चार दिन बाद गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से लौटा. बचपन में भी हर साल ही
गोरखपुर जाना होता था. ननिहाल और ददिहाल दोनों ही वहाँ हैं. तब तीन दिन की रेल
यात्रा करते हुए राजस्थान से थर्ड क्लास में जाया करते थे. कोयले वाले इंजन की
रेल. साथ होते लोहे के बक्से, होल्डाल, पूरी, आलू और करेले की तरकारी. सुराही में एकदम ठंडा
पानी. रास्ते में मूंगफली, चने, कुल्हड़
में चाय. फट्टी बजाकर गाना गा गा कर पैसा मांगते बच्चे.राजनित और न जाने किन किन
समस्याओं पर बहस करते वो अनजान सहयात्री जिनके रहते इतने लम्बे सफर का पता ही नहीं
चलता था.तीन दिन बाद जब घर पहुँचते तो कुछ तो ईश्वरीय देन( खुद का रंग) और कुछ रेल
की मेहरबानी, लगता कि जैसे कोयले में नहाये हुए हैं. इक्के
या टांगे में लद कर नानी/दादी के घर पहुँचते थे. फिर पतंग उड़ाना, मिट्टी के खिलोने-शेरे, भालू.हर यात्रा याददाश्त बन
जाती. जैसे ही वापस लौटते, अगले बरस फिर से जाने का इन्तजार
लग जाता.घर लौट कर फट्टी वालों की नकल करते, उनके जैसे ही
गाने की कोशिश,
इस बार जब गोरखपुर से चला तो वही पुराने दिनों की याद ने घेर लिया.
मगर एसी डिब्बे में वो आनन्द कहाँ? और यात्रा भी मात्र १६ घंटे की. यही सोच कर एसी
अटेंडेन्ट को सामान का तकादा कर कुछ स्टेशनों के लिए जनरल डिब्बे में आकर बैठ गया.
कितना बदल गया है सब कुछ. काफी साफ सुथरा माहौल. न तो कोई बीड़ी पी रहा था. न
बाथरुम से उठती गंध, न मूंगफली वाले, न
कुल्हड़ वाली चाय. जगह जगह ताजे फलों की फेरी लगाते फेरीवाले, प्लास्टिक के कप में बेस्वादु चाय, कुरकुरे और अंकल
चिप्स बेचते नमकीन वाले. बस्स!! लोहे की संदुक की जगह वीआईपी और सफारी के लगेज
जिनके पहियों ने न जाने कितने कुलियों की आजिविका को रौंद दिया, वाटर बाटल में पानी. आपसी बातचीत का प्रचलन भी समाप्त सा लगा, अपने सेलफोन से गाने बजाते मगन लोगों की भीड़ में न जाने कहाँ खो गये वो
हृदय की गहराई से गाते फट्टी वाले बच्चे और राजनित पर बात करते सहयात्री.
कहते है सब विकास की राह पर है. वाकई, बहुत विकास हो रहा है. आम शहरों
में न बिजली, न पानी, न ठीकठाक सड़कें..बस
विकास हो रहा है. बच्चे बच्चे के हाथ में सेल फोन, तरह तरह
की गाड़ी, सीमित जमीनों के बढ़ते दाम, लोगों
के सर पर ऋणों का पहाड़, हर गांव-शहर से महानगरों को
रोजगारोन्मुख पलायन करते युवक, युवतियाँ. भारत शाईनिंग-मगर
मुझे पुकारता मेरे बचपन का भारत-जिसे ढ़ूंढ़ने मैं आया था, न
जाने कहाँ खो गया है और अखबार की खबरें कहती है कि इसी के साथ ही खो गई है वो
सहिष्णुता, सहनशीलता, आपसी सदभाव और
सर्वधर्म भाईचारा. सब अपने आप में मगन हैं.
मुझे बोरियत होने लगती है. मैं उठकर अपने एसी डिब्बे में वापस आ
जाता हूँ.
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर २०, २०२० के
अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/57148406
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