इधर कुछ दिनों से खाली
समय में किताबों में डूबा हूँ. न लिख पाने के लिए एक बेहतरीन आड़ कि अभी पढ़ने में
व्यस्त हूँ.
हाथ में आई पैड है और उस
पर खुली है “शान्ताराम”. नाम से तो शुद्ध हिन्दी तो क्या, मराठी की किताब लगती है मगर है अंग्रेजी में. ईबुक के हिसाब
से १७०० पन्नों की है और पढ़ते हुए अब तक लगभग २५०
पन्नों के पार आ पाया हूँ मैं.
शायद २५० पन्ने शुरुआत ही
है. अभी अभी नामकरण हुआ है न्यूजीलैण्ड के लिन का (जो मुंबई में आकर लिनबाबा हुआ),
लिनबाबा से “शान्ताराम”. बहुत चाव से लिन अपने
नये नाम शान्ताराम को महाराष्ट्र के एक गांव में आत्मसात कर रहा है जिसका अर्थ है
शान्ति का प्रतीक और मैं अब जब शान्ताराम के मुंबई प्रवास और फिर रेल और राज्य
परिवहन की बस में सुन्दर गांव की यात्रा को पढ़ रहा हूँ तो अपने मुंबई के ५ वर्षीय
प्रवास और अनेक बस और रेल यात्राओं की याद में डूब पुस्तक से इतर न जाने किस
दुनिया में खो जाता हूँ. पठन रुक रुक कर चलता है मगर रुकन में भी जीवंतता है. एकदम
जिन्दा ठहराव...लहराता हुआ- बल खाता हुआ एक इठलाती नदी के प्रवाह सा- जिसके बहाव
में भी नजरों का ठहराव है.
ऐसे लेखकों को पढ़कर लगता
है कि कितना थमकर लिखते हैं हर मौके पर- हर दृष्य और वृतांत को इतना जिन्दा करते
हुए कि अगर फूल का महकना लिखेंगे तो ऐसा कि आप तक उस फूल की महक आने लगती हैं.
माहौल महक उठता है.
नित पढ़ते हुए कुछ गाना
सुनते रहने की आदत भी लगी हुई है. अक्सर तो यह कमान फरीदा खानम, आबीदा परवीन, नूरजहां, मुन्नी बेगम,
मेंहदी हसन, बड़े गुलाम अली खां साहब आदि संभाले रहते हैं- एक अपनापन सा
अहसासते हुए जी भर कर सुनाते हैं अपने कलाम.
आज मन था सुनने का तो
सोचा कि औरों को मौका न देने से कहीं जालिम न कहलाया जाऊँ. तो आज इन पहुँचे हुए
नामों को आराम देने की ठानी और मौका दिया सबा बलरामपुरी को. सबा ने भी उसी तरह
अपनेपन से मुस्कराते हुए अपने दिलकश अन्दाज में सुनाया:
अजब हाल है मेरे दिल की
खुशी का
हुआ है करम मुझ पे जब से
किसी का
मुहब्बत मेरी ये दुआ
मांगती है
कि तेरे साथ तय हो सफर
जिन्दगी का...
सबा की आवाज की खनक,
अजीब सी एक बेचैनी,
एक कसक और कसमसाहट के साथ ही उसकी लेखनी मुझे
खींच कर ले गई उस अपनी जिन्दगी की खुशनुमा वादी में..जहाँ शायद भाव यूँ ही
गुनगुनाये थे मगर शब्द कहाँ थे तब मेरे पास. न ही सबा की लेखनी की वो बेसाखियाँ
हासिल थी उस वक्त....जिसकी मल्लिका सबा निकली. वो यादें तो मेरी थीं और हैं भी. उन
पर सबा का कोई अधिकार नहीं तो उनमें डूबा मैं तैरता रहा मैं हर पल तुम्हें याद
करता...गुनगुनाता:
मुहब्बत मेरी ये दुआ
मांगती है
कि तेरे साथ तय हो सफर
जिन्दगी का...
दुआएँ यूँ कहाँ सब की
पूरी होती हैं. मेरी न हुई तो कोई अजूबा नहीं. अजूबा तो दुआओं के पूरा होने पर
होता है अबकी दुनिया में. मानों खुशी के पल खुशनसीबी हो और दुख तो लाजिमी हैं.
मैं सोचता ही रहा और फिर
डूब गया शान्ताराम की कहानी में, जो भाग रहा था डर कर कि सुन्दर गांव में नदी का
स्तर मानसून में एकाएक बढ़ रहा है और शायद गांव डूब ही न जाये. वो गांव के
निवासियों को जब सचेत करता है तो सारे गांव वाले हँसते हैं उसकी सोच पर. सब
निश्चिंत हैं कि आज तक वो नदी इतना बढ़ी ही नहीं कि गांव डूब जाये. उन्हें वो स्तर
भी मालूम था कि जहाँ तक नदी ज्यादा से ज्यादा बढ़ सकती है.
न्यूजीलैण्ड में रहते भी
शान्ताराम को ऐसे किसी विज्ञान का ज्ञान ही नहीं हो सका जो ऐतिहासिक आधार पर ऐसा
कुछ निर्णय निकाल पाये. भारत की स्थापित न जाने कितनी मान्यताओं के आगे विज्ञान
यूँ भी हमेशा बौना और पानी ही भरता नजर आया है और इस बार भी पानी उस स्तर के उपर न
जा पाया. लिनबाबा उर्फ शान्ताराम नतमस्तक है उन भारतीय मान्यताओं के आगे. मैं तो
खुद ही नतमस्तक था. उसी भूमि पर पैदा हुआ था तो मुझे कोई विशेष आश्चर्य नहीं
हुआ...
सबा है कि छोटे छोटे
मिसरे सरल शब्दों मे बहर में गाये जा रही है:
मेरा दिल न तोड़ो जरा इतना
सोचो
मुनासिब नहीं तोड़ना दिल
किसी का...
तुम्हें अब तरस मुझपे आया
तो क्या है
भरोसा नहीं अब कोई
जिन्दगी का..
छा गई सबा और उसकी आवाज
दिलो दिमाग पर...याद आ गया बरसों बाद उस दिन तुम्हारा मुझको अपने फेस बुक की
मित्रों की सूची में शामिल करना इस संदेश के साथ: “हे बड्डी, ग्रेट टू सी यू हियर..रीयली लाँग टाईम..काइन्ड
ऑफ पॉज़.... वाह्टस अप- हाउज़ लाईफ ट्रीटिंग यू-होप आल ईज़ वेल”
हूँ ह...पॉज कि रीस्टार्ट
आफ्टर ए फुल स्टॉप? नो आईडिया!!!
भूल ही चुका था मैं यूँ
तो अपनी दैनिक साधारण सी बहती हुई जिन्दगी में..कभी ज्वार आये भी तो उससे उबर जाना
सीख ही गया था स्वतः ही..जिन्दगी सब सिखा देती है..यही तो खूबी है जिन्दगी
में...जिसके कारण दुनिया पूजती है इसे..कायल है इसकी. मन कर रहा है कि फेस बुक में
तुम्हारी वाल पर जाकर सबा की ही पंक्तियाँ लिख दूँ और थैंक्यू कह दूँ सबा को मुझे
रेस्क्यू करने के लिए...बचाने के लिए:
तुम्हें अब तरस मुझपे आया
तो क्या है
भरोसा नहीं अब कोई
जिन्दगी का..
जाने क्या सोच रुक जाता
हूँ और बिना कोशिश हाथ आँख पोंछने बढ़ जाते हैं. आँख और हाथ का भी यह अजब रिश्ता आज
भी समझ के बाहर है मगर है तो एक रिश्ता. ...अनजाना सा..अबूझा सा,,,हाथ आँखों को नम पाता है..शायद सबा को सुन रहा
होगा वो भी मेरे साथ:
अभी आप वाकिफ नहीं दोस्ती
से
न इजहार फरमाईये दोस्ती
का...
शायद आप तो क्या, हम भी कभी अब वाकिफ न हो पायेंगे. वक्त जो
गुजरना था...गुजर गया. बेहतर है मिट्टी डालें उस पर. मगर हमेशा बेहतर ही हो तो
जिन्दगी सरल न हो जाये? जिन्दगी तो जूझने
का नाम है ऐसा बुजुर्गवार कह गये हैं. गालिब भी कहते थे तो हम क्या और किस खेत की
मूली हैं...
शान्ताराम जूझ रहा है..एक
भगोड़ा..जिसकी तलाश है न्यूजीलैण्ड की पुलिस को. जमीन छूट जाने की कसक उसे भी है और
मजबूरी यह है की कि कैद उसे मंजूर नहीं. कैद की यातना से भागा है..एक आजाद सांस
लेने..वो किसे नसीब है भला जीते जी..जमीन की खुशबू से कौन मुक्त हुआ है
भला...रिश्तों की गर्माहट को कैसे छोड़ सकता है कोई...बुलाते हैं वो रिश्ते और महक
के थपेड़े....खींचते है वो...
सोचता हूँ हालात तो मेरे
भी वो ही हैं...मुझे तो कैद का भी डर नहीं...फिर क्यूँ नहीं लौट पाता हूँ मैं..उस
मिट्टी की सौंधी खुशबू के पास..अपने रिश्तों की गरमाहट के बीच...उस मधुवन
में...क्या मजबूरी है...जाने क्या...सोच के परे रुका हूँ इस पार....एक अनसुलझ
उधेड़बून में...अबूझ पहेली को सुलझाता....
सबा कह रही है:
बुरा हाल है ये तेरी
जिन्दगी का...
-समीर लाल “समीर”
भोपाल
से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अक्टूबर 22 , 2023 के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/7719
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