बुधवार, अप्रैल 28, 2010

साहित्य के ध्रुव

एक गांव में सरपंच जी ने बैठक बुलवाकर घोषणा की कि अब अगले माह तक हमारे गांव में बिजली आ जायेगी.

पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ पड़ी. उत्सव का सा माहौल हो गया. हर गांववासी प्रसन्न होकर नाच रहा था.

देखने में आया कि गांव के कुत्ते भी खुशी से झूम झूम कर नाच रहे थे. यह आश्चर्य का विषय था.

लोगों ने कुत्तों से जानना चाहा कि भई, तुम लोग क्यूँ नाच रहे हो?

कुत्तों ने बड़ी सहजता से जबाब दिया कि जब बिजली आयेगी तो इतने सारे खम्भे भी तो लगेंगे.

मुझे मेरे मित्र ने जब यह किस्सा सुनाया तो प्रथम दृष्टा तो यह चुटकुला ही लगा मात्र हास्य बोध देता किन्तु गहराई से सोचा जाये तो हम इन्सानों में यह आदत क्यूँ नहीं? क्यूँ हम किसी और की खुशी में अपनी खुश होने की वजह खोजने के बदले इर्ष्यावश दुखी होकर बैठ जाते हैं?

खैर, एक विचार उठा तो सुना दिया.

ऐसे ही कुछ समय पहले कुछ विचारों को, कुछ भावों को शब्दबद्ध कर कवि मित्र शरद कोकस जी से बात कर रहा था और उनके मार्गदर्शन में उसी रचना में कुछ सुधार कर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:

 

साहित्य के ध्रुव

writing

कीड़े मकोड़ों की तरह
एक दूसरे पर लदे-फदे
सरकते घिसटते कवि कथाकार

माचिस की
डिबियों में ज्यों
अपनी दुनिया बसाये

बिना किसी मकसद
रेंगते भटकते
कागज़ काले करते लोग..

वहीं बुद्धि के विमान में सवार
लोगों को भी
ऐसा ही दिखता है
दुनिया का हाल

अपनी गिद्ध-दृष्टि  से
वे देखते हैं दुनिया
और रचते हैं

एक आधी-अधूरी कविता
या एक निरर्थक कहानी...

जिसे अब साहित्य पुकारा जाता है!!

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, अप्रैल 25, 2010

दिखावे की दुनिया..

अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग...

दुनिया दिखावे की हो चली है. कोई भी कार्य जिसमें नाम न मिले, लोग न जाने- कोई करना ही नहीं चाहता. दिखावा न हो तो बस फिर मैं!!

जिस भी कार्य में मेरा फायदा हो, वो ही मैं करुँगा. संवेदनशीलता मरी. साथ मरी सहनशीलता. अहम उठ खड़ा हुआ दस शीश लेकर. एक कटे और दस और खड़े हो जायें. कोई झुकना ही नहीं चाहता. कोई सहना ही नहीं चाहता.

छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.

कब और कैसे सब बदला, नहीं जानता मगर बदला तो है.

कुछ दिन पहले किसी बहाव में एक रचना उगी थी:

tree1

 

दो समांतर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..

आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!

यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...

और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!

-समीर लाल ’समीर’

-आज बस इतना ही!!

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, अप्रैल 21, 2010

मजहबी विवाद, साम्प्रदायिकता और ब्लॉग जगत!!

वैसे तो ऐसे मुद्दों पर मैं कभी नहीं लिखता और न ही मुझे इन विषयों में कोई दिलचस्पी है.

मगर इधर काफी सारे आलेख पढ़े, हलचल देखी और जाना उन ब्लॉग्स के बारे में जो मजहब और साम्प्रदायिकता के नाम द्वेष फैला रहे हैं. मेरा कभी इन ब्लॉगस पर जाना नहीं होता, इसलिए ज्ञात नहीं है कि वो क्या लिख रहे हैं, जो अन्य लोगों की परेशानी का सबब बना है. मगर निश्चित ही कुछ न कुछ तो ऐसा लिख ही रहे होंगे जो इतने सारे अन्य लोगों की भावनाओं को भड़का रहा होगा.

वैसे तो लोगों का कहना है कि कुछ पोर्न साईटस भी हैं, जिनसे कम्प्यूटर में वायरस आ जाते हैं. मेरा उस तरफ भी जाना नहीं होता है, जान बूझ कर, अतः वो भी ज्ञात नहीं.

टाईटिल से ही समझ में आ जाता है कि जाना है कि नहीं. क्लिक करके जाना मेरा कर्म है जिसे करने हेतु मुझे अपने विवेक का इस्तेमाल करना होता है. गुगल सिर्फ बताता है. सो ही ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत कर रहे हैं.

मुझे यह बात अब तक समझ नहीं आती कि आखिर क्या वजह है कि जब आप एक बार जान गये कि वो क्या लिख रहे हैं तो बार बार क्यूँ जाते हैं. क्यूँ उन्हें हिट्स मिलती हैं, क्यूँ उन्हें पढ़ा जाता है या क्यूँ उनके विषय में लिख उन्हें प्रचारित किया जाता है.

सड़क पर पड़े गोबर से तो आप बच कर निकल जाते हैं. दीगर बात है कि कभी भूले से पैर पड़ जाये. गाय को सड़क पर गोबर करने से रोका नहीं जा सकता. उसे उतनी अक्ल ही कहाँ मगर हम तो समझते हैं न और बच कर निकलते भी हैं. नगर निगम हर जानवर के पीछे तो घूम नहीं सकती कि कब गोबर करे और कब हटायें ताकि किसी का पैर न पड़े.

मुझे तो लगता है कि उनका लिखना जितना गलत है, हमारा उन्हें पढ़ना, उससे भड़क जाना और भड़क कर उन्हें प्रचारित करना और भी ज्यादा गलत है. अगर भूलवश आपने पढ़ भी लिया तो भड़क कर जब आप उनके बारे में एक आलेख लिख डालते हैं तो उन्हें इससे प्रचार ही मिलता है. जिसने नहीं पढ़ा, वो भी पढ़ने पहुँच जाता है. उनका उद्देश्य हल हो जाता है और मात खाते हैं आप. फिर क्यूँ नहीं नजर अंदाज करते उन्हें?? इसमें क्या परेशानी हैं?

क्यूँ गोबर हटाने के लिए नगर निगम का इन्तजार करना, बच कर निकलिये न!! वक्त आने पर नगर निगम अपना सफाई कार्य कर लेगी और ये लोग भी हतोत्साहित हो लिखना बंद कर देंगे. जब कोई पढ़ेगा ही नहीं तो यह लिखेंगे किसके लिए और कब तक?

 

माना कि आप डाईविंग में पारंगत हैं, मगर डाईव तो सही जगह लगाओ!!

cat

एक रचना

जोड़ पायें  वो तुरपनें चुनियें
वरना फिर आप उधड़ने चुनिये

दिल की आदत तो है धड़कने की
साथ धड़कें   वो धड़कनें चुनिये

कितनी खबरें लहू से रंग छपतीं
देख कर आप कतरनें चुनिये.

दिल ये   पागल कहाँ बहलता है
ख्वाब भी क्यूँ अनमनें चुनिये.

मजहबी चाल हम समझते हैं
अब  नये और  झुनझुने चुनिये.

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, अप्रैल 18, 2010

वैल्यू ऑफ न्यूसेन्स वैल्यू

शाम हो चली. मौसम तो खैर जैसा भी हो, माकूल ही होता है पीने वालों के लिए. सर्दी हो, गरमी हो या बरसात.

एक गिलास में मुश्किल से १०% स्कॉच, बाकी पूरा पानी और बर्फ (पानी ही तो है).

whiskey

पिओ और झूमो नशे में. सब कहते हैं शराब के नशे में है. डॉक्टर कहता है जितना हो सके, पानी पिओ. ९०% पानी ही है मगर कोई यह कहने को तैयार नहीं कि पानी पिआ है. असर भी पानी का नहीं, शराब का ही महसूस कर रहा हूँ.

मात्र एक छोटा सा हिस्सा. बस १०% मगर न्यू सेन्स वैल्यू ऐसी कि ९०% पानी को झूठला गया.

सही ही कहते होंगे लोग कि आज जो भी वैल्यू है वो न्यूसेन्स वैल्यू की ही है.

आस पास के जीवन में रोज देखता भी हूँ. एक मवाली पूरे मोहल्ले के लोगों को हालाकान किये रहता है.

अपने ब्लॉगजगत में ही देख लो, १०% से भी कम लोग हैं जो संप्रदायिकता और अन्य मसलों को लेकर लिख रहे हैं और झगड़ रहे हैं और बातें, हिन्दी ब्लॉगजगत में तो बस झगड़ा ही मचा रहता है. तू तू मैं मैं ही होती रहती है. बाकी के ९०% जो इससे दूर हैं, अपनी अपनी कलम लिए कथा, कहानी, गीत, कविता लिखे जा रहे हैं, उनकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं. वजह, वही मीडिया वाली. बात सनसनीखेज हो तो खबर बने.

जाने कब तक यह १०% हाबी रहेगा. जाने कब तक हम न्यूसेन्स वैल्यू को ही वैल्यू की तवज्जो देते रहेंगे. सब हमारे हाथ में है फिर भी. हम भी तो सनसनी के आदी हो गये हैं.

यही आदी हो जाना रोज शाम उस १०% स्कॉच की तरफ आकर्षित करता है वरना तो पानी सुबह से शाम तक में कितना पी गये, याद ही नहीं.

 

दो छोटी छोटी कवितायें:

 

गिद्ध

gidhdh

गिरा

आकाश से

पहुँचा नहीं

धरती पर

लूट कर

टुकड़ा टुकड़ा

खा गये

गिद्ध!!

-समीर लाल ’समीर’

 

माँ

india_village

जब भी मैं

पीछे मुड़कर सोचता हूँ..

अपना बचपन

अपना मकान

वो गलियाँ

वो मोहल्ला

अपना शहर

अपना देश..

या

फिर

खुद अपने आप को..

हर बार मुझे

माँ

याद आती है!!

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

शब्दों के अर्थ: करे अनर्थ

पड़ोस, याने दो घर छोड़ कर एक ग्रीक परिवार रहता है. मियां, बीबी एवं दो छोटी छोटी बेटियाँ. बड़ी बेटी ऐला शायद ४ साल की होगी और छोटी बेटी ऐबी ३ साल की.

अक्सर ही दोनों बच्चे खेलते हुए घर के सामने चले आते हैं और साधना (मेरी पत्नी) से काफी घुले मिले हैं. साधना बगीचे में काम कर रही होती है तो आस पास खेलते रहते हैं और यहाँ की सभ्यता के हिसाब से उसे साधना ही बुलाते हैं. आंटी या अंकल कहने का तो यहाँ रिवाज है नहीं. जब कभी मैं बाहर दिख जाता हूँ तो मेरे पास भी आ जाते हैं और गले लग कर हग कर लेते हैं.

इधर दो तीन दिनों से हल्का बुखार था और साथ ही बदन दर्द तो न दाढी बनाई जा रही थी और न ही बहुत तैयार होने का मन था इसलिए आज सुबह ऐसे ही घर के बाहर निकल पड़ा. सर दर्द के कारण माथे पर हल्की सी शिकन भी थी. आप कल्पना किजिये कि कैसा दिख रहा हूँगा.

साधना बाहर ही गार्डन में थी और तभी दोनों बच्चे भागते चले आये. छोटी ऐबी हाथ में एक फूल लिए आई, जो उसने वहीं गार्डन से तोड़ा होगा और बड़े प्यार से मुझे दिया. बच्चे का मोह देख कर बड़ी प्रसन्नता हुई और हाल चाल पूछ कर और प्यार करके भीतर चला आया. वो दोनों साधना के साथ खेलने लग गई.

थोड़ी देर बाद बाहर से हा हा की आवाज सुनकर मैं उपर से उतर कर आया कि देखा जाये आखिर माजरा क्या है?

बाहर साधना बच्चों को चाकलेट( गोल्ड पॉट केडबरी) खिला रही थी और उन बच्चों की मम्मी शेनन के साथ जोरदार ठहाके चल रहे थे. मैं आश्चर्यचकित कि ये क्या हुआ? वरना साधना और उसे चाकलेट खिला रही हो जिसने उसके गार्डन से फूल तोड़ा हो. वो कुछ कह भले न पाये मगर चाकलेट, सवाल ही नहीं उठता. मैं तोड़ लूँ तब तो समझो, खाना न मिले.

मेरे बाहर निकलते ही साधना ने मुझसे हिन्दी में कहा कि इतने दिन से कह रही हूँ कि बाल रंगा करो और दाढी वगैरह बना कर बाहर निकला करो, ये देखो प्यारी ऐबी क्या कह रही है?

दरअसल ऐबी ने अपना फूल तो मुझे दे दिया था और ऐला ने अपना फूल जब साधना को दिया तो ऐबी ने उससे कहा कि मैने तो फूल साधना के डैड को दे दिया. बस, साधना जी ऐसा खुश कि क्या कहा जाये. बड़े प्यार से बच्चे को बैठाला गया. घर में से चाकलेट ले जाकर खिलाई गई. कहने लगी कि बच्चों का दिल एकदम साफ होता है, उसमें ईश्वर वास करते हैं, कोई छल कपट तो होता नहीं, जैसा देखते हैं, जैसा उनको लगता है, बोल देते हैं.

खैर, भला हो उसकी मम्मी शेनन का, जिसने उसे समझाया कि बेटा ये साधना के डैड नहीं, हसबैण्ड हैं. मैं भी दिखावे का हा हा हू हू करके लौट आया. और तो रास्ता भी क्या था?

जाने क्यूँ सर का दर्द अचानक बढ़ गया. उपर जाकर बिस्तर पर लेट गया. जरा अमृतांजन भी मल लिया. लेटे लेटे विचार करने लगा तो एकाएक दो बरस पहले का वाकिया याद आया.

तब ऐसे ही पड़ोस में एक कनेडियन परिवार रहता था. पति, पत्नी और एक बच्ची. ढाई तीन साल की छोटी सी, प्यारी सी. एक बार मैं और साधना इसी तरह बाहर बरामदे में थे और मैं उस बच्ची से हैलो हाय में व्यस्त था तो उस बच्ची ने मुझे डैडी कह दिया. मैने उसकी मम्मी की तरफ देखा तो वो भी मुस्करा दी. बच्ची तो बच्ची है, उस नादान को क्या समझ?  साधना ने भी देखा और बस!! शायद वो आखिरी दिन था जब उसने उस महिला से बात की होगी. मिलना जुलना बंद हो गया जनाब!! मूँह फूल कर वापस नार्मल होने में पूरा दिन लगा. अब बताओ, तब बच्चे के दिल में ईश्वर नहीं बैठे थे क्या? क्या कोई छल कपट नें घेर डाला था उस बच्चे को?

शब्द वही, ’डैडी’ या डैड, सामने छोटी सी बच्ची, सुनने वाली साधना वही. मायने कितना बदल गया.

सोचता हूँ शब्द की क्या ताकत-बल्कि ताकत तो संदर्भ की है जिसमें वो इस्तेमाल किया गया और जिस ओर वो इंगित किया गया, वरना तो क्या वो अपने सही के डैडी को डैडी कहती और उसकी पत्नी मुस्करा देती तो साधना का भला मूँह फूलता?

बड़ा अटपटा है यह शब्दों का संसार, इनसे वाक्यों का विन्यास और इनका इस्तेमाल. बड़ा संभलना होता है, बहुत सतर्कता और सजगता मांगता है. जरा चूके और देखो-क्या से क्या हो गया. :) कभी वही शब्द मिठाई दिला जाता है तो कभी वही शब्द-मन मुटाव करा जाता है. 

लेखकों से: चलो, वो तो बच्चे थे, हो गई गल्ती मगर आप तो समझदार हो. शब्द चुनने के साथ साथ कहने, लिखने के बाद एक बार पढ़ कर भी देख लिया करो कि कहीं अर्थ का अनर्थ तो नहीं होने जा रहा है.

 

इसी में से फूल तोड़ा होगा

flower

अपनी एक पुरानी कविता पुनः

शब्द
जब निकल जाते हैं
मेरे
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ

शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं

-समीर लाल ’समीर’

 

-एक दोहा-बुखार को समर्पित-

मौसम की इस मार से, ऐसा चढ़ा बुखार..
छोटा बच्चा चीख कर, बाबा रहा पुकार.
-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, अप्रैल 11, 2010

एक स्पॉसर्ड आलेख और बिकाऊ कविता

सर्दी की सुबह. घूप सेकने आराम से बरामदे में बैठा हुआ अखबार पलट रहा था गरमागरम चाय की चुस्कियों के साथ.

भाई साहब, जरा अपने स्वास्थय का ध्यान रखिये. इतने मोटे होते जा रहे हैं.ऐसे में किसी दिन अनहोनी न घट जाये, आप मर भी सकते हैं. ये बात हमसे तिवारी जी कह रहे हैं.

भला कैसे बर्दाश्त करें इस बात को. हमने भी पलट वार किया कि भई तिवारी जी, आप दुबले पतले हैं तो क्या अमर हो लिये, कभी मरियेगा नहीं. खबरदार जो इस तरह की उल्टी सीधी बात हमसे की तो और वो भी सुबह सुबह.

मैने उन्हें समझाया कि जब मिलो तो पहले नमस्ते बंदगी किया करो. हाल चाल पूछो, यह क्या नई आदत पाल ली कि मिलते ही मरने की बात कहने लगते हो.

तिवारी जी इतने ढीट कि जरा भी विचलित नहीं हुए. बस मुस्कराते रहे और कुर्सी खींच कर बैठ गये और कहने लगे कि चाय तो पिलवाईये.

खैर, पत्नी उनके लिए चाय लेकर आई. नमस्कार चमत्कार हुआ और पत्नी भी वहीं बैठ गई.

अब तिवारी जी उनसे बातचीत करने लगे कि भाभी जी, आप कोई नौकरी करती हैं क्या?

पत्नी से ना में जबाब पाकर उनकी मुद्रा एकदम चिन्तित बुजुर्ग सी हो गई और वह कह उठे कि भाभी जी, कहना तो नहीं चाहिये मगर यदि कल को भाई साहब को कुछ हो जाये तो आपका क्या होगा? कैसे गुजर बसर होगी?

मेरा तो गुस्सा मानो सातवें आसमान पर कि सुबह सुबह यह क्या मनहूसियत फैला कर बैठ गये तिवारी जी. मगर घर आये मेहमान को कितना कुछ कह सकता है भला कोई और यदि गहराई में उतर कर सोचा जाये तो ऐसा हो भी सकता है किसी के भी साथ, कभी भी.

मौत के नाम पर वैसे भी दार्शनिक विचार मन में आने लगते हैं इसलिए मैने संयत स्वर में कहा कि जो उपर वाले की मरजी होगी सो होगा. उसकी छत्र छाया में दुनिया पल रही है तो इनका क्या है. आपकी पत्नी भी तो नौकरी नहीं करती, कल को आपको ही कुछ हो जाये तो उनका क्या होगा? इस प्रश्न से मैने अपनी कुटिल सोच का परिचय दिया.

तिवारी जी तो मानो इसी बात को सुनना चाह रहे हों. बस एक चमक आ गई उनके चेहरे पर. कहने लगे भाई साहब, हमने पूरा बंदोबस्त कर रखा है. मान लिजिये यदि कल को हमें कुछ हो जाता है तो जिस आर्थिक स्थिति में हमारी पत्नी आज है, उससे बेहतर स्थिति में हो जायेगी. इतनी बेहतरीन बीमा पॉलिसी ली है कि मेरे मरते ही २५ लाख रुपये पत्नी के हाथ में होंगे.

बस, इतना सुनते ही अब तिवारी जी को बोलने की जरुरत न रही और हमारी पत्नी हमारे पीछे पड़ गईं कि आप भी बीमा कराईये अपना और मानो तिवारी जी तो आये ही उसी लिये थे. तुरंत झोले से फार्म निकाल कर भरने लग गये. दोनों की तत्परता और अधीरता देख जरा घबराहट भी होने लगी कि कहीं शाम तक निपट ही न जाने वाले हों और इन दोनों को मालूम चल गया हो इसलिए हड़बड़ी मचाये हैं.

सारी कार्यवाही पूरी करके चैक आदि लेकर जब चलने को हुए तो तिवारी जी ने पहली बार कायदे की बात की कि ईश्वर आपको लम्बी उम्र दे. काश, ऐसी नौबत न आये कि भाभी जी को बीमा का भुगतान लेना पड़े.

सोचता हूँ धंधा जो न करवाये सो कम. बीमा एजेन्ट अगर मौत का डर न दिखाये तो भला फिर खाये क्या?

एक रचना, उन्हीं के नाम समर्पित: (एक बीमा कम्पनी के लिए लिखी थी मगर पैसे नहीं मिले :)- किसी और बीमा कम्पनी को चाहिये, तो कृपया संपर्क करें, कविता बिकाऊ है- स्पेशल ऑफर-कविता के साथ मुण्डली फ्री :))

insurance 

बीमा महात्म!!

सुख की नींद सुलाता बीमा
घर घर राहत लाता बीमा.

कच्चा घर जब टूट चला हो
बनता गजब सहारा बीमा.

बीच भंवर जब नैया डूबे
बनकर नाविक आता बीमा.

खुदा करे सब ठीक रहे तो,
वापस किश्त दिलाता बीमा.

घबराने की बात नहीं है,
किश्तों में हो जाता बीमा.

-समीर लाल ’समीर’

एक मुण्डली:

बीमा का एजेन्ट है कि तोते का अवतार
प्रतिपल वो तो रट रहा, बीमा बीमा यार.
बीमा बीमा यार कि किश्तों मे ये भरता है
बुरे वक्त मे बहुत मदद, ये ही तो करता है.
कहे समीर कविराय, खुशी से हो जो जीना
आप आज ही करवा लो, अपना भी बीमा.

-समीर लाल ’समीर’

Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, अप्रैल 07, 2010

ये लिजिये विडियो और गिलहरी

रोज सुबह जागकर जब खिड़की के पास आकर बैठता हूँ तो छम्म से एक गिलहरी आकर खिड़की के पास बैठ जाती है. आंगन में खेलती है और थकती है तो फिर खिड़की के पास आकर सुस्ता लेती है. पहले जैसे ही उसकी तरफ देखता था, भाग जाती थी और खेलने लगती थी. फिर थोड़ी देर में आ जाती थी.

अब देखता हूँ तो डरती नहीं, भागती नहीं. इन्तजार करती है कि कब मैं उठूँ, दरवाजा खोलूँ और उसे मूंगफली खिलाऊँ. महिनों से सिलसिला जारी है. किसी दिन जानबूझ कर खिड़की की तरफ न देखूँ तो पंजों से कांच पर खटखटाने लगती है मानो पूछ रही हो: नाराज हो क्या? मूँगफली नहीं खिलाओगे?

कभी कोई दोस्त नाराज होता है तो मुझे भी यही आदत है कि खटखटा कर पूछ लेता हूँ कि नाराज हो क्या? अक्सर तो लोग जबाब दे देते हैं मगर जब कोई मेरे पूछने पर भी जबाब नहीं देता तो तकलीफ होती है. शायद वो मित्र इसे पढ़े तो समझें. जिदगी तो एक ही है. जितनी भी मिल जाये, छोटी सी कहलायेगी. इसमें क्या किसी से नाराजगी पालना और वो भी बिना वजह बताये.

खैर, इसी गिलहरी को मैने नाम दिया चिन्नी..अब तो शायद अपना नाम समझने लगी है क्यूँकि जैसे ही आवाज लगाता हूँ, जहाँ भी होती है, भागी चली आती है. मिलेंगे उससे:

चिन्नी खाना खाते:

g1

डोन्ट डिस्टर्ब:

g2

मूँगफली तो दो:

g3

तो अदा जी और ताऊ ने मिलकर इसी गिलहरी का खुलासा किया था. अब उस दिन की संगीत संध्या से कुछ छोटे हिस्से. हमारे और साधना के. अदा जी और संतोष जी का विडियो जल्द ही अदा जी प्रस्तुत करेंगी.

समीर: बस एक स्टेन्जा- एक कवि से राग भैरवी गाने की उम्मीद न पालें कृप्या जैसा कि अदा जी ने सोचा था, :)

 

अच्छा, ये सुन लिजिये, दूसरा वाला पूरा

 

अब मूड जरा ठीक करने के लिए, साधना के द्वारा प्रस्तुत गज़ल, जिसमें कुछ शेर हमारे लिखे हैं. दरअसल शाम को साधना ने बताया कि बस तीन शेर ही याद आ रहे हैं - अब?? हम भी ठाने बैठे थे तो लिख मारे तीन ठो शेर और तुरंत और बस, थमा दिये. बहाना कुछ बचा नहीं तो सुना गया कि साधना का गला खराब है, ऐसा उसी का कहना है.

Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, अप्रैल 04, 2010

ब्लॉगर मीट- परिवारिक मीट-संगीत संध्या

कल याने ३ अप्रेल को स्वप्न मंजुषा शैल याने अदा जी का अपने पतिदेव संतोष शैल जी और बिटिया प्रज्ञा के साथ आना हुआ. मात्र ४०० किमी की दूरी तय करने में निर्धारित कार्यक्रम से बस २ घंटे देरी से (रेल्वे के हिसाब से तो राईट टाईम ही कहलाया) आप लोग आये. :)

तय था कि लंच साथ में करेंगे लेकिन इन्तजार करते जब फोन पर पता चला कि दोपहर ३.३० बजे तक आना होगा तो थोड़ा सा शरम त्यागते हुए मैने और साधना ने खाना खा लिया. सोचा था कि इनके आने पर थोड़ा थोड़ा फिर से खा लेंगे और बतायेंगे ही नहीं इ खा चुके हैं. ऐसा हो नहीं पाया और फिर तीनों मेहमानों को अकेले ही खाना पड़ा.

खाना खाकर तमाम तरह की बातचीत का सिलसिला चल पड़ा और फिर शाम ७ बजे से हमने अपने ४/५ मित्रों को सपरिवार डिनर पर इन्वाईट कर लिया था ताकि संतोष जी और अदा जी के गीत भरी शाम का लुत्फ हमारे मित्र भी उठा लें.

देखते देखते शाम भी हो गई. बेसमेंट हॉल में ही महफिल जमी और यह महफिल एक यादगार शाम में तब्दील हो गई. एक से एक बेहतरीन गाने संतोष जी और अदा जी ने गाये.

हमने मौका तड़ कर अदा जी को याद दिलाया कि वो कवयित्री भी है तो कुछ कवितायें सुनायें. इच्छा यह थी कि रिस्पॉन्स में वो भी कहेंगी कि आप भी सुनाईये और ऐसा ही हुआ. :) मौके की नजाकत और आतिफ असलम से रीसेन्टली मिली प्रेरणा के मद्देनजर हमने अपना गीत गाकर सुनाया और वो भी एक नहीं, दो दो!! फिर हमारी लिखी गज़ल का साधना जी ने गायन किया. आपको ज्यादा अंदाजा लगाने की जरुरत नहीं, यह सब उपस्थित लोगों द्वारा काफी सराहा गया. अदा जी की कवितायें (भी) श्रोताओं नें बहुत पसंद की.

महफिल रात २ बजे जाकर डिनर के साथ समाप्त हुई. सुबह उठकर संतोष जी, अदा जी और बिटिया प्रज्ञा नाश्ता करके ऑटवा निकल गये. लगा ही नहीं कि पहली बार मिले हैं. अब तो फोन भी आ गया कि टोरंटो का बाजार घूमने के बाद वे ऑटवा अपने घर पहुँच चुके हैं.

एकाएक बने कार्यक्रम से उपजी यह मुलाकात और यादगार गीतों भरी शाम वाकई आनन्ददायी रही. विडियों जल्द ही पेश करते हैं अभी दो चार फोटो देखकर काम चलायें.

साधना एवं अदा जी
adsadh
रिहर्सल
adsantosh
घर के सामने
group
मित्रगण
mitra
कार्यक्रम शुरु होने के पहले: माईक टेस्टिंग!!
rehars
समीर, संतोष जी और अदा जी
samsantadaji
Indli - Hindi News, Blogs, Links

गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

समेटना बिखरे भावों का- भाग २

अभी १० दिन पहले ही इसका भाग १ प्रस्तुत किया था. देखता हूँ तो पाता हूँ कि अपने भावों को इतना बिखेर चुका हूँ यहाँ वहाँ कि समेटने में भी समय लगेगा. कुछ और समेट लाये बिखरे भावों को और प्रस्तुत है आपके लिए.

चुप रहना भी कोई, मेरी मजबूरी तो नहीं,
हर बात जुबां से बोलूँ, कोई जरुरी तो नहीं.

*


जिन्दगी यूँ ही तो, भटक नहीं जाती..
उसकी गली को हर सड़क नहीं जाती..

*


अपने जख्मों पर कुछ यूँ भी मुस्कराता हूँ मैं..
याद वो आ जाये तो खुद को भूल जाता हूँ मैं..

-मुस्कराने की खातिर, एक जख्म कुरेदा है अभी.

*


वो अपनी हरकतों से बाज नहीं आयेगा
बिना खिलाफत राम राज नहीं आयेगा.
नाकामियों से अपनी निराश मत होना,
बिना कोशिशों के ये ताज नहीं आयेगा.

*


petals

जानता हूँ ये जिन्दगी आगे है,
पीछे छूटी वो सिर्फ कहानी है...

न जाने क्यूँ फिर भी,
मुड़ मुड़ के देखता हूँ मैं!!

*


मेरे पीने से परेशाँ लोगों,
तुमसे एक गुजारिश है
परेशाँ होने का गर ऐसा शौक है
तो मेरे पीन की वजह खोजो!

जिसे तलाशता हूँ मैं!!

*


इस दुनियाँ की चमक में,
मैं बहक न जाऊँ कहीं..

-चश्मा शायद रंग बदले!!

*


ओह!! कितना विस्तार
है इस सागर का...
सौम्य और शान्त

जाने कितना गहरा होगा
उतरुँ
तो जानूँ...

*


गुलाब की चाह
और
कांटो से गुरेज..

जरुर, कोई मनचला होगा!!

*


सांप पालने का शौक है
तो
सांप पालने के
गुर भी जानता हूँगा!!

ये कोई शिगूफा तो नहीं!!

*


तलाशता हूँ
कुछ रंग
अपने चेहरे के लिए
-दुनिया की भीड़ में
गुम हो जाना चाहता हूँ...

*


खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...

-कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी

*

बाकी फिर कभी!!

Indli - Hindi News, Blogs, Links