बुधवार, अप्रैल 27, 2011

पटना अमरीका से कनाडा चला आया-बस, एक हफ्ते के लिए!!!

लगभग साल भर पहले एक पोस्ट आई: समीर लाल & अनूप शुक्ल. शीर्षक अजीब था लेकिन उस वक्त के ब्लॉगजगत के माहौल में ऐसी ही पोस्टें आ रही थीं और निश्चित ही, ऐसी कोई भी पोस्ट मेरा और अनूप शुक्ला का ध्यान आकर्षित करने के लिए तो काफी थी ही. मेरा नाम शीर्षक में हो और मैं न देखूँ? न भी देखूँ तो मित्र दिखवा ही देते.

तब वो पोस्ट पढ़ी और जिस खिलंदड़े अंदाज में उस समय के व्याप्त तनाव के बीच यह पोस्ट लिखी गई थी, वो काबिले तारीफ थी. बस, मुरीद हो गये इस लेखन शैली के. फिर पढ़ डाला पूरा ब्लॉग: भानुमति का पिटारा. पहले हल्का फुल्का बिना खास तव्वजो के पढ़ा भी था मगर अब रडार पर था.

उसी के आस पास या इधर उधर फिर राजू बिन्दास (राजीव ओझा जी)  के अखबार के कॉलम में ’विदेश में बसे देसी’ में मेरा और इनका जिक्र साथ साथ आया, तो और जाना.

पता चला और फिर धीरे धीरे जाना कि एक पटना अमेरीका में आ बसा है. वही अंदाज, वही सलीका (?) :), वही बोलने का ढंग, वही अपनापन और फिर अमरीकियों के बीच किसी अमरीकी से कम नहीं, न ज्ञान में, न शान में.

कई बार फोन पर बात हुई. कब सह ब्लॉगर से खुद ही प्यारी सी बिटिया बन बैठी, न मैं जान पाया और न मेरी पत्नी साधना.

फिर पता चला कि टोरंटो आ रही है किसी परिवारिक प्रयोजन से. बात हुई तो बताया कि अपनी मौसी के पास आ रही है. उसकी मौसी लता पांडे हमारी पूर्व परिचिता निकली. साथ साथ टी वी पर और कई कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ का सिलसिला रहा है.

बस, पिछले शुक्रवार को शाम मेरे घर से ८० किमी दूर अपनी मौसी के घर रुकी स्तुति पांडे से मिलने हम जा पहुँचे सपत्निक मिसिसागा. मेरे बेटे के घर से पाँच मिनट की दूरी पर.

लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं. बहुत आनन्द आया. किताब ’देख लूँ तो चलूँ’ भी भेंट कर दी (पता नहीं पढ़ी भी कि नहीं), आशीर्वाद भी दे दिया, फिर आने का वादा भी ले लिया और स्तुति के हाथ की बनी चाय और उन्हीं हाथों से परोसे समोसे का आनन्द भी लिया गया. मैने जब सिर्फ आधा समोसा लिया तो स्तुति के चहेरे पर खुशी देखने लायक थी. कारण मेरा संयम नहीं, उसके लिए अतिरिक्त उपलब्धता ही होगा क्यूँकि टोरंटो जैसे समोसे उसके शहर में तो मिलने से रहे. ढेरों बात हुई. अच्छाई बुराई ऑफ ब्लागर्स की गई. हूंह, बतायेंगे थोड़े न किसी का नाम!!! हम तो अजय झा, प्रशान्त, पंकज, अभिषेक आदि किसी का नाम भी क्यूँ बतायें- जस्ट गैस!!!

करीब एक घंटा पाँच मिनट में बीत गया और फिर भारी मन से विदा ली गई. जब तक कार पहले मोड़ से मुड़ नहीं गई, स्तुति हाथ हिलाते नजर आई या हो सकता है, नजर रख रही हो कि कहीं लौट न आयें. समोसे तो बचे हुए थे ही. बाद में अकेले दबाकर खाई होगी पक्का!!!

वही हाथ हिला कर अलविदा कहती स्तुति की तस्वीर जेहन में बसाये लौट आये फिर कभी मिलने की ख्वाहिश को थामे. अगली सुबह उसे अमरीका लौट जाना था.

यही तो है जिन्दगी!!!

अब देखो कब मिलना होता है मगर यह मिलन यादगार रहा.

कुछ तस्वीरें उस मौके की:

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यूँ

इसके पहले

मिले तो न थे कभी

पर

जब मिले

तो लगा

कि

फिर मुलाकात हुई!!

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रविवार, अप्रैल 24, 2011

हरे सपने...

उसे भी सपने आते थे. वो भी देखती थी सपने जबकि उसे मनाही थी सपने देखने की.

माँ के पेट के भीतर थी तब भी वो. खूब लात चलाती थी,यह सोचकर कि माँ को लगेगा लड़का है. लेकिन माँ न जाने कैसे जान गई थी कि लड़की ही है. माँ ने उसे तभी हिदायत दे दी थी कि उसे  सपने देखने की इजाजत नहीं है. अगर गलती से दिख भी जाये तो उनका जिक्र करने  या उन्हें साकार करने की कोशिशों की तो कतई भी इजाजत नहीं. ऐसा सोचना भी एक पाप होगा.

जन्म के साथ ही यही हिदायतें माँ लगातार दोहराती रही,  लेकिन सपनों पर किसका जोर.चला है जो अब चलता, वो देखा करती सपने. मगर न जाने क्यों उसके सपने होते हमेशा हरे, गाढ़े हरे. जितना वो सपनों में उतरती वो उतने ही ज्यादा और ज्यादा हरे होते जाते.

समय बीतता रहा. सपने अधिक और अधिक गाढ़े हरे होते चले गये. स्कूल जाती तो सहेलियाँ अपने सपनों के बारे में बताती, गुलाबी और नीले सपनों की बात करतीं. मगर वो चुप ही रहती. बस, सुना करती और मन ही मन आश्चर्य करती कि उसके सपने हरे क्यूँ होते हैं? उसे गुलाबी और नीले सपने क्यूँ नहीं आते?. सपनों के बारे में बात करने या बताने की तो उसे सख्त मनाही थी. आज से नहीं, बल्कि तब से जब वो माँ की कोख में ही थी.

चार बेटों वाले घर की अकेली लड़की, बहन होती तो शायद चुपके से कुछ सपने बाँट लेती उसके साथ, लेकिन वो भी नहीं. माँ से बांटने का प्रश्न ही न था. उसने तो सपने देखने को भी सख्ती से मना कर रखा था.

बहुत मन करता उन हरे सपनों को जागते हुए बांटने का. उन्हें जीने का. उन्हें साकार होता देखने का. यह सब होता तो था मगर उन्हीं हरे सपनों के भीतर... एक हरे सपने के भीतर बंटता एक और  दूसरा हरा सपना. एक हरे सपने के बीच सपने में ही सच होता दूसरा हरा सपना. हरे के भीतर हरा, उस हरे को और गाढ़ा कर जाता. उसे लगता कि वो एक हरे पानी की झील में डूब रही है. एकदम स्थिर झील. कोई हलचल नहीं. जिसकी सीमा रेखा तय है.

कई बार कोशिश की सपनों में दूसरा रंग खोजने की. शायद कभी गुलाबी या फिर नीला रंग दिख जाये. हल्का सा ही सही. जितना खोजती, उतना ज्यादा गहराता जाता हरा रंग. और तब हार कर उसने छोड़ दिया था किसी  और रंग की अपनी तलाश को सपनों में. सपने हरे ही रहे, गहरे सुर्ख हरे. उसके भीतर कैद. कभी जुबान तक आने की हिम्मत न जुटा पाये और न कभी वह सोच पाई उन्हें साकार होते देखने की बात को. माँ की हिदायत हमेशा याद रहती.

स्कूल खत्म हुआ. कालेज जाने लगी लेकिन सपने पूर्ववत आते रहे वैसे ही हरे रंग के और दफन होते रहे उसके भीतर, तह दर तह.क्योंकि उन्हें मनाही थी बाहर निकलने की, किसी से भी बताये जाने की या साकार रुप लेने की.

कालेज में एक नया माहौल मिला. नये दोस्त बने. सपनों के बाहर भी एक दुनिया बनी, जो हरी नहीं थी. वह रंग बिरंगी थी. वो उड़ चली उसमें. पहली बार जाना कि डूब कर कैसे उड़ा जाता है बिना पंखों के. वो भूल गई कि जिसे दरवाजा खोलने तक की इजाजत न हो उसे बाहर निकलने की अलग से मनाही की जरुरत ही नहीं है. वो तो स्वतः ही समझ लेने वाली बात है. किन्तु रंगों का आकर्षण उसे बहा ले गया. अपने संग उड़ा ले गया.

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फिर वह दिन भी आया जब तह दर तह दमित सपनों का दबाव इतना बड़ा कि वो एक विस्फोट की शक्ल में बाहर फट निकला और उस शाम वो अपने रंगों की दुनिया में समा गई और भाग निकली अपने सपनों से बाहर उग रहे एक ऐसे रंग के साथ, जो हरा नहीं था.

उस शाम बस्ती में कहर बरपा. दंगा घिर आया. सुबह के साथ ही दो लाशें बिछ गई. एक उसकी खुद की और एक उसकी जिसके साथ वह भाग निकली थी. अब न हरा रंग और न ही गुलाबी या नीला. दोनों रक्त की लालिमा में सने थे.

वो निकल पड़ी अपनी लाश को छोड़ उस दुनिया में जाने के लिए, जो रंग बिरंगी है. जहाँ सभी रंग सभी के लिए हैं. एक बार पलट कर उसने देखा था अपनी लाश की तरफ. रक्त की लालिमा में लिपटा हरा रंग. हरे सपनों की कब्रगाह.

अब वह जान चुकी थी अपने हरे सपनों का रहस्य. उसका नाम था शबाना ...

एक नजर उसने बगल में पड़ी लाश पर भी डाली. रोहित अपनी लाश के भीतर अब भी जिन्दगी तलाश रहा था.

वह मुस्कराई और चल पड़ी अपनी नई दुनिया से अपना रिश्ता जोड़ने. उसे कोई मलाल न था.

आज बहुत खुश थी वो. 

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मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

चलो, दिल्ली में ही सेटल हो जायें...

कल ही पोता लौटा है दिल्ली से घूम कर. अपने कुछ दोस्तों के साथ गया था दो दिन के लिए.

सुना उपर अपने कमरे में बैठा है अनशन पर कि यदि मोटर साईकिल खरीद कर न दी गई तो खाना नहीं खायेगा. जब तक मोटर साईकिल लाने का पक्का वादा नहीं हो जाता, अनशन जारी रहेगा.

माँ समझा कर थक गई कि पापा दफ्तर से आ जायें, तो बात कर लेंगे मगर पोता अपनी बात पर अड़ा रहा. आखिर शाम को जब उसके पापा ने आकर अगले माह मोटर साईकिल दिला देने का वादा किया तब उसने खाना खाया.

खाना खाने के बाद वो मेरे पास आकर बैठ गया. मैने उसे समझाते हुए कहा कि बेटा, यह तरीका ठीक नहीं है. तुमको अगर मोटर साईकिल चाहिये थी तो अपने माँ बाप से शांति से बात करते, उन्हें समझाते. पोता हंसने लगा कि दादा जी, यह सब पुराने जमाने की बातें हो गई. आजकल तो बिना आमरण अनशन और भूख हड़ताल के कोई खाने के लिए भी नहीं पूछता. यही आजकल काम कराने के तरीका है. इसके बिना किसी के कान में जूं नहीं रेंगती. सब अपने आप में मगन रहते हैं. मुझे तो यह तरीका एकदम कारगर लगता है.

मुझे लगा कि शायद मैं ही कुछ पुराने ख्यालात का हो चला हूँ, नये जमाने का शायद यही चलन हो.

खैर, मैने उससे दिल्ली यात्रा के बारे में जानना चाहा.

delhi

उसने बाताया कि दो दिन में से एक दिन तो फिल्म, क्रिकेट मैच और दोस्तों के साथ चिल आऊट करने में निकल गया. हालांकि मैनें उससे जानने की कोशिश की कि चिल आऊट कैसे करते हैं, मगर वह टाल गया. मैने भी जिद नहीं की इसलिए कि कहीं मेरी अन्य अज्ञानतायें भी प्रदर्शित न हो जायें. क्रिकेट मैच ट्वेन्टी ट्वेन्टी वाला था, एकदम कूल. चीअर गर्लस, वाईब्रेशन, गेम सब का सब डेमssकूssल.

मुझे फिर लगा कि जमाना कितना बदल गया है. हमारे समय में मैच माहौल में गर्मी पैदा कर देते थे और हर दर्शक एक गर्मजोशी के साथ मैच देखा करता था और आज- हून्ह- कूssल.

वो आगे बताता रहा कि रात में एक क्लब में दोस्तों के साथ चिल आऊट किया और फिर दूसरे दिन, दिल्ली का सेलेक्टेड टूर लिया. समय एक ही दिन का बचा था तो सेलेक्टिव होना पड़ा. सिर्फ राज घाट, जंतर मंतर इंडिया गेट और संसद भवन देखा गाईड के साथ.

मुझे भी दिल्ली गये एक अरसा बीत चुका था तो मैने सोचा कि चलो, इसी से आँखों देखा हाल सुन कर यादें ताजा कर लूँ. इसी लिहाज से मैं पूछा बैठा कि गाईड ने क्या क्या बताया?

आजकल के बच्चे इतने शार्प होते हैं कि अपने फोन में सारी तस्वीरें भी ले आया था. उसी को दिखाते हुए उसने वर्णन देना शुरु किया कि यह राजघाट है जहाँ सारे नेता इन्क्लूडिंग प्रधान मंत्री और फारेन के नेता भी अपना काम शुरु करने के पहले दर्शन के लिए जाते हैं, जैसे आप मंदिर जाते हो न, वैसे ही. फिर फोटो में उसने दिखाया कि यहाँ से सन २००६ में कुत्ते घुसे थे और कुत्तों के द्वारा पूरा चैक करने के बाद यहाँ से यू एस के राष्ट्रपति बुश. उन्होंने नें भी भारत में काम शुरु करने के पहले यहाँ के दर्शन किये थे.

बहुत सुन्दर जगह है, वैल मेन्टेन्ड, ग्रीन और क्लीन. फिर हम लोग जंतर मंतर गये. ये देखो तस्वीर.

मैने बस उसका ज्ञान जानने के हिसाब से पूछ लिया कि जंतर मंतर क्या है?

फिर क्या था- दादा जी, आप इतना भी नहीं जानते कि यह अनशन स्थल है. यहाँ अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठे थे और भारत सरकार के दांत खट्टे कर दिये थे. ये देखो, इस जगह अन्ना हजारे बैठे थे और ये.. इस तरफ सारा जन सैलाब था. इस वाले रास्ते से नेता उनसे मिलने आने की कोशिश कर रहे थे. इस तरफ से पब्लिक ने उन नेताओं को खदेड़ा था. सरकार को झुकना पड़ा. उनकी मांगें माननी ही पड़ी.

मैने उससे कहा कि वो तो सही है बेटा मगर इसे बनवाया किसने था और किस लिए. पोता बोला वो तो गाईड ने बताया नहीं मगर यह जगह फेमस इसीलिए है.  सब फोटो खींच कर लाया था मगर यंत्रों की एक भी नहीं. मानों वो सिर्फ सजावट के लिए लगे हों तो उनकी क्या फोटो खींचना- सिर्फ इम्पोर्टेन्ट जगहों की खींची.

फिर संसद भवन भी देखा जहाँ देश भर से चुने हुए भ्रष्ट आकर भ्रष्टाचार को अंजाम देने की योजना बनाते हैं. इतने जरुरी काम में खलल न पड़े इसलिए आम जनता को बिना पास के अंदर जाने की इजाजत नहीं है. हर तरफ सिक्यूरिटी लगी है जबरदस्त. इन सारे चुने हुए लोगों का स्टार स्टेटस है. उन्हें देखते ही प्रेस वाले टूट पड़ते हैं. कैमरे चमकने लगते हैं. मैं तो उनको दूर से ही देखकर बहुत इम्प्रेस हुआ.

मैं अपने इम्प्रेस्ड पोते को ठगा सा देख रहा था और वो इससे बेखबर मुझे अपने फोन से फोटो दिखाये जा रहा था.

पोता जब बहुत लाड़ में होता है तो अपने पापा को डैड और मुझे डैडू कहता है. नये जमाने का है.

कहने लगा डैडू, आपको पता है कि यह इंडिया गेट है. यह इसलिए फेमस है कि यहाँ पर विख्यात मॉडल जेसिका के मर्डर केस में मीडिया और जनता ने मिल कर केन्डल लाईट विज़िल किया था. जिसके चलते ही पूरा केस साल्व हुआ. न्यायपालिका को हिला कर रख दिया था जनता ने. फिर एक दिन उसी मीडिया की फेमस मिडीया कर्मी और राडिया धर्मी को जनता नें यहीं से नारे लगा लगा कर खदेड़ा. जनता के बदलते मिजाज का गवाह है यह गेट. व्हाट ए गेट, ह्यूज!!! फिल्म वालों के लिए भी बेहतरीन लोकेशन है, कितनी सारी फिल्मों में यहाँ की शूटिंग की है.

रात को जब लाईटिंग होती है, तो क्या गजब का लगता है यह गेट. कितने सारे लोग पहुँचते हैं यहाँ चिल आऊट करने रात में..ग्रेट नाईट आऊट!!!

लुक!!! डेहली इज़ सो फेसिनेटिंग.

दादा जी, चलो न!! हम लोग दिल्ली में ही सेटल हो जायें............. क्या सोच रहे हैं?..................क्या ख्याल है...मैने ने तो सोच लिया है बस.........एक बार ये पढ़ाई पूरी हो जाए........


वो बोलता जा रहा है तो मैं अपने ही ख्यालों में डूबा था कि वाकई, बहुत दिन हो गये दिल्ली गये. कितना कुछ बदल गया है इतने सालो में.

 

दीवार पर टंगा
कलेन्डर
हनुमान जी के चिरे
सीने से झांकते
सीता-राम......
और
तलाश नई तारीखों की...
मुई!! मिलती ही नहीं...

जाने कौन पुराना हुआ...
मैं,
कलेन्डर
या तारीखें!!

कोई समझाओ मुझे!!

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

मैं हूँ न!!

रात देर गये अपने बिखरे कमरे को सहेजता हूँ, इधर उधर सर्वत्र बिखरी तुम्हारी यादों को उठा उठा कर एक दराज में जमाता हूँ  और फिर आ बैठता हूँ खिड़की से बाहर आसमान ताकते अपने पलंग पर. आसमान में आखेट करते चंद तारे हैं और उनके बीच मुझे मुँह चिढ़ाता चाँद.

आज अपने सामने बैठे खुद को पाता हूँ नाराज, रुठा हुआ खुद से.

मुस्कराता हूँ मन ही मन उसकी इस नादानी पर.

वो सोचता है तुम्हारा बिछुड़ जाना उसकी गल्ती है. वह नहीं जानता कि यही जमाने का चलन है. एक अफसोस सा होता है दुनिया से इतर उसकी सोच पर.

आज की इस व्यवसायिक दुनिया में एक सच्चे प्यार की आस लगाये बैठा है, मूरख.

जाने क्यूँ उसकी मुर्खता पर एक प्यार सा उठता है और बाँहों में समेट लेता हूँ खुद को अपने आप में.

भींच लेता हूँ कस कर, खुद को अपने होने का अहसास कराने-और धीरे से बुदबुदाता हूँ खुद ही खुद के कानों में- मैं हूँ न!!

आज लगा कि खुद को खुद ही सच्चा अहसास रहा हूँ बहुत अरसों बाद वरना तो खुद से मिलने के लिए भी एक मुखौटा धारण करना पड़ता है आज के जमाने में. एक आदत जो लाचारी बन गई है. यही चलन भी है.

आईना भी तो देखा देखी न जाने कब से झूठ बोलना ऐसा सीखा कि सच बोलना ही भूल चुका है. वो भी वही दिखाता है जो हम देखना चाहते हैं.

अपने साथ अपने खुद के होने का अहसास तसल्ली भरा लगता है और सो जाता हूँ मैं खुद से लिपट एक चैन की नींद-कल सुबह जाग एक नये सबेरे के इन्तजार में.

काश! पहले जान पाता तो कम से कम खुद से खुद तो ईमानदार रहा होता....

self

कल जाग
सारी रात
दिल के दराज से
पुरानी बिखरी
बातों और यादों को सहेज
एक कागज पर उतारा,

फिर कान में खुसे
इत्र के फुए से
कुछ महक उधार ले
मल दिया था
उस कागज पर उसे...

करीने से मोड़
लिफाफे में बंदकर
रख दिया है उसे
डायरी के पन्नों के बीच

जहाँ हल्की हल्की
साँसे ले रहे हैं
तुमको लिखे मेरे
सारे खत!!!
कभी तुम तक
पहुँचने की
एक जिन्दा
आस लिए...

सोचता हूँ
ये मैं हूँ
या
मेरे खत!!!

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, अप्रैल 08, 2011

सांप चालाक हैं दूरबीन लिये बैठे हैं.....अन्ना संभलना!!

यूँ तो किसी का बैठ जाना या खड़े हो जाना कोई बातचीत का विषय नहीं होता जब तक कि शेयर बाजार न बैठ जाये, सरकार न बैठ जाये या इन्कम टैक्स वाले आपके दरवाजे पर न आ कर खड़े हो जायें.

वैसे मौत का आपके दर पर आकर खड़ा हो जाना या सर पर आकर नाचना भी चर्चा का विषय हो सकता है लेकिन तब आप इसके लिए उपलब्ध नहीं होते. मौत तो खड़े होकर या नाच कर साथ ले जाती है.

किन्तु आज अन्ना का बैठ जाना सारे देश को उनके साथ खड़ा कर गया.

पता चला अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठ रहे हैं. सारा देश जो भ्रष्टाचार से परेशान बैठा था, अन्ना के बैठने की खबर आते ही उठ खड़ा हुआ.कहते हैं साथ देना है अन्ना का इस मुहिम में. पहली बार देखा कि किसी बैठने वाले का साथ खड़े होकर देते. मैं भी खड़ा हूँ इस बेहतरीन मुहिम में साथ देने. मुझे खड़े रहना ही होगा, आज की जरुरत है.

सच है, जो हालात देश के हो गये हैं इसमें शायद अब उल्टी बंसी बजाने से ही काम होगा. चुप रह कर देख लिया, सह कर देख लिया, झेल कर देख लिया लेकिन भ्रष्टाचार है कि सीधों की बात समझने को ही तैयार नहीं तो लो, अब देखो उल्टा. बैठे का साथ देने खड़े लोग तुम्हारी ईंट से ईंट बजा देंगे. मौत पर उल्टा नगाड़ा ही बजाया जाता है सो भ्रष्टाचार की शव यात्रा ही मानिये इसे. उल्टा ही कारगर सिद्ध होगा. अन्ना के बैठने का साथ देने के लिए कंधे से कंधा मिला कर खड़े होना ही होगा,

हर तरफ पढ़ रहा हूँ, देख रहा हूँ और सुन रहा हूँ कि जन आन्दोलन छिड़ गया है. देश का कोना कोना जाग गया है..एक आग उठी है विरोध की-यह ऐसी आग है जो भकभका के फैलती है. इस आग रुपी भीड़ को रोक पाना अच्छे अच्छों के बस का नहीं.

सरकार इस बात को समझती है. वो इसे तब भी समझ रही थी जब वो भारत पाकिस्तान का मैच देख रही थी और तब भी, जब उसने भारत के क्रिकेट विश्व विजेता होने का जश्न मनाया. उसे मालूम था कि अन्ना अनशन पर बैठने जा रहे हैं. जा क्या, आ रहे हैं. नेता होशियार होता है वो अच्छे अच्छों से परे होता है और उससे उपर होता है. वो जानता है कि कब क्या करना है? जो उपर की कमाई टेबल के नीचे से करना जानता हो, उसे क्या समझाना और क्या समझना.

वो मोटी चमड़ी का धारक होता है. उसे कोई अन्तर नहीं पड़ता कि भीड़ उसकी तरफ आ रही है या वो भीड़ की तरफ जा रहा है. उसे आता है कि कब कौन सा दांव फेंकना है और भीड़ को तितर बितर कर देना हैं या कब कैसे पैतरा बदलना है और भीड़ में शामिल हो जाना है. वो मौका देख कर हँसना जानता है तो मौका देख कर रोना भी जानता है. बड़े बड़े अभिनेता भी उसकी अदा के सामने पानी भरते हैं और बस, एक ही अरमान पाले घूमते हैं कि काश!! हम अभिनेता से नेता हो पाते. कई तो हो भी गये. यह एक प्रकार का प्रमोशन है.

इरफ़ान झांस्वी का एक शेर है-

’संपेरे बांबियों में बीन लिये बैठे हैं,
सांप चालाक हैं दूरबीन लिये बैठे हैं।’

इन नेताओं की दूरबीन की पहुँच से भला कोई क्या चूक पाया है. आप लाख बीन बजायें क्या फरक पड़ना है.

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कल खबर पढ़ी थी कि कुछ नेताओं नें अन्ना का साथ देने के लिए, अन्ना के अनशन पर बैठ जाने के समर्थन में साथ खड़े होने की कोशिश की. इस हेतु वह जंतर मंतर पहुँचे भी मगर भीड़ ने उन्हें घुसने ही नहीं दिया और भगा दिया.

आज खबर पढ़ी कि अन्ना को इससे ठेस पहुँची. वह दुखी हुये. उन्होंने बहन नेत्री से इस हेतु माफी माँगी. वह बहन नेता नहीं, साध्वी हैं. पूर्व मुख्य मंत्री मात्र साध्वी है. अपनी मुख्य पार्टी से बाहर हो एक पार्टी बना कर पुनः सत्ता पर काबिज होने का असफल प्रयास करने वाली महान नेत्री साध्वी नेता इसलिए नहीं है क्यूँकि वह न तो सत्ता में है  और न ही विपक्ष में और फिर बहन तो है ही. उन्हें आने से रोकना अन्ना को दुखी कर गया.

यूँ ही अगर छांटने बीनने की प्रक्रिया चली तो कल कुछ और बहनें आयेंगी और जब बहनें आयेंगी तो भाई भी आयेंगे. आज साध्वी आईं हैं तो कल साधु भी आयेंगे. वो सब कभी या अभी सत्ता से जुड़े थे या हैं तब यह मुहिम किसके खिलाफ. यही तो भ्रष्टाचार के वाहक से, जन्मदाता हैं, पालनकर्ता हैं.

एक तरफ माना जा रहा है कि पूरा तंत्र भ्रष्ट हो चुका है. पूरी जनता त्रस्त है और दूसरी तरफ, इस भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा रहे लोगों से माफी की दरकार? बात समझ के परे हो तो पूछना बेहतर है. शायद मेरी समझ में ही कुछ कमी हो.

सुना मेरे शहर में भईया जी ने आनन फानन में भ्रष्टाचार उन्मूलन समिति बना ली. सोसायटी एक्ट में एक दिन में कुछ लेने देन कर पंजीयन भी करा लिया और खुद स्वयंभू अध्यक्ष भी नियुक्त हो आंदोलन में साथ देने का शंखनाद कर दिल्ली की ओर, रेल्वे के टीसी को गाँधी की तस्वीर वाला रिजर्व बैंक वाला सिफारशी पत्र पकड़ा, पहली ट्रेन से कूच कर गये. उनके साथ चन्द वो भक्त भी इस धार्मिक यात्रा में शामिल हो गये, जिन्हें भईया जी ने अपने संपर्कों कें माध्यम से दिल्ली में काम करा देने का वादा कर काफी पहले अपने कई महिनों के खर्चे का इन्तजाम कर लिया था. भ्रष्टाचार को पालते पोसते भ्रष्टाचार खत्म करने निकले भईया जी को देख ईद पर कटने वाले बकरे का लालन पालन याद कर आँखें नम हो आईं.

भईया जी का मानना है कि इस आंदोलन में उनकी शिरकत अगले चुनावों में उनकी जीत के लिए संजीवनी साबित होगी और उन्हें कोई माई का लाल नहीं हरा पायेगा. शहर के अनेक ठेकेदारों और व्यापारियों को इस बात का पूरा भरोसा है और उन्हीं के सौजन्य से भईया जी इस आंदोलन में शिरकत के दौरान दिल्ली के पांच सितारा होटल में ठहरे हैं और अनशन स्थल तक वातानकूलित गाड़ी में आ जा रहे हैं.

देर रात भईया जी से अनशन की स्थिति और उनका विचार जानने हेतु होटल में संपर्क करने की कोशिश की परन्तु भईया जी को दिन भर की आमरण अनशन स्थल पर उपस्थिति से उपजी थकान उतारने की दवा जरा ज्यादा हो गई थी, अतः बात न हो सकी.

कोशिश होगी कल सुबह उनके नाश्ते के तुरंत बाद (आखिर फिर दिन भर उन्हें भूखा रहना है) पुनः सभा स्थल को जाने के पूर्व बात हो जाये तो उनके अनमोल एवं ओजस्वी विचार आप तक पहुँचा सकूँ.

अन्ना बैठे हैं. सारे देश की तरह मैं भी उनके साथ खड़ा हूँ. भ्रष्टाचार मिटाना है. लोकपाल बिल लाना है. इस आंदोलन के प्रति मेरी प्रतिबद्धता में कोई कमी नहीं है मगर चिन्तित हूँ- अगर ऐसे ही बहन भाईयों से माफी मांग उन्हें शामिल करते गये तो होगा कैसे......? ये भाई बहन तो मौके की तलाश में हैं ही....एक शेर याद आया:

’फ़िराक तो उसकी फ़िराक में है जो तेरी फ़िराक में है....’

इनका काम तो बन जायेगा..मगर हमारा क्या होगा?

अब सुन रहे हैं कि सरकार के साथ कुछ सहमति हुई है और शनिवार की सुबह अनशन समाप्त हो जायेगा और लोक पाल विधेयक लाने के मार्ग पर कार्यवाही शुरु हो जायेगी.

हम जनता हैं, हमें उम्मीदों पर जीने की आदत है. हम ताकना जानते हैं. पिछले ६४ सालों से तो शून्य में ही टकटकी लगाये बैठे हैं.

अन्ना!! अब हम तुम्हारी ओर ताक रहे हैं. हमें तुममें उम्मीद की किरण नजर आती है, हमने तुमसे बहुत सी उम्मीदें लगा ली हैं. एक ऐसे देश की, एक ऐसे समाज की जो भ्रष्टाचार से मुक्त होगा.

हम जनता हैं- हम राहत चाहते हैं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अप्रैल 06, 2011

आज कोई पोस्ट नहीं...

उड़न तश्तरी की गुरुवारीय पोस्ट अन्ना के आंदोलन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते हुए नहीं लगाई जा रही है.


-समीर लाल ’समीर’
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रविवार, अप्रैल 03, 2011

काश!! ऐसा मैच रोज हो!!!

शनिवार अप्रेल २, २०११ को दैनक जनवाणी, मेरठ मे प्रकाशित मेरा आलेख

janwani

पहले हल्ला मचाया. शेर जाग उठा है. कंगारुओं को दौड़ाया. १२ साल के विजेता को जमीन चटाई. अब पाकिस्तान की खैर नहीं. आँधी आये या तूफान, टीम इंडिया खड़ी है सीना तान. और भी जाने क्या क्या चिंगारीनुमा.

आग भड़की. वो तो यूँ भी भड़कना ही थी. मगर सेहरा इन चिंगारियों को बंधा. लोग उत्साहित हो उठे, पाकिस्तान के साथ सेमी फायनल, खेल न होकर इज्जत आबरु का मसला हो गया. हिन्दु मुसलमान का मामला हो गया. राम रहीम मैदान में उतर आये. हरा भगवा लहराने लगे, ललकारने लगे.

सारा काम धाम रुक गया, मानो युद्ध घिर आया हो. खेल प्रेमी उत्साहित होते तो बात अलग थी. ऐसे लोग भी, जो क्रिकेट का अ ब स द लिखने में पैन की निब तोड़ दें, उत्साहित हो उठे. घर घर, गली मोहल्ले, पान ठेले से लेकर दफ्तर, रेलगाड़ी, रिक्शे वाले, कुली सभी क्रिकेटमय हो गये. जो कल तक यह भी नहीं जानते थे कि कितनी टीमें खेल रहीं हैं. कौन कप्तान है, वो भी रातों रात विशेषज्ञ हो गये. सलाह दी जाने लगी कि धोनी को ऐसा करना चाहिये, सचिन को वैसा और अफरीदी को बीमारी का बहाना बना कर भाग जाना चाहिये.

सड़क छाप विशेषज्ञ चाय पीते पीते यहाँ तक आँकने लगे कि कौन सा खिलाड़ी कितने में बिकेगा और पूरी टीम खरीदने में क्या खर्चा आयेगा. कौन खरीदेगा और इस खरीद फरोक्त में फायदा किसका होगा. कई ने तो सौदा अपनी आँखो से देखने का दावा किया कि फलाना खिलाड़ी बिक गया. ऐसा लगा जैसे वह खुद अपनी साईकिल से रुपये पहुँचा कर आया हो.

राजनितिक पहलुओं पर चर्चा का भी बाज़ार गरम हो उठा. जरदारी के आने का कारण क्या हो सकता है? हाई लेवल एजेन्डा रिक्शे वाले से डिस्कस करते लोग राज्य परिवहन की बस पकड़ कर काम से निकल गये. मनमोहन सिंह कहीं उन्हें तोहफे में मैच ही न दे दें, भारी चिन्ता का विषय बना रहा. यहाँ तक तय कर लिया गया कि क से क का सौदा होने जा रहा है. क से कप तुम ले लो और क से कश्मीर हमें दे दो.

खूब कार्टून बने, बँटे, फेसबुक से लेकर बज़्ज़ तक हर जगह सटाये गये. कुल मिला कर ऐसा माहौल बन गया कि जापान का सुनामी और परमाणु लिकेज मामला हल्का पड़ बगलें झांकने लगा. सुनामी लाने वाला समुन्दर और लिकेज लाने वाला रियेक्टर आपस में मिलकर खूब रोये कि एक तो जगह पहले ही गलत हो गई थी जहाँ वो आये और इस मैच के कारण टाईमिंग भी गलत हो गया. क्या फिर से कहीं और, फिर जल्द आना होगा. वैसे उन्हें मौके तो हम देते ही जा रहे हैं, उसकी कोई कमी नहीं बस शरम लिहाज जो उनमें है, सो ही बचाये है.

जरदारी नया सूट पहन कर आये मगर हमारे सरदार जी पुरानी पगड़ी मे ही डटे रहे. एक इन्च जानी पहचानी सदाबहार मुस्कान पूरे मैच के दौरान उनके चेहरे पर बनी रही. उन्होंने मैच के दौरान न तो युवराज की चिन्ता की और न उनकी मम्मी की. वो अलग से बैठे और बैठीं. जरदारी को लगा होगा कि सरदार जी इन्डिपेन्डेन्ट हो गये हैं ठीक उसी तरह जैसे कि इस मैच को देखे बिना आप यह कह उठें कि भारतीय टीम बहुत ताकतवर हो गई है, कंगारुओं के बाद अब पाकिस्तान को पछाड़ दिया. अगले मैच में श्री लंकनस की खैर नहीं. किसी ने इसकी चिन्ता नहीं की कि भारत जीता कि पाकिस्तान हारा. जीत तो आपको यूँ भी हासिल हो सकती है अगर अगला हार जाये. मगर यह इस प्रकरण का विषय ही नहीं बन पाया. विषय वही बनता है जो हमें सुहाता है. बाकी तो विषय होकर भी आऊट ऑफ सिलेबस हो जाता है.

जब कुली, मवाली, ठेलावी से लेकर रिक्शा चालक, गुंडा, नेता, व्यापारी, साहित्यकार, कवि, ब्लॉगर, बज़्ज़िया, फेसबुकर, सट्टाबुकर, ट्विटर, आर्कुटिया, चिरकुटिया, छात्र, मात्र, नौकरानी, देवरानी, जेठानी, बहुरानी सब बोलें तो भला लगातर बोलने वाले ज्योतिष कैसे चुप रह जायें. हमेशा की तरह ५०% ने बताया कि भारत जीतेगा. ५०% ने पाकिस्तान की जीत का तो दावा नहीं किया मगर कहा कि भारत हारेगा. टॉस तक बता गये कि कौन जीतेगा. बड़े नाम वाले ज्योतिष सेफ खेले. कुछ अखबारों को बताया कि भारत जीतेगा गणेष जी कृपा से और कुछ चैनलों को बताया कि भारत नहीं जीतेगा शनि की वक्र दृष्टि के कारण. कहीं न कहीं तो सही बैठ ही जायेगा. उतने क्लाईंटस की आस्था के आगे, बाकी की सुनेगा कौन. आस्था की आवाज डंका होती है और नास्तिक फुसफुसाते हैं. इसीलिए ये साधु संत फलते जाते हैं. यही सिद्ध फार्मूला है.

फिल्म स्टार भी मैच देखने पहुंचे. कैमरे उन पर तने रहे. मूंछ का हाव भाव गेंद के हिसाब से बदलता रहा. पूरा स्टेडियम रण क्षेत्र, पूरा भारत सजग, तैनात, जज्बाती, ज्ञानी और पारखी हो उठा.

सट्टेबाजी खुल कर हुई. फोन लाईनें व्यस्त रहीं. भाव हर गेद के साथ बदले. कोई जीता कोई हारा मगर रुपयों का क्या, मैच तो भारत जीता. वही सबको चाहिये था, सो हो गया. मनमोहना मुस्काये, मम्मी ने ताली बजाई, युवराज ने मुस्करा कर डिम्पल दिखाये. जरदारी क्या करते, अतः ताली बजाने लगे. वही हाल कश्मीर मसले पर है कि जब कुछ नहीं सुझता तो ताली बजाने लगते हैं. उनकी क्या गलती अगर टीम के ब्यॉज अच्छा नहीं खेले. इसे तो अफरीदी तक ने माना.

जीत के जश्न में पटाखे फूटे, गुलाल लगाया गया बस पतंग उड़ाना और राखी बाँधना रह गया मगर फिर भी त्यौहार तो मन ही गये.

मौहाली हॉट स्पॉट बन गया. सारे होटल बुक हो गये. सारे होटल को चलाने वाले बुक हो गये. सारे होटल में चलने वाले बुक हो गये.

तुम्हीं ने दर्द दिया है, तुम्हीं दवा देना...का फार्मुला लेकर मिडिया को चमकाया गया तो वो सब बुद्ध हो गये.

जो कल तक चिंगारी लगा रहे थे वो कहते मिले कि खेल को खेल भावना से लो. इसे युद्ध न समझो.

डर तो सबको लगता है प्रशासन को भी. तो संवेदनशील इलाकों में सतर्कता बरतना पड़ा. यहाँ संवेदनशीलता का मानक मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र रहा क्योंकि मैच पाकिस्तान के साथ था. दफ्तर बंद रहे. अघोषित छुट्टी के वातावरण में गर्मागरम माहौल में पुलिस थाने शांत रहे.

आज चोरियाँ, लूटपाट, बालात्कार, भ्रष्ट्राचार, भूत प्रेत, साँप सपेरा और बोरवेल में बच्चा गिरने के कम मामले सामने आये. कम से कम चैनल और अखबार देखकर तो यही समझ आया.

काश!! ऐसा मैच रोज हो. ज्यादा टेंशन नित के इन्हीं सब मामलों से होती है. सरकारी दफ्तर बंद भी रहेंगे तो चलेगा. खुले भी होते हैं तो कौन सा काम हो जाता है.

जनमानस तो लगता है अपने मानस से यह बिसरा ही बैठा है कि यह क्रिकेट विश्व कप, २०११ का सेमी फायनल था और अभी एक पायदान बाकी है जिसे श्री लंका को परास्त करके ही पूरा किया जा सकता है. फायनल मैच के लिए कहीं भी उस तरह कर उन्माद, उत्सव या उत्साह नहीं दिख रहा है जैसा कि भारत और पाकिस्तान के मैच को लेकर रहा. इस से बड़ा काम कर गुजरे, जब आस्ट्रेलिया को हराया, पर वो जोश नजर ही नहीं आया.

सेमीफायन वाले भी पड़ोसी ही थे और फायनल वाले भी पर पड़ोसी पड़ोसी का अन्तर आमजन का व्यवहार बता जाता है.

देखते हैं फायनल में कौन जीतता है- भारतीय टीम या श्रीलंकन टीम- अब कप किसी को भी मिले, भारत तो जीत गया.

cricketfever

(आलेख यहाँ तक आया उससे पहले भारत कप जीत चुका-बधाई)

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