया कि उनको किताब ले जा कर वापस कर देता हूँ. घर मे घुस ही रहा था कि बैठक की टेबल पर रखी हफ़्ते भर की डाक का हुजूम दिखाई दे गया. अरे, ना जाने कौन कौन सी जरुरी चिठ्ठियां आकर पडी होंगी. चलो, इनकी छ्टाई कर ली जाये. आजकल डाक मे फालतू विज्ञापन वाली डाक कितनी आने लग गई हैं. सोचा, कचरे का डब्बा यहीं लाकर रख लेता हूँ, उसी मे बेकार डाक फेंकता जाऊँगा, नही तो फिर कचरा बीनने का एक काम और बढ़ जायेगा. कचरे का डिब्बा उठाने पीछे वाले कमरे मे गया, तो डब्बा पूरा भरा मिला. ये लो, अब इसे बाहर कचरे मे डाल कर आयें, तब काम आगे बढ़े. अब कचरा फेंकने जा ही रहा हूँ, तो वहीं सामने तो डाक का डिब्बा है, उसमे बिलों के भुगतान के चेक भी डालता आऊँ, कहाँ फिर चक्कर लगाऊँगा. तो फिर पहले चेक बना लेता हूँ. चेक बुक खोली तो उसमे बस एक ही चेक बचा है. नई चेक बुक निकालनी पडेगी. कहां है...कहां है, अरे हां, याद आया, वो मेरी पढ़ने वाली टेबल की दराज मे रखी है. चेक बुक लेने पहुँचा तो देखो तो जरा, ना जाने कल रात शरबत पीने के बाद बोतल यहीं टेबल पर छोड दी.अभी ठोकर लग कर गिर जाये तो सब जरुरी कागज पत्तर खराब हो जायें. इसे फ्रिज मे रख देता हूँ, नही तो खराब और हो जायेगा.
शरबत की बोतल लेकर रसोई मे आया तो वहां किनारे पर रखा गमले का पौधा काउंटर पर बैठा जैसे मेरी ही राह तक रहा था. बेचारा दम तोड़ने की कागार पर है, कब से पानी नही मिला. वहीं काउंटर पर बोतल रख कर पानी लेने जा ही रहा था कि काउंटर पर किनारे ही मेरा चश्मा दिख गया. ये यहां कैसे आया, कल रात से परेशान हूँ. इसे पढ़ने वाली टेबल पर रख आता हूँ, नही तो वक्त पर मिलता नही है. अरे नही, मगर पहले पौधे मे पानी तो डाल दूँ. वही बेसिन के पास चश्मा रख कर पानी भरने के लिये नल खोला ही था कि बेसिन के बाजू मे रखा टी.वी. का रिमोट दिख गया. पता नही कैसे पहुँचा यहां तक. अपने आप तो चल कर आया नही होगा, शायद कल टी.वी. देखते देखते खाना खा रहा था, उसके बाद हाथ धोते समय यहीं छोड दिया होगा. अरे, जरा भी पानी के छीटें पड़ जाये तो ये मियां तो गये और फिर जब तक नया ना लाओ, टी.वी. देखना बंद. नही, नही, इसे यहां से हटा देता हूँ फिर ही कुछ करुँगा. लेकिन अब तो डिब्बे मे पानी भर ही गया है, पहले पानी ही दे देता हूँ. अब पानी भर कर हमने पौधे का रुख किया तो ना जाने कैसे, छलक कर काफ़ी पानी जमीन पर गिर गया. लो, एक काम और बढ़ गया, इसे पोंछो. पोंछने का कपड़ा ना जाने कहां है, बडी मुश्किल है. वो देखो, सामने ही आंगन मे सुख रहा है.अभी लाकर पोंछ देता हूँ, नही तो पानी सामानों के नीचे घुस जायेगा. तुरंत कपड़ा उठाने बाहर निकल ही रहा था कि दरवाजे से शर्मा जी की आवाज आई कि भाई, वो किताब नही लौटाई, शाम हो गई है आखिर मै कब पढूँगा. मैने शर्मा जी से क्षमा मांगी कि आज तो बिल्कुल समय नही मिल पाया.रात मे खोज कर कल आप तक पहुँचा दूँगा.
शर्मा जी चले गये, मै ढलती शाम का सूरज देख रहा हूँ. काफी थक गया हूँ, छुट्टी का दिन खत्म होने के मुहाने पर है. मै दिन भर व्यस्त रहा मगर: ना तो कार धुली, न शर्मा जी की किताब वापस गई, न चिठ्ठियां छांटी गई, न कचरा फेंका, न बिलों का भुगतान. पौधा अब भी पानी की राह तक रहा है, चश्मा काउंटर से उठकर बेसिन के बाजू मे, और शरबत पढाई की टेबल से उठकर काउंटर पर, चेक बुक दराज से निकलने का इंतजार कर रही है. टी.वी. का रिमोट बेसिन के बाजू मे रखा है. पानी का डिब्बा आधा भरा जमीन पर रखा है और जमीन पर गिरा पानी अपने आप सूख गया है. पोंछे का कपडा वहीं अरगनी पर अपना परचम लहरा रहा है और मै थका हारा आकर सोफे पर बैठ जाता हूँ. अभी ईमेल चेक करना है, ब्लाग पढ़ने है, अपना ब्लाग लिखना है.सोचता हूँ खाना बाहर से ही मंगा लेता हूँ, अकेला रहता हूँ ना, कितना कुछ करुँ, अकेले अब होता नही है.

पहले तो रहीम का दोहा ख्याल आया:

"रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय,
सुनि अठिलैहें लोग सब, बांटि न लैहें कोय."


सोचा आप लोगों को बताऊँ या न बताऊँ. फिर ख्याल आया कि बांटने से दर्द मे कुछ सुकुन मिलेगा, सो लिख दिया.

(आधार: एक ईमेल कचरापेटी मे मिला अंग्रेजी पत्र)

-समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, अगस्त 25, 2006

मेरे दादा जी: डा. शिव रत्न लाल

मेरे दादा जी, जिन्हे हम बाबा पुकारते थे, डा. शिव रत्न लाल, जो कि न सिर्फ गोरखपुर शहर के मशहूर एवं सफल होम्योपेथी के डाक्टर एवं समर्पित स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे बल्कि एक समर्पित साहित्यकार भी थे. आप बच्चों जैसे निश्छल और भावनाओं से भरे कवि थे.आपके कई कविता संग्रह और उपन्यास प्रकाशित हुये.



उनके देहावसान के बाद "सदाशय शिव रत्न लाल" पुरुस्कार की शुरुवात की गई जो कि हर वर्ष साहित्यकारों को सम्मानित करता है.

बाबा के समय हमारे घर मे उनकी मित्र मंडली की कवि गोष्ठियां हमेशा होती रहती थी जिसमे जानेमाने नाम हरिवंश राय बच्चन, डा. भगवती प्रसाद सिंह, डा.जगदीश प्रसाद श्रीवास्तव 'अतृप्त', डा.राम अवध द्विवेदी, रामाधार त्रिपाठी 'जीवन' जी जैसे महान लोगों का जमवाड़ा रहता था.

रामाधार त्रिपाठी 'जीवन' जी तो हरदम ही घर पर मौजूद रहते थे. उनका पेशा स्वतंत्र कविता लेखन ही था. जीवन जी की पुस्तक शोकांजली गांधी जी की हत्या के ४ घंटे के भीतर प्रकाशित होकर बाजार मे आ गई थी. ३० पृष्ठों की यह कविता पुस्तक भी मेरे पास धरोहर के रुप मे मौजूद है और मेरी पसंदीदा कविताओं मे से है. अगर आप लोग पढ़ना चाहेंगे तो यहां पोस्ट कर दूँगा.बहुत प्रभावित करने वाली लेखनी है. बाद मे, मुझे याद है, जीवन जी गायब हो गये थे और बहुत खोजने पर भी कभी नही मिले.

अब आपके लिये अपने बाबा डा. शिव रत्न लाल की दो कवितायें उनके कविता संग्रह 'अन्त: सलिला' से पेश करता हूँ:

संकल्प

विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥

कौन जाने दूर कितनी,
है अभी मंजिल हमारी।
और कब तक झेलना है,
संकटों का बोझ भारी॥

पथ असीमित, किन्तु, सीमा-
से घिरा, सब ओर से मैं।
चल रहा हूं लड़खड़ाता,
एक पतले छोर से मैं॥

अनुभवों से हीन मेरे-
पग अचानक डगमगाये।
लाख यत्न किया संभलने-
का, न पर वे संभल पाये॥

लक्ष्य से रह दूर अपने,
राह बीच फिसल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥

'भूल' कहती है सफलता-
की रहस्यमयी कहानी।
'भूल' को पहचान लेना,
है चतुरता की निशानी॥

ठोकरें खाकर निराशा-
से न पीछे को हटूंगा।
लाख बार गिरुं भले, पर,
साधना में रत रहूँगा॥

साधना से विरत होकर,
कौन साधक बन सका है।
सफल साधक के सुपथ में,
कौन बाधक बन सका है॥

साधनों को ही जुटाने-
के निमित्त निकल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥

है नहीं साहस किसी में,
जो कि मुझको टोक देगा।
देखना है कौन मेरी,
राह आकर रोक देगा॥

मै हिमालय सा खड़ा हूँ,
हो जिसे साहस झुका ले।
आज़माना हो जिसे बल,
आज अपना आज़मा ले॥

है अटल विश्वास मुझको,
मैं न तिल भर भी झुकूंगा।
चल पड़ा हूं जब कि आगे,
ना मुड़ूंगा, ना रुकूंगा॥

सकल संचित साध लेकर,
लक्ष्य ओर मचल पड़ा हूँ।
विश्व के अनजान पथ पर,
मै अकेला चल पड़ा हूँ॥

--डा. शिव रत्न लाल (डा. शिव रत्न लाल के कविता संग्रह 'अन्तः सलिला से)


उदबोधन

जागो पंछी हुआ सबेरा।

बीत गई अब रजनी काली,
कूक उठी कोयल मतवाली।
विहंस पड़ी सुमनों की डाली,
सौरभ से भर अपनी प्याली॥

देखो प्राची के प्रांगण में,
ऊषा ने है हेम बिखेरा।
जागो पंछी हुआ सबेरा॥

नभ ने ओस बूंद बरसाया,
सरिता ने संगीत सुनाया।
कलियों ने यौवन-रस पाया,
मधुप वृन्द उन पर मंडराया॥

बहने लगा मन्द मलयानिल,
प्रात हुआ अब मिटा अंधेरा॥
जागो पंछी हुआ सबेरा॥

चहक उठो अब कुछ तो बोलो,
अलसाई आँखों को खोलो।
उड़ कर नभ में वन वन डोलो,
पंखों पर निज जीवन तोलो॥

अपने बल की करो परीक्षा,
छोड़ो निर्बल नीड़ बसेरा॥
जागो पंछी हुआ सबेरा॥

--डा. शिव रत्न लाल (डा. शिव रत्न लाल के कविता संग्रह 'अन्तः सलिला से) Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, अगस्त 22, 2006

हम तो चले परदेश रे भईया....

आजकल प्रवासी, अमरीका-कनाडा प्रवास और प्रवासीयों की जीवन शैली या उन देशों की जीवन शैली बड़ा गरम विषय बना हुआ है, चिठ्ठा जगत मे. कई लेख, निवेदित लेख, शिघ्र लेख, टिप्पणियां और ना जाने क्या क्या खबर मे हैं. इसे लेकर कई तरह की भिड़ंत हुई, यहां तक की एक चिठ्ठा तो भगवान को प्यारा होते होते बचा. भला हो चिठ्ठा जगत के निवासियों का, जिन्होने समझा समझा कर बचा लिया वरना तो अब तक तो सर्व रस्म आदायगी के बाद लोग भूल भी गये होते और भाई जी नये नाम से चिठ्ठा लिखते होते क्योंकि यह भूत तो छूटता नही. लिखते जरुर.
अब कोई समझा रहा है, यहां अच्छा ही अच्छा है, आ जाओ. कोई कहता है कि इस तरफ़ की घास वहीं से हरी लगती है, है वैसी ही भूरी, तो आने के पहले सोच लेना.बहुत पापड़ बेलना पड़ेंगे. यहां तक कि यह भी बता दिया कि कितने तो लौट गये.
हम तो भईया किसी को ना समझायेंगे कि मत आओ. हमने देखा है कि जिसको भी समझाया, वो आया जरुर मगर हमसे संबध खतम कर लिया कि खुद तो ऎश कर रहे हो और हमे मना कर हो. अब तो यह बात गांठ मे बांध कर चलते हैं कि कोई भी पूछे कि क्या प्रोस्पेक्टस हैं. हम बस इतना ही कहेंगे, थोड़ी मेहनत और लगन की जरुरत है फिर सब बढ़ियां. अब कैसे समझायें, थोड़ी मेहनत और लगन से तो हर जगह सब कुछ ठीक है, चाहे यहाँ, चाहे वहाँ.
भले ही कितनी मेहनत करनी पड़े, नये नये कोर्स करने पड़ें, अपने प्रोफ़ेशन को छोड़ कर दूसरा काम करना पड़े, अपना नाम खो देना पड़े, मगर आना जरुर. हम मना नही करेंगे. हम मना भी करें तो तुम मानोगे कहाँ.
बस अनूप जलोटा का एक भजन याद करता हूँ और फिर तुमको सलाह देता हूँ, मात्र एक:

"इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकले,
गोविन्द नाम लेकर, यह प्राण तन से निकले."


अब जब आ ही रहे हो, तो मात्र यह ध्यान रखना कि यह बात आपके शहर मे बहुत ना फैले. अब जहाँ बचपन से आज तक रहते आये हैं, वहाँ जब सब जान जायेंगे कि आप अमरीका-कनाडा रहने जा रहे हो, तो एक तो आपका ओहदा बढ़ा हुआ सा, कम से कम आपको, महसूस होने लगेगा. जो दोस्त बिना गाली गलोज से आपको संबोधित करना पसंद नही करते थे, वो भी सभ्यतावश आपसे सभ्य हो जायेंगे और कुछ तो अंग्रेजी मे भी बात करने लगेंगे. आप भी मजबूरी वशा ठिठोली छोड़ कर गंभीरता चेहरे पर चिपका कर घूमना पसंद करने लगेंगे.
महीने भर पहले से ही आप मित्रों के घर या होटलों मे दावत खाने लगेंगे. तरह तरह के गिफ़्ट्स का आदान होता रहेगा. प्रदान का तो सवाल ही नही है क्योंकि आप तो जा रहे हैं और इसी आधार पर जब आयेंगे तो प्रदान करेंगे.
जब आप अपने शहर से निकलेंगे तो आदतन और अन्य किसी काम के आभाव मे, आपके जानने वाले ५०-६० लोग तो आपको स्टेशन छोड़ने आयेंगे ही.फिर शायद एयर पोर्ट पर आपके परिवार, रिश्तेदार और खास मित्रों के साथ मुस्कराते, रोते हुये सबुततन तस्वीर उतरवाते हुये आप विदेश प्रस्थान पर निकलें. अब अगर आप शहर मे थोड़े जाने जाने वाले जन्तु हों तो शायद आपके शहर का दैनिक अखबार भी आप की तस्वीर के साथ आपके विदेश प्रस्थान का समाचार छाप दे.
अब इतना सब हो जाने के बाद, अगर यहाँ आकर आपको नही जमा या बेहतर तरीके से यूँ कहें कि आप इनको नही जमे, तो आप क्या करेंगे.किस मुँह से वापस लौट सकते हैं? लोग क्या कहेंगे? कैसे फेस करुँगा सब को?

तो, फिर अनूप जलोटा टाइप कुछ याद करते हुये,

"इतना तो करना स्वामी, जब हम देश से निकलें,
किसी को भी खबर ना हो, जब हम देश से निकलें."


बस इतना करना कि आने के पहले किसी को बताना मत. जब सब सेट हो जाये और जम जाये तो अगली बार जाकर बता देना. वरना तो बस विदेश घूमने गये थे वो भी तो सम्मान का विषय है.उससे भी समाज मे बहुत अंतर पड़ता है कि छुट्टियां मनाने विदेश गये थे. वैसे आयकर वालों से थोड़ा पंगा होगा मगर वो तो आसानी से निपटाया जा सकता है. जब बड़े बड़े निकल गये तो तुम तो फौरेन रिटर्न हो, माननीय.

तो कब आ रहे हो?? बताना जरुर.....

-समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, अगस्त 21, 2006

शहनाई के शहंशाह 'उस्ताद बिस्मिल्ला खान' नही रहे....



शहनाई वादक 'उस्ताद बिस्मिल्ला खान' किसी भी परिचय के मोहताज नही हैं. उन्होने आज सोमवार को ९१ वर्ष की(२१ मार्च, १९१६ से २१ अगस्त, २००६) अवस्था मे अपनी अंतिम सांस ली और इस दुनिया को अलविदा कह दिया. उनके देहवसान से एक युग का अंत हुआ.शास्त्रीय संगीत की दुनिया मे इस कमी को शायद ही कभी भरा जा सके.
ज्ञातत्व रहे कि आप भारत रत्न (२००१) से नवाजे गये थे.आपको बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय, बनारस और विश्व भारती विद्यालय, शांति निकेतन ने मानद डी.लिट.से सम्मानित किया. आप संगीत नाट्क अकादमी अवार्ड, तानसेन अवार्ड, म.प्र., एवं पदम विभूषण अवार्ड से विभूषित हुये.आपके शहनाई वादन का प्रसारण हर १५ अगस्त को प्रधानमंत्री के लाल किले से भाषण के बाद दूर दर्शन का दस्तुर बन गया था. यह नेहरू जी के समय से शुरु हुआ था. आप पिछले कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे.

भगवान दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करें.

रुप हंस 'हबीब' का खत आया,यह खबर लेकर:

"शांत हुई शहनाई जब शहनाई बन गई शहनाई,
खुब बजेगी शहनाई 'हबीब', जिसने बजवाई शहनाई."

समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, अगस्त 18, 2006

मै चुप नही रहूँगा.......

चंद शेर आपकी नजर कर रहा हूँ और फिर एक शेर को कुछ आगे ले कर चलता हूँ:
१.

मौसमी कोई फूल गेसू मे लगाया किजिये
चमन के उसूलों को, कुछ तो निभाया किजिये.

२.

मुर्दों की बस्ती में,गुण्डों की सियासत है
मुँह अपना छिपा लिजिये, इसमे ही शराफ़त है.

३.

सपनों मे जो आया, वो ये साया नही था
पाकर भी जिसे अपना, कह पाया नही था.



अब आगे, २ नम्बर के शेर को:--------------

मुर्दों की ये बस्ती है, गुण्डों की सियासत है
मुँह अपना छिपा लिजिये, इसमे ही शराफ़त है.

चलने को तो चलते हैं, हर राह अंधेरी है
जूगनूँ भी नहीं जलते, इतनी सी शिकायत है.

यादों के तेरे साये, मेरी शामों के साथी हैं
उनकों ना जुदा किजिये, इतनी सी ईबादत है.

रात पूनम की है आई, ले कर के घटा काली,
जुल्फ़ों को सजा दिजिये, ये उनकी शरारत है.

--समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

मंगलवार, अगस्त 15, 2006

एक अजब सा एहसास....

एक अजब सा एहसास.

पहले इतनी दूर थे कि फोन पर बात करने मे भी तीन दिन मे काल लग पाता था और जब लग भी जाये तो चीख चीख कर बात हो, वो भी हाल चाल जानने तक सीमित.वजह, एक तो आवाज साफ़ नही और उस पर से फोन दर इतनी मंहगी कि महिनों मे एक बार बात हो जाये तो काफी. सिर्फ़ चिठ्ठियां सहारा होती थी विस्तार से बात करने की.ना एस एम एस और ना ही इंटरनेट. मगर जब भी मिले, बड़ा इंतजार होता था मिलने का.तरह तरह की बात, प्यार भरा स्वागत और फिर मिलने का वादा.

धीरे धीरे वक्त बदला, दुनिया बदली, हम बदले और संबंधों की मर्यादायें बदलीं और आंकलन का पैमाना बदला.इंटरनेट आ गया, ईमेल, चैट, वोइस चैट.फोन एकदम सस्ते और एक डायल मे जैसे लोकल बात हो रही हो.एस एम एस और सैल फोन की दुनिया हो गई.ना चिठ्ठी ना पत्री, बस ईमेल और फोन.अब तो भाई का भाई के पास डाक का पता भी नही होता.होता है तो सिर्फ़ मोबाईल का नम्बर और ईमेल.फोन पर बात हो गई आ रहे हैं, स्टेशन आ जाना लेने.ट्रेन एक स्टेशन पहले होगी तो मिस्ड काल दे देना. अब अगर वो लेने ना पहुँचे, तो इंतजार करो, पता तो मालूम ही नही, कहां जाना है.बस, मोबाइल चटकाओ या एस एम एस.

फोन पर दिन मे कई बार और चैट पर लगातार बात होने के परिणाम ये हो गये, कि दूरियों का एहसास ही खत्म हो गया और साथ आई ढ़ेरों पंचायत.इससे यह बात हुई, उसने ऎसा कहा, वो यह कर रहा है आदि आदि.,बस यही सब मसाला हर वक्त.जब मिले तो कुछ नया बिन बताया बचा ही नही, क्या बात करो.सब तो फोन और चैट पर कर चुके.पहले रिश्तेदारों के यहां पहुँचते ही हमारा बच्चों से फ़ेवरेट वार्तालाप रहता था कि कैसे हो? बाप रे, कितने बड़े हो गये, बिल्कुल बदल गये हो? कौन सी क्लास मे पहुँचे? अब तो हर हफ़्ते ईमेल मे फोटो पहुँच जाता है और बकिया सब फोन पर..तो बच्चों से क्या बात करूँ?सारा लेटेस्ट तो जानता हूँ.

नव युवाओं के क्षणिक प्रेम संबंधों का भी शायद यही कारण होगा कि अत्याधिक बातचीत..शायद दूरियों से जिस कसक और मिलने की चाह का जो एह्सास रहता था, वो अब बचा नही.

सब देख देख कर सोचता हूँ कि क्या यह अच्छा हुआ कि खराब.वक्त की वादियों मे खोया हुआ बस उत्तर की तलाश मे हूँ. समझ नही आता.बस चन्द पंक्तियों ने जन्म ले लिया,इस एहसास से:

भूगोल की बात जबसे इतिहास हो गई
रिश्तों के बीच मानिये, मिठास खो गई.


बीता था बचपन जिनके साथ कभी
आज उनके ही पते की किताब खो गई.


भटकती रही जिन्दगी यूँ हर गली
दिन के ढलने से पहले ही रात हो गई.


भीड़ लेकर चली जब जनाज़ा मेरा
गली उनकी जो आई, बारात हो गई.


वादा निभाने को वो ना लौटे 'समीर'
हर शाम जिंदगी बस उदास हो गई.


-समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links

शुक्रवार, अगस्त 11, 2006

कहाँ रहती हो तुम, जाना.....?

आज सबेरे जब टहल कर लौटा तो वो नदारत थी.
बड़ी कोफ़्त होती है, जब मन किया आ गयी,जब मन किया-गायब.अभी कुछ साल पहले की ही बात है, हरदम घर मे रहती थी.कभी कभार कहीं जाना भी हुआ तो थोड़ी देर को गई और लौट आई, उस पर भी, अधिकतर तो बता कर ही जाती थी.चुलबुली शूरु से थी, मगर बस आंख मिचौली टाइप शरारत करती थी. इधर कुछ सालों से व्यवाहर एकदम बदल सा गया है. एकदम उदंड, लापरवाह और आवारगी की हद तक स्वच्छंदता.पूरे पूरे दिन गायब रहना.फिर कुछ देर को आ गई और जब तक हम कुछ पूछे ताछे, फिर गायब. ना बच्चों की चिंता, ना उनकी पढ़ाई की फिक्र.
उसके इस स्वभाव से, कभी भी आना और फिर कभी भी चले जाना-उस पर भी जाना अधिक और आना कम, हमने उसका नामकरण ही "जाना" कर दिया है.वो इसे प्यार वाला "जानू" टाइप समझती है और खुश होती है.खैर वो क्या समझे, उससे मुझे कोई फर्क नही पडता है.
टहल कर लौटता हूँ थका हारा तो लगता है उसकी कमी ज्यादा खलती है.खैर, वो नदारत थी और कोई मैसेज भी नही था कि कब तक आयेगी, सो खिड़की, दरवाजे खोल कर बैठ गया.बाहर किरण खड़ी थी.दरवाजा खुलते ही मुस्कराई और घर के अन्दर आ गई. किरण बहुत अच्छी लगती है मुझे. दिन भर साथ बिताता हूँ.बच्चों का भी खुब ख्याल रखती है.उनके नहाने से ले कर खाने और पढ़ने तक साथ साथ रहती है .सुबह सुबह अपने बापू के साथ आ जाती है और शाम को जब उसके बापू अपने काम निपटा कर लौटते हैं, तो वो भी साथ वापस.यही उसका रोज नित का नियम है.कभी भी बापू के जाने के बाद तक नही रुकी. उसके बापू तो बहुत व्यस्त रहते और वो अपना सारा समय मेरे साथ बिताती. इस बीच कभी कभी जाना अगर कुछ देर को आ भी जाती, तो भी वो किरण के रहने का बुरा नही मानती.अब मानती भी क्यूँ. उसका सारा दायित्व तो लगभग किरण ही निभा रही थी, कम से कम दिन मे तो.
इधर मै देख रहा था कि गर्मियों मे तो जाना ज्यादा ही गायब रहने लगी है.कभी कभी तो दो दो तीन तीन दिन तक लगातार. लोकलाज के डर से रिश्तेदारों से भी कुछ कह नही सकते और ना ही उन्हें अपने घर आने की दावत दे सकते हैं कि कहीं वो भी जाना के इस रवैये को ना जान जायें.इसी के चलते सबसे कटते चले जा रहा हूँ.
आज मौसम मे बदली छाई थी.जाना तो कल रात से ही नदारत थी.मै सुबह जल्दी उठ गया था.किरण का इंतजार मन मे लग गया था मगर आज तो वो भी देर से आयी.कुछ बुझी बुझी सी थी.बदली जब आकाश मे छाती है, तो मैने देखा है अक्सर किरण उदास सी दिखने लगती है, ना वो हमेशा वाला तेज, ना चंचलता.बस आयी, और धीरे से बरामदे मै बैठ गई.मैने दरवाजा खोला, फिर भी अंदर ना आई. अब उसके सानिध्य का लोभ संवरण मेरे लिये संभव ना था तो मै भी वहीं कुर्सी खिसका कर उसके पास बैठ गया.वो उदास बैठी रही, मैने भी कारण जानने के लिये कुरेदना अच्छा नही समझा.सोचा वक्त के साथ मन हल्का हो जायेगा तो खुद ही ठीक हो जायेगी.सामने चाय की गुमटी वाला ट्रांजिस्टर पर एक गाना फुल स्पीड मे बजाये हुये है.

" पंछी बनो उड़ते फिरो, मस्त पवन मे"

मुझे लगा कि जैसे जाना के बारे मे जान गया है और मुझे चिड़ा रहा है.मै वैसे भी शांत स्वभाव का आदमी हूँ, खास तौर पर छोटे लोगों से जो गाली गलौज पर उतर आते है या फिर जो हमसे ताकतवर होते हैं. मैने चाय वाले को आवाज लगाई और चाय और मंगोडे मंगवा लिये. किरण ने कुछ नही खाया और कुछ घंटे वहीं बरामदे मे बिताने के बाद, आज रोज की अपेक्षा जल्दी लौट गई. मै भी भीतर लौट आया. मौसम मे उमस होने लगी थी, जाना अब भी गायब थी, रात घिर आयी और मै छत पर आकर टहलने लगा. फिर वही दरी बिछा कर लेट गया और ना जाने कब नींद लग गई.एकाएक आधी रात गये नींद खुली तो नीचे जाना आ चुकी थी. मै आखिर पूछ ही उठा कि कहाँ नदारत थी इतने समय तक.कहने लगी सोनिया जी आयी थी, उन्ही की सेवा मे लगी थी और अभी वापस गईं हैं सो थोडी देर को आ गई हूँ, फिर जाना है,कल दुपहर तक तो मुख्य मंत्री जी वगैरह यहीं पर हैं, उन्ही के साथ रहूँगी. मुझे इसके राजनितिज्ञों के साथ संबंधो पर शूरु से ही नाराजगी रहती थी सो गुस्से मे मै वापस छत पर आकर सो गया और जो होना था सो हुआ.सुबह उठा तो जाना जा चुकी थी. नेताओं से उसे विशेष लगाव है, खास कर मंत्रियों से, वो जहां भी होते है, जाना जरुर साथ देती है, भले हम जैसे चाहने वाले उसके इंतजार मे तड़पते रहें. ये मंत्री भी, खुद की वाली तो घर छोड़ कर निकलते है, वो तो कहीं जाती नही है और हमारी वाली वो जहां जायें, उनकी सेवा मे लगी रहती है. शायद यही हमारी किस्मत है. हम भी चाहने वाले हैं, अक्सर गुनगुना उठते हैं:

" हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक,
खुदा करे कि कयामत हो और तू आये.."

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मित्रों,
यह रचना पढ़कर आप मेरे चरित्र का आंकलन तो नही करने लगे. अरे, यह तो हमने अभी अपनी भारत यात्रा के दौरान उत्तर प्रदेश के दौरे के बाद वहां की बिजली की स्थिती को देखते हुये एक आम आदमी के लिये लिखी थी. इस कहानी मे ‘जाना’ बिजली है और किरण सूर्य देव की प्यारी बिटिया ‘सूर्य किरण’.

समीर लाल ‘समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, अगस्त 09, 2006

फुरसतिया जी से मिल कर गल्ती हो गई...

भारत-दुबई यात्रा हमेशा की तरह मंगलमयी, शुभकारी एवं सुखदायी रही.धन्य हो इस ब्लाग का, धन्य हो ब्लागिंग और धन्य हो ब्लागर्स...कालेज के जमाने के बाद पहली बार इस माध्यम ने करीबी मित्रों टाईप की व्यवस्था फिर से की है.वरना तो बस सब व्यवसायिक या स्वार्थवश...नतमस्तक हूँ ब्लाग का यूँ कहें चिठ्ठाकारी का.
इस माध्यम से, बातचीत हुई:
जीतू भाई(नारद) जितेन्द्र चौधरी से-दुबई मे फोन से कुवैत से और भारत जबलपुर मे भोपाल से फोन पर.
शोयेब भाई से दुबई मे
संगीता मनराल जी से दिल्ली मे-ट्रेफ़िक मे फंसी हुई थी फिर भी फोन उठा ही लिया और फिर मिलने की बात भी हुई..गल्ती मेरी, मुलाकात नही हो पाई.
अभिरंजन कुमार जी-बात हुई, मुलाकात का हमारा राजनितिक वादा राजनितिक ही रह गया.
विजेन्द्र विज-ना बात हुई ना मुलाकात हुई-लखनऊ भाग गये एन समय पर-खैर आगे कभी.
सागर चन्द्र नाहर जी-बिना फोन नम्बर दिये बात करना चाहते थे-हा हा-जैसा होना था हुआ-बात नही हुई.
पंकज बेगानी-खाने की थाली लिये बैठे रहे-हम नही गये बस फोन पर बात हुई-मगर मजा बहुत आया.
संजय बेगानी-पतली आवाज़ के धनी-बस फोन पर बात-इंतजार करते रहे हमारे आने का-और हम कलटी कर गये.
रवि कामदार-ना तय था ना बात हुई.
फ़ुरसतिया: क्या बतायें, बात भी और मुलाकात भी.
पूर्णिमा वर्मन जी-बात भी और मुलाकात भी.
अमित गुप्ता-फोन नम्बर पाने की चाह पूरी नही हुई वरना बात करने की इच्छा बहुत थी.
प्रतीक पांडे-आगरा जाना था, भाई के नम्बर के लिये ईमेल किया, कोई जवाब नही आया, मगर फिर जाना भी नही हो पाया तो कोई चिंता नही.
अब सुनो, हम तो फुरसतिया से मिल कर बहुत ही हद कर दिये.पहली बार जब आगरा गये थे, आगरा का किला देखे और एक ही दिन को गये थे, फिर बहुते पछताये, क्यों सिर्फ़ एक दिन को आये.वही फुरसतिया से मिल कर लगा क्यों सिर्फ़ एक दिन को आये.बडी औसत काया-ना मोटे ना पतले, ना गोरे ना काले, ना लम्बे ना नाटे, ना सुंदर ना बदसुरत मगर इन सब के बावजूद ऎसी विलक्ष्ण प्रतिभा के धनी. क्या लेखनी है कि अच्छे अच्छे पानी भरें भाई.देख कर तो मानने को कोई तैयार ना हो कि यही फुरसतिया है जो चिठ्ठाजगत का पितामह, महा ब्लागर, बडे भईया, और ना जाने किन किन नामों से नवाज़ा गया है.
अब हमारे और हमारे परिवार के बारे मे तो पूरा उन्होंने लिख ही दिया है मगर उन्हे पंकज बेगानी जी की क्लास अटेंड करने की सलाह दी जाती है, हमारी फोटो तो बच गई क्योंकि हम सफ़ेद कुर्ता पजामा पहने थे नही तो अंदाज लगाना पडता..अरे भाई, जरा ब्राईटनेस पर ध्यान दो, वरना हम तो अंर्तध्यान हो जाते हैं.
वैसे हमसे गल्ती हो गई, आगे के लिये सभी को सलाह है: इतनी बडी शक्शियत से मिलना हो तो दो तीन को जाना, एक दो मुलाकात मे तो हवा भी नही लगेगी कि मिले कि नही.
क्या चीज़ हो भाई, फुरसतिया, कौन रचे है तुम्हे....नमित हूँ...आगे और भी बताऊँगा इनकी पोल.
चलते चलते एक शेर:
फिर फुरसतिया जी हमसे कुछ अरसे को दूर हो गये और अनूप भार्गव जी का एक एतिहासिक शेर मै याद करने लगा:

"कल रात एक अनहोनी बात हो गई
मैं तो जागता रहा खुद रात सो गई"

लेकिन अब सो जाता हूँ, वरना नौकरी चली जायेगी.

समीर लाल 'समीर' Indli - Hindi News, Blogs, Links