रविवार, जुलाई 24, 2022

आखिर ये अच्छे दिन हैं क्या - फील गुड फेक्टर

 


अच्छे दिन आने वाले है! अच्छे दिन आने वाले हैं!

वो रोज रोज सुनता तो था मगर दिन था कि वैसे ही निकलता जैसे पहले निकलता था. कई बार तो वो सुबह जल्दी जाग जाता कि कहीं अच्छे दिन आकर लौट न जायें और उसकी मुलाकात ही न हो पाये. मगर अच्छे दिन का कुछ अता पता न चला.

थक कर उसने सोचा कि आज स्कूल में मास्साब से पूछेगा. क्या पता शायद अच्छे दिन आये हों और वो पहचान ही न पाया हो. अच्छा परखने का भी तो कोई न कोई गुर तो होता ही होगा.

मास्साब! ये अच्छा क्या होता है? ८ वीं कक्षा का वो नादान बालक अपने मास्साब से पूछ रहा है.

बेटा!! अच्छा वो होता है जो अच्छा होता है, समझे? मास्साब समझा रहे हैं.

लेकिन मास्साब, वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि अच्छा होता क्या है?

मास्साब तो मास्साब!! जैसी मास्साब लोगों की आदत होती है वो तुरंत ही नाराज हो गये कि एक तो पढ़ाई लिखाई में तुम्हारा मन नहीं लगता उस पर से बहस करते हो. छोटी छोटी बात समझ नहीं आती. चलो, इसको ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता है.

याने कि जो बुरा नहीं है वो अच्छा होता है. तो मास्साब, बुरा क्या होता है? बालक की बाल सुलभ जिज्ञासा तो मानो मँहगाई हो गई हो कि हर हाल में बढ़ती ही जा रही थी.

और मास्साब का गुस्सा अब और उबाल पर था मगर एक मर्यादा और एक कर्तव्य कि बच्चों की जिज्ञासा का निराकरण का जिम्मा उन पर है, उन्हें अपने असली रुप में आने से रोके हुए था. उन्हें किसी ज्ञानी का ब्रह्म वाक्य भी याद आ गया कि अगर आप किसी को कुछ समझा नहीं पा रहे हैं तो उसे कन्फ्यूज कर दिजिये. बस इसी ज्ञान के तिनके को थामे उन्होंने फिर ज्ञान वितरण के अथाह सागर में छलाँग मारी और लगे तैरने..

देखो बालक, इतनी सरल सी बात तुम्हें समझ में नहीं आ रही है..इसे ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता और बुरा वो होता है जो अच्छा नहीं होता. समझे?

बालक मुँह बाये एक आम आदमी की मुद्रा में, बिना पलक झपकाये मास्साब को देख रहा था और मास्साब गुस्से के साथ साथ उसकी मन्द बुद्दि पर तरस खाते हुए आगे बोले..

वैसे एक बात तुमको बताऊँ कि अगर कुछ अच्छा है न..तो बताना नहीं पड़ता ..वो खुद ही समझ में आ जाता है और अगर बुरा है तो भी उसकी बुराई खुद ही उजागर हो जाती है... उदाहरण के लिए जैसे सोचो.. मिठाई...वो अच्छी होती है इसमें बताना कैसा और गोबर, वो बुरा होता है..खुद ही समझ में आ जाता है न!! अब तो तुमको पक्का समझ आ गया होगा..

मास्साब अपने समझाने की कला पर मुग्द्ध बिहारी की नायिका की आत्म मुग्द्धता के मोड में चले गये मुस्कराते हुए.

लेकिन बालक तो मानो डॉलर की कीमत हुआ हो..हाथ आने को तैयार ही नहीं..

मास्साब!! मेरे दादा जी को शुगर की बीमारी है और अम्मा कहती है कि उनके लिए मिठाई बुरी है और फिर गोबर से तो हमारा आंगन रोज लीपा जाता है..दादी कहती हैं इससे स्वच्छता का वास होता है और स्वास्थय के लिए बहुत लाभकारी होता है. हमारा परिवार तो इसे स्वच्छता अभियान का हिस्सा मानता है.

मास्साब की झुंझलाहट और गुस्से की लगाम अब लगभग छूटने की कागार पर थी मगर फिर भी..एक कोशिश और करते हुए वो बोले..देखो बच्चे, सब मौके मौके की बात है, कभी वो ही बात किसी के लिए अच्छी होती है तो वो ही बात किसी और के लिए बुरी हो जाती है..अगर तुम सब कुछ बुरा बुरा महसूस करने की ठान लो जैसा तुम दिल्ली प्रदेश की सरकार की भारत सरकार से तकरार में देख रहे हो..तो अच्छा भी बुरा ही लगेगा और इसके इतर अगर अच्छा अच्छा सा महसूस करने की आदत डाल लो तो बुराई में भी अच्छाई का वास महसूस करोगे..

बालक की जुबान न जाने कैसे फिसल गई कि ’याने अच्छा बुरा अगर हमारे महसूस करने की कला का ही नाम है तो कोई सरकार क्या अच्छा लाने की बात करती है..और पहले के किस बुरे को बदलने की बात करती है? और...’

बालक अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि मास्साब के सब्र का बाँध टूट पड़ा और उसके साथ ही वो अपनी बेंत लिए टूट पड़े उस बालक पर...और कुटाई के साथ साथ एक ही प्रश्न बार बार...बोल, समझ आया कि और समझाऊँ?

बालक भौचक्का सा..पूर्णतः भ्रमित...बस कुटाई से बचने के लिए..कहता रहा कि मास्साब!! समझ आ गया!

तभी दूर कहीं कलेक्टरेट के मैदान से लाऊड स्पीकर पर किसी बहुत बड़े नेता की आवाज सुनाई दी:

’मितरों, अच्छे दिन आ गये हैं, आ गये कि नहीं?’

समवेद स्वर गूँजे ..आ गये!!

मितरों!! बुरे दिन चले गये कि नहीं?

समवेद स्वर गूँजे ..चले गये!!

मितरों!! जो बुरा काम करते हैं मैने उनके लिए अच्छे दिन की गारंटी नहीं दी थी कभी!!

और इधर ये बालक अपनी बेंत से हुई कुटाई के दर्द को सहलाते हुए सोच रहा था कि शायद उसने मास्साब से पूछ कर बुरा काम कर दिया इसलिए उसकी अच्छे दिनों से मुलाकात नहीं हो पा रही है..

आगे से ध्यान रखेगा और अच्छा अच्छा महसूसस करेगा..

शायद उसमें ही फील गुड फेक्टर मिसिंग है!!

 

-समीर लाल ’समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 24, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/69376578

 

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बुधवार, जुलाई 20, 2022

एक थी रुक्मणी माई


कनाडा में ट्रेन में ऑफिस जाते आते वक्त आमूमन रोज वही कोच, वही सीट और वही आमने सामने के सहयात्री. मेरे सामने की सीट पर दो लड़कियाँ बैठती हैं. बहुत बातूनी. दोनों के घर नजदीक ही हैं शायद. अक्सर उनकी बातचीत पर अनजाने में ही कान चले जाते हैं.

इतने दिनों से रोज आते जाते ऐसा लगने लगा है कि न जाने कितने दिनों से मैं उन्हें जानता हूँ. वो भूरे बाल वाली का नाम स्टेफनी है और दूसरी वाली सेन्ड्रा. वो मेरा नाम नहीं जानती. मैं जानता हूँ क्योंकि मैने उन्हें एक दूसरे से बात करते सुना है. मैं चुप रहता हूँ, किसी से ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करता.

उम्र का अंदाज लगाना मेरे लिये वैसा ही दुश्कर कार्य है जैसा कि किसी तथाकथित जमीनी नेता की अघोषित संपत्ति का अनुमान लगाना आपके लिये. फिर भी जैसे आप कुछ तथ्यों के आधार पर, कुछ उसकी जीवन शैली के आधार पर और कुछ अपनी क्षमता के अनुरुप जोड़ घटा कर उसकी अघोषित संपत्ति का खाँका खींच कर अंदाज लगा ही लेते हैं, वैसे ही आधार पर दोनों ३० से ३५ वर्ष के बीच की उम्र की लगती हैं.

अक्सर इसी यात्रा के दौरान खाली बैठे कहानी और कविताओं का प्लाट तैयार करता हूँ. कोशिश होती है कि मस्तिष्क में उस स्थल को जिऊँ. उस घटना क्रम में लौट चलूँ, जिस पर लिखना है.

भारत के एक गाँव का दृष्य जीने का प्रयास करता हूँ. कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती बस, नंगे पैर खेलते बच्चे, सर पर गगरी रखे पनघट से लौटती पल्ले से सर ढ़ांपे लजाती स्त्रियाँ, खेत में हल चलाते पसीने में सारोबार किसान, तालाब में नहाती भैंसे, गर्मी की धूप में पेड़ की छांव में अलसाते मजदूर, चौपाल पर बैठे न जाने किस सोच और परेशानी में डूबे बीड़ी पीते बुजुर्ग, गोबर की महक, कच्ची झोपड़ियों में जलती ढिबरियाँ, शाम को पेड़ के किनारे गोल बना कर लोकगीत गाते ग्रमीण- सब बिम्ब की तरह उभरते हैं, बनते हैं, मिटते हैं.

ट्रेन अपनी रफ्तार से भागी जा रही है. शीशे के बाहर नज़र पड़ती है. हजारों कारें अपनी धुन में हाईवे पर दौड़ रही हैं. हाईवे के उस पार मॉल में रोशनी में चमचमाती दुकानें, नये नये फैशन में सजे स्त्री पुरुष. ट्रेन के भीतर परफ्यूम से दमकते ऑफिस से लौटते वक्त भी सजे संवरे हुये लोग, एक दूसरे से सटे बेपरवाह युगल, आधुनिक लिबास में कॉलेजे से आती युवतियाँ, एयर कंडीशनिंग में खिले स्फूर्त चेहरे और सामने खिलखिलाती अपनी बात में मशगुल स्टेफनी और सेन्ड्रा.

सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कैसे हाई स्कूल के बाद वो इन्डेपेन्डेन्ट हो गई और अलग अपार्टमेन्ट लेकर रहने लगी. तब से एक कॉल सेन्टर में नौकरी करती रही. आगे पढ़ नहीं पाई पैसों की कमी के चलते. बस लोन लेकर कुछ पार्ट टाईम कोर्स किये. पिता जी के पास बहुत पैसा है मगर वो हाई स्कूल के बाद बच्चों को इन्डिपेन्डेन्ट हो जाने वाली सभ्यता में विश्वास रखते हैं. खुद भी वो हाई स्कूल के बाद से दादा जी से अलग हो गये थे. सेन्ड्रा के अलग हो जाने के बाद उसके माँ बाप में भी साल भर के भीतर ही सेपरेशन हो गया था.

मैं आँख बन्द कर लेता हूँ. फिर से लौटता हूँ गाँव की तरफ. बहुत मुश्किल से और तमाम कोशिशों के बाद कुछ धुंधले धुंधले बिम्ब उभर पाते हैं. पता नहीं हमारे मंत्री कैसे वातानकुलित कमरे में बैठ कर गरीबों की तकलीफों को जी लेते हैं और उनको उबारने की बात कर लेते हैं. 

आज मन है रुक्मणी माई की दारुण कथा लिखूँ. वही रुक्मणी माई जो मेरे दोस्त कैलाश की अम्मा है. कैलाश हमारे शहर का कलेक्टर था. अक्सर अपनी अम्मा के किस्से सुनाया करता था कि कैसे उसकी दो वर्ष छोटी बहन के जन्म के साथ ही पिता जी की मृत्यु हो गई. गाँव के कच्चे मकान में वो, उसकी बहन और रुक्मणी माई रह गई. छोटी से एक जमीन का टुकड़ा था उनके पास. बताता था, कैसे रुक्मणी माई ने दूसरों के खेतों में मजूरी कर कर के उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया और कैलाश को कलेक्टर बनाया. वो जब पढ़ ही रहा था तभी उस जमीन के टुकड़े को बेच कर बहन की शादी भी अच्छे घर में कर दी. उसके कलेक्टर बनने के कुछ समय बाद रुक्मणी माई गुजर गई. वो उनके आभावों और कष्टों के दिनों के ढ़ेरों किस्से सुनाता. मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ.

सामने सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कल नये किराये के घर मूव में किया है शाम को. माँ अपने बॉय फ्रेन्ड के साथ आई थी सामान शिफ्ट कराने. फिर इस अहसान के बदले वो अपनी माँ और उनके बॉय फ्रेन्ड को डिनर कराने रेस्टारेन्ट में ले गई थी. अब सामान तो शिफ्ट हो गया है. अनपैक करके जमाना है. कुछ अलमारियाँ और लाईटें भी लगनी है. पिता जी से हेल्प माँगी है. उनकी वाईफ की तबियत ठीक नहीं है, इसलिये अगले हफ्ते आ पायेंगे. उनके लिये भी कुछ गिफ्ट खरीदना होगी. वो बहुत रिच आदमी हैं, कोई मंहगी गिफ्ट खरीदना होगी. अकाउन्ट में तो पैसे बचे नहीं है, क्रेडिट कार्ड पर कुछ लिमिट बची है, उसे ही इस्तेमाल करके खरीदूँगी. आखिर हेल्प करने जो आ रहे हैं. मैं उनकी बात न चाहते हुये भी सुन रहा हूँ.

रुक्मणी माई के किस्से याद करने की कोशिश कर रहा हूँ. बिम्ब नहीं खींच रहे. कथा सूत्र याद ही नहीं आ रहे. थोड़ा असहज होने लगता हूँ.

सामने सेन्ड्रा और स्टेफनी किसी बात पर हँस रही हैं.

स्टेशन आने वाला है. अब कल कोशिश करुँगा रुक्मणी माई के आभाव और कष्टकारी दिनों की कहानी याद करने की.

-समीर लाल ‘समीर’ 


भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 17, 2022  के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/69297658


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रविवार, जुलाई 10, 2022

उसका गाँव खो गया है...

 



रामफल को विरासत में अगर कुछ मिला था तो मात्र दो चीजें.

एक तो पिता के द्वारा पुरखों से प्राप्त एक बीघा जमीन और उस पर बने दो कमरे के पक्के मकान की वसीयत और दूसरा, पिता से मिली कभी गाँव छोड़ कर शहर न जाने की नसीहत.

पिता का कहना था कि गाँव ने तुम्हें जन्म दिया है तो तुम्हारा फर्ज है कि उसका कर्ज अंतिम सांस तक अदा करो. ये गाँव की जमीन, मात्र जमीन नहीं, माँ है तुम्हारी.

और रामफल, जिसके सारे सहपाठियों से लेकर लगभग सभी हमउम्र जानने वालों के शहर पलायन कर जाने के बावजूद, इस नसीहत को थामे गाँव में ही मास्टरी करते हुए जीवन गुजारते रहा. उसे गर्व था कि उसने पिता की नसीहत का अक्षरशः पालन किया.

जब कभी शहर से कोइ मित्र लौट कर रामफल से अपने पैसों और सफलताओं की नुमाईश करता कि उसके पास मकान है, पैसा है, कार है...और तुम बताओ रामफल, तुम्हारे पास क्या है? तब गाँव की जमीन को माँ का दर्जा दे उसकी सेवा में अपना जीवन समर्पित कर देने वाला रामफल, कुछ कुछ दीवार फिल्म के शशी कपूर सा महसूस करता हुआ मुस्करा कर कहता कि मेरे पास माँ है!!

मित्र भी हँस कर रह जाते..कौन जाने, कौन हारा और कौन जीता..मगर माहौल तो हल्का हो ही जाता.

पिता की नसीहत इतनी गहरी पैठ कर गई थी कि साथियों की तमाम समझाईशों के बावजूद रामफल की बस एक जिद...गाँव छोड़ कर शहर नहीं जाना है.

समय बीता...रामफल गाँव में सिमटा अपने गर्व के किले में कैद, उसी जमीन और मकान को संभाले मास्टरी करता चला गया.

उसने अपनी इसी जिद को ही अपना अस्तित्व मान लिया और उसी अस्तित्व को बचाना उसके जीवन का एक मात्र ध्येय बच रहा. वो खुश था इस तरह से एक रक्षक का किरदार अदा कर....

रामफल जरुर गाँव में सिमटा रहा मगर शहर..उसके अपने पाँव होते हैं.. वो बढ़ता रहा और फिर एक दिन ऐसा भी आया जब शहर बढ़ते बढ़ते उसके दरवाजे तक चला आया.

आज उसका गाँव खो गया है...वो विलीन हो गया है शहर में और रामफल..वो हताश है कि वो अपना अस्तित्व बचा नहीं पाया जिसके लिए उसने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया..

कहते हैं कोई नया कानून आया है जिसके तहत सरकार ने उसकी जमीन अधिग्रहित कर ली है ..

अब उसकी जमीन से शहर की एक बड़ी सड़क गुजरेगी.

-समीर लाल ’समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 10, 2022 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/69088294

 

 

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बुधवार, जुलाई 06, 2022

बदलता मौसम सब ठीकठाक है या भीषण

 



एक सामान्य जीव के संज्ञान में मात्र तीन मौसम होते हैं. सर्दी, गर्मी और बरसात और इन तीन मौसमों के भीतर प्रति मौसम के दो स्वरुप- एक तो ठीक ठाक और दूसरा भीषण.

आप जब कभी उनसे पूछें कि मौसम कैसा है? तो जबाब में या तो वो कहेंगे कि ठीक ठाक ही है या फिर भीषण गर्मी पड़ रही है या भीषण ठंड या भीषण बारिश. डिग्री, सेल्सिय या मिलिमीटर आदि से उनका कोई साबका नहीं होता. उनकी नजर में ये सब मौसम विभाग के चोचले हैं और इससे मौसम पर कोई फरक नहीं पड़ता.

इनसे इतर कुछ ऐसे जीव है तो एक खास तबके के बीच ज्ञानी मात्र इसलिए कहलाये जाते हैं कि उन्हें मौसमों के वो नाम आज भी याद हैं जो कभी दर्जा छ: की किताबों में पढ़कर, हिन्दी वर्णमाला की तरह, प्रायः सभी के द्वारा भुला दिये जाते है. उनके द्वारा जब महफिलों में, मौसम के नाम शरद, शिशिर, हेमन्त, गीष्म, वर्षा और बसंत गिनाये जाते हैं तो महफिल में उपस्थित सभी लोग अपना बचपन का पाठ याद कर, मूँह बाये बतानें वाले की विद्वता को ताकते नहीं अघाते. महफिल में खुद मूर्ख नज़र न आयें इसलिए बगल में बैठे व्यक्ति को कोहनी मारकर बताते हैं कि भाई साहब ठीक बता रहे हैं.

सामान्य जन द्वारा इन मौसमों के साहित्यिक नामों को भुला दिया जाना स्वभाविक सा भी है. जिस चीज का इस्तेमाल आम भाषा में नहीं होता और जो प्रचलन से बाहर हो चुकी हों, उहें कोई याद भी रखे तो कैसे और क्यूँ? इसी तरह हिन्दी शब्दकोष कें न जाने कितने शब्द आम प्रचलन ओर बोलचाल के आभाव में विलुप्त हो शब्दकोष के भीतर कैद हो गुमनामी की जिन्दगी बसर कर रहे हैं.

विचारणीय एवं चिन्तनीय मुद्दा यह न्हीं है कि प्रचलन के आभाव से क्या विलुप्त हो रहा है या प्रचलन के प्रभाव से क्या स्थापित हो रहा है. विचार करने योग्य मुद्दा यह है कि आने वाली पीढ़ी, ऐसे मौसम के नाम सुन, प्रचलन के प्रभाव से प्रभावित हो, पड़ोसी को कोहनी भी मारने योग्य न रह जायेगी.

आने वाली पीढ़ी का बड़ा प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से आयेगा और वो शायद इस तरह के शरद, हेमन्त आदि नामों से कभी परिचित भी न हो पायेगा. वो भी एक अलग सा ही मौसम होगा जहाँ, हिन्दी रोजगार की भाषा होने के आभाव में, अधिकाशतः मात्र बोलचाल की भाषा बन कर रह जायेगी. शरद का नाम सुन कर उनको मौसम नहीं, महाराष्ट्र सरकार का समर्थन और गिरना नजर आएगा।

प्रचलन के प्रभाव में आकर आने वाले समय में शायद मौसम के नाम कुछ नये तरीके के लिए जाने लगें –मसलन चुनाव का मौसम, परीक्षा का मौसम, डैंगू का मौसम, त्यौहारों का मौसम, विवाह का मौसम, घूमने का मौसम, विधायक खरीददारी को मौसम (यह तो बारहमासी है) ...आदि आदि. इन मौसमों में हवायें भी अपना स्वरुप बदलेंगी जैसे पछुवा और पुरबिया हवा के बदले चुनाव कें मौसम में मोदी की हवा या केजरीवाल की हवा, त्यौहारों के मौसम में मंदी और तेजी की हवा आदि चला करेंगी.

प्रचलन के आभाव का प्रभाव देखना हो तो हिन्दी के मौसम में, हिन्दी दिवस के आसापास, हिन्दी साहित्य कें तथाकथित वरिष्ठ साहित्यकारों को हिन्दी कें सम्मेलनों में हिन्दी की बिगड़ती स्थिति पर चिन्ता व्यक्त करने के बाद, मंच से उतार कर हिन्दी वर्णमाला पूछकर देखिये और अंग्रेजी में डांट खाक बदलते मौसम का लुत्फ उठाईये या सर फोडिये, सब आप पर निर्भर है.

मौसम कब एक सा रहा है वो तो स्वभावतः बदलता ही रहेगा.

 

-समीर लाल ’समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई 3,2022 के अंक में:

https://www.readwhere.com/read/c/68981709


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