तिवारी जी सुबह सुबह
पान के ठेले पर बैठे हमेशा की तरह बोल रहे थे:
वो धूल से उठे थे
लेकिन माथे का चन्दन बन
गए.
वो व्यक्ति से
अभिव्यक्ति
और इससे आगे बढ़कर
शब्द से शब्दब्रह्म हो
गए.
वो विचार बनकर आए
और व्यवहार बनकर अमर
हुए.
घन्सु बोला वाह!! वाह!!
जबरदस्त रचना अब हमारी सुनिये:
बबूल की ऊँची डाली पर,
कमल का फूल
सावन का महिना है और उड़
रही है धूल..
कुछ मनचले वाह वाह कहने
लगे और तिवारी जी तमतमा गये कि यह क्या वाहियात रचना कही तुमने. न सिर न पैर..कुछ
भी समझ नहीं आया और न ही कोई अर्थ निकल रहा है. और तुमको बता दें घन्सु कि अगर
किसी ने ध्यान से सुन लिया तो देश द्रोही बोनस में ठहरा दिये जाओगे.
घन्सु बोला ’और जो आपने
सुनाई, उसका क्या? वह भी कहाँ किसी को समझ में आई?’
तिवारी जी ने पलट कर
कहा कि वो कोई रचना थोड़ी न सुना रहा था. वह तो प्रधान मंत्री के उस भाषण का अंश था
जो कल ही उन्होंने संत कबीर की ५०० वीं पुण्यतिथि पर मगहर में दिया था. वैसे तो
संत कबीर भी अगर आज होते तो इन पंक्तियों पर वाह वाह कर रहे होते. कवि सम्मेलनों
और मुशयारे के मंचों की यह प्रथा रही है कि जब पूरी बात समझ में आ जाये तो वाह वाह
खुद ही निकल पड़ती है या फिर बिल्कुल ही न समझ आये तो श्रोता वाह वाह!! इसलिये करने
लगता है कि शायद कोई बहुत ब़ड़ी बात कह रहे हैं जो मेरे समझ की परे की है मगर इतनी
भीड़ के सामने खुद को मूर्ख साबित तो होने देने से रहे तो वाह वाह सबसे जोर की वही
उठाते हैं. शायद इसीलिए कुछ लोग इतनी क्लिष्ट भाषा का प्रयोग कर लेते हैं कि खुद
ही समझने के लिए खुद को समझाना पड़े. वाह वाही में भी वो आत्म निर्भरता का प्रदर्शन
कर लेते हैं. फेसबुकिया कवियों में अनेक ऐसे ही हैं कि उनकी रचना पर एक लाइक और वो
भी खुद के द्वारा किया गया.
कवि सम्मेलन और
मुशायरों का ही मंच क्यूँ, राजनैतिक मंचों का भी वही हाल है. गांवो की रेलियों में
जाकर ऐसी ऐसी बातें बोलेंगे कि उनकी समझ ही न आये, एमवीपी, जीडीपी, एनपीए और जाने
क्या क्या? बस हजार करोड़, ५०० करोड़, विकास, काला धन, १५ लाख आपके आदि जो थोड़ा बहुत
कान की समझ में पहुँचा तो तालियां पीट पीट कर उनको ही वोट दे आये. बाद में पता चला
कि वो तो जैसे गज़लों में मीटर सेट करने के लिए मात्रा बड़ी छोटी कर लेते हैं, वो
वाले एडजस्टमेन्ट बस सुनाई दिये, पूरी गज़ल तो नेता जी मंच से आपकी बैण्ड बजाने
वाली सुना रहे थे और आप ताली बजा रहे थे.
कबीर भी ऊपर बैठे सोचते
होंगे कि भला हुआ ५००वीं पुण्य तिथि चुनाव के ठीक पहले पड़ गई तो ढंग से मना दी गई.
रिसर्च एकेडेमी खुल गई, अनुदान वगैरह घोषित हो लिए. मगहर में बाढ़ की जगह बहार आ
गई. बताते हैं आयोजन स्थल भारी बारिश के कारण पानी से लबालब भर गया था और पूरा
प्रशासन युद्ध स्तर पर जुटा दिया गया था पानी सुखाने को और उन्होंने सुखा भी दिया.
प्रशासन में बड़ी ताकत होती है, बस वह प्रदर्शन वहीं करते हैं जहाँ आकाओं की
प्रदर्शनी लगती है.
फिर खबर यह भी आई है कि
मुख्य मंत्री जी ने एक दिन पहले आयोजन स्थल का मुआयना करते हुए कबीर की मजार पर
चादर चढ़ाते हुए साहेब की तर्ज पर ही टोपी पहनने से मना कर दिया. कबीर सोचते होंगे
कि ये कैसा एतराज है जो मेरी मजार पर शीश नवाने से और मेरी मजार पर चादर चढ़ाने में
नहीं होता मगर टोपी पहने से हो जाता है. शायद टोपी की अहिमियत ये लोग ज्यादा समझते
हों इतने लोगों को दिन रात झूठे वादों टोपी पहना पहना कर. सोचते होंगे कि कहीं
सामने वाला भी तो वैसी ही टोपी उनको न पहना जाये इससे बेहतर तो मना ही कर दो.
इन्सान अपने ही कर्मों से भयभीत रहता है. तभी तो गुंडे मवाली खाकी वर्दी में दूर
से आते हुए डाकिये को भी पुलिस समझ कर दौड़ लगा देते हैं.
काश!! अभी भी सुधि ले
लें और अभी भी सुधर जायें ये सारे नेता और उसी कबीर को ठीक से पढ़ लें, समझ लें और
व्यवहार में उतार लें जिसकी पुण्य तिथि मना रहे हैं और उनका स्तुतिगान सुना रहे
हैं, तो ही कितना कुछ बदल जाये.
दोस पराए देखि करि,
चला हसन्त हसन्त,
अपने याद न आवई,
जिनका आदि न अंत.
आर्थत यह मनुष्य का स्वभाव है
कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित
दैनिक सुबह सवेरे में रविवार १ जुलाई, २०१८:
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