शनिवार, फ़रवरी 22, 2025

मजे लीजिए इस भौकाली युग के

 यह एक नया युग है। आप चाहें तो इस युग को उत्तर प्रदेश की भाषा में भौकाल का युग भी कह सकते हैं। भौकाल युग कई अर्थों में महाकाल के युग से बड़ा हो गया है। सचमुच का कोई युग हो तो उसकी सीमा रेखाएं होती हैं। मगर जिस युग में बस भौकाल काटा जाता हो उसकी भला क्या सीमा। जो जहाँ तक सोच पाए वो वहाँ तक कर जाए और जितना चाहे उतना कमा जाए।

इस युग के प्रारम्भिक काल में सुनने में आया था कि अमेरिका कनाडा के फ्यूनरल होम में इलेक्ट्रिक फ़रनेस में इतनी हीट और प्रेशर से मृत शरीर को गुजारते हैं कि उसकी अस्थियाँ दूसरी तरफ से हीरा बन कर निकलें। पत्नी अपने मृत पति को हीरे के रूप में अपनी अंगूठी में जड़वाकर सदा साथ होने का अहसास लिए बाकी का जीवन सुखमय गुजारे।

जीते जी जिसे हीरे की अंगूठी की उम्मीद में हमेशा अपनी ऊँगलियों के इशारों पर घुमा घुमा कर परेशान कर डाला, वो अब स्वयं हीरा बन कर अंगूठी में जड़ा उसकी उंगली पर ताजिंदगी घूमेगा – इससे बड़ा भौकाल और कौन काट सकता है? इसके लिए तो जो भी कीमत चुकानी पड़े वो कम है और इस बात को फ्यूनरल होम ने बखूबी समझा और कमाई का जरिया बनाया।

वहीं दूसरी तरफ श्राद्ध में पितरों की आत्मा की शांति के लिए कौव्वों को भोजन कराने की परंपरा रही है। जैसे जैसे शहर पेड़ों के बदले कोंक्रीट के जंगलों में परिवर्तित हुए, कौव्वा इस परंपरा से अनिभिज्ञ धीरे धीरे शहरों के लिए विलुप्त प्रजाति होता गया। पुनः कुछ भौकालियों को कौव्वों की इस विलुप्तता की आपदा में अवसर नजर आया और वो सचमुच के जंगल से कौव्वा पकड़ कर शहर ले आए और श्राद्ध के मौसम में श्रद्धा अनुसार चढ़ावा लेकर सभी के पितरों की आत्मा को शांति पहुंचा कर भौकाल काटने लगे। परंपरा बनी थी यह सोच कर कि मृत आत्मा कौव्वे के रूप में आकर भोजन गृहण करेगी किन्तु इस भौकाली युग में एक ही कौव्वे में कई पितर पैकेज डील में चले आ रहे हैं और उस कौव्वे को पिंजरे में कैद कर उसका मालिक मोटी कमाई कर रहा है वरना कौव्वा कब किसी पिंजरे का पंक्षी रहा है- यह बस इस भौकाली युग में ही संभव है।     

इधर मृत आत्माओ के नाम कौव्वे से लोगों को कमाता देख इसी मृत आत्मा इंडस्ट्री से जुड़े अन्य लोग भी भौकाली काटने के उपाय सोचने लगे। किसी को विचार आया कि आज जिस हिसाब से युवाओं में पश्चिमी देशों में जाकर बस जाने की होड लगी है चाहे लीगल या इललीगल डंकी तरीके से – इन युवाओं को भला कब समय मिलेगा या ईललीगल जा बसे लोगों को क्या रास्ता बचेगा कि जब उनके माँ बाप गुजरें तो आकर उनका अंतिम संस्कार कर पाएं। ऐसे में नया प्रचलन शुरू हुआ कि हम अंतिम संस्कार से लेकर पाँच नदियों में अस्थि विसर्जन और ब्राह्मण भोज का इंतजाम करते हैं – अलग अलग पैकेज हैं। सब ही कर्म कांडों के वीडियो और कुछ एक्स्ट्रा पेमेंट में आपकी फोटो एआई के माध्यम से ओवरले करके ताकि ऐसा नजर आयें कि आप ही सब संस्कार कर रहे हैं। पैकेज खूब चल निकला और बड़ी कमाई का जरिया बना – भौकाल ही तो है। न आप हैं और न ही आपके संस्कार। मगर कैमरा और एआई आपको परम संस्कारी दिखाकर मानेगा- वाह रे यह भौकाल का युग। क्या क्या न हो जाए।

आज सुना कि प्रयागराज में लगे महा कुम्भ में पाप काटने के लिए आपको जाना जरूरी नहीं है। एक स्टार्ट अप खुली है। आप उसे अपनी तस्वीर भेज दें। वो उसे प्रिन्ट करके संगम में न सिर्फ डुबकी लगवा देंगे बल्कि उसकी वीडियो बनाकर आपको वापस भी भिजवाएंगे और अपने सोशल मीडिया से अपने फॉलोवर्स को भी भेजेंगे उसे वायरल कराने। आप फिर उसे अपने सोशल मीडिया से वायरल कर लें। कीमत मात्र 1100 रुपये। लोग फोटो भेज रहे हैं, वो उनको डुबकी लगवा कर पुण्य दिलवा रहे हैं – अब इससे बड़ा भौकाल और क्या कटेगा, यह तो आने वाला समय ही बतलाएगा।

हर युग अपने आप में एक कमाल का युग होता है तो मजे लीजिए इस भौकाली युग के जिसमें आप जी रहे हैं।

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी 23, 2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/16168

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शनिवार, फ़रवरी 15, 2025

फिर हम क्यूँ माने किसी की बात!

 

बचपन से सुनते आए मौसम का हाल। जब कभी रेडियो पर बताता कि तेज हवा के साथ बारिश होगी, तब तब मौसम मिजाज बदल लेता और न बारिश होती और न ही तेज हवा चलती। लगता कि मौसम भी रेडियो लगा कर बैठता होगा और विपक्ष की तरह हर काम में अड़ंगा लगाने की ठान र बैठा हर घोषणा के विपरीत काम करता। जब मौसम विभाग कहता कि धूप निकलेगी तो तुरंत ही कपड़े आचार धूप दिखाने के लिए छत पर निकाले जाते और उसी रोज बारिश होती तो भाग भाग कर वापस लाए जाते।

आमजन का तो विश्वास ही उठ गया था इनकी घोषणाओं पर से बिल्कुल वैसे ही जैसे सरकार पर से। लेकिन मौसम विभाग ने न तो कभी घोषणा करना बंद किया, न ही सरकार ने। विश्वास न करना तुम्हारा काम और घोषणा करना इनका काम और इनकी घोषणाओं को मिट्टी मे मिलाने का काम मौसम का और विपक्ष का।

वैसे ही जैसे सरकार चुनावों मे किया अपना कोई वादा पूरा कर दे तो लगता है कि ये क्या हुआ? वैसे ही 100 में से एकाध बार अगर मौसम विभाग की घोषणा सच निकल भी जाए तो लगता कि आज या तो इनसे कोई गल्ती हो गई या फिर मौसम के रेडियो को सिग्नल नहीं मिला होगा। कौन जाने उसके यहाँ भी बिजली गोल हो जाने की व्यवस्था हो। अंदाज ही तो लगाना है तो यही सही। सरकार जब कभी अपना कोई वादा पूरा कर दे तब तो अंदाज भी नहीं लगाना होता। बस नजर उठाओ तो सामने कोई चुनाव आता साफ नजर आ जाएगा।

खैर, मौसम विभाग की घोषणा से बात शुरू हुई और कहाँ चली गई। ऐसे परिवेश में पाले बढ़े जब कनाडा पहुंचे नए नए और यहाँ के मौसम विभाग ने घोषणा की आज बर्फ गिरेगी तो आदतन नजर अंदाज करते हुए बिना बर्फ वाले लेदर के जूते पहने ही निकल लिए। मगर ये क्या, यहाँ तो वाकई में बर्फ गिरी और तैयारी से न निकलने के कारण बर्फ के साथ साथ फिसल कर हम भी गिरे। दो तीन लोगों की मदद से उठाए गए और फिर पाँच दिन बात न मानने की सजा के तहत कमर में भीषण दर्द लिए करहाते रहे। तब लोगों ने बताया कि मौसम का हाल सुन कर घर से निकला करो। यहाँ जब मौसम विभाग की घोषणा में गल्ती होती है तो वो वाकई में गल्ती होती है और ऐसा 100 मे से एकाध बार होता है कि वो बोलें कि आज मौसम -10 रहेगा और मौसम -10 तक न गया हो।

सरकारी घोषणायें भी बिना चुनाव आए ही अक्सर पूरी कर ही दी जाती हैं। चुनाव आ भी रहे हों तो भी पता ही नहीं लगता कि चुनाव हैं भी। न रैली, न जन सभाएं और न ही बड़े बड़े पोस्टर। न तो कोई दारू बांटने वाला और न ही कंबल साड़ी। खुद की गाड़ी से जाओ। गत्ते के डिब्बे में वोट डाल आओ। वोटिंग का समय समाप्त। पोलिंग स्टेशन वाले उन डिब्बों को अपनी कार में रखकर शहर की काउंटिंग स्टेशन पर ले जाकर हर उम्मीदवार के एक एक एजेंट के सामने गिन कर  2 घंटे में ही गिनती खत्म। फोन से रिजल्ट भी भेज दिया। जीत की घोषणा हो गई और चुनाव सम्पन्न। रस ही नहीं है चुनाव में चुनाव वाला।

अब जब आदत हो गई है इतने सालों में इन मौसम विभाग वालों की बात मानने की तो अब ये स्लिप मारने लगे हैं। कभी कहते हैं बर्फ का तूफान आ रहा है और फिर शाम तक बताएंगे कि बाजू वाले शहर से निकल गया। मगर जब से खुद दो चार बार फिसले हैं और मित्रों की फिसलने से टूटी हड्डियों के किस्से सुनते हैं तो भले ही ये गलत भविष्यवाणी कर दें, न मानने की गल्ती करने की तो सोचते भी नहीं।

ऐसे ही जैसे कानून तोड़ने की सजा सचमुच तगड़ी हो तो फिर भला कौन कानून तोड़ेगा जैसे किन्हीं देशों में चोरी करने पर हाथ ही काट डालते हैं तो वहाँ भला कौन चोरी करेगा।

मगर हम तो जानते हैं न कि कानून तोड़ों और पॉवर और पैसे से रिश्ता जोड़ों तो भला कोई हमारा क्या बिगाड़ पाएगा- फिर हम क्यूँ माने किसी की बात!

-समीर लाल ‘समीर

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के मंगलवार 16 फरवरी,2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/16052

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शनिवार, फ़रवरी 08, 2025

इससे बड़ा सेलेब्रिटी स्टेटस भला और कौन सा होगा

 

अब तिवारी जी को अफसोस हो रहा है कि वो समय पर क्यूँ नहीं चेते। उनके चेहरे पर चिंतन, अफसोस और गुस्से की त्रिवेणी बह रही है। अफसोस का विषय भी त्रिवेणी से ही संबंधित है अतः त्रिवेणी अकारण ही नहीं है चेहरे पर।

उनके क्षोभ के केंद्र में उनके पिता जी हैं जिनको गुजरे हुए भी 30 बरस हो चुके हैं। दरअसल उनके पिता जी ही नहीं, दादा जी भी इसी शहर की उन्हीं गलियों में बड़े हुए जिसमें तिवारी जी स्वयं बड़े हुए। इस मामले में यह शहर उनका पुश्तैनी शहर है। छोटा है मगर है तो पुश्तैनी शहर। दादा जी की तरह ही तिवारी जी के पिता जी को भी इस बात का गर्व था और वही पुश्तैनी गर्व तिवारी जी को भी विरासत में मिला था जिसे वह अब तक सर पर बैठा कर रखते थे। जवानी में कोई कहता भी कि किसी बड़े शहर में जाओ और कुछ बड़े काम को अंजाम दो, तो तिवारी जी तमतमा जाते। कहते कि होते होंगे नमकहराम लोग मगर हम चंद सिक्कों की ख्वाहिश में अपने प्यारे शहर को कभी नहीं छोड़ेंगे। फिर वो नोसटॉलजिक हो जाते।

कैसे छोड़ दें यार इस शहर को। यहाँ की सड़कें, यहाँ की गलियां यहाँ के लोग, इस शहर की आबो हवा -सब तो अपनी हैं। आज तक जो भी पहचान मिली है, जो भी मुकाम हासिल किया है- सब इसी शहर की तो देन है और लोग कहते हैं कि किसी बड़े शहर चले जाओ? ये भी क्या बात हुई? बड़े शहर में भी खाएंगे तो रोटी दाल ही तो वो तो यहाँ भी मिल ही रही है, फिर किसलिए पैसे के पीछे भागें?

खैर यह तो तिवारी जी कह रहे हैं मगर जानने वाले तो जानते ही हैं कि पहचान के नाम पर सिर्फ चौराहे पर पान की दुकान पर फोकट में ज्ञान बांटना और मुकाम के नाम पर नित घर से निकल कर पान की दुकान और रात में दारू पी कर घर वापसी से आगे कुछ भी हासिल न हुआ ताजिंदगी।

थोड़ा बहुत जो पैसा आता है वो या तो दलाली से या किराये से- एक कमरे की दुकान जो एक कमरे के घर के नीचे विरासत में मिली। दलाली भी नगर निगम के कामों की किया करते क्यूंकी पार्षद उनका शागिर्द रहा हमेशा से। उसे भी ऐसे ही खाली लोगों की जरूरत रहती है चुनाव जीतने के लिए। लोग बताते हैं कि बंद कमरे में ये पार्षद महोदय के पैर छूते हैं मगर चौराहे पर उनकी अनुपस्थिति में उन्हें अपना चेला और शागिर्द बताते हैं ताकि दलाली चलती रहे।

तिवारी जी की महारत जिंदा लोगों को मरे का सर्टिफिकेट दिलाने में थी। इसमें मोटा पैसा भी था। प्रधानमंत्री रोजगार योजना में एक लाख का कर्ज लेकर उसे माफ कराने का एक मात्र तरीका था कि ऋणधारी की मृत्यु हो जाए। बस यही महीन शब्दों में लिखी जानकारी तिवारी जी के हाथ लग गई थी। तब से प्रधान मंत्री से ज्यादा इस योजना का प्रसार प्रचार तिवारी जी करने लग गए। सबसे कहा करते कि सरकार तुम्हें कर्ज देगी, मैं तुम्हें कर्ज माफी दिलाऊँगा। 25% दलाली पर भला कौन न मान जाता वो भी ऐसे शहर के वाशिंदे -जहां कर्ज ही एक मात्र पूंजी है लोगों की। वरना विकास के नाम पर ब्याज का ही विकास होता आया है।

खैर, तिवारी जी के अफसोस का विषय आज यह रहा कि इनके पिता जी बचपन में इनको लेकर मुंबई या दिल्ली क्यूँ नहीं चले गए? कुछ ढंग का काम करते। बच्चों को पढ़ाते लिखाते। तो तिवारी जी भी ऐरोस्पेस साइंस में आईआईटी कर लेते और आज इस दिव्य कुम्भ में आईआईटी वाले बाबा बन कर सेलेब्रिटी स्टेटस पा गए होते।

अब तिवारी जी को कौन समझाए कि दिल्ली मुंबई में भी 12 वीं फेल बच्चे बैठे हैं- सब बच्चे आईआईटी में नहीं चले जाते हैं। छोटे छोटे कस्बों से भी बच्चे आईआईटी में जाते हैं। साथ ही हर आईआईटी पास कर लेने वाला बच्चा बाबा नहीं बन जाता और हर बाबा आईआईटी वाला नहीं होता।

और जहां तक सेलेब्रिटी स्टेटस की बात है तो वह तो आप गाँव में चाय बेच कर और 12 वीं फेल होकर भी पा सकते हैं। जरूरत है जज्बे की। महा जन नायक से बड़ा सेलेब्रिटी स्टेटस भला और कौन सा होगा।

-समीर लाल ‘समीर’    

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 9 फरवरी, 2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15907

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शनिवार, फ़रवरी 01, 2025

आज दान के मायने ही बदल गए हैं

 


आपने बहुत से दानी देखे और सुने होंगे। कर्ण को तो खैर दानवीर की उपाधि मिली हुई थी। उनको दानवीर कर्ण के नाम से ही जाना जाता था।

बहुत साल पहले जब मैं मुंबई में रहता था तब एक सज्जन से मुलाकात हुई थी। वह अपने व्यापार को अपने बच्चों को सौंप कर दिन भर दान धर्म में जुटे रहते। वह सुबह सुबह बॉम्बे अस्पताल के नीचे दवा की दुकान के पास आकर खड़े हो जाते। जब भी कोई दवा खरीदने आता और उसके पास या तो पैसे नहीं होते या कम होते तब यह सज्जन चुपचाप उसका पैसा भर कर उसे दवा दिलवा देते। न कभी किसी से अपना नाम बताते और न ही कभी किसी से अपना काम बताते। वह दवा की दुकान मेरे मित्र की थी और मैं अक्सर वहाँ बैठा करता इसलिए इनको जान गया था। सुबह से शाम तक में न जाने कितने लोगों की मदद कर जाते।

वहीं आजकल ऐसे दानवीर पैदा हो गए हैं कि दान देने के पहले अपने नाम की घोषणा सुनिश्चित कर लेते हैं। किस पत्थर पर उनका नाम खोदा जाएगा और फिर उसे भवन में कहाँ जड़ा जाएगा, यह जानना दान से अधिक जरूरी होता है उनके लिए।

वो रकम दान के लिए नहीं नाम के लिए देते हैं। हमारे मोहल्ले में एक हनुमान मंदिर बन रहा था। मोहल्ला सेठ ने उस जमाने में 5000 रुपये दान की घोषणा कर दी जबकि पूरा मंदिर ही 50000 रुपये में बन जाने वाला था। जमीन कब्जे की सरकारी, लेबर मिट्टी भक्तों की। सेठ जी का नाम भव्य शिला पर खोद कर ऐसे लगाया गया कि हनुमान जी का नाम एकदम छोटे अक्षरों में नजर आता। कई बार तो कन्फ़्युजन हो जाता कि यह सेठ जी का मंदिर है जिसे हनुमान जी ने दान देकर बनवाया है। मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में निश्चित ही सेठ जी ही मुख्य अथिति रहे और हनुमान जी के जयकारे से ज्यादा उनके जयकारे लगाए गए। बाद में पता चला कि मंदिर का पंडित साल भर तक सेठ जी के घर के चक्कर लगाता रहा मगर सेठ जी ने घोषित दान के 5000 रुपये कभी दिए ही नहीं। जब पंडित ने ज्यादा जोर लगाया तो उन्हें दान पेटी से चोरी के इल्जाम में थाने में पहले पिटवाया और फिर मंदिर से निकाल दिया। नया पंडित आया तो उसे पुराना किस्सा तो कुछ पता नहीं था, दान की बात भी खत्म हो गई। वो दान शिला पर सेठ जी का नाम पढ़ता और हनुमान जी से ज्यादा सेठ जी की भक्ति में नतमस्तक रहता।

दानियों की केटेगरी में एक केटेगरी रक्त दानियों की भी है। एक बार खून दान करेंगे और बिस्तर पर लेटे टेनिस बॉल पकड़े रक्त दान की तस्वीर सोशल मीडिया पर इतनी बार चढ़ाएंगे कि लगने लगता है पूरे हिंदुस्तान के हर प्राणी की रगों में इनका ही खून दौड़ रहा है। जैसे लंगर में खाना बंटते देखकर भूख न भी लगी हो तो भी खाने का मन कर ही जाता है।  वैसे ही इनको रक्त दान करता देख लगने लगता है कि चलो, एक बोतल चढ़वा ही लेते हैं। थोड़ा एक्स्ट्रा ही खून हो जाएगा तो कोई नुकसान तो करेगा नहीं।

चुनाव सामने है और आजकल मत दानियों की बहुत पूछ हो रही है। हर नेता हाथ जोड़ कर मतदान के लिए निवेदन कर रहा है। बहुतेरे मतदानी एक बोतल और कंबल में मतदान करने को तैयार हैं तो बड़े वाले दानी हवाई अड्डे के ठेके की एवज में चुनावी दान करने को तैयार हैं। हर दान की कुछ न कुछ कीमत लगाई जा रही है।

दान के मायने ही बदल गए हैं। कुम्भ हो या कोई और धार्मिक स्थल- भगवान का वरदान भी आमजन के लिए अलग और वीआईपी जमात के लिए अलग।  

इनसे अच्छा तो हमारे तिवारी जी का ही हिसाब है – शहर का कोई भिखारी ऐसा नहीं होगा जिसे तिवारी जी ने दान न दिया हो मगर वो दान उधार में देते आए हैं हमेशा। हर भिखारी को कहते हैं -हमारी तरफ से दस रुपये। जब भिखारी पैसे माँगता है तो कहते हैं खाते में लिख ले-कहीं भागे थोड़े ही जा रहे  हैं। किसी दिन आराम से हिसाब कर लेंगे। दान के बाजार का एक ऐसा नायाब हीरा हैं तिवारी जी जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। पूछने पर तिवारी जी बताते हैं कि वो भिखारी के अंदर व्यापारी वाली फ़ील डालना चाहते हैं कि वो भी उधार दे सकता है। कितनी उच्च सोच है तिवारी जी की।

और एक हमारी सरकार है जो व्यापारियों के अंदर भिखारियों वाली फील डालने में व्यस्त है और चुनावी दानियों के चलते जीत के लिए आश्वस्त भी।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के मंगलवार 02 फरवरी, 2025 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15788

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