चुनाव
के परिणाम आ गये हैं. जनता ने अपना आदेश दे दिया है. टीवी
पर तो सभी नेताओं ने इसे जनादेश कहते हुए सर माथे से लगा लिया है. यही
एक मात्र दिन होता हैं जब जनता को आदेश देने की अनुमति होती है. अब
इसके बाद पाँच साल तक वो इस गुस्ताखी की सजा काटती है कि तेरी इतनी हिम्मत कि हमें
आदेश देगा. महीने भर तुम्हारे आगे पीछे क्या घूम
लिए, तुम तो खुद को कलेक्टर ही समझने लगे.
तिवारी
जी और घंसु ने भी परंपरा का पालन करते हुए जनादेश का स्वागत किया. दोनों
हार गये. २ लोगों वाली नई नई बनी गैर मान्यता
प्राप्त पार्टी नेस्तनाबूत हो गई. शाम आत्म मंथन के लिए बैठक बुलाई गई
पान की दुकान के पीछे पुलिया पर. एक बोतल, नमकीन
और चार उबले अड़े के साथ आत्ममंथन शुरु हुआ. दोनों
ने ही हार की नैतिक जिम्मेदारी ली. घंसू को दो वोट मिले. एक
खुद का और दूसरा तिवारी जी का. तिवारी जी को भी दो वोट मिले. वो
अपनी ससुराल से जाकर लड़े थे. जहाँ उनकी पत्नी का, सास
का और एक ससुर का वोट था. जनादेश पर मंथन इस बात का था कि तीन
में से तिवारी जी को वोट किसने नहीं दिया? ससुर
ने वादा किया था कि वो वोट उनको ही देंगे मगर ससुर उनसे हमेशा झूठ बोल कर वादा
खिलाफी करते आये हैं. इस बात के साक्ष्य के तौर पर तिवारी जी
ने बताया कि विवाह के समय भी उनकी पत्नी को गौर वर्णीय एवं गाय स्वभाव की बता कर
ब्याह दिया था. दोनों ही बातें कोरा झूठ साबित हुई. पक्का
उन्होंने ही वोट न दी होगी. कभी सच नहीं कहते. उनको
तो चुनाव ल़अना चाहिये. एक शक की सुई पत्नी पर भी घूमी कि उसी
सुबह कुर्ता ठीक से प्रेस न करने पर तिवारी जी पत्नी पर भड़क गये थे और पत्नी ने
उन्हें ऐसी नजर से देखा था जैसे कह रही हो कि देख लूँगी. शायद
इस तरह ही उसने देख लिया हो. जनता भी इसी तरह कन्फ्यूज करती है.किसी
का पुराना रिकार्ड खराब है तो कोई नजर से बता देता है.
सामने तो कौन न कहेगा.
मंथन
बोतल के साथ खत्म हुआ. तिवारी जी ने राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद
से अपना इस्तिफा घंसु को सौंपा और घंसु ने राष्ट्रीय सह अध्यक्ष पद से अपना
इस्तिफा तिवारी जी को सौंपा.दोनों ने एक दूसरे का इस्तिफा स्वीकार
नहीं किया. फिर दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया और
प्रण लिया कि पूरे जोश खरोश से अब अगले चुनाव की तैयारी करनी है. ससुर
और पत्नी से संबंध सुधारने होंगे तिवारी जी को एवं ससुर जी को अगली बार उनके गुणो
को देखते हुए पार्टी से चुनाव लड़वाना होगा. फिर
दोनों पुलिया से निकल कर पान की दुकान पर आ गये थे. बोतल
अपना असर दिखाने लगी थी.
पान
की दुकान पर खड़ी आम जनता अब तिवारी जी और घंसु से गालियों का प्रसाद प्राप्त कर रही थी.
किसी ने तिवारी जी से चुटकी लेते हुए १२००० रुपये प्रति माह देने के वादे की याद
दिला दी. घंसु उखड़ पड़े. अगर
१२००० चाहिये थे तो हमें वोट देते. अब जाओ मांगो उन्हीं से, जिनको
वोट देकर आये हो. हमसे तो अब बस १२ लातें मिलेंगी. भगो
यहाँ से..
जनता
हतप्रभ थी कि ये एक ही दिन में क्या हुआ इनको कि कल तक सभी को भईया जी, बाबू
जी, चाचा जी कहने वाले आज सबको गाली बक रहे हैं. जबकि
हमने तो इनको आदेश भी नहीं दिया. जिनको आदेश दिया है वो तो दिल्ली चले
गये हैं. अब पाँच साल बाद ही मुलाकात होगी.
तब
तक अब जनता के आत्म मंथन का समय है कि जिन्हें आदेश दिया है उनका क्या कहर बरपेगा?
मगर
यही तो हर बार होता है. कहाँ कुछ बदलता है?
आदत
भी तो कोई चीज होती है, इतनी आसानी से कहाँ बदलती है!!
-समीर लाल ’समीर’
दैनिक सुबह सवेरे में रविवार मई
२६, २०१९ को: