पड़ोस, याने दो घर छोड़ कर एक ग्रीक परिवार रहता है. मियां, बीबी एवं दो छोटी छोटी बेटियाँ. बड़ी बेटी ऐला शायद ४ साल की होगी और छोटी बेटी ऐबी ३ साल की.
अक्सर ही दोनों बच्चे खेलते हुए घर के सामने चले आते हैं और साधना (मेरी पत्नी) से काफी घुले मिले हैं. साधना बगीचे में काम कर रही होती है तो आस पास खेलते रहते हैं और यहाँ की सभ्यता के हिसाब से उसे साधना ही बुलाते हैं. आंटी या अंकल कहने का तो यहाँ रिवाज है नहीं. जब कभी मैं बाहर दिख जाता हूँ तो मेरे पास भी आ जाते हैं और गले लग कर हग कर लेते हैं.
इधर दो तीन दिनों से हल्का बुखार था और साथ ही बदन दर्द तो न दाढी बनाई जा रही थी और न ही बहुत तैयार होने का मन था इसलिए आज सुबह ऐसे ही घर के बाहर निकल पड़ा. सर दर्द के कारण माथे पर हल्की सी शिकन भी थी. आप कल्पना किजिये कि कैसा दिख रहा हूँगा.
साधना बाहर ही गार्डन में थी और तभी दोनों बच्चे भागते चले आये. छोटी ऐबी हाथ में एक फूल लिए आई, जो उसने वहीं गार्डन से तोड़ा होगा और बड़े प्यार से मुझे दिया. बच्चे का मोह देख कर बड़ी प्रसन्नता हुई और हाल चाल पूछ कर और प्यार करके भीतर चला आया. वो दोनों साधना के साथ खेलने लग गई.
थोड़ी देर बाद बाहर से हा हा की आवाज सुनकर मैं उपर से उतर कर आया कि देखा जाये आखिर माजरा क्या है?
बाहर साधना बच्चों को चाकलेट( गोल्ड पॉट केडबरी) खिला रही थी और उन बच्चों की मम्मी शेनन के साथ जोरदार ठहाके चल रहे थे. मैं आश्चर्यचकित कि ये क्या हुआ? वरना साधना और उसे चाकलेट खिला रही हो जिसने उसके गार्डन से फूल तोड़ा हो. वो कुछ कह भले न पाये मगर चाकलेट, सवाल ही नहीं उठता. मैं तोड़ लूँ तब तो समझो, खाना न मिले.
मेरे बाहर निकलते ही साधना ने मुझसे हिन्दी में कहा कि इतने दिन से कह रही हूँ कि बाल रंगा करो और दाढी वगैरह बना कर बाहर निकला करो, ये देखो प्यारी ऐबी क्या कह रही है?
दरअसल ऐबी ने अपना फूल तो मुझे दे दिया था और ऐला ने अपना फूल जब साधना को दिया तो ऐबी ने उससे कहा कि मैने तो फूल साधना के डैड को दे दिया. बस, साधना जी ऐसा खुश कि क्या कहा जाये. बड़े प्यार से बच्चे को बैठाला गया. घर में से चाकलेट ले जाकर खिलाई गई. कहने लगी कि बच्चों का दिल एकदम साफ होता है, उसमें ईश्वर वास करते हैं, कोई छल कपट तो होता नहीं, जैसा देखते हैं, जैसा उनको लगता है, बोल देते हैं.
खैर, भला हो उसकी मम्मी शेनन का, जिसने उसे समझाया कि बेटा ये साधना के डैड नहीं, हसबैण्ड हैं. मैं भी दिखावे का हा हा हू हू करके लौट आया. और तो रास्ता भी क्या था?
जाने क्यूँ सर का दर्द अचानक बढ़ गया. उपर जाकर बिस्तर पर लेट गया. जरा अमृतांजन भी मल लिया. लेटे लेटे विचार करने लगा तो एकाएक दो बरस पहले का वाकिया याद आया.
तब ऐसे ही पड़ोस में एक कनेडियन परिवार रहता था. पति, पत्नी और एक बच्ची. ढाई तीन साल की छोटी सी, प्यारी सी. एक बार मैं और साधना इसी तरह बाहर बरामदे में थे और मैं उस बच्ची से हैलो हाय में व्यस्त था तो उस बच्ची ने मुझे डैडी कह दिया. मैने उसकी मम्मी की तरफ देखा तो वो भी मुस्करा दी. बच्ची तो बच्ची है, उस नादान को क्या समझ? साधना ने भी देखा और बस!! शायद वो आखिरी दिन था जब उसने उस महिला से बात की होगी. मिलना जुलना बंद हो गया जनाब!! मूँह फूल कर वापस नार्मल होने में पूरा दिन लगा. अब बताओ, तब बच्चे के दिल में ईश्वर नहीं बैठे थे क्या? क्या कोई छल कपट नें घेर डाला था उस बच्चे को?
शब्द वही, ’डैडी’ या डैड, सामने छोटी सी बच्ची, सुनने वाली साधना वही. मायने कितना बदल गया.
सोचता हूँ शब्द की क्या ताकत-बल्कि ताकत तो संदर्भ की है जिसमें वो इस्तेमाल किया गया और जिस ओर वो इंगित किया गया, वरना तो क्या वो अपने सही के डैडी को डैडी कहती और उसकी पत्नी मुस्करा देती तो साधना का भला मूँह फूलता?
बड़ा अटपटा है यह शब्दों का संसार, इनसे वाक्यों का विन्यास और इनका इस्तेमाल. बड़ा संभलना होता है, बहुत सतर्कता और सजगता मांगता है. जरा चूके और देखो-क्या से क्या हो गया. :) कभी वही शब्द मिठाई दिला जाता है तो कभी वही शब्द-मन मुटाव करा जाता है.
लेखकों से: चलो, वो तो बच्चे थे, हो गई गल्ती मगर आप तो समझदार हो. शब्द चुनने के साथ साथ कहने, लिखने के बाद एक बार पढ़ कर भी देख लिया करो कि कहीं अर्थ का अनर्थ तो नहीं होने जा रहा है.
इसी में से फूल तोड़ा होगा |
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अपनी एक पुरानी कविता पुनः
शब्द
जब निकल जाते हैं
मेरे
मेरे होठों के बाहर
तो बदल लेते हैं
अपने मानी
सुविधानुसार
समय के
और परिस्थित के साथ
शब्दों के अर्थ
फिर बदलते हैं
पढ़ने वाले की
सोच के साथ
उसकी
इच्छानुसार
उफ़..........
मेरे शब्द
शब्द नहीं
आदमी बन गए हैं
-समीर लाल ’समीर’
-एक दोहा-बुखार को समर्पित-
मौसम की इस मार से, ऐसा चढ़ा बुखार..
छोटा बच्चा चीख कर, बाबा रहा पुकार.
-समीर लाल ’समीर’