युवा अवस्था क्रांतिकारी होती
है. क्रांति भी ऐसी कि बस विरोध
करना है एक बड़ी भीड़ का. इस चक्कर में वो गाँधी के
स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान को नकार देता है. नेहरु के राष्ट्र निर्माण को नकार देता है. वो इतने विश्वास से यह बात कहता है कि अगर गाँधी ने नेहरु
की जगह पटेल को प्रधानमंत्री बना दिया होता तो आज देश कहीं का कहीं होता. कहीं का कहीं मे कहाँ होता ये तो मालूम नहीं मगर उसे सुनकर
ऐसा लगता है कि मानो उस कमरे में गाँधी, नेहरु, पटेल के अलावा चौथा आदमी ये ही थे. मीटिंग खत्म होने के बाद पटेल ने इन्हीं के साथ बैठकर अपने
राष्ट्र निर्माण का प्लान बताया था जो उनके प्रधानमंत्री न बनाये जाने के कारण वे
गंगा में बहा आये. कहाँ से लाते हैं ऐसी सोच
ये?
बहुत गंभीरता से आंकलन करता
हूँ तो कभी कभी शक की सुई चे ग्वेरा की तरफ घूम जाती है. ऐसे युवाओं को अक्सर चे ग्वेरा की तस्वीर वाली टी शर्ट, जीन्स और उसी स्टाईल के बेतरतीब से बाल के साथ पाया है. धीर गंभीर सा चेहरा लिए न जाने भीतर भीतर किस ज्वाला को
सुलगाये हुए जीवन जीता है. हाथ में तो सुलगती हुई
सिगरेट दिखती है.
उनकी नजर में कुछ भी सही
नहीं हो रहा है. उन्हें बस ये समझ में आता
है कि जो हो रहा है उसकी जगह जो नहीं हो रहा है, वो ही सही रहता. डर लगता है कभी अति
चिन्तन में ये ऐसा विचार न रख दें कि अगर गंगा बंगाल की खाड़ी से शुरु हो कर
गंगोत्री तक जाकर गोमुख में समाई होती तो कभी इतनी मैली न होती. एक जरा सी गल्ती और आज देखो, गंगा सफाई के कारण क्या क्या नहीं हो जा रहा है. करोड़ों करोड़ों रुपये एक जमाने से इसकी सफाई के नाम पर डकार
लिए जा रहे हैं. कितनी सरकारें बन बिगड़ गई. कोई गंगा सफाई बोर्ड का कभी चेयरमैन बना तो कोई इस अभियान
का प्रमुख. बात बढ़ते बढते यहाँ तक आ गई
कि इसकी हालत देखकर एक बेटा तो बनारस ही चला आया और हालत का रोना रोते रोते दिल्ली
में सत्ता की बागडोर संभाल देश का प्रधान चौकीदार बन गया. वो भूल गया कि सफाई चौकीदार नहीं करता है.
हमारे देश में विडम्बना यही
है कि हम जिन मुद्दों और आधारों पर चिन्तित होकर सरकारें चुनते आये हैं, वो मुद्दे अगर खत्म हो जायें तो फिर आखिर चुनाव का आधार
क्या होगा? आजादी के बाद से ही आज तक
गरीबी हटाओ, किसानों की स्थिति, बेरोजगारी, सड़कों की हालत, गंगा की सफाई, राम मंदिर, धारा ३७२ आदि आदि हर चुनाव के स्थाई मुद्दे हैं. आने वाले ५० साल बाद भी यही मुद्दे इतने ही ज्वलंत रहेंगे
और चे ग्वेरा की तस्वीर वाली टीशर्ट पहने ये चिन्तक तब भी कहते पाये जायेंगे कि
अगर जो हुआ है, उसकी जगह वो हो जाता जो
नहीं हुआ है, तो आज देश की हालत कुछ और
होती.
यही वो चिन्तक हैं जो
त्यौहारों पर भी मूँह फुला लेते हैं कि हम क्यूँ मनायें ये त्यौहार? अपने धार्मिक त्यौहारों की तो खैर चलो, इनका गुस्सा जाने भी दो. मगर बाजार द्वारा प्रद्दत त्यौहारों को जैसे मदर्स डे, फादर्स डे, वेलेन्टाईन डे पर तो इनके ऐसे
बोल फूटते हैं कि क्या कहा जाये?
भले घर में सिर्फ सोने और
खाने जाते हों मगर कहेंगे कि हम तो अपने मां, बाप की हर रोज ही सेवा सुश्रुषा करते हैं तो फिर हम ये
दिखावे वाला एक दिन मदर्स डे और फादर्स डे के नाम का क्यूँ मनायें? साल में चार बार गर्ल फ्रेण्ड बदलने के बाद वेलेन्टाईन डे
के दिन इनको ख्याल आता है कि प्यार कोई एक दिन की दिखाने की चीज थोड़े ही है? हम नहीं मनाते वेलेन्टाईन डे!!
इन सब बातों का ख्याल कुछ
यूँ आया कि सामने ही १ अप्रेल है और लोग अप्रेल फूल बनाने के लिए तरह तरह की
योजनायें बना रहे हैं. मुझे इन्तजार है इन
चिन्तकों का जो कम से कम एक बार तो एक दम सौ टका सच बात कहेंगे कि हम तो हर रोज हर
पल अपने नेताओं से मूर्ख बनते आ रहे हैं और सतत बनते जा रहे हैं तो हम क्यूँ
मनायें मूर्ख दिवस?
हम तो यह त्यौहार मनाने के
लिए उस दिन का इन्तजार करेंगे, जिस दिन ये नेता हमें मूर्ख बनाना बंद कर देंगे. मगर हम ये भी जानते हैं ऐसा दिन भी तब ही आयेगा जब गरीबी हट
जायेगी, किसान समृद्ध हो जायेगा, बेरोजगारी खत्म हो जायेगी, सड़कें हवाई पट्टी बन जायेंगी, गंगा एकदम साफ सुथरी हो जायेगी, राम मंदिर बन जायेगा, धारा ३७२ हट जायेगी
आदि आदि. न ये सब कभी होगा, न कभी
त्यौहार मनाने की नौबत आयेगी.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मार्च ३१, २०१९ को:
http://epaper.subahsavere.news/c/38075001चित्र साभार: गुगल