शनिवार, अक्तूबर 09, 2021

सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है.

 

सुबह सुबह संदीप का फोन आया. कल रात उसके पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है. अभी हालात नियंत्रण में है और दोपहर १२.३० बजे उन्हें बम्बई ले जा रहे हैं. वैसे तो सब इन्तजाम हो गया है मगर यदि २० हजार अलग से खाली हों तो ले आना. क्या पता कितने की जरुरत पड़ जाये? निश्चिंतता हो जायेगी. मैने हामी भर दी और कह दिया कि बस पहुँचता हूँ.

स्टेशन घर से आधे घंटे की दूरी पर है, फिर भी आदात के अनुसार मार्जिन रख कर सवा ग्यारह बजे ही स्कूटर लेकर निकल पड़ा.

चौक पार करने के बाद रेल्वे फाटक आता है. वहाँ गेट बंद मिला. छोटी लाइन की कोई ट्रेन गुजरने वाली है. शायद चार पाँच मिनट बाकी हो आने में. मगर लोग निर्बाध गेट के नीचे से अपने स्कूटर, साईकिल तिरछा करके झुककर निकले जा रहे थे. मानो कोई चार पाँच मिनट भी नहीं रुकना चाहता. फिर गेट बंद करने का तात्पर्य क्या है. अजब लोग हैं. जब घर से निकलते हैं तो कुछ समय तो अलग से क्यूँ नहीं रखते इस तरह की बातों के लिये. क्या पा जायेंगे कहीं पाँच मिनट पहले पहुँच कर?

कुछ तो सिद्धांत होने चाहिये.कुछ तो नियमों का पालन करना चाहिये.

इसी तरह के सिद्धांतवादी विचारों में खोया, मैं स्कूटर के हैंडल पर एक हाथ में अपनी ठुड्डी टिकाये मन ही मन अपने को जल्द निकल पड़ने की शाबाशी दे रहा था. अक्सर होता है ऐसा कि अपना सामान्य कार्य भी दूसरों की बेवकूफियों की वजह से प्रशंसनीय हो जाता है.

बाजू में आकर एक कार खड़ी हो गई. मैने कनखियों से देखा तो किसी संभ्रांत परिवार की कोई कन्या गाड़ी का स्टेरिंग थामे बैठी थी. उसके सन गॉगेल उसके तरतीब से झड़े रेशमी बालों पर आराम से बैठे थे मेरी ही तरह, निश्चिंत. मगर कन्या के चेहरे पर गेट बंद होने की खीझ स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बार बार घड़ी की तरफ नजर डालती और फिर खीझाते हुए गेट की तरफ, पटरी पर जहाँ तक नजर जा सके, नजर दौड़ा लेती.

उसके चेहरे को देखकर मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर वो स्कूटर पर होती तो पक्का स्कूटर झुका कर निकल जाती. वो मात्र कार की मजबूरीवश रुकी थी और बाकी स्कूटर, साईकिल वालों को निकलता देख खीज रही थी. उसका सिद्धांतवादी होना मात्र मजबूरीवश है वरना तो कब का निकल गई होती. यह ठीक वैसे ही जैसे कितने ईमानदार सिर्फ इसलिये ईमानदार हैं कि कभी बेईमानी का सही मौका नहीं मिला.

 

इस बीच ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई पड़ी. उसका चेहरा कुछ तनाव मुक्त सा होता दिखाई पड़ा. ट्रेन नजदीक ही होगी.

गेट के दोनों ओर भरपूर भीड़ इकट्ठा हो गई.

कुछ ही पलों में ट्रेन आ गई. एक एक कर डब्बे पार होने लगे. लाल हरे नीले पीले कपड़े पहने यात्रियों से भरी रेल. धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी.

उसकी कार ऑन हो गई. मैने भी बैठे बैठे ही स्कूटर में किक मारा और चलने को तैयार हो गया.

एकाएक आधी पार होने के बाद ट्रेन रुक गई. पाँच सात मिनट तक तो कुछ पता चला नहीं, फिर पता चला कि इंजन में कुछ खराबी हुई है. जल्द ही चल देगी.

स्कूटर बंद. कार बंद.खीज के भाव कन्या के चेहरे पर वापस पूर्ववत.

समय तो जैसे उड़ने लगा. देखते देखते ३० मिनट निकल गये. अब तो झुक कर भी नहीं जाया जा सकता था. एक तो ठसाठस भीड़ और उस पर से बीच में खड़ी ट्रेन. इन्तजार के सिवाय और कोई रास्ता नहीं. पीछॆ मुड़ना भी वाहनों की भीड़ से पटी सड़क पर संभव नहीं.

जिस खीज के भाव का अब तक मैं कन्या के चेहरे पर अध्ययन करके प्रसन्न हो रहा था, वही अब मेरे चेहरे पर आसन्न थे.

क्या सोच रहा होगा संदीप? खैर, अभी भी थोड़ा समय है, पहुँच कर समझा दूँगा.

४०-४५ मिनट बाद ट्रेन बढ़ी. गेट खुला. दोनों तरफ से टूट पड़ी भीड़ से ट्रेफिक जाम. किसी तरह उल्टी तरफ से निकलते हुए जैसे ही मैं स्टेशन पहुँचा, ट्रेन सामने से जा रही थी. आखिरी डिब्बा दिखा बस!!

मैं सोचने लगा कि इससे बेहतर तो मैं गेट के नीचे से ही निकल पड़ता. आखिर, जब मजबूरी में फँसा तब उल्टी ट्रेफिक में घुस कर निकला ही. कौन सा ऐसा तीर मार लिया सिद्धांतों को लाद कर. विषम परिस्थितियों में भी सिद्धांतों का पालन करता तो कोई बात होती. सामान्य समय में तो कोई भी कर सकता है. सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है.

बाद में पता चला कि संदीप के पिता जी नहीं रहे. बम्बई में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनके बड़े भाई का परिवार वहीं रहता था तो अंतिम संस्कार भी वहीं कर दिया गया. संदीप ने मुझसे फिर कभी बात नहीं की. मुझे बतलाने का मौका भी नहीं दिया कि क्या हुआ था.

काश, मैं उस वक्त अपने सिद्धांतों को दर किनार कर गेट से नीचे से भीड़ का हिस्सा बन निकल गया होता, तो संदीप आज भी मेरा दोस्त होता.

समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार ऑक्टोबर 10, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/63652133

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रविवार, अक्तूबर 03, 2021

आप व्यंग्यकार हैं- इसमें व्यंग्य कहाँ है?

 



दफ्तर से घर लौट रहा हूँ. स्टेशन पर ट्रेन से उतरता हूँ. गाड़ी करीब ५ मिनट की पैदल दूरी पर खुले आसमान के नीचे पार्क की हुई है. थोड़ी दूर पार्क करके इस ५ मिनट के पैदल चलने से एक मानसिक संतोष मिलता है कि ऐसे तो पैदल चलना नहीं हो पाता, दिन भर भी तो दफ्तर में अपनी सीट में धंसे बैठे ही रहते हैं, कम से कम इसी बहाने चल लें. नहीं से हाँ भला. सेहत के लिये अच्छा होगा. दिल के एक कोने में खुद को हँसी भी आती है कि भला ५ मिनट सुबह और ५ मिनट शाम पैदल चलने से इस काया पर क्या असर होने वाला है मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.

जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.

आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.

कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. barishबस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.

हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.

बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.

फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.

अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.

बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है. टूटी और जर्जर सड़क का जुड़ा हिस्सा देखना आज पॉजिटिव थिंकिंग का बड़ा अध्याय है.

पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:

बदरा उमरी घुमरी घन गरजे

बूँदिया बरिसन लागे न.....

किसी ने पूछा ये क्या लिखा है आपने- आप व्यंग्यकार हैं- इसमें व्यंग्य कहाँ है? अच्छा लगने की तलाश ही तो पूरा व्यंग्य है- जिसमें देश डूबा है और मानवता अपना अंश तलाश रही है.

इससे ज्यादा तो मुझे लिखना ही नहीं आता.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के सोमवार ऑक्टोबर 04, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/63519786


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