खेला, अमित ने किसी अमरीकी ब्लॉगर के ब्लॉग से लिया है जिसमें ९९ आईटम की लिस्ट है और आपको उसमें से जो काम आप कर चुके हो, उसे अपने ब्लॉग पर लिस्ट में बोल्ड करके दिखाना है.
जब हमने देखा तो लगा ऐसी लिस्ट हिन्दी ब्लॉगर्स के लिए, जो कि अधिकतर भारत में है और न जाने कितने ही कभी भारत के बाहर भी न निकले हों, उचित नहीं प्रतीत होती. मात्र एक प्रश्न, क्या आप कभी भारत के बाहर गये हैं? बोल्ड न कर पाओ तो २५ से ज्यादा प्रश्न तो आपके लिए बने ही नहीं हैं.
वैसे ही-
क्या आप पेरिस गये हैं? नहीं.
क्या आपने पैरिस में ऐफिल टॉवर के शीर्ष से नज़ारा किया ? अरे, जब पेरिस ही नहीं गये तो यह कैसा प्रश्न?
ये तो वैसा ही नहीं हो गया-
क्या आपकी शादी हो गई? नहीं.
आपके कितने बच्चे हैं? ये लो...खैर, आजकल दूसरे प्रश्न का उत्तर आ भी सकता है पहले का न होते हुए भी. समाज काफी विकास कर गया है.
वैसा ही शायद तकनिकी विकास भविष्य में ऐसा हो जाये कि बिना गये यह सब बातें संभव हो जायें किन्तु अभी तो संभव नहीं है. अमित टेक्नालॉजी के महारथी हैं, शायद भविष्य के नजरिये से पूछा हो. वैसे, इस तरह के खेल आज के हिन्दी ब्लॉगजगत में सिर्फ अमित ही ला सकते हैं, यह भी तय है. जागरुक बंदा है और हमारे लिए तो खैर उसका ब्लॉग पसंदीदा जगह है ही.
इसी विचार से हिन्दी चिट्ठाजगत को मद्दे नजर रख दूसरे ९९ आईटम, जिससे आप जुड़ा महसूस कर अधिक से अधिक बोल्ड कर पायेंगे. नियम वही, अमित के शब्दों में:
’करना कुछ अधिक नहीं है, बस यह लिस्ट कॉपी कर अपने ब्लॉग पर चेप लें और इनमें से जितने तीर-तोप चला चुके हैं उनको बोल्ड कर दें और बाकी को सामान्य रखें और पोस्ट छाप दें। यानि कि मामला एकदम आसान है!!’
अमित की लिस्ट का पहला प्रश्न ’अपना ब्लॉग आरंभ किया ’ इसलिए नहीं ले रहा हूँ कि नहीं खोला होगा तो फिर लिस्ट चैपेगा कहाँ इस प्रश्न को बोल्ड करने के लिए. :)
तो लिजिये लिस्ट:
१.छद्म नाम से ब्लॉग खोला.
२.बेनामी जाकर टिपियाये.
३.किसी विवाद के सेन्टर पाईंट बने.
४.फुरसतिया जी की पोस्ट एक सिटिंग पूरी में पढ़ी.
५.शास्त्री जी ने आपके बारे में लिखा.
६.अजदक की कोई पोस्ट समझ में आई.
७.टंकी पर चढ़े.
८.लोग टंकी से उतारने आये.
९.टंकी से खुद उतर आये.
१०.खुद की आवाज में गाकर पॉडकास्ट किया.
११.किसी ने अगली बार से न गाने की सलाह दी.
१२.अगली बार से न गाने की सलाह मानी.
१३.किसी ने आपका कार्टून बनाया.
१४.किसी की पोस्ट चोरी करके अपने ब्लॉग पर अपने नाम से छापी.
१५. चोरी की पोस्ट छापने के बाद पकड़े गये.
१६. चोरी की पोस्ट छापकर पकड़े जाने के बाद भी बेशर्मों की तरह सीना जोरी करते रहे.
१७. साहित्यकार होने का भ्रम पाला.
१८. लिखने के साथ यह भी बताना पड़ा कि यह गज़ल है और यह व्यंग्य.
१९. अपनी पोस्ट पढ़ने के लिए ईमेल से निमंत्रित किया.
२०. ईमेल निमंत्रण के जबाब में कोई फटकार खाई कि आगे से ऐसी मेल न भेंजे.
२१. फटकार के बावजूद ईमेल भेजते रहे.
२२.दो ब्लॉगर के बीच झगड़ा करवाया.
२३. दो ब्लॉगर के बीच झग़ड़ा करवाकर शांत कराने पहुँचे.
२४. किसी सामूहिक ब्लॉग के सदस्य बने.
२५. किसी सामूहिक ब्लॉग की सदस्यता त्यागी.
२६. किसी सामूहिक ब्लॉग से निकाले गये.
२७. बाथरुम में बैठकर ब्लॉग पोस्ट की.
२८. ट्रेन से कोई पोस्ट लिखी.
२९. ताऊ की पहेली बूझी.
३०. पोस्ट लिखने और पोस्ट करने के बाद डिलिट की.
३१. ब्लॉगवाणी में आज की पसंद पर पहले नम्बर आये.
३२. चिट्ठाजगत की धड़ाधड़ में १ नम्बर पर आये.
३३. किसी के ब्लॉग पर झूठी तारीफ की.
३४. किसी फिल्म की समीक्षा पोस्ट की.
३५. ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से दूसरे ब्लॉगर से तू तू मैं मैं की.
३६. कोई ऐसी पोस्ट की जिसे किसी ने पढ़ा ही नहीं.
३७. तरकश चुनाव लड़े उदीयमान ब्लॉगर ऑफ द ईयर वाला.
३८. किसी की पोस्ट पढ़कर लगा कि काश! मैं भी ऐसा लिख पाता.
३९. किसी की पोस्ट पढ़कर ऐसा लगा कि हे भगवान!! कभी गल्ति से भी मैं ऐसा न लिख दूँ.
४०. बिना उस स्थल पर गये वहाँ का यात्रा संस्मरण लिखा.
४१. कभी अपनी कविता किसी विदेशी कवि के नाम से चैंपी.
४२. कभी आपकी किसी हास्य प्रधान पोस्ट को किसी ने टिप्पणी में अति मार्मिक बताया.
४३. बिना पोस्ट पढ़े टिप्पणी की.
४४. कभी अपने ही लिखे पर शरम आई.
४५. कभी काफी दिनों तक न लिख पाने की माफी मांगी, इस भ्रम में कि लोग इन्तजार कर रहे होंगे.
४६. जब दिन भर टिप्पणी नहीं आई तो खुद से टिप्पणी करके चैक किया कि टिप्पणी बॉक्स काम कर रहा है कि नहीं.
४७. कहीं टिप्पणी लम्बी हो जाती इसलिए उसे पोस्ट बना कर पोस्ट किया.
४८. कभी अपनी बात उल्टी पड़ जाने पर बचने के लिए ऐसा कहा कि ’हम तो मौज ले रहे थे.’
४९. कभी अखबार में आपके ब्लॉग का जिक्र हुआ.
५०. अखबार में आपके ब्लॉग के जिक्र को स्कैन करा के ब्लॉग पोस्ट बना कर छापा.
५१. अखबार की स्कैन कॉपी मित्रों और रिश्तेदारों को ईमेल से भेजी.
५२. ’आज कुछ लिखने का मन नहीं है’ कह कर २५ लाईन से ज्यादा की पोस्ट लिखी.
५३. एक ही पोस्ट को अपने ही पाँच ब्लॉगों से छापा.
५४. अपनी पोस्ट बिना टिप्पणी के एग्रीगेटर के दूसरे पन्ने पर चले जाने से उसे डिलिट कर फिर से छापा ताकि वो फिर से उपर आ जाये.
५५. गुस्से में अपने ब्लॉगरोल से किसी का ब्लॉग अलग किया.
५६. एक दिन मे २५ से ज्यादा ब्लॉग पर टिपियाया.
५७. किसी और की पोस्ट पढ़ने के लिए अपने ब्लॉग पर सिर्फ उसका लिंक देकर एक पोस्ट बनाई.
५८. कभी कोई ब्लॉगर मीट अटेंड की.
५७. कभी ब्लॉगर मीट अटेंड करके उसकी रिपोर्ट लिखी.
५८. कभी किसी शोक समाचार पर भूल से बधाई दी.
५९. कभी किसी से पोस्ट पर मजाक किया और सामने वाले ने बुरा मान लिया.
६०. कभी आपकी खिलाफत करती किसी ने ब्लॉग पोस्ट लिखी.
६१. क्या ’साधुवाद’ टाईप किसी जुमले से आपकी अलग पहचान बनी.
६२. क्या ब्लॉग पोस्ट पर आपका कोई तकिया कलाम है.
६३. कभी छत पर बैठ कर कोई ब्लॉग पोस्ट लिखी.
६४. कभी कुछ लिखना चाहा किन्तु किसी को बुरा न लग जाये इसलिए नहीं लिखा.
६५. कभी पूरी पोस्ट तैयार हो जाने के बाद भूल से डिलिट हो गई.
६६. क्या इस भूल से डिलिट हुई पोस्ट के लिए एक पोस्ट की कि पोस्ट डिलिट हो गई और अब फिर से लिख पाना संभव नहीं.
६७. क्या यह बताने के लिए कि ’अब अगले पाँच दिन नहीं लिख पाऊँगा’ पोस्ट लगाई जबकि यूँ भी आप एक महिने से नहीं लिख रहे थे.
६८.कभी आपका ब्लॉग एग्रीगेटर से अलग किया गया.
६९. क्या कभी तकनिकी कारणों से पोस्ट एग्रीगेटर पर न दिखने पर आपने एग्रीगेटर की तानाशाही पर पूरा ब्लॉगजगत सर पर उठा लिया.
७०. कभी किसी को अपने ब्लॉग का सदस्य बनाने निमंत्रण भेजा.
७१. कभी किसी से उसके ब्लॉग का सदस्य बनने का निमंत्रण मिला.
७२. कभी किसी को अपने ब्लॉग का सदस्य बनाने निमंत्रण भेजा और उसने ठुकरा दिया.
७३. कभी किसी से उसके ब्लॉग का सदस्य बनने का निमंत्रण मिला और आपने ठुकरा दिया.
७४. आपकी गज़ल के बेबहर होने पर किसी ने टोका.
७५. क्या आपने माईक्रो गद्य लिखा और लोगों ने उसे कविता समझ कर बधाई दी.
७६. इंक ब्लॉगिंग की.
७७.अपनी टिप्पणी में अपना यू आर एल लिख छोड़ा ताकि लोग क्लिक करके आयें.
७८. टिप्पणी में वर्तनी दोष सुधारने के लिए फिर से टिप्पणी की.
७९. आपके नाम से कोई और टिप्पणी कर गया.
८०. आपके नाम से कोई और टिप्पणी कर गया और आप इस पर पोस्ट लिखने की बजाय हर तरफ स्पष्टीकरण देते घूमे.
८१. अपनी प्रोफाईल में अपनी जगह दूसरे की तस्वीर चैंप दी.
८२. अपनी हर पोस्ट के शीर्षक के साथ डेश लगाकर अपना नाम लिखा.
८३. अपनी पोस्ट में अपना ही मजाक उड़ाया.
८४. ’तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी’ को ब्रह्म वाक्य मान कर ब्लॉगिंग की.
८५. एड सेन्स लगाकर हिन्दी ब्लॉग पर कमा लेने का भ्रम पाला.
८६. आये दिन एड सेन्स खाता चैक किया कि कितने पैसे जमा हो गये.
८७. एड सेन्स खाते का बैलेन्स जीरो होने के बावजूद भी एड सेन्स के हिन्दी में बन्द होने पर उदास हुए.
८८. नम्बर ८७ के उदासी के आलम में पोस्ट लिखी.
८९. ब्लॉग पर स्टेट काऊन्टर लगाया.
९०. दिन में तीन बार स्टेट काऊन्टर पर आवा जाही चेक की.
९२. शतकीय पोस्ट की सूचना पोस्ट लिखी.
९३. स्टेट काऊन्टर के १०००० या २०००० पार करने की सूचना पोस्ट लिखी.
९४. स्टेट काऊन्टर को मेन्यूलि बढ़ा कर लगाया.
९५. अपने ब्लॉग पर आवाजाही का ग्राफ बना कर पोस्ट कर गौरवान्वित महसूस किया.
९६. पत्नि का ब्लॉग बनवाया.
९७. पत्नि के नाम से खुद ही पोस्ट लिख कर डाल दी.
९८. अपनी हर पोस्ट पर पत्नि का और उसकी हर पोस्ट पर अपना कमेंट डाला.
९९. अपना ब्लॉग डिलिट किया.
नोट: हमारे तो लगभग सभी बोल्ड टाईप ही हैं, कुछ को छोड़ कर. :) आप तो अपनी बताओ.
मंगलवार, अप्रैल 28, 2009
बेचारा सुअर....
कल देर रात लंदन की यात्रा से लौटे. यहाँ से याने यॉर्क से लंदन की ३.३० घंटे की ड्राईव थी और लौटते वक्त नॉरिच शहर वाया केम्ब्रीज लौटे. नॉरिच में एक मित्र परिवार के साथ लंच था तो वापास आते पूरे ७ घंटे की ड्राईव हो गई.
यहाँ हालाँकि भारत की तरह ही लेफ्ट में गाड़ी चलाते हैं और हैं भी मेन्यूल गियर मगर फिर भी स्पीड कनाडा से ज्यादा थी. लगभग पूरा सफर १३० किमी की रफ्तार से गाड़ी चलाने में आनन्द आ गया. रास्ता भी बहुत हरियाली से भरा हुआ और मौसम भी उतना ही सुहाना. बीच बीच में वो सरसों के खेत भी मिले जिनमें कभी काजोल दौड़ी थी फिल्म ’दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ के लिए.
इस बीच मेनचेस्टर भी हो आये हैं. बहुत कुछ है बताने को इन शहरों के बारे में, इनकी तस्वीरें और यहाँ आने के लिए बेल्जियम से यहाँ तक यूरोस्टार रेल से यादगार यात्रा. लगता है ३ तारीख को कनाडा पहुँच कर ही तस्सली से लिखना होगा.
हाँ, कनाडा जाने के नाम पर एकाएक आज अरविन्द मिश्रा जी की पोस्ट पर नजर पड़ी. टीवी पर तो खैर देख ही रहे थे कि कनाडा-अमरीका में स्वाइन-फ्लू का प्रकोप हुआ है और इसके महामारी बन जाने का खतरा विश्व स्तर पर मंडरा रहा है.अखबार और टीवी देखता हूँ तो हर अमरीकी और कनैडियन परेशान और हैरान. साबुन से बीस बार हाथ धोये जा रहे हैं. हर बार डिसइन्फेक्टेन्ट लगा रहे हैं जैसे बर्ड फ्लू के समय एतिहात बरते जा रहे थे. लग रहा है मानो इससे बच गये तो अमर हो जायेंगे. फिर कभी नहीं मरेंगे.
एक पतले से धागे का फासला है जिन्दगी और मौत के बीच. धागा टूटा नहीं कि आप उस पार. फिर भी जीजीविषा की मोटी रस्सी आपको उस धागे से पार जाने से रोके रखने का अंतिम क्षणों तक प्रयास करती रहती है. न जाने क्यूँ?
खैर, मिश्र जी को पढ़ा, टीवी देखा, अखबार पढ़ा-जाना और समझा. जाना तो वहीं है. तसल्ली ये लग गई कि यह महामारी सूअर के माध्यम से फैल रही है. बहुत राहत लगी कि हम तो सूअर खाते नहीं. ये तो गोरे जाने, उनकी परेशानी है.
मन ही मन बड़े खुश और लगे सोफे पर लेटकर मूवी देखने ’रब ने बना दी जोड़ी’. प्रिन्ट शायद थो़ड़ा खराब था तो मन भटका. विचार फिर मन में कौंधे कि आखिर मैं कितना सेफ हूँ सिर्फ इसलिए कि सूअर नहीं खाता. अवलोकन करते ही चौंक पड़ा-अरे, काहे का सेफ!!! सूअर भी तो सूअर कहाँ खाते हैं? फिर भी मेन रोल में वो ही हीरो हैं इस एपिसोड के. फिर अपने काहे के सेफ?
यहाँ हालाँकि भारत की तरह ही लेफ्ट में गाड़ी चलाते हैं और हैं भी मेन्यूल गियर मगर फिर भी स्पीड कनाडा से ज्यादा थी. लगभग पूरा सफर १३० किमी की रफ्तार से गाड़ी चलाने में आनन्द आ गया. रास्ता भी बहुत हरियाली से भरा हुआ और मौसम भी उतना ही सुहाना. बीच बीच में वो सरसों के खेत भी मिले जिनमें कभी काजोल दौड़ी थी फिल्म ’दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ के लिए.
इस बीच मेनचेस्टर भी हो आये हैं. बहुत कुछ है बताने को इन शहरों के बारे में, इनकी तस्वीरें और यहाँ आने के लिए बेल्जियम से यहाँ तक यूरोस्टार रेल से यादगार यात्रा. लगता है ३ तारीख को कनाडा पहुँच कर ही तस्सली से लिखना होगा.
हाँ, कनाडा जाने के नाम पर एकाएक आज अरविन्द मिश्रा जी की पोस्ट पर नजर पड़ी. टीवी पर तो खैर देख ही रहे थे कि कनाडा-अमरीका में स्वाइन-फ्लू का प्रकोप हुआ है और इसके महामारी बन जाने का खतरा विश्व स्तर पर मंडरा रहा है.अखबार और टीवी देखता हूँ तो हर अमरीकी और कनैडियन परेशान और हैरान. साबुन से बीस बार हाथ धोये जा रहे हैं. हर बार डिसइन्फेक्टेन्ट लगा रहे हैं जैसे बर्ड फ्लू के समय एतिहात बरते जा रहे थे. लग रहा है मानो इससे बच गये तो अमर हो जायेंगे. फिर कभी नहीं मरेंगे.
एक पतले से धागे का फासला है जिन्दगी और मौत के बीच. धागा टूटा नहीं कि आप उस पार. फिर भी जीजीविषा की मोटी रस्सी आपको उस धागे से पार जाने से रोके रखने का अंतिम क्षणों तक प्रयास करती रहती है. न जाने क्यूँ?
खैर, मिश्र जी को पढ़ा, टीवी देखा, अखबार पढ़ा-जाना और समझा. जाना तो वहीं है. तसल्ली ये लग गई कि यह महामारी सूअर के माध्यम से फैल रही है. बहुत राहत लगी कि हम तो सूअर खाते नहीं. ये तो गोरे जाने, उनकी परेशानी है.
मन ही मन बड़े खुश और लगे सोफे पर लेटकर मूवी देखने ’रब ने बना दी जोड़ी’. प्रिन्ट शायद थो़ड़ा खराब था तो मन भटका. विचार फिर मन में कौंधे कि आखिर मैं कितना सेफ हूँ सिर्फ इसलिए कि सूअर नहीं खाता. अवलोकन करते ही चौंक पड़ा-अरे, काहे का सेफ!!! सूअर भी तो सूअर कहाँ खाते हैं? फिर भी मेन रोल में वो ही हीरो हैं इस एपिसोड के. फिर अपने काहे के सेफ?
चलो, देखी जायेगी. जाना तो है ही है. कनाडा भी और उपर भी. जब जो जो बदा होगा, तब वो वो झेलेंगे.
एक मजेदार बात तो भारत से निकलते वक्त ऐसी हुई कि क्या कहें.
अक्सर ही कनाडा आते समय जबलपुर से दिल्ली फ्लाईट के दो दिन पूर्व आ जाता हूँ ताकि मन भी शांत हो ले और इत्मिनान से निकलें. पीछे छूटे परिवार के सदस्य और साथी भी इस सेटलमेंट टाइम में सेटल हो जाते हैं कि अभी तो भारत में ही है. सब सोच का खेल है. हर बार ग्रेटर नोएडा में चाचा के घर ही रुकना होता है. इस बार चलते वक्त बेटे का फोन आ गया कि हयात होटल के पाइंट पड़े हैं, आप इस्तेमाल कर लिजिये. हमने भी सोचा, चलो हयात में रुक लेते हैं और भीका जी कामा प्लेस वाले हयात में कमरा बुक करा लिया.
बार बार रुकते रुकते बेटा उनके डायमंड कल्ब का मेम्बर हो लिया है तो होटल वाले जरा एकस्ट्रा सजग थे और हमसे पूछा कि सर, आप और मैडम आ रहे हैं तो रुम अपग्रेड कर दें. हमें भी क्या, हमने कह दिया-कर दो.
होटल पहुँचे तो बेहतरीन रुम इन्तजार कर रहा था. पहुँचते ही नहाने चले गये और जब निकल कर आये तो पत्नी हा हा करके हँसते मिली. माजरा कुछ समझ नहीं आया. जब उसकी हँसी रुकी तो जो उसने बताया कि हम तो मानो इस उम्र में आकर शर्म से लाल टाईप हो गये.
दरअसल, अपग्रेड में हयात नें हमें हनीमून वाला कमरा दे दिया जिसके बाथरुम की दीवाल पूरे काँच की थी. कमरे में चूँकि रोशनी एकदम मद्धम थी तो हमें तो बाथरुम से कमरा ज्यादा नहीं दिखा और न ही उस ओर ध्यान गया किन्तु कमरे से पूर्ण रोशन बाथरुम का एक एक नल नजर आ रहा था. बताईये, यह भी कोई बात हुई. भले ही कोई हनीमून पर भी आया हो, नहाते हुए क्या देखना भाई!! हमारी तो खैर समझ के बाहर है.
यूँ तो पारदर्शिता बहुत अच्छी बात है किन्तु हर जगह नहीं. सारी भैंसे एक ही लाठी से नहीं हाँकी जाती.
शाम को कुछ गेस्ट भी आमंत्रित थे कमरे में. हम सोचने लगे कि अगर उन्हें बाथरुम जाना हुआ तो? और वैसे भी पता लगने के बाद तो हम खुद ही न इस्तेमाल कर पाते. तुरंत फ़्रंट डेस्क को फोन किये. अपना कमरा दूसरा करवाये..नार्मल बाथरुम वाला, तब जा कर चैन में चैन आया.
हाँ, अगली रात एक मित्र परिवार के साथ जामा मस्ज़िद के पास वाले करीम पर जाकर खाना खाया-जबदस्त और अद्भुत अनुभव. बहुत पुरानी तमन्ना थी वहाँ जाकर खाना खाने की, सो चलते चलते पूरी हुई. जितनी ख्वाईशें ऐसे ही पूरी होती चलें, बस काफी है वरना तो:
हजारों ख्वाईशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले
अब यूँ ही एक विडियो जो यू ट्युब पर मिला:
सोमवार, अप्रैल 20, 2009
मैं अभागा!! जड़ से टूटा!!
जब कनाडा आने को जबलपुर से दिल्ली आने को स्टेशन आते समय घर से कार निकलती है, तो उसमें बैठ कर सिर्फ मैं नहीं निकलता..न जाने क्या क्या निकल जाता है. पूरा बचपन निकल जाता है..रुक जाने को मचलता है. जवानी चित्कार करती है कि क्यूँ जाते हो..अब तक का सारा बीता समय उस घर में..उस शहर में..न रुकता देख धिक्कारने लगता है..कि ये क्या कर रहा है तू मूरख. पछतायेगा एक दिन!!
ट्रेन पकड़ता हूँ..शहर छूटता है..फिर दिल्ली एयरपोर्ट पर..कस्टम क्लिरेंस के बाद...बस बस, लगता है कि देश ही छूट गया..मैं खुद खुद से छूट गया..अब वापसी का कोई उपाय नहीं अगली बार तक.
हवाई जहाज हवाई पट्टी पर दौड़ता है..मन जाने कितने पीछे तक लौटता है और यह हवाई पट्टी छूटी...उपर उठे जमीन से...मन से खुद की नजर में नीचे गिरे.पाताल से भी गहरे...देश छूटा और मैं अहसासता हूँ कि मैं जड़ से टूटा...सूखा पत्ता...जिसे हवा बहाये ले जा रही है..यह हवायें जो मेरी मजबूरियाँ है..उनका रुख भी तो मेरे ही हाथ ही है बदलना-फिर क्यूँ नहीं..नहीं जानता..या नहीं जानना चाहता...!
सारे दोस्त यार, बचपन की गलियाँ, आज तक के नाते रिश्ते...सूखी आँख में गीले इन्तजार की ललक लिए बुजुर्ग..न जाने किस उम्मीद को पाले..और किस उम्मीद पर जीते..हम जैसे खुदगर्ज बेवतनों से आस लगाये...और उनके हाथ है सहारा देने को हमारे बदले एक काठी की लाठी...
हर बार भारत छो़ड़ता हूँ..तो कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक असहज ही रहता हूँ...मानव हूँ फिर अपनी दुनिया में रम जाता हूँ..
इसी ट्रांजिशन के दौर में उपजी मनोव्यथा उजागर करती रचना:
नोट: अभी यॉर्क, यू.के. याने लन्दन से नार्थ में दो घंटे पर हूँ. ३ मई को कनाडा वापसी है. कई मित्रों को लगा कि मैं न्यूयार्क आ गया हूँ, उनसे क्षमाप्रार्थी-मेरे लिखने में कुछ कमी रह गई होगी. मुझे स्पष्ट लिखना चाहिये था.
ट्रेन पकड़ता हूँ..शहर छूटता है..फिर दिल्ली एयरपोर्ट पर..कस्टम क्लिरेंस के बाद...बस बस, लगता है कि देश ही छूट गया..मैं खुद खुद से छूट गया..अब वापसी का कोई उपाय नहीं अगली बार तक.
हवाई जहाज हवाई पट्टी पर दौड़ता है..मन जाने कितने पीछे तक लौटता है और यह हवाई पट्टी छूटी...उपर उठे जमीन से...मन से खुद की नजर में नीचे गिरे.पाताल से भी गहरे...देश छूटा और मैं अहसासता हूँ कि मैं जड़ से टूटा...सूखा पत्ता...जिसे हवा बहाये ले जा रही है..यह हवायें जो मेरी मजबूरियाँ है..उनका रुख भी तो मेरे ही हाथ ही है बदलना-फिर क्यूँ नहीं..नहीं जानता..या नहीं जानना चाहता...!
सारे दोस्त यार, बचपन की गलियाँ, आज तक के नाते रिश्ते...सूखी आँख में गीले इन्तजार की ललक लिए बुजुर्ग..न जाने किस उम्मीद को पाले..और किस उम्मीद पर जीते..हम जैसे खुदगर्ज बेवतनों से आस लगाये...और उनके हाथ है सहारा देने को हमारे बदले एक काठी की लाठी...
हर बार भारत छो़ड़ता हूँ..तो कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक असहज ही रहता हूँ...मानव हूँ फिर अपनी दुनिया में रम जाता हूँ..
इसी ट्रांजिशन के दौर में उपजी मनोव्यथा उजागर करती रचना:
नोट: अभी यॉर्क, यू.के. याने लन्दन से नार्थ में दो घंटे पर हूँ. ३ मई को कनाडा वापसी है. कई मित्रों को लगा कि मैं न्यूयार्क आ गया हूँ, उनसे क्षमाप्रार्थी-मेरे लिखने में कुछ कमी रह गई होगी. मुझे स्पष्ट लिखना चाहिये था.
इक
लाठी
वो
काठी
वाली....
सरदी, गरमी और बरसातें
सुख और दुख की
वे सौगातें....
हरदम ही
वो
साथ रही थी...
और
मुझे भी देख जरा लो
..
इक
मैं था
कितना अलबेला...
छोड़ के जड़ को
दूर हुआ,
था निपट अकेला...
कुछ तो थी पाने की आशा
बदलूँ
जीवन की परिभाषा...
जिससे
उनको
आस रही थी....
वो लाठी भी
कुछ कहती थी...
सब कुछ
हंसते ही सहती थी...
वो भाषा
अब समझ रहा हूँ...
जब मैं आज
उसी लाठी की..
राहों पर से
गुजर रहा हूँ....
सचमुच!!
बहुत देर तक सोया...
कुछ पाने की आशा लेकर
कितना कुछ है
मैने खोया !!!!!!
सोच रहा हूँ
समझ रहा हूँ..
मेरे ही पागलपन से तो,
वह इक नाता
छूट
गया था...
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
-समीर लाल ’समीर’
( यह रचना समर्पित है हर उस बुजुर्ग को जिनके सहारे (बेटे या बेटियाँ) उनके साथ नहीं है चाहे किसी भी मजबूरी के तहत-कुछ भी कारण उस दूरी को जस्टिफाई न कर पायेगा-सब बहाने ही होंगे एक मायने में)
सोमवार, अप्रैल 13, 2009
यूँ बन गई गज़ल
सूरज डूब चुका है. रोशनी अब भी बाकी है. छत पर अकेले चाय के साथ बैठना सुकुन दे रहा है. न जाने कौन है वो जो सामने के मोहल्ले में हर वक्त गाना बजाता रहता है. शायद कोई पान की दुकान पर बजता है ऐसा रामदीन बताता था. एक से एक चुनिंदा पुराने गानों की पसंद है उसकी. बजाता है:
देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान,
कितना बदल गया इन्सान!!
वाकई कितना बदल गया है इन्सान. चुनाव का मौसम है. दोपहर ही एक नेता हाथ जोड़ कर वादा करते हुए मिल कर गये हैं. न पुराने वादों को पूरा न करने अपराध बोध और न ही अभी किए जा रहे वादों की नींव में झूट की बुनियाद से कोई हिचकिचाहट-बस चेहरे पर घाघी मुस्कराहट.
विचारों के सागर में डूबने लगता हूँ.
कितनी बदल चुकी है दुनिया. दो पड़ोसी, भाई भाई की तरह खुशी खुशी जिन्दगी बसर कर रहे हैं. कभी मन में भी नहीं आया कि ईद मुसलमान की और दीवाली हिन्दु की. मगर क्या करें इन सियासतदारों का. इन्होंने ने इसी सियासी खेल में अपना उल्लू सीधा करने के लिए कैसी फूट डाल दी. सरहदें बाँट दीं और दिलों में नफरत भर दी. आज पूरे फक्र से उन्हीं बिछड़ों पर राज करते हैं न जाने किस मूँह से:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
ऐसा गंदा खेल हो चुकी है यह सियासत कि अब आदमी दूसरों का तो क्या कहें, खुद का खुद पर भरोसा खो चुका है. बस, एक भ्रम में सियासी खेल खेले चले जा रहा है. न कोई अंकुश और न कोई मर्यादा :
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
क्या सही क्या गलत जैसे कोई सरोकार ही नहीं बचा इन सब बातों से. वादा खिलाफी तो फिर भी काबिले-बर्दाश्त है, इतने बरसों से आदत सी हो गई है इनकी वादा खिलाफी को झेलना. मगर अब तो उनकी नजरों में सब सही है और मानो कानून नाम से तो कोई डर ही नहीं रहा इन कानून बनाने वालों को. खुद बनाते हैं जैसे तोड़ने के लिए ही. किसी भी हद तक गिर जाते हैं और किस किस तरह के केसों में इनके नाम निकल कर आते हैं:
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
हर सीख बेकार जा रही है. कभी कहते थे जल्दबाजी में किया हर काम किसी भी अंजाम तक नहीं पहुँचाता. एक शास्वत नियम सा है कि एक एक कदम साधकर चलो अगर मंजिल पाना है और उस पर अपना परचम लहराना है. कितनी ही कहानियाँ सुनाई गई इस पाठ को सिखाने के लिए. याद है वो खरगोश और कछुए की दौड़ मगर देखो आज के नेताओं को, आज संपर्क में आये, कल जीते और परसों करोड़पति और साथ में तमगे के बतौर हजारों विचाराधीन मुकदमें. इसी कुछ तर्ज पर आज के युवा भी जाने क्या पाने की आस लिए भागे चले जा रहे हैं, हालांकि नेताओं और इन युवाओं की मंजिलों में फरक है और इन नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता मगर आज का युवा-कौन मान रहा है ये सीख:
दौड़ कर के सीढ़ियाँ, लाँध कर जो चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
वाकई, कितना बदल गया है इन्सान और कितना बदल गया है यह जमाना. अब तो बदले जमाने के हिसाब से जीना सीखना होगा. वरना तो बसर ही मुमकिन नहीं. जिन्दा लाशों के बीच रहने वाले मौत का मातम नहीं मनाते बल्कि वो तो मुक्ति का और खुशी का मौका बन चुका है:
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
और इसी तरह की सोच में डूबे शेर दर शेर बन कर निकलती है एक गज़ल. हम्म, पर चाय ठंडी हो गई. नई बनवा कर मंगवाता हूँ. तब तक आप गज़ल पढ़ो:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
-समीर लाल ’समीर’
देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान,
कितना बदल गया इन्सान!!
वाकई कितना बदल गया है इन्सान. चुनाव का मौसम है. दोपहर ही एक नेता हाथ जोड़ कर वादा करते हुए मिल कर गये हैं. न पुराने वादों को पूरा न करने अपराध बोध और न ही अभी किए जा रहे वादों की नींव में झूट की बुनियाद से कोई हिचकिचाहट-बस चेहरे पर घाघी मुस्कराहट.
विचारों के सागर में डूबने लगता हूँ.
कितनी बदल चुकी है दुनिया. दो पड़ोसी, भाई भाई की तरह खुशी खुशी जिन्दगी बसर कर रहे हैं. कभी मन में भी नहीं आया कि ईद मुसलमान की और दीवाली हिन्दु की. मगर क्या करें इन सियासतदारों का. इन्होंने ने इसी सियासी खेल में अपना उल्लू सीधा करने के लिए कैसी फूट डाल दी. सरहदें बाँट दीं और दिलों में नफरत भर दी. आज पूरे फक्र से उन्हीं बिछड़ों पर राज करते हैं न जाने किस मूँह से:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
ऐसा गंदा खेल हो चुकी है यह सियासत कि अब आदमी दूसरों का तो क्या कहें, खुद का खुद पर भरोसा खो चुका है. बस, एक भ्रम में सियासी खेल खेले चले जा रहा है. न कोई अंकुश और न कोई मर्यादा :
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
क्या सही क्या गलत जैसे कोई सरोकार ही नहीं बचा इन सब बातों से. वादा खिलाफी तो फिर भी काबिले-बर्दाश्त है, इतने बरसों से आदत सी हो गई है इनकी वादा खिलाफी को झेलना. मगर अब तो उनकी नजरों में सब सही है और मानो कानून नाम से तो कोई डर ही नहीं रहा इन कानून बनाने वालों को. खुद बनाते हैं जैसे तोड़ने के लिए ही. किसी भी हद तक गिर जाते हैं और किस किस तरह के केसों में इनके नाम निकल कर आते हैं:
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
हर सीख बेकार जा रही है. कभी कहते थे जल्दबाजी में किया हर काम किसी भी अंजाम तक नहीं पहुँचाता. एक शास्वत नियम सा है कि एक एक कदम साधकर चलो अगर मंजिल पाना है और उस पर अपना परचम लहराना है. कितनी ही कहानियाँ सुनाई गई इस पाठ को सिखाने के लिए. याद है वो खरगोश और कछुए की दौड़ मगर देखो आज के नेताओं को, आज संपर्क में आये, कल जीते और परसों करोड़पति और साथ में तमगे के बतौर हजारों विचाराधीन मुकदमें. इसी कुछ तर्ज पर आज के युवा भी जाने क्या पाने की आस लिए भागे चले जा रहे हैं, हालांकि नेताओं और इन युवाओं की मंजिलों में फरक है और इन नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता मगर आज का युवा-कौन मान रहा है ये सीख:
दौड़ कर के सीढ़ियाँ, लाँध कर जो चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
वाकई, कितना बदल गया है इन्सान और कितना बदल गया है यह जमाना. अब तो बदले जमाने के हिसाब से जीना सीखना होगा. वरना तो बसर ही मुमकिन नहीं. जिन्दा लाशों के बीच रहने वाले मौत का मातम नहीं मनाते बल्कि वो तो मुक्ति का और खुशी का मौका बन चुका है:
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
और इसी तरह की सोच में डूबे शेर दर शेर बन कर निकलती है एक गज़ल. हम्म, पर चाय ठंडी हो गई. नई बनवा कर मंगवाता हूँ. तब तक आप गज़ल पढ़ो:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
-समीर लाल ’समीर’
नोट:
१. बस, एक अलग तरह का प्रयोग करने की कोशिश मात्र है. बताईयेगा, कैसा रहा यह प्रयास?
२. यह आलेख तैयार जबलपुर में हो गया था मगर पोस्ट दिल्ली से किया जा रहा है. जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, मैं वापसी की तैयारी में हूँगा. देर रात ब्रसल्स के लिए फ्लाईट है और वहाँ से दिन में लंदन और फिर यॉर्क, बेटे, बहु के पास. कुछ दिन उनके साथ रहकर फिर कनाडा वापसी. अब नेट पर १५/१६ अप्रेल को ही आना होगा, ऐसा लगता है.
३. वापसी की तैयारी में ही पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता बनी हुई है और वही नेट से दूर रखे है-न कोई पठन, न लेखन और न ही टिप्पणी. जल्द पूरे जोर शोर से वापस आते हैं.
मंगलवार, अप्रैल 07, 2009
मेरी माँ लुटेरी थी-याद आया बिखरे मोती के अंतरिम विमोचन में
बिखरे मोती के अंतरिम विमोचन की रिपोर्ट यहाँ पढ़िये और उस वक्त जो याद आया वो यहाँ नीचे:
मेरी माँ लुटेरी थी...
माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में
लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?
वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ!
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन.
तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!
स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....
-समीर लाल ’समीर’
मेरी माँ लुटेरी थी...
माँ!!
तेरा
सब कुछ तो दे दिया था तुझे
विदा करते वक्त
तेरा
शादी का जोड़ा
तेरे सब जेवर
कुंकुम,मेंहदी,सिन्दूर
ओढ़नी
नई
दुल्हन की तरह
साजो
सामान के साथ
बिदा
किया था...
और हाँ
तेरी छड़ी
तेरी एनक,
तेरे नकली दांत
पिता
जी ने
सब कुछ ही तो
रख दिये थे
अपने हाथों...
तेरी
चिता में
लेकिन
फिर भी
जब से लौटा हूँ घर
बिठा कर तुझे
अग्नि रथ पर
तेरी छाप क्यों नजर आती है?
वह धागा
जिसे तूने मंत्र फूंक
कर दिया था जादुई
और बांध दिया था
घर
मोहल्ला,
बस्ती
सभी को एक सूत्र में
आज
अचानक लगने लगा है
जैसे टूट गया वह धागा
सब कुछ
वही तो है
घर
मोहल्ला
बस्ती
और वही लोग
पर घर की छत
मोहल्ले का जुड़ाव
और
बस्ती का सम्बन्ध
कुछ ही तो नहीं
सब कुछ लुट गया है न!!
हाँ माँ!
सब कुछ
और ये सब कुछ
तू ही तो ले गई है लूट कर
मुझे पता है
जानता हूं न बचपन से
तेरा लुटेरा पन.
तू ही तो लूटा करती थी
मेरी पीड़ा
मेरे दुख
मेरे सर की धूप
और छोड़ जाती थी
अपनी लूट की निशानी
एक मुस्कान
एक रस भीगा स्पर्श
और स्नेह की फुहार
अब सब कुछ लुट गया है!!
स्तम्भित हैं
पिताजी तो
यह भी नहीं बताते
आखिर
कहां लिखवाऊँ
रपट अपने लुटने की
घर के लुटने की
बस्ती और मोहल्ले के लुटने की
और सबसे अधिक
अपने समय के लुट जाने की....
-समीर लाल ’समीर’
रविवार, अप्रैल 05, 2009
किसकी संगत कर ली, यार!!
आपकी पहचान यह नहीं होती कि आप क्या हैं या कौन हैं-समाज आपको आप किनके साथ उठते बैठते हैं, उससे आंकता है.
आप जिनके साथ उठते बैठते हैं, ज्यादा समय बिताते हैं वो निश्चित ही आपके व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं. (इसके कुछ अपवाद आपको अपने ब्लॉगजगत में भी मिलेंगे जो सुधरने का नाम नहीं लेते मगर बड़े बड़ों के संरक्षण में पले जा रहे हैं-खैर, उनसे क्या करना, उन्हें तो इग्नोर करते रहूँ, उसी में मेरी भलाई है और उनका अंत).
शायद इसीलिए कहा गया होगा ’संगत कीजे साधु की’
कुछ सालों पहले जब ब्लॉगिंग शुरु की तो एकाएक वाह वाह कहने की आदत सी पड़ गई. पत्नी घर पर खाना परोसे और हम कह उठें-वाह वाह, बहुत खूब!! इस चक्कर में वैसी ही तरोई और लौकी की सब्जी तीन तीन दिन तक खाना पड़ी मगर आदत के चलते मजबूर.
दो साल पहले पूरे मसिजीवी परिवार को हमसे साधुवाद की ऐसी छूत लगी थी कि पहाड़ों पर घूमते वो परिवार बादल से लेकर जल तक का साधुवाद करता रहा और कहता रहा आकाश से कि क्या चित्र उकेरा है, बहुत खूब!!
आज जब ब्लॉगजगत का विचरण करता हूँ तो पाता हूँ कि कितने ही एक दूसरे से प्रभावित हैं. जिसे देखो वो कहता है कि बहुत उम्दा...बेहतरीन अभिव्यक्ति...अति भावपूर्ण. और भी जाने क्या क्या.
एक नया सा चलन आजकल देखने में आ रहा है-जो भी दस दिन से ज्यादा अंतराल के बाद लिख रहा है वो पहले अपनी अनुपस्थिति की क्षमा मांगता है कि माफ करियेगा इतने दिन आपके बीच नहीं आ पाया. वैसे सच सच कहें तो अगर वो बताते नहीं तो हमें पता तक न चलता कि वो इतने दिन से आये नहीं. किसे इन्तजार था भाई.
ये तो वो जगह है दोस्तों, जहाँ आ गये तो वाह वाह-न आये तो वाह वाह!! टंकी पर चढ़ जाओ तो वाह वाह!! उतर आओ तो वाह वाह!! वहीं रह जाओ तो भी वाह वाह!! हो चुका है ऐसा और लोग अपनी मूँह की खाये उतरते भी दिखे हैं. अगर दस दिन से ज्यादा का अन्तराल क्षमा मांगने का तय हो जाये तो जाने कितने ब्लॉगर ’क्षमा देहि’ का कटोरा लिए घूमते नजर आयें. जीतू (अरे वो नारद वाले) तो खुद ही कटोरा बन जायें ऐसा अन्तराल रहता है उनका.
कई बार सोचता हूँ कि काश, यह ’व्यवहार बदलाव’ ’प्लेटफॉर्म इन्डिपेन्डेन्ट’ (मंच उदासीन-ज्ञान जी से एफेक्टेड) (उन्मुक्त जी सुन रहे हो) होता तो कितना बढ़िया होता. ब्लॉगर से साहित्यकार प्रभावित होते और साहित्यकारों से ब्लॉगर. दूसरा हिस्सा जरुर दुखदायी और कष्टप्रद रहता मगर पहले हिस्से के लाभों को देखते हुए उसे हम सह जाते. जैसे कई बार पूरे शरीर में जहर न फैल जाये इस लिहाज से पैर काट कर अलग कर देना इन्सान झेल जाता है अन्य लाभ देखते हुए.
आम जन से नेता प्रभावित होते और नेता से आम जन. पुनः, दूसरा हिस्सा जरुर दुखदायी और कष्टप्रद रहता मगर पहले हिस्से के लाभों को देखते हुए उसे हम सह जाते. शायद कोई नेता इस प्रभाव में कह उठता कि आम जन तकलीफ में है, नेताओं को कुछ करना चाहिये. कुछ तो भला हो ही जाता.
कुछ समय पहले ब्लॉगजगत का प्रभाव कुछ यूँ होना शुरु हुआ कि मैं तो घबरा ही गया.
एकाएक एक मित्र से दूसरे मित्र के बारे में पूछा और साथ में कहा कि यार, वो कुछ स्वभाव से ठीक नहीं लगता.
आम आदमी के स्वभाव की तरह उस मित्र ने भी हाँ मे हाँ मिला दी और हमने जाकर दूसरे मित्र को बता दिया कि यार, तुम्हारा स्वभाव उस मित्र को पसंद नहीं.
बस, बात का बतंगड़ बन गया. कुछ मित्रों ने बैठ कर मसला हल कराया तो बात खुल कर सामने आई और हम फंसने लगे. अब क्या रास्ता था. बस दांत चियारे हम कह उठे कि अरे भई, हम तो यूँ ही मौज ले रहे थे और आप सब इतने छुईमुई कब से हो गये कि बुरा मान गये.
बात आई गई तो हो गई मगर हमने इस कुप्रभाव को तुरंत झटक कर अपने से अलग किया. तुरंत समझ गये कि इस तरह की बातें ठीक नहीं. इसमे ध्यान देने योग्य है कि हम समझ गये वरना कौन समझ पा रहा है. :)
इधर कुछ दिनों से मेरी आदत और भी कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुई है.
कल पत्नी मोहित हुई और कहने लगी कि क्या तुम भी मुझे उतना ही चाहते हो, जितना की मैं?
अब बताओ, क्या जबाब है इसका और वो भी इस उम्र में? बहु, बच्चों के घर में ऐसी बातें, क्या शोभा देती हैं?
ब्लॉग प्रभावित हम कह उठे: ’बूझो तो जानें?"
आजकल जिस ब्लॉग पर देखो, यही तो है. यहाँ तक की रचना जी भी इसी काँटे में अटक गई हैं, इससे तो उनका खौफ लोगों पर से जाता रहेगा, मगर उन्हें समझाये कौन? :) (स्माईली प्रोटेक्शन के लिए, हालांकि उनसे ठिठोली करना मेरा हक है और मुझे स्माईली की जरुरत नहीं, कम से कम रचना जी के सामने)
अब पत्नी का पारा तो सातवें आसमान पर कि इसमें वो क्या बूझे. किसी तरह मनाया और उसने बुझे मन से पूछा, ’खाने में क्या खाओगे आज?’
हम तो प्रभावित वातावरण के जीव, पूछ बैठे कि ;"क्या खिलाओगी, कुछ क्लू तो दो, रामप्यारी "
अब ये रामप्यारी कौन है, इस पर बखेड़ा मचा है और हम ताऊ रामपुरिया का फोन ट्राई कर रहे हैं जो कह रहा है कि ’आप कतार में हैं, कृप्या प्रतिक्षा करें.”
न जाने और कौन कौन क्या लफ़ड़ा कर बैठा है और ताऊ से बात कर रहा है.
अब आजकल की आदत के अनुसार:
मै कौन: बूझो तो जरा!! (क्लू नीचे देखो)
आप जिनके साथ उठते बैठते हैं, ज्यादा समय बिताते हैं वो निश्चित ही आपके व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं. (इसके कुछ अपवाद आपको अपने ब्लॉगजगत में भी मिलेंगे जो सुधरने का नाम नहीं लेते मगर बड़े बड़ों के संरक्षण में पले जा रहे हैं-खैर, उनसे क्या करना, उन्हें तो इग्नोर करते रहूँ, उसी में मेरी भलाई है और उनका अंत).
शायद इसीलिए कहा गया होगा ’संगत कीजे साधु की’
कुछ सालों पहले जब ब्लॉगिंग शुरु की तो एकाएक वाह वाह कहने की आदत सी पड़ गई. पत्नी घर पर खाना परोसे और हम कह उठें-वाह वाह, बहुत खूब!! इस चक्कर में वैसी ही तरोई और लौकी की सब्जी तीन तीन दिन तक खाना पड़ी मगर आदत के चलते मजबूर.
दो साल पहले पूरे मसिजीवी परिवार को हमसे साधुवाद की ऐसी छूत लगी थी कि पहाड़ों पर घूमते वो परिवार बादल से लेकर जल तक का साधुवाद करता रहा और कहता रहा आकाश से कि क्या चित्र उकेरा है, बहुत खूब!!
आज जब ब्लॉगजगत का विचरण करता हूँ तो पाता हूँ कि कितने ही एक दूसरे से प्रभावित हैं. जिसे देखो वो कहता है कि बहुत उम्दा...बेहतरीन अभिव्यक्ति...अति भावपूर्ण. और भी जाने क्या क्या.
एक नया सा चलन आजकल देखने में आ रहा है-जो भी दस दिन से ज्यादा अंतराल के बाद लिख रहा है वो पहले अपनी अनुपस्थिति की क्षमा मांगता है कि माफ करियेगा इतने दिन आपके बीच नहीं आ पाया. वैसे सच सच कहें तो अगर वो बताते नहीं तो हमें पता तक न चलता कि वो इतने दिन से आये नहीं. किसे इन्तजार था भाई.
ये तो वो जगह है दोस्तों, जहाँ आ गये तो वाह वाह-न आये तो वाह वाह!! टंकी पर चढ़ जाओ तो वाह वाह!! उतर आओ तो वाह वाह!! वहीं रह जाओ तो भी वाह वाह!! हो चुका है ऐसा और लोग अपनी मूँह की खाये उतरते भी दिखे हैं. अगर दस दिन से ज्यादा का अन्तराल क्षमा मांगने का तय हो जाये तो जाने कितने ब्लॉगर ’क्षमा देहि’ का कटोरा लिए घूमते नजर आयें. जीतू (अरे वो नारद वाले) तो खुद ही कटोरा बन जायें ऐसा अन्तराल रहता है उनका.
कई बार सोचता हूँ कि काश, यह ’व्यवहार बदलाव’ ’प्लेटफॉर्म इन्डिपेन्डेन्ट’ (मंच उदासीन-ज्ञान जी से एफेक्टेड) (उन्मुक्त जी सुन रहे हो) होता तो कितना बढ़िया होता. ब्लॉगर से साहित्यकार प्रभावित होते और साहित्यकारों से ब्लॉगर. दूसरा हिस्सा जरुर दुखदायी और कष्टप्रद रहता मगर पहले हिस्से के लाभों को देखते हुए उसे हम सह जाते. जैसे कई बार पूरे शरीर में जहर न फैल जाये इस लिहाज से पैर काट कर अलग कर देना इन्सान झेल जाता है अन्य लाभ देखते हुए.
आम जन से नेता प्रभावित होते और नेता से आम जन. पुनः, दूसरा हिस्सा जरुर दुखदायी और कष्टप्रद रहता मगर पहले हिस्से के लाभों को देखते हुए उसे हम सह जाते. शायद कोई नेता इस प्रभाव में कह उठता कि आम जन तकलीफ में है, नेताओं को कुछ करना चाहिये. कुछ तो भला हो ही जाता.
कुछ समय पहले ब्लॉगजगत का प्रभाव कुछ यूँ होना शुरु हुआ कि मैं तो घबरा ही गया.
एकाएक एक मित्र से दूसरे मित्र के बारे में पूछा और साथ में कहा कि यार, वो कुछ स्वभाव से ठीक नहीं लगता.
आम आदमी के स्वभाव की तरह उस मित्र ने भी हाँ मे हाँ मिला दी और हमने जाकर दूसरे मित्र को बता दिया कि यार, तुम्हारा स्वभाव उस मित्र को पसंद नहीं.
बस, बात का बतंगड़ बन गया. कुछ मित्रों ने बैठ कर मसला हल कराया तो बात खुल कर सामने आई और हम फंसने लगे. अब क्या रास्ता था. बस दांत चियारे हम कह उठे कि अरे भई, हम तो यूँ ही मौज ले रहे थे और आप सब इतने छुईमुई कब से हो गये कि बुरा मान गये.
बात आई गई तो हो गई मगर हमने इस कुप्रभाव को तुरंत झटक कर अपने से अलग किया. तुरंत समझ गये कि इस तरह की बातें ठीक नहीं. इसमे ध्यान देने योग्य है कि हम समझ गये वरना कौन समझ पा रहा है. :)
इधर कुछ दिनों से मेरी आदत और भी कुछ ज्यादा ही प्रभावित हुई है.
कल पत्नी मोहित हुई और कहने लगी कि क्या तुम भी मुझे उतना ही चाहते हो, जितना की मैं?
अब बताओ, क्या जबाब है इसका और वो भी इस उम्र में? बहु, बच्चों के घर में ऐसी बातें, क्या शोभा देती हैं?
ब्लॉग प्रभावित हम कह उठे: ’बूझो तो जानें?"
आजकल जिस ब्लॉग पर देखो, यही तो है. यहाँ तक की रचना जी भी इसी काँटे में अटक गई हैं, इससे तो उनका खौफ लोगों पर से जाता रहेगा, मगर उन्हें समझाये कौन? :) (स्माईली प्रोटेक्शन के लिए, हालांकि उनसे ठिठोली करना मेरा हक है और मुझे स्माईली की जरुरत नहीं, कम से कम रचना जी के सामने)
अब पत्नी का पारा तो सातवें आसमान पर कि इसमें वो क्या बूझे. किसी तरह मनाया और उसने बुझे मन से पूछा, ’खाने में क्या खाओगे आज?’
हम तो प्रभावित वातावरण के जीव, पूछ बैठे कि ;"क्या खिलाओगी, कुछ क्लू तो दो, रामप्यारी "
अब ये रामप्यारी कौन है, इस पर बखेड़ा मचा है और हम ताऊ रामपुरिया का फोन ट्राई कर रहे हैं जो कह रहा है कि ’आप कतार में हैं, कृप्या प्रतिक्षा करें.”
न जाने और कौन कौन क्या लफ़ड़ा कर बैठा है और ताऊ से बात कर रहा है.
अब आजकल की आदत के अनुसार:
मै कौन: बूझो तो जरा!! (क्लू नीचे देखो)
रामप्यारी का क्लू:
गुरुवार, अप्रैल 02, 2009
जैसे दूर देश के टावर में-गुलाल
हमारे खास हितचिन्तकों का (विशेष तौर पर संजय बैंगाणी जी) कहना है कि मुझे फिल्म देखने देने पर बैन लग जाना चाहिये क्यूँकि मुझे कोई फिल्म पसंद ही नहीं आती. वैसे मैने खुद पर बैन लगा रखा है मगर पत्नी की जिद पर कोई बैन लगवा दे, तो आजीवन आभारी रहूँगा. वैसे आभारी तो मल्टी पलेक्स का हूँ ही जो रिकलाईनर के माध्यम से इतना बढ़िया सोने का इन्तजाम कर दिये हैं पिक्चर हॉल में.
उस दिन कलकत्ता में था. रात पत्नी और साली की जिद हुई कि मूवी देखने चलें तो टाल न पाया. अब देखो क्या हाल हुआ: IMOX का थियेटर और पेट भर भोजन के बाद गद्दीदार लेटने योग्य सीट के साथ फिल्म देखने की शुरुवात.
अच्छा, ऐसा मानो कि ब्लॉगर्स को लेकर फिल्म बनायें. चलो, फुरसतिया जी हीरो..थोड़ी देर काम करवाया-पसंद नहीं आये, हटाओ और अब डॉ अनुराग हीरो, अरे, वो भी नहीं जमे. चलो जाने दो, अब समीर लाल हीरो..वो भी फिस्स..फिर कोई और. फिर कोई और..हीरोईन जो भी बन जाओ. कोई नहीं जमा. सब एक दूसरे को गोली मार दो. सब मर जाओ. अब, हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन. बाकी सब मर गये, क्या पूछ रहे हो यार?? कि ये हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन-ये कौन लोग हैं. इनको तो कभी ब्लॉग पर देखा नहीं. सही है, हमारी तरह ही गुलाल देख कर भी आखिर में हीरो हीरोईन के बारे में यही कहोगे-उनको भी कभी देखा नहीं. आखिर में सबके मरने पर एकाएक भये प्रकट कृपाला टाईप आ गये. शायद कुछ लोग जानते हों तो वो तो हरी और रुक्मणी को भी जानते होंगे तो उससे क्या लेना देना.
यूँ भड़ास ब्लॉग से गुरेज कि गाली गलौज सब लिखी होती है. जो भी बात गले में अटक गई हो, उसे उगल दी जाती है और इस फिल्म पर वाह वाह!! सिर्फ इसलिये कि फिल्म है और अनुराग कश्यप की है. नाम की महिमा भी अपरंपार है. भड़ास की गालियों और भाषा की तो फिर भी वजह है कि भड़ासी लय में गाली बक कर हल्का हो लेता है और शायद उद्देश्य भी यही है मगर यहाँ तो बगैर वजह, निरुदेश्य और बिना सुर ताल के सब चालू रहे और लोग बैठे देखते रहे.
ऐसे देश में ,जहाँ हर नेता अपने कुकर्मों की कालिख अपने मूँह पर पोते घूम रहा हो और हम उसे फिर भी अलग से पहचान कर अनजान बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि हमने इसे अपनी किस्मत मान हालातों से समझौता कर लिया है. ऐसे देश में जहाँ की एक बहुसंख्यक आबादी अपने आपका असतित्व बचाये रखने के लिए मुखौटा लगाये घूम रही हो. वहाँ चेहरे पर गुलाल पोत कर, भले ही सांकेतिक, एक रंग होना न जाने किस आशय और मकसद की पूर्ति कर रहा है, यह समझ पाना मुश्किल सा रहा. फिल्में देश और काल के मद्दे नज़र न बनें तो जादू देखना ज्यादा श्रेयकर होगा. संपूर्ण तिल्समि दुनिया. क्या आधा अधूरा देखना.
ऐसे देश में, जो खुद ही अभी विखंडित होने की मांग से आये दिन जूझता हो, कभी खालिस्तान, तो कभी गोरखालैण्ड तो कभी आजाद कश्मीर, इस तरह का एक और बीज बोना, आजाद राजपूताना, जिसकी अब तक सुगबुगाहट भी न हो, क्या संदेश देता है? क्या वजह आन पड़ी यह उकसाने की-समझ से परे ही रहा.
अक्सर फिल्म की कहानी को भटकते देखा है मगर इस फिल्म में तो कहानी भटकी, डायरेक्शन भटका, हीरो हीरोईन भटके और यहाँ तक कि दर्शक भी भटक गये. ऐसे भटके कि घर आने का रास्ता खोजना पड़ा.
गीतों के नाम पर कविताओं की पैरोडी और उन पर झमाझम नाचती, बल खाती बाला.पियूष मिश्रा के गीत पर-जैसे दूर देश के टावर में घुस गयो रे ऐरोप्लेन...नाचते देख तब्बू की हमशक्ल को लगा कि यही हीरोईन है मगर वो नहीं थी. दूसरी ही निकली जिसकी कतई उम्मीद न थी. अरे, वही, उपर फोटो वाली गुलाल पोते.
उस दिन कलकत्ता में था. रात पत्नी और साली की जिद हुई कि मूवी देखने चलें तो टाल न पाया. अब देखो क्या हाल हुआ: IMOX का थियेटर और पेट भर भोजन के बाद गद्दीदार लेटने योग्य सीट के साथ फिल्म देखने की शुरुवात.
अच्छा, ऐसा मानो कि ब्लॉगर्स को लेकर फिल्म बनायें. चलो, फुरसतिया जी हीरो..थोड़ी देर काम करवाया-पसंद नहीं आये, हटाओ और अब डॉ अनुराग हीरो, अरे, वो भी नहीं जमे. चलो जाने दो, अब समीर लाल हीरो..वो भी फिस्स..फिर कोई और. फिर कोई और..हीरोईन जो भी बन जाओ. कोई नहीं जमा. सब एक दूसरे को गोली मार दो. सब मर जाओ. अब, हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन. बाकी सब मर गये, क्या पूछ रहे हो यार?? कि ये हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन-ये कौन लोग हैं. इनको तो कभी ब्लॉग पर देखा नहीं. सही है, हमारी तरह ही गुलाल देख कर भी आखिर में हीरो हीरोईन के बारे में यही कहोगे-उनको भी कभी देखा नहीं. आखिर में सबके मरने पर एकाएक भये प्रकट कृपाला टाईप आ गये. शायद कुछ लोग जानते हों तो वो तो हरी और रुक्मणी को भी जानते होंगे तो उससे क्या लेना देना.
यूँ भड़ास ब्लॉग से गुरेज कि गाली गलौज सब लिखी होती है. जो भी बात गले में अटक गई हो, उसे उगल दी जाती है और इस फिल्म पर वाह वाह!! सिर्फ इसलिये कि फिल्म है और अनुराग कश्यप की है. नाम की महिमा भी अपरंपार है. भड़ास की गालियों और भाषा की तो फिर भी वजह है कि भड़ासी लय में गाली बक कर हल्का हो लेता है और शायद उद्देश्य भी यही है मगर यहाँ तो बगैर वजह, निरुदेश्य और बिना सुर ताल के सब चालू रहे और लोग बैठे देखते रहे.
ऐसे देश में ,जहाँ हर नेता अपने कुकर्मों की कालिख अपने मूँह पर पोते घूम रहा हो और हम उसे फिर भी अलग से पहचान कर अनजान बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि हमने इसे अपनी किस्मत मान हालातों से समझौता कर लिया है. ऐसे देश में जहाँ की एक बहुसंख्यक आबादी अपने आपका असतित्व बचाये रखने के लिए मुखौटा लगाये घूम रही हो. वहाँ चेहरे पर गुलाल पोत कर, भले ही सांकेतिक, एक रंग होना न जाने किस आशय और मकसद की पूर्ति कर रहा है, यह समझ पाना मुश्किल सा रहा. फिल्में देश और काल के मद्दे नज़र न बनें तो जादू देखना ज्यादा श्रेयकर होगा. संपूर्ण तिल्समि दुनिया. क्या आधा अधूरा देखना.
ऐसे देश में, जो खुद ही अभी विखंडित होने की मांग से आये दिन जूझता हो, कभी खालिस्तान, तो कभी गोरखालैण्ड तो कभी आजाद कश्मीर, इस तरह का एक और बीज बोना, आजाद राजपूताना, जिसकी अब तक सुगबुगाहट भी न हो, क्या संदेश देता है? क्या वजह आन पड़ी यह उकसाने की-समझ से परे ही रहा.
अक्सर फिल्म की कहानी को भटकते देखा है मगर इस फिल्म में तो कहानी भटकी, डायरेक्शन भटका, हीरो हीरोईन भटके और यहाँ तक कि दर्शक भी भटक गये. ऐसे भटके कि घर आने का रास्ता खोजना पड़ा.
गीतों के नाम पर कविताओं की पैरोडी और उन पर झमाझम नाचती, बल खाती बाला.पियूष मिश्रा के गीत पर-जैसे दूर देश के टावर में घुस गयो रे ऐरोप्लेन...नाचते देख तब्बू की हमशक्ल को लगा कि यही हीरोईन है मगर वो नहीं थी. दूसरी ही निकली जिसकी कतई उम्मीद न थी. अरे, वही, उपर फोटो वाली गुलाल पोते.
बुधवार, अप्रैल 01, 2009
एक मुद्दत से तमन्ना थी...कलकत्ता देखने की.
गाना बज रहा है:
एक मुद्दत से तमन्ना थी, तुझे छूने की.....
सोचता हूँ वाकई, एक मुद्दत से तमन्ना थी..कलकत्ता नहीं देखा. देश के अनेक शहर देखे, विदेश के अनेक शहर देखे मगर नहीं देखा तो कलकत्ता!! बस, यही तमन्ना पूरी करने निकल पड़े २१ मार्च को कलकत्ता के सफर पर और एक नहीं अनेक तमन्नाऐं पूरी होती देखते रहे..शिव मिश्रा से मिलना, मीत भाई से मुलाकात, रंजना की फोन पर फटकार कि पहले काहे नहीं बताये कि आ रहे हो वरना हम भी आ जाते. छोटी है न!! रुठने मचलने का हक है तो फटकार सुनते रहे और मना भी लिए. वो भी मान गई, खुश हो गई कि अगली बार जरुर मिलेंगे.
क्रिकेट के शौकीन और नियमित खिलाड़ी शिव की फिटनेस प्रभावित करती रही. हमपेशा चार्टड एकाउन्टेन्ट हैं तो अनेकों मुद्दों पर व्यवसायिक सोच भी अति प्रभावशील रही.
कलकता स्टेशन पहुँचे ही थे कि सामने से आता एक नौजवान पहचाना सा लगा. आते ही चरण स्पर्श पहले हमारे फिर पत्नी के. पत्नी गदगद कि कितने संस्कारी मित्र हैं उनके पति के. जैसा शिव के बारे में सोचा था उससे भी ज्यादा संस्कारी और उर्जावान पाया.
बड़ी सी गाड़ी ले कर आये थे हमारे साईज का ख्याल करके मगर वो भी कम ही पड़ गई. दरअसल हमारी बिटिया जैसी साली का परिवार भी साथ था और उस पर से उसी समय ट्रेन मिला कर पत्नी की बड़ी बहन ने भी साथ कर लिया रुड़की से आकर. तब शिव ने तुरंत अपने दफ्तर से एक और बड़ी गाड़ी बुलवाई और हम सब रवाना हुए उस होटल के लिए जो शिव ने बुक कर रखी थी हमारे लिए पहले से. उम्दा व्यवस्था, उम्दा कमरा..वाह!! हमें छोड़ कर और शाम का प्रोग्राम बनाकर शिव ऑफिस वापस लौट गये.
शाम उनके बताये अनुरुप आसपास घूमें और अगले रोज सुबह शिव गाड़ी के साथ फिर हाजिर. गाड़ी दिन भर हमें कलकत्ता घुमाती रही उस दिन भी और अगले रोज भी जब हमें जलपाईगुड़ी के लिए निकलना था गंगटोक और दार्जलिंग जाने के लिए. घूमते फिरते कलकत्ता तो ऐसा समझ आया कि खूब खाओ, दवा लो और सो जाओ. जब नींद खुले तो फिर खाओ. हर तरफ खाने की दुकानें या फिर दवा की और दिन में बाकी सब दुकानें बंद मतलब की सोने चले गये.
अगले रोज शिव मीत को लेकर आये. मीत से हमारी बात पहले दिन ही हो गई थी मगर मुलाकात अगले दिन हुई. सारा परिवार बाजार में शिव की गाड़ी लिए घूम रहा था और हम, शिव और मीत कमरे में बैठे वार्तालाप में व्यस्त थे.
एक मुद्दत से तमन्ना थी, तुझे छूने की.....
सोचता हूँ वाकई, एक मुद्दत से तमन्ना थी..कलकत्ता नहीं देखा. देश के अनेक शहर देखे, विदेश के अनेक शहर देखे मगर नहीं देखा तो कलकत्ता!! बस, यही तमन्ना पूरी करने निकल पड़े २१ मार्च को कलकत्ता के सफर पर और एक नहीं अनेक तमन्नाऐं पूरी होती देखते रहे..शिव मिश्रा से मिलना, मीत भाई से मुलाकात, रंजना की फोन पर फटकार कि पहले काहे नहीं बताये कि आ रहे हो वरना हम भी आ जाते. छोटी है न!! रुठने मचलने का हक है तो फटकार सुनते रहे और मना भी लिए. वो भी मान गई, खुश हो गई कि अगली बार जरुर मिलेंगे.
क्रिकेट के शौकीन और नियमित खिलाड़ी शिव की फिटनेस प्रभावित करती रही. हमपेशा चार्टड एकाउन्टेन्ट हैं तो अनेकों मुद्दों पर व्यवसायिक सोच भी अति प्रभावशील रही.
कलकता स्टेशन पहुँचे ही थे कि सामने से आता एक नौजवान पहचाना सा लगा. आते ही चरण स्पर्श पहले हमारे फिर पत्नी के. पत्नी गदगद कि कितने संस्कारी मित्र हैं उनके पति के. जैसा शिव के बारे में सोचा था उससे भी ज्यादा संस्कारी और उर्जावान पाया.
बड़ी सी गाड़ी ले कर आये थे हमारे साईज का ख्याल करके मगर वो भी कम ही पड़ गई. दरअसल हमारी बिटिया जैसी साली का परिवार भी साथ था और उस पर से उसी समय ट्रेन मिला कर पत्नी की बड़ी बहन ने भी साथ कर लिया रुड़की से आकर. तब शिव ने तुरंत अपने दफ्तर से एक और बड़ी गाड़ी बुलवाई और हम सब रवाना हुए उस होटल के लिए जो शिव ने बुक कर रखी थी हमारे लिए पहले से. उम्दा व्यवस्था, उम्दा कमरा..वाह!! हमें छोड़ कर और शाम का प्रोग्राम बनाकर शिव ऑफिस वापस लौट गये.
शाम उनके बताये अनुरुप आसपास घूमें और अगले रोज सुबह शिव गाड़ी के साथ फिर हाजिर. गाड़ी दिन भर हमें कलकत्ता घुमाती रही उस दिन भी और अगले रोज भी जब हमें जलपाईगुड़ी के लिए निकलना था गंगटोक और दार्जलिंग जाने के लिए. घूमते फिरते कलकत्ता तो ऐसा समझ आया कि खूब खाओ, दवा लो और सो जाओ. जब नींद खुले तो फिर खाओ. हर तरफ खाने की दुकानें या फिर दवा की और दिन में बाकी सब दुकानें बंद मतलब की सोने चले गये.
अगले रोज शिव मीत को लेकर आये. मीत से हमारी बात पहले दिन ही हो गई थी मगर मुलाकात अगले दिन हुई. सारा परिवार बाजार में शिव की गाड़ी लिए घूम रहा था और हम, शिव और मीत कमरे में बैठे वार्तालाप में व्यस्त थे.
मीत कम बोलते हैं मगर पुख्ता बोलते हैं. पुख्ता इसलिए कि हमारे लेखन की उन्होंने तारीफ की कम बोलने के बावजूद भी.
बहुतेरी बातें हुई. फुरसतिया जी का फोन भी उसी दौरान पहुँचा, तो उनके बारे में भी बात हुई. खराब बात और बुराई करने से तीनों को ही परहेज था तो फुरसतिया जी के विषय में बात शुरु हुई और तुरंत ही रुक गई. :)
शैलेष द्वारा आयोजित ब्लॉगर मीट पर भी विशेष चर्चा हुई. पाया गया कि इस तरह की ब्लॉगर मीट से कुछ ऐसा संदेश जाना चाहिये जो अन्य क्षेत्रों को प्रेरित करे इस तरह के आयोजनों के लिए.
करीब दो घंटे की चर्चा में बैंगाणी बंधु, डॉ अनुराग, कुश, पीडी, नीरज बाबू ताऊ, भाटिया जी, अरविंद मिश्रा, चौखेर बाली, पंगेबाज, ज्ञान जी, शास्त्री जी, राकेश खण्डॆलवाल, प्रमोद सिंग, प्रत्यक्षा जी, अनूप भार्गव, विश्वनाथ जी, जबलपुर ब्लॉगर आदि आदि अनेक लोग आये और सहजता के साथ निकल गये.
मिलन मजेदार रहा. लघुकथा पर विशेष चर्चा में इस ओर ध्यान देने की आवश्यक्ता पर जोर दिया गया. कलकत्ता के ब्लॉगर बालकिशन जी का आना भी तय था किन्तु किंचित व्यवसायिक व्यस्तताओं के चलते रह गया.
पूरी यात्रा में शिव की मेहमान नवाजी का क्या कहें. हम तो घर के ही कहलाये तो कैसे मेहमान. बाकी तो झेला शिव ने है, वो बेहतर बतायेंगे. :) हमारा तो सारा परिवार अब तक शिव स्तुति में लगा है जबकि लौटे हुए २४ से ज्यादा घंटे हो गये हैं.
उनके सौजन्य से मछली खाते जबलपुर लौट रहे थे तो रास्ते में इलाहाबाद में परमेन्द्र महाशक्ति मिलने आये. पिछली बार ट्रेन छुटने के बाद पहुँचे थे तो इस बार दस मिनट पहले से स्टेशन पर मौजूट फोन पर टिकटिका रहे थे. चरण स्पर्श की परंपरा से उन्होंने भी पत्नी को अभिभूत किया, बहुत मजा आया इस युवक से मिल कर भी. बड़े सपने हैं इसके पास और भविष्य की अनेक योजनाऐं. मुझे बेहद उम्मीदें हैं परमेन्द्र से. मिलने पर असीम आनन्द की प्राप्ति हुई. जल्द ही फिर मिलने का वादा है. इलाहाबाद में और किसी को सूचना भी नहीं दे पाये थे तो मुलाकात भी नहीं हुई.
हर मिलन में बस एक ही बात पूरी होती दिखी:
एक मुद्दत से तमन्ना थी.....
बाकी तो शिव, मीत और प्रमेन्द्र ही बतायेंगे अपनी कलम से.
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