बंदरगाह से जहाज का खुलना एकदम वैसा ही है जैसे घाट से नांव परे चल पड़ी हो। नांव रिक्तता नहीं लाती – घाट जब बंदरगाह हो जाता है तब उसका पीछे छूटना एक रिक्तता लाता है। जमीन दिखना बंद हो जाती है मगर रीतती नहीं – नांव से जमीन दिखती रहती है सतत अक्सर ही -इसीलिए शायद नांवसीमित दूरियाँ तय करती हैं। जहाज अथाह जलनिधि में अपने आप को उसी के अनुरूप ढाल लेता है और आगे बढ़ता रहता है एकदम एक जीवन के समान – भव सागर पार करने को। किनारा कहाँ है? कब आएगा? मानव दृष्टी इससे अनभिज्ञ है। हम सब हरदम यात्रा में हैं। मगर यह भी तय है कि किनारा है और आएगा जरूर। खिवैयया जानता है। बेहतर है कि छोड़ दो पतवार उसके हाथ में और जल निधि को निहारो- प्रेम करो उससे। अपनी सक्षमताओं और साहस से उसका आनंद उठाओ। देखो एक शाम को ढलते और रात के आगोश में खोते समुंदर को। दिखना बंद हो जाता है तुम्हारी नजर की सीमाओं की वजह से – मगर होता तो है अथाह जल राशि की सतह पर उस जहाज को ढोते, सुबह होने के इंतजार में – जब फिर एक नया सूरज उगेगा – एक नये आगाज के साथ तुम्हारे लिए – उसके लिए तो वो निमित्त है- उसे आना ही था। अजरज तुम पाल बैठे हो।
कभी लगता है नांव पाट का मोह
नहीं त्याग पाती अतः बहुत दूर नहीं जाती पाट से अलग – निहारती रहती हैं उस पीछे
छूट रहे पाट को। खोई रहती है उस पर गुजरे पलों की स्मृतियों में। कभी कुछ दूर जाती
भी हैं तो भी किनारे से बहुत दूर नहीं। पाट शायद कुछ ओझल हो भी जाए तो भी नदी के
किनारे अपने से नजर आते हैं – मन, भ्रम में ही सही, अपनों के बीच रहता है। कभी कुछ
कामयाबियों का जिक्र सुन स्वतः बहुत कुछ हासिल करने की चाहत कभी होती तो है मगर एक
बड़ी सी नांव उसी पानी में उतार देने भर से तो मंजिलें नहीं मिल जाती। पाट की
बेड़ियाँ साहस और हौसलों को जकड़े रहती हैं। कुछ दूर बड़ी सी नांव लेकर चले भी जाएँ
तो किनारों का मोह कहीं न कहीं अपने छिछलेपन में उलझा ही लेता है। बड़ी सी नांव
तमाम अनमनी चाहतों को लिए रेत में फंस कर अपनी यात्रा थाम देती है और यात्री!! उस फंसी
हुई बड़ी नांव से उतर कर छोटी छोटी नांव पर सवार नौका विहार का आनन्द लेने लगते हैं
और कुछ देर में पुनः किनारे आ लगते हैं। उनकी कोशिश होती है कि किसी तरह बस वापस
पहुँच जाएँ उस पाट पर, जहां से शुरू की थी यह यात्रा। जड़ से दूर ऊंचाई भले ही मिल
जाए किन्तु अकेलेपन में मन कितना ऊचाट हो जाता होगा - बिना ऊंचाई तक गए ही वो उसे
भांप कर जड़ में समाहित संतुष्ट हो जाते है। संतुष्टी भी तो मन का भाव है।
तसल्ली इतनी सी है कि
समुन्द्र में जाता जहाज भी तो पानी पर ही चल रहा है – भले कल न सही, एक न एक दिन
तो लौट कर इसी पाट पर आएगा। जाने से लेकर वापस आ जाने तक के दो कोष्टकों के बीच कितना
कुछ छूट गया इस पाट के मोह में - वो जान ही नहीं पाता।
वो भी तो रोटी और सब्जी ही
खाते हैं – कोई हीरे मोती थोड़ी और अंत में तो सब यहीं रह जाना है – जाना सबको खाली
हाथ ही है फिर किस बात के लिए इतनी मशक्कत? कितना सुकून दे जाती है यह सोच पाट पर बैठे
उस दूर समुन्द्र में जाते बड़े से जहाज को देखकर।
नांव के नाम में विलास होने
से क्या होता है – विलासिता तो मानसिकता है – तेरी अलग मेरी अलग!!
कोष्टक के दोनों छोर तो सभी
के समान हैं, उन दोनों छोरों के बीच जो जीवन है वही यात्रा है और उसे संवारना ही
एक कला है जिसका सारा दारमदार तुम्हारे हाथों में है। चाहो तो पाट थामे बैठे रहो
और चाहो तो निकल पड़ो उस अन्नत की तलाश में अन्नत की चाह लिए।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे में रविवार 5 फरवरी,
2023 में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/2294
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