पहनते तो अब भी वो धोती कुरता ही हैं
और मुँह में पान भी वैसे ही भरे रहते हैं मगर कहते हैं कि अब हम एडवान्स हो गए हैं। साथ ही वह यह हिदायत भी दे देते कि हम जैसे
टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग उनसे कोई फालतू बहस न करें।
नये नये रईस, नये नये नेता
और नये नये एडवान्स हुए लोगों की समस्या यही है कि वो अपने इस नयेपन में अपना आपा
खो बैठते हैं । एकाएक उन्हें उनके वर्ग के अलावा सब टुटपुंजिया नजर आने लगते हैं ।
दो दशक पहले यही हाल रेपीडएक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स से २१ दिन में नया नया
अंग्रेजी बोलना सीखे लोगों का था। उन्हें वही दुकानदार, जिससे उन्होंने रेपीडएक्स
इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स की किताब के बारे में सुनकर किताब खरीदी थी, भी टुटपुंजिया
नजर आने लगता है। वे अब उस दुकान पर जाना भी अपनी तौहीन समझते हैं और उस दुकान पर दिखाई
पड़ते हैं, जहाँ सिर्फ अंग्रेजी की किताबें नहीं, इंग्लिश बुक्स मिला करती हैं।
पोमेरियन कुत्ते पालने वालों का
मिजाज भी इनसे ही मिलता जुलता होता है। देशी नस्ल के कुत्ते उनको बैकवर्ड नजर आते हैं । ऐसे में अगर कोई देशी नस्ल का कुत्ता पाल ले वो
तो बिल्कुल ही टुटपुंजिया कहलाएगा। भले हमारा आज का रहनुमा लाख सर पटक पटक कर देशी
कुत्तों की बेहतरीन नस्लों की तारीफ और खूबियों के पुल बांधे, कोई फरक नहीं पड़ता।
फरक शायद पड़ सकता था अगर उसकी बाकी कही बातें जैसे दिया, बाती, मोर, ताली आदि जाली
न होती और अपना कुछ असर दिखाती। सियार आया सियार आया चिल्ला कर बेवजह भीड़ एकत्रित
कर लेने की आदत वाले को जिस दिन सच में सियार आता है, कोई बचाने वाला भी नहीं
मिलता।
खैर बात उनके एडवान्स हो
जाने की थी। मैंने जानना चाहा कि आप किस बिनाह पर अपने आपको एडवान्स समझ बैठे हैं और हमसे
दूरी बना रहे हैं?
उन्होंने स्पष्ट किया कि
मैंने तुमसे पहले ही कह दिया है कि तुम जैसे जैसे टुटपुंजिया और बैकवर्ड लोग मुझसे
कोई फालतू की बहस न करें।
मैंने उन्हें जब आश्वस्त
किया कि यह बहस नहीं मात्र मुझ अज्ञानी की जिज्ञासा है तब वह खुले।
उन्होंने बताया कि अब
उन्होंने तकनीकी में महारत हासिल कर ली है और फिर सदी के नायक अमिताभ की स्टाइल
अपनाते हुए उन्होंने मुझसे पूछा – मेरे पास ईमेल एकाउंट है, फेस बुक, ट्विटर,
इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप पर खाता है और तुम्हारे पास क्या है? हांय?
मुझे कुछ जबाब न सूझा और
अनायास ही मुँह से निकल पड़ा- ‘मेरे पास!! मेरे पास कहने के लिए सच है!’ मैं
बैकवर्ड ही सही – एक लिफाफा, ५ रुपये का डाक टिकट, एक कोरा कागज मेरे एक सच को
बहुत दूर तक ले जाएगा।
वह मुस्कराये और बोले जैसा
मैंने सोचा था तुम वैसे ही निकले। उनकी मुस्कान देखकर मैं समझ गया कि उन्होंने
मुझे क्या सोचा था अतः उसे उगलवाना जरूरी न समझा। कौन खुद को बेवकूफ कहलवाना पसंद
करेगा भला।
फिर उन्होंने आगे बताया कि
कुछ फॉरवर्ड बनो – कब तक बैकवर्ड बने रहोगे? आज फॉरवर्ड का जमाना है। देखो सोशल
मीडिया पर जो जितना फॉरवर्ड होता है, वो उतना ही बड़ा सच हो जाता है। आज जब वायरस
से डरे लोग घरों में बंद एक दूसरे से बात करने से वंचित हैं, तब सच वही कहला रहा
है जो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।
तुम लाख कागज पर सच लिखते
रहो, जब तक तुम्हारा सच लोगों तक डाक से पहुंचेगा वो खंडहर में तब्दील इतिहास हो
चुका होगा। किसे समय है आज इतिहास जानने
का। आज का युग तो एक पल पूर्व घटित सच को अगले पल वायरल हुए झूठ की चकाचौंध में भुला
देने का है। वरना किसी निरीह दामिनी के जधन्य
रेप को कोई कैसे ऑनर किलिंग का नाम दे कर सच को रफा दफा कर देता?
मेरी मानो तुम भी आ जाओ सोशल
मीडिया पर – मेरा खाता तुम लाइक कर देना, तुम्हारा खाता मै और हम तुम मिल कर एक झूठ
को सच बनाने का वो व्यापार करेंगे जो आज की दुनिया में सबसे ज्यादा पनपता व्यापार
है।
इसी फॉरवर्ड के व्यापार के
कारण शायद कभी भविष्यदृष्टा ज्ञानियों ने कहावत बनाई होगी कि ‘बार बार बोला गया
झूठ कुछ ही पल में सच हो जाता है।‘
वाकई अब लगने लगा है कि आज इस
झूठ के बाजार में सच की उम्र भला होती ही कितनी है? सच की उम्र होती भी है या नहीं,
कौन जाने।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से
प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर २५, २०२० के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/55904874
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