जब रात आसमान उतरा था
झील के उस पार
अपनी थाली में
सजाये अनगिनित तारे
तब ये ख्वाहिश लिए
कि कुछ झिलमिल तारों को ला
टांक दूँ उन्हें
बदन पर तुम्हारे
तैरा किया था रात भर
उस गहरी नीले पानी की झील में
पहुँच जाने को आसमान के पास
तोड़ लेने को चंद तारे
बच रह गया था फासला
कोई एक हाथ भर का
कि दूर उठी आहट
सूरज के पदचाप की
और फैल गई रक्तिम लाली
पूरे आसमान में
खो गये तारे सभी
कि जैसे खून हुआ हो चौराहे पर
मेरी ख्वाहिशों का अभी
और बंद हो गये हो कपाट
जो झांकते थे चौराहे को कभी...
टूट गया फिर इक सपना..
कहते हैं
हर सपने का आधार होती हैं
कुछ जिन्दा घटनाएँ
कुछ जिन्दा अभिलाषायें..
बीनते हुए टूटे सपने के टुकड़े
जोड़ने की कोशिश उन्हें
उनके आधार से..
कि झील सी गहरी तेरी नीली आँखे
और उसमें तैरते मेरे अरमान
चमकते सितारे मेरी ख्वाहिशों के
माथे पर तुम्हारे पसरी सिन्दूरी लालिमा
और वही तुम्हारे मेरे बीच
कभी न पूरा हो सकने वाला फासला
कोई एक हाथ भर का!!
सोचता हूँ .............
फिर कोई हाथ किसी हाथ से छूटा है कहीं
फिर कोई ख्वाब किसी ख्वाब में टूटा है कहीं..
क्या यही है-आसमान की थाली में, झिलमिलाते तारों का सबब!!
-समीर लाल ’समीर’