उफ़ क्यों याद दिलाता कोई
उम्र ढल रही धीरे धीरे
गाकर गीत जनम दिन वाले
और बजा कर ढोल मजीरे
लेकिन जग की रीत यही है
औपचारिकी होना ही है
घिसा हुआ वह हैपी हैपी
रोना सबको रोना ही है
लेकिन कुछ ऐसे भी तो हैं
सदा लीक से हट कर चलते
दोपहरी का दीपक बन कर
नौका एक रात की खेते
उनसे ही ले नाधुर प्रेरणा
मुझको केवल यह कहना है
हर दिन, उगते सूरज जैसे
दीप्तिमान तुमको रहना है
आंधी,बरसातें,झंझाएं
कोई बाधा बन ना पाए
दिवस आज का बरस पूर्ण यह
गीत आपके ही दोहराये.
सादर
शुभकामनाओं सहित
राकेश खंडेलवाल
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