चचा मेरे - नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान और लोग उन्हें प्यार से गालिब कहते थे- वो १८६९ में क्या निकले कि तड़प कर रह गये उनके चाहने वाले अच्छा पढ़ने को...आज मुझे लगा कि भतीजा हूँ भले ही नाम समीर लाल ’समीर’ है ऊउर लोग प्यार से समीर बुलाते हैं..तो भी दायित्व तो बनता है- कुछ तो फर्ज़ निभाना होगा भतीजा होने का.
बस, इसी बोझ तले-दबे दबे…करहाते..पेश है तीन ठो...पहला शेर तो खैर कालजयी होना ही है...दम साध के दाद उठाना....वरना प्रश्न पढ़ने वाले की समझ पर उठ जायेगा कि समझ नहीं पाया..और वो होगे आप- यह तय जानो!! J
नफरत की इन्तहां का, यह हाल देख ’समीर’
जब भी मिलते हैं, गले लग जाते हैं तपाक से..
अब अगला चचा को याद करते:
वो पूछते हैं हमसे, क्या हाल-ए-दिल सनम
कुछ गमज़दां थे गालिब, कुछ गमज़दां हैं हम...
और फिर ...बस, यूँ ही...कुछ आज के समय पर कुछ कह आने को मन कर आया भतीजे का...चचा तो खैर त्रिवेणी (गुलज़ार साहेब की विधा) का शौक रखते नहीं थे..... मगर उससे भतीजे ने कब सीमा आंकी है…
यारों कि इल्तज़ा है कि कुछ कहानियाँ अपनी आवाज़ में सुनाऊँ..
हाल पता हैं फिर लोग तड़पेंगे मिलने को, और मैं मिल न पाऊँ
-इतना भी अमिताभ हुआ जाना, अभी हाल तो मुझे मंजूर नहीं.
और अब चलते चलते अपने भी मन कुछ कह जाऊँ (एक का तो अधिकार बनता है भतीजा हूँ आखिर) तो यह लिजिये:
मंहगाई के इस दौर में भी, वो ईमानदारी से कमाता है..
हर वक्त खुश रहता है, हँसता है और खिलखिलाता है...
-बुजुर्गों का कहना है, वो कोई सिरफिरा नज़र आता है.
-समीर लाल ’समीर’