जबलपुर में हमारे एक भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र श्री नारायण तिवारी जी रहते हैं. भूतपूर्व स्वर्गवासी सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है मगर वो उपर हो रहे समस्त क्रिया कलापों को इतने आत्म विश्वास और दृढ़ता से बताते हैं कि उनके पूर्व में स्वर्ग मे रहवास पर स्वतः ही विश्वास सा हो जाता है.
हमारे एक और मित्र हैं मुकेश पटेल. ईश्वर की ऐसी नजर कि अच्छे खासे खाते पीते घर का यह बालक अगर किसी भिखारी के बाजू से भी निकल रहा हो तो भिखारी उसे बुलाकर कुछ पैसे दे दे. चेहरे पर पूर्ण दीनता के परमानेन्ट भाव. मानो भुखमरी की चलती फिरती नुमाईश. भर पेट खाना खा कर भी निकले तो लगे कि न जाने कितने दिन से भूखा है. हँसता भी तो लगता कि जैसे रो रहा है.
सड़क पर क्रिकेट खेलते समय जब किसी के घर में गेंद चली जाये तो हम लोग मुकेश को ही भेजा करते थे गेंद लेने. उसे डांटना तो दूर, अगला गेंद के साथ मिठाई नाश्ता कराये बिना कभी विदा नहीं करता था. अपने चेहरे के चलते वह सतत एवं सर्वत्र दया का पात्र बना रहा. होली, दशहरे की चंदा टीम का भी वो हमेशा ही सरगना रहा और हर घर से चंदा मिलता रहा. अब तो उसका बड़ा व्यापार है. बैंक से लेकर इन्कमटैक्स वाले तक सब उस पर दया रखते हैं. आज तक किसी को घूस नहीं दी. बैंक वाले लोन देने के साथ साथ चाय पिला कर भेजते हैं. लोन की किश्त भरने जाते हैं तो बैंक निवेदन करने लगता है कि जल्दी नहीं है चाहें तो अगले महीने दे दीजियेगा. इन्कम टैक्स का क्लर्क भी बिना नाश्ता कराये उन्हें नहीं जाने देता.
जहाँ मुकेश को अपने उपर ईश्वर की इस विशेष अनुकम्पा पर अभिमान था वहीं हमारे भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र नारायण के पास इस स्थिति के लिये भी कथा कि मुकेश का चेहरा ऐसा क्यूँ है.
भू.पू.स्व. श्री नारायण बताते हैं कि वहाँ उपर कई फेक्टरियाँ हैं. भारत की अलग, अमरीका की अलग, चीन, अफ्रीका, जापान सब की अलग अलग. वहीं स्त्री पुरुषों का निर्माण होता है. सबके क्वालिटी कन्ट्रोल पूर्व निर्धारित हैं. अमरीकी गोरे, अफ्रिकी काले, भारत के भूरे आदि. सबकी भाव भंगीमा भी बाई डिफॉल्ट कैसी रहेगी, यह भी तय है. जैसे दोनों हाथ नीचे, पांव सीधे, मुँह बंद आदि. यह बाई डिफॉल्ट सेटिंग है, अब यदि किसी को हाथ उठाना है, तो उसे हरकत एवं प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद होगा, हाथ पुनः डिफॉल्ट अवस्था में आ जायेगा यानि फिर नीचे लटकने लगेगा.
ऐसा ही चेहरे की भाव भंगिमा के साथ होता है. बाई डिफॉल्ट आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं होते. न खुश, न दुखी. विचार शून्य सा चेहरा. अब यदि आपको खुश होना है तो ओंठ फेलाईये, दांत दिखाईये और हा हा की आवाज करिये. इसे खुश हो कर हंसना कहते हैं. जैसे ही आप इसका प्रयास बंद कर देंगे पुनः डिफॉल्ट अवस्था को प्राप्त करेंगे अर्थात विचार शून्य सा चेहरा-बिना किसी भाव का.
कई बार जल्दीबाजी में, जब कन्टेनर रवाना होने को तैयार होता है और कुछ मेटेरियल की जगह बाकी है, तब कुछ लोग जल्दी जल्दी लाद दिये जाते हैं. वही डिफेक्टिव पीस कहलाते हैं. उन्हीं में से एक उदाहरण मुकेश हैं जिनकी हड़बड़ी में चेहरे की डिफॉल्ट सेटिंग दीनता वाली हो गई. उन्हें सामान्य दिखने के लिये प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद, पुनः डिफॉल्ट अवस्था यानि दीनता के भाव.
यह सारी बातें नारायण इतने आत्म विश्वास से बताते थे कि लगता था वो ही उस फेक्टरी के मैनेजर रहे होंगे जो इतनी विस्तार से पूरी कार्य प्रणाली और निर्माण प्रक्रिया की जानकारी है. तभी तो सब उन्हें भूतपूर्व स्वर्गवासी की उपाधि से नवाजते थे.
उनके ज्ञान का विस्तार देखते हुए एक बार हमने भी जिज्ञासावश प्रश्न किया कि नारायण भाई, आप तो कह रहे थे कि भारत के लिये त्वचा का रंग भूरा फिक्स है. फिर यहाँ गोरे और हमारे रंग के लोग कहाँ से आ गये?
भू.पू.स्व. नारायण जी ने तुरंत अपने संस्मराणत्मक अंदाज में कहना शुरु किया कि दरअसल भारत की फैक्टरी के सुपरवाईजर विश्वकर्मा जी बहुत जुगाड़ू टाइप के हैं. जब पेन्ट खत्म होने लगता है तो कभी तारपीन ज्यादा करवा देते है.
कभी अमरीकी फेक्टरी का और कभी अफ्रिकी फेक्टरी का बचा पेन्ट मार देते हैं मगर मिला जुला कर, जोड़तोड़ कर काम निकाल ही देते हैं. इसीलिये भारत में भी कुछ लोग गोरे पैदा हो जाते हैं और अगर अफ्रिका वाला ज्यादा पेन्ट मार लाये तो तुम्हारे जैसे. किन्तु बाकी ऐसा नहीं करते वो काम रोक देते हैं. इसीलिये अफ्रिका में कभी कोई गोरा नहीं पैदा होता और न अमरीका में काला. इसी से उनकी फैक्टरी भी मटेरियल के इन्तजार में कई कई दिन बंद रहती है तो प्रोडक्शन भी कम होता है. आज तक मटेरियल की कमी के कारण भारत वाली फेक्टरी में काम नहीं रुका. हर साल सबसे अनवरत संचालन का अवार्ड भी विश्वकर्मा जी को ही मिलता है. इसीलिये तो हमारे यहाँ सभी फेक्टरियों में उनकी पूजा होती है.
हम तो सन्न रह गये कि वाह रे विश्वकर्मा जी, आप तो अवार्ड पर अवार्ड लूट रहे हो, जगह जगह पूजे जा रहे हो और खमिजियाना भुगतें हम!! बहुत खूब!
नोट: इस आलेख का उद्देश्य मात्र हास्य-व्यंग्य है. यदि किसी वर्ग या समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँची हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ.
रविवार, सितंबर 30, 2007
भूतपूर्व स्वर्गवासी श्री......
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गुरुवार, सितंबर 27, 2007
बड़ा अच्छा लगता है!!
दफ्तर से घर लौट रहा हूँ. स्टेशन पर ट्रेन से उतरता हूँ. गाड़ी करीब ५ मिनट की पैदल दूरी पर खुले आसमान के नीचे पार्क की हुई है. थोड़ी दूर पार्क करके इस ५ मिनट के पैदल चलने से एक मानसिक संतोष मिलता है कि ऐसे तो पैदल चलना नहीं हो पाता, दिन भर भी तो दफ्तर में अपनी सीट में धंसे बैठे ही रहते हैं, कम से कम इसी बहाने चल लें. नहीं से हाँ भला. सेहत के लिये अच्छा होगा. दिल के एक कोने में खुद को हँसी भी आती है कि भला ५ मिनट सुबह और ५ मिनट शाम पैदल चलने से इस काया पर क्या असर होने वाला है मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.
जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.
आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.
कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.
हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.
बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.
अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.
बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है.
पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....
आप भी सुनिये न!! विश्वास जानिये, अच्छा लगेगा!!!
जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.
आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.
कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.
हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.
बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.
अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.
बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है.
पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....
आप भी सुनिये न!! विश्वास जानिये, अच्छा लगेगा!!!
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रविवार, सितंबर 23, 2007
आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!
समय भी अजब चीज बनी है इस दुनिया में. जब हम चाहते हैं कि जल्दी से कट जाये तो ऐसा रुकता है कि पूछो मत और जब चाहें कि थमा रहे, तो ऐसा भगता है कि पूछो मत. बिल्कुल उलट दिमाग व्यक्तित्व है समय का.
कुछ दिन पहले दफ्तर से घर के निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर आकर रुक गई. तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. उनकी जाँच समाप्ति के बाद ही एक एक करके सब ट्रेनें छूटेंगी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी.
यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई सेल फोन पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा सोया था. कुछ बतों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये.
एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ. घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई.
सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये. वैसे भी कहा गया है कि किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो. मेरे साथ कम से कम यह समस्या नहीं है. जैसा सुबह दिखता हूँ, वैसा ही शाम को और वैसा ही गुस्से में भी, जब कभी अगर आ जाये तो. :) उपर वाले की बड़ी कृपा है और आप सबने तो मेरी तस्वीर गाथा तो देखी ही है.
लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं.
वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपनी आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.
यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सा बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख नहीं पंखा लग गये. आज चार महिने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.
अभी कुछ घंटे पहले ही उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे हैं. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा है. दादा जी के जाने से तीनों चिड़िया भी उदास है, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं, आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही है, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.
पापा, बार बार सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दे रही है, लगता है आप उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ आपको अपना नया आलेख सुनाने के लिये.
अब तक तो पिता जी का ३ घंटे का सफर कट भी गया होगा. फिर भी अभी १८ घंटे बाकी ही हैं जब वो इतने लम्बे सफर से थके हुए भारत पहुँचेंगे.
मेरा मन भी बहुत भारी है, बस तसल्ली इतनी सी है कि नवम्बर में मैं खुद भारत जा रहा हूँ तो फिर से साथ हो जायेगा.
सोच रहा हूँ आज यह लेख लिख कर किसे सुनाऊँगा जो उस स्नेह से तारीफ करते हुए कहे कि तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है और मैं दुगने उत्साह से इसे प्रकाशित करुँगा.
कुछ दिन पहले दफ्तर से घर के निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर आकर रुक गई. तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. उनकी जाँच समाप्ति के बाद ही एक एक करके सब ट्रेनें छूटेंगी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी.
यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई सेल फोन पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा सोया था. कुछ बतों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये.
एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ. घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई.
सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये. वैसे भी कहा गया है कि किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो. मेरे साथ कम से कम यह समस्या नहीं है. जैसा सुबह दिखता हूँ, वैसा ही शाम को और वैसा ही गुस्से में भी, जब कभी अगर आ जाये तो. :) उपर वाले की बड़ी कृपा है और आप सबने तो मेरी तस्वीर गाथा तो देखी ही है.
लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं.
वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपनी आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.
यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सा बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख नहीं पंखा लग गये. आज चार महिने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.
अभी कुछ घंटे पहले ही उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे हैं. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा है. दादा जी के जाने से तीनों चिड़िया भी उदास है, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं, आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही है, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.
पापा, बार बार सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दे रही है, लगता है आप उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ आपको अपना नया आलेख सुनाने के लिये.
अब तक तो पिता जी का ३ घंटे का सफर कट भी गया होगा. फिर भी अभी १८ घंटे बाकी ही हैं जब वो इतने लम्बे सफर से थके हुए भारत पहुँचेंगे.
मेरा मन भी बहुत भारी है, बस तसल्ली इतनी सी है कि नवम्बर में मैं खुद भारत जा रहा हूँ तो फिर से साथ हो जायेगा.
सोच रहा हूँ आज यह लेख लिख कर किसे सुनाऊँगा जो उस स्नेह से तारीफ करते हुए कहे कि तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है और मैं दुगने उत्साह से इसे प्रकाशित करुँगा.
गुरुवार, सितंबर 20, 2007
मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
याद है मुझे, तब सरकारी मकान में रहते थे. छत पर ईंट और मिट्टी से घेर कर पानी भर दिया जाता था और घर की सारी खिड़कियों के काँच पर गाढ़ा रंग. गर्मी की तपती दुपहरी में खिड़कियाँ बंद होने पर कमरे में घुप्प अंधेरा हो जाता था और छत पर पानी भरा होने से पंखे से एकदम ठंडी हवा आती थी. बड़ी राहत से सोते थे उसमें.
रात में आंगन में पहले पानी से सिंचाई होती थी और अंधेरा होते ही बिस्तर बिछा दिये जाते थे. जब सोने जाते तो ठंडे ठंडे बिस्तर मिलते और सबेरा होने तक मोटी खेस की चादर ओढ़ने की नौबत आ जाती.
समय के साथ साथ देखते देखते बाहर सोने का प्रचलन बंद सा होता गया और तब तक कुलर भी आ गये थे. तब गर्मी में बिना कुलर चलाये नींद ही नहीं आती थी. उस पर से रात बिरात अगर बिजली चली जाये तो जैसे पूरा बदन चुनमुना उठता था मानों सैकड़ों चिटियों ने एक साथ काटना शुरु कर दिया हो. फिर जब बिजली आ जाये, तभी नींद आती थी.
कुछ समय और बीता. कुलर की जगह एसी ने ले ली. अब कुलर में उमस लगती थी. बिना एसी जैसे सोने की कल्पना भी मुश्किल हो जाती. कार में एसी, घर में एसी, बिजली जाये तो जनरेटर/इन्वर्टर ऑन. शरीर जैसे एकदम से सुविधाओं का लती हो गया.
इस बात की कल्पना भी मुश्किल हो गई कि बिना इन सब तामझामों के गर्मी में कैसे सो पायेंगे.
फिर कनाडा आ गये. बिजली जाती भी है जैसे भूल ही गये. गर्मी में हर वक्त एसी मे रहना. चाहे घर में, कार में, बजार में या दफ्तर में. सर्दी हो जाये तब यही सब पलट कर हिटिंग में बदल जाता है.
आने के बाद पहली ही भारत यात्रा के बाद अब तो गर्मियों में भारत जाने में भी घबराहट होने लगी है कि कैसे बरदाश्त करेंगे. बार बार तो बिजली चली जाती है और फिर गर्मी भी इतनी ज्यादा.
है तो वो ही भारत, जहाँ से मैं आया था. तब भी तो बिजली जाती थी. फिर क्या हुआ??
शायद सुविधायें बहुत जल्दी हमें अपना गुलाम बना लेती हैं. जकड़ लेती हैं अपने भुजपाश में. अब आप भी तो पेड़ की छाया में नहीं सो सकते?
और गुलाम आदमी तो बदल ही जाता है, वो वो ही कहाँ रह जाता है.
इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है?
नहीं सुझता है कोई मार्ग.
मगर मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
मुझे मेरे भारत आने के लिये मौसम नहीं देखना है.
रात में आंगन में पहले पानी से सिंचाई होती थी और अंधेरा होते ही बिस्तर बिछा दिये जाते थे. जब सोने जाते तो ठंडे ठंडे बिस्तर मिलते और सबेरा होने तक मोटी खेस की चादर ओढ़ने की नौबत आ जाती.
समय के साथ साथ देखते देखते बाहर सोने का प्रचलन बंद सा होता गया और तब तक कुलर भी आ गये थे. तब गर्मी में बिना कुलर चलाये नींद ही नहीं आती थी. उस पर से रात बिरात अगर बिजली चली जाये तो जैसे पूरा बदन चुनमुना उठता था मानों सैकड़ों चिटियों ने एक साथ काटना शुरु कर दिया हो. फिर जब बिजली आ जाये, तभी नींद आती थी.
कुछ समय और बीता. कुलर की जगह एसी ने ले ली. अब कुलर में उमस लगती थी. बिना एसी जैसे सोने की कल्पना भी मुश्किल हो जाती. कार में एसी, घर में एसी, बिजली जाये तो जनरेटर/इन्वर्टर ऑन. शरीर जैसे एकदम से सुविधाओं का लती हो गया.
इस बात की कल्पना भी मुश्किल हो गई कि बिना इन सब तामझामों के गर्मी में कैसे सो पायेंगे.
फिर कनाडा आ गये. बिजली जाती भी है जैसे भूल ही गये. गर्मी में हर वक्त एसी मे रहना. चाहे घर में, कार में, बजार में या दफ्तर में. सर्दी हो जाये तब यही सब पलट कर हिटिंग में बदल जाता है.
आने के बाद पहली ही भारत यात्रा के बाद अब तो गर्मियों में भारत जाने में भी घबराहट होने लगी है कि कैसे बरदाश्त करेंगे. बार बार तो बिजली चली जाती है और फिर गर्मी भी इतनी ज्यादा.
है तो वो ही भारत, जहाँ से मैं आया था. तब भी तो बिजली जाती थी. फिर क्या हुआ??
शायद सुविधायें बहुत जल्दी हमें अपना गुलाम बना लेती हैं. जकड़ लेती हैं अपने भुजपाश में. अब आप भी तो पेड़ की छाया में नहीं सो सकते?
और गुलाम आदमी तो बदल ही जाता है, वो वो ही कहाँ रह जाता है.
इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है?
नहीं सुझता है कोई मार्ग.
मगर मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
मुझे मेरे भारत आने के लिये मौसम नहीं देखना है.
मंगलवार, सितंबर 18, 2007
हाय टिप्पणी!! काहे टिप्पणी!!
अगर मैं कहूँ कि ९८ प्रतिशत भारत की आबादी को, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, को न तो धन्यवाद देना आता है और न ही स्वीकारना आता है और न ही किसी का अभिनन्दन या प्रशंसा करना या फिर अपना अभिनन्दन या प्रशंसा स्वीकार करना, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हाँ, इस बात को सुनकर अनेकों भृकुटियाँ जरुर टेढी हो जायेंगी. यह तो हम सबको आता है.
जरा बताईयेगा:
क्या आप अपने नौकर को पानी या चाय देने के लिये धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने ड्राइवर को दफ्तर पर उतरते समय या घर पर उतरते समय, सुरक्षापूर्वक पहुँचाने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने वाले बालक को पेट्रोल भरने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने मित्र का फोन आने पर फोन रखते समय उसे फोन करके याद करने का आभार करते हैं?
क्या आप से जब कोई आपका हाल पूछता है तो उसे अपना हाल 'ठीक हूँ' के साथ हाल पूछने के लिये धन्यवाद करते हैं?
क्या आप दुकानदार को पैसा देने के बाद बचे पैसे वापस लेते हुये उसकी सेवाओं के लिये धन्यवाद कहते हैं?
क्या आप स्टेशन पर कुली को या रिक्शे वाले को पैसे के सिवाय धन्यवाद भी देते हैं?
उपरोक्त सूची में अभी कम से कम १०० और वाकये रख सकने में सक्षम हूँ जिसमें ९८% लोगों का जबाब नकारात्मक होगा.लोग सोचते हैं कि किस बात का धन्यवाद दें इनको. यह तो इनका काम है. पैसे देते हैं इसको. इसकी औकात ही क्या है हमारे सामने ? और भी न जाने क्या क्या कारण.
(अमरीका/ कनाडा में इन्हीं के जबाब ९८% लोगों के सकारात्मक होंगे और इसका जबाब देते हुये भी अधिकतर इन प्रश्नों को उनसे पूछने का धन्यवाद दे रहे होंगे.)
चलिये, यह तो देने की बात हो गई. अगर कोई दे दे तो लेना नहीं आता. धन्यवाद का सीधा जबाब अंग्रेजी में ' यू आर वेलकम' या 'मेन्शन नॉट' से दे सकते हैं या फिर हिन्दी में इसे ही 'आपका बहुत आभार', लिखित में 'साधुवाद' आदि से दिया जा सकता है. मगर मैने देखा है कि आधे से तो कोई भी जबाब देने की बजाय या तो उसे अनसुना कर देंगे या चुपचाप निकल लेंगे या फिर 'हें हें हें, कैसी बात कर रहे हैं?' या 'अरे, धन्यवाद कैसा?' या फिर 'आप भी न!! हद करते हो, भाई साहब' या 'अरे, यह तो हमारा फर्ज है, इसमें धन्यवाद कैसा.'
वही हालत अभिनन्दन और प्रशंसा की है. किसी से कह देजिये कि भाई, तुम्हारी शर्ट गजब की है. जबाब में धन्यवाद की जगह 'क्या भाई, सुबह से कोई मिला नहीं क्या?' या 'अरे कहाँ, बस ऐसी ही है.' या फिर 'अरे भाई साहब, बस काम चल जा रहा है.' या 'आप ले लो.' हद है, यार. एक धन्यवाद देने की बजाय ये सब क्या है?
इसको इस ढंग से भी देखें कि अगर चाय पिलाने का इन्तजाम करना धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है तो चाय पिलाने का वादा करना, चाय पिलाने के लिये बुलवाना, चाय पिलवाना, हर बार चाय पिलवाना भी हर बार धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है. अगर चाय अच्छी नहीं बनी है, तो या तो आपका प्रोत्साहन पाकर वह स्वयं बना बना कर सीख जायेगा या फिर आप उसे मार्गदर्शन दें कि कैसे बेहतर बनती है. परिणाम दोनों के ही अंत में एक अच्छी चाय बन जाने के ही होने की संभावना है.
किन्तु यदि आप चाय पीने ही न जायें या जायें भी, तो पी कर बिना कुछ कहे ही लौट जायें तो वो भी आखिर कब तक आपके आगे बीन बजाता रहेगा. हताश होकर चाय बनाना ही छोड़ देगा. कोई उधार तो ले नहीं रखी. फ्री में चाय पिला रहा है और आप है कि धन्यवाद तक नहीं कहते मगर चले हर बार आते हैं क्योंकि अभी शहर में बहुत सारी इस तरह की चाय स्थलियों की आवश्यकता है. रोज आवाज लगाते हैं कि अभी चाय पिलाने वाले कम हैं और आओ, और आओ.
कहते हैं न कि
'करत करत अभ्यास ते, जड़मत होत सुजान'
किन्तु बिन प्रोत्साहन के तो अभ्यास हो नहीं सकता. जल्द ही हौसला चुक जायेगा.
मुझे खुद गर तीन दिन तक पत्नी न कहे कि कुछ दुबले दिखने लगे हैं तो ट्रेड मिल पर जाने की इच्छा खत्म होने लगती है जबकि वजन तौलने वाली मशीन चिंघाड़ चिघांड़ कर कह रही होती है कि आपकी बीबी झूठ बोल कर सिर्फ आपको कसरत जारी रखने के प्रोत्साहित कर रही है. सालों में इकट्ठा किया वजन निकलने में भी कुछ समय दोगे कि हर तीसरे दिन दुबले होते जाओगे. मगर उसका प्रोत्साहन ही तो है जो मुझे बार बार ट्रेड मिल पर बनाये रखता है. भले ही कम न हो रहा हो मगर कम से कम बढ़ तो नहीं रहा. यह ही गनीमत है वरना अभी तक क्या हाल हो गया होता.
किसी ने मेहनत की है. भले ही आपके लिये न की हो, खुद के लिये ही की हो मगर उसकी मेहनत का जो फल आया, वो एक अच्छाई के लिये है, आप भी उसका आनन्द उठाते हैं तो दो शब्द धन्यवाद के देना क्या आपका फर्ज नहीं बनता?
बनता है न!! इसी धन्यवाद को, इसी प्रोत्साहन को, इसी अभिनन्दन को चिट्ठाकारी में 'टिप्पणी' कहते हैं और इस धन्यवाद के बदले जो 'यू आर वेलकम' बोलने का शिष्टाचार है, उसे टिप्पणी देने वाले के चिट्ठे पर जाकर 'टिप्पणी' करना बोलते हैं.
फिर शिष्टाचार निभाने में अकड़ कैसी और शर्माना कैसा?
कहीं उन ९८% की तरह आप भी तो इस बात से नहीं डर रहे कि इससे आपकी औकात कमतर आँक ली जायेगी?
बात मानो इससे आपका बड़प्पन ही साबित होगा और औकात में इजाफा. बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं.
चलते चलते:
इस आलेख की वजह बनी अभी अभी ताजा चली टिप्पणी महत्ता पर वेचारिक आँधी. अगर बहुत गहरा उतरने की चाह हो तो यह सारे लिंक एक जगह उपलब्द्ध करा रहा हूँ. कुछ राजीव जी के ब्लॉग से टीपे हैं बिना अनुमति :) :
राजीव टंडन के अंतरिम पर
ज्ञान दत्त जी मानसिक हलचल पर
शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारथी पर
टिप्पणीकार पर
संजय तिवारी जी के विस्फोट पर
कुछ पुराने जमाने की बातें:
उड़न तश्तरी पर : अपना ब्लॉग बेचो रे भाई
फुरसतिया पर: सुभाषित वचन-ब्लाग, ब्लागर, ब्लागिंग
जीतू भाई: ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व
उड़न तश्तरी पर: पुनि पुनि बोले संत समीरा
सागर चन्द नहार जी: अपने ब्लाग की टी आर पी कैसे बढ़ायें
नोटपैड पर: तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊँ
और भी अनेकों बार इस विषय पर लिखा जा चुका है, जिनके लिंक फिर कभी. मसीजिवी और निलिमा जी भी इस विषय पर अपनी तरह से विचार रख चुके हैं.
सूचना:
यह आलेख स्वांत: सुखाय लेखन वालों के लिये सफेद पन्ना है. वे इसे न देखें. वैसे भी वो सब कुछ पनी डायरी में लिख सकते हैं या टिप्पणी वाला टैब बंद कर सकते हैं तो फिर बताना भी नहीं पड़ेगा कि स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं. सब समझ जायेंगे.
उनके काम यह आलेख तभी आयेगा अगर वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी की तरह स्टेटमेंट दे रहे हों तो!! शर्मा जी निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं. रोज मिलते हैं और कहते हैं कि मैं बहुत खुश हूँ. क्या करना है इतना पैसा कि चैन खो जाये? खाना वो दो रोटी ही है चाहे कितना भी पैसा आ जाये. हम तो बस अपने में खुश हैं. जितना है दो टाईम की रोटी आ जाती है, इससे ज्यादा की हा हा क्या मचाना. और मुझे तिवारी जी बता रहे थे कि वो कोई साईड बिजनेस की तलाश में हैं ताकि कुछ अलग से कमाई हो जाये.
वैसे अगर संतोष है तो संतोष में बहुत शक्ति है:
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
जरा बताईयेगा:
क्या आप अपने नौकर को पानी या चाय देने के लिये धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने ड्राइवर को दफ्तर पर उतरते समय या घर पर उतरते समय, सुरक्षापूर्वक पहुँचाने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने वाले बालक को पेट्रोल भरने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने मित्र का फोन आने पर फोन रखते समय उसे फोन करके याद करने का आभार करते हैं?
क्या आप से जब कोई आपका हाल पूछता है तो उसे अपना हाल 'ठीक हूँ' के साथ हाल पूछने के लिये धन्यवाद करते हैं?
क्या आप दुकानदार को पैसा देने के बाद बचे पैसे वापस लेते हुये उसकी सेवाओं के लिये धन्यवाद कहते हैं?
क्या आप स्टेशन पर कुली को या रिक्शे वाले को पैसे के सिवाय धन्यवाद भी देते हैं?
उपरोक्त सूची में अभी कम से कम १०० और वाकये रख सकने में सक्षम हूँ जिसमें ९८% लोगों का जबाब नकारात्मक होगा.लोग सोचते हैं कि किस बात का धन्यवाद दें इनको. यह तो इनका काम है. पैसे देते हैं इसको. इसकी औकात ही क्या है हमारे सामने ? और भी न जाने क्या क्या कारण.
(अमरीका/ कनाडा में इन्हीं के जबाब ९८% लोगों के सकारात्मक होंगे और इसका जबाब देते हुये भी अधिकतर इन प्रश्नों को उनसे पूछने का धन्यवाद दे रहे होंगे.)
चलिये, यह तो देने की बात हो गई. अगर कोई दे दे तो लेना नहीं आता. धन्यवाद का सीधा जबाब अंग्रेजी में ' यू आर वेलकम' या 'मेन्शन नॉट' से दे सकते हैं या फिर हिन्दी में इसे ही 'आपका बहुत आभार', लिखित में 'साधुवाद' आदि से दिया जा सकता है. मगर मैने देखा है कि आधे से तो कोई भी जबाब देने की बजाय या तो उसे अनसुना कर देंगे या चुपचाप निकल लेंगे या फिर 'हें हें हें, कैसी बात कर रहे हैं?' या 'अरे, धन्यवाद कैसा?' या फिर 'आप भी न!! हद करते हो, भाई साहब' या 'अरे, यह तो हमारा फर्ज है, इसमें धन्यवाद कैसा.'
वही हालत अभिनन्दन और प्रशंसा की है. किसी से कह देजिये कि भाई, तुम्हारी शर्ट गजब की है. जबाब में धन्यवाद की जगह 'क्या भाई, सुबह से कोई मिला नहीं क्या?' या 'अरे कहाँ, बस ऐसी ही है.' या फिर 'अरे भाई साहब, बस काम चल जा रहा है.' या 'आप ले लो.' हद है, यार. एक धन्यवाद देने की बजाय ये सब क्या है?
इसको इस ढंग से भी देखें कि अगर चाय पिलाने का इन्तजाम करना धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है तो चाय पिलाने का वादा करना, चाय पिलाने के लिये बुलवाना, चाय पिलवाना, हर बार चाय पिलवाना भी हर बार धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है. अगर चाय अच्छी नहीं बनी है, तो या तो आपका प्रोत्साहन पाकर वह स्वयं बना बना कर सीख जायेगा या फिर आप उसे मार्गदर्शन दें कि कैसे बेहतर बनती है. परिणाम दोनों के ही अंत में एक अच्छी चाय बन जाने के ही होने की संभावना है.
किन्तु यदि आप चाय पीने ही न जायें या जायें भी, तो पी कर बिना कुछ कहे ही लौट जायें तो वो भी आखिर कब तक आपके आगे बीन बजाता रहेगा. हताश होकर चाय बनाना ही छोड़ देगा. कोई उधार तो ले नहीं रखी. फ्री में चाय पिला रहा है और आप है कि धन्यवाद तक नहीं कहते मगर चले हर बार आते हैं क्योंकि अभी शहर में बहुत सारी इस तरह की चाय स्थलियों की आवश्यकता है. रोज आवाज लगाते हैं कि अभी चाय पिलाने वाले कम हैं और आओ, और आओ.
कहते हैं न कि
'करत करत अभ्यास ते, जड़मत होत सुजान'
किन्तु बिन प्रोत्साहन के तो अभ्यास हो नहीं सकता. जल्द ही हौसला चुक जायेगा.
मुझे खुद गर तीन दिन तक पत्नी न कहे कि कुछ दुबले दिखने लगे हैं तो ट्रेड मिल पर जाने की इच्छा खत्म होने लगती है जबकि वजन तौलने वाली मशीन चिंघाड़ चिघांड़ कर कह रही होती है कि आपकी बीबी झूठ बोल कर सिर्फ आपको कसरत जारी रखने के प्रोत्साहित कर रही है. सालों में इकट्ठा किया वजन निकलने में भी कुछ समय दोगे कि हर तीसरे दिन दुबले होते जाओगे. मगर उसका प्रोत्साहन ही तो है जो मुझे बार बार ट्रेड मिल पर बनाये रखता है. भले ही कम न हो रहा हो मगर कम से कम बढ़ तो नहीं रहा. यह ही गनीमत है वरना अभी तक क्या हाल हो गया होता.
किसी ने मेहनत की है. भले ही आपके लिये न की हो, खुद के लिये ही की हो मगर उसकी मेहनत का जो फल आया, वो एक अच्छाई के लिये है, आप भी उसका आनन्द उठाते हैं तो दो शब्द धन्यवाद के देना क्या आपका फर्ज नहीं बनता?
बनता है न!! इसी धन्यवाद को, इसी प्रोत्साहन को, इसी अभिनन्दन को चिट्ठाकारी में 'टिप्पणी' कहते हैं और इस धन्यवाद के बदले जो 'यू आर वेलकम' बोलने का शिष्टाचार है, उसे टिप्पणी देने वाले के चिट्ठे पर जाकर 'टिप्पणी' करना बोलते हैं.
फिर शिष्टाचार निभाने में अकड़ कैसी और शर्माना कैसा?
कहीं उन ९८% की तरह आप भी तो इस बात से नहीं डर रहे कि इससे आपकी औकात कमतर आँक ली जायेगी?
बात मानो इससे आपका बड़प्पन ही साबित होगा और औकात में इजाफा. बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं.
चलते चलते:
इस आलेख की वजह बनी अभी अभी ताजा चली टिप्पणी महत्ता पर वेचारिक आँधी. अगर बहुत गहरा उतरने की चाह हो तो यह सारे लिंक एक जगह उपलब्द्ध करा रहा हूँ. कुछ राजीव जी के ब्लॉग से टीपे हैं बिना अनुमति :) :
राजीव टंडन के अंतरिम पर
ज्ञान दत्त जी मानसिक हलचल पर
शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारथी पर
टिप्पणीकार पर
संजय तिवारी जी के विस्फोट पर
कुछ पुराने जमाने की बातें:
उड़न तश्तरी पर : अपना ब्लॉग बेचो रे भाई
फुरसतिया पर: सुभाषित वचन-ब्लाग, ब्लागर, ब्लागिंग
जीतू भाई: ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व
उड़न तश्तरी पर: पुनि पुनि बोले संत समीरा
सागर चन्द नहार जी: अपने ब्लाग की टी आर पी कैसे बढ़ायें
नोटपैड पर: तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊँ
और भी अनेकों बार इस विषय पर लिखा जा चुका है, जिनके लिंक फिर कभी. मसीजिवी और निलिमा जी भी इस विषय पर अपनी तरह से विचार रख चुके हैं.
सूचना:
यह आलेख स्वांत: सुखाय लेखन वालों के लिये सफेद पन्ना है. वे इसे न देखें. वैसे भी वो सब कुछ पनी डायरी में लिख सकते हैं या टिप्पणी वाला टैब बंद कर सकते हैं तो फिर बताना भी नहीं पड़ेगा कि स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं. सब समझ जायेंगे.
उनके काम यह आलेख तभी आयेगा अगर वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी की तरह स्टेटमेंट दे रहे हों तो!! शर्मा जी निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं. रोज मिलते हैं और कहते हैं कि मैं बहुत खुश हूँ. क्या करना है इतना पैसा कि चैन खो जाये? खाना वो दो रोटी ही है चाहे कितना भी पैसा आ जाये. हम तो बस अपने में खुश हैं. जितना है दो टाईम की रोटी आ जाती है, इससे ज्यादा की हा हा क्या मचाना. और मुझे तिवारी जी बता रहे थे कि वो कोई साईड बिजनेस की तलाश में हैं ताकि कुछ अलग से कमाई हो जाये.
वैसे अगर संतोष है तो संतोष में बहुत शक्ति है:
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
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रविवार, सितंबर 16, 2007
तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती!!!
गमगीन सा बोझिल माहौल. सभी के चहेरों पर गंभीरता. शांत वातावरण के बीच सुनाई पड़ती फुसफुसाहट. पूरे हॉल के भीतर दीवालों पर टंगी पेन्टिंग्स और उसके पास फुसफुसा कर उसकी डिटेल्स पर प्रकाश डालते कुर्ता पहने, हल्की दाढ़ी और बिखरे बाल में सजे गंभीर मुद्राधारी चित्रकार. कुछ कुछ लोगों की भीड़ अलग अलग हर तरफ तस्वीरों के सामने.
यह दृश्य है एक चित्रकला प्रदर्शनी का जिसमें जाने का शौक हमने कुछ समय पूर्व अपने मित्र भारत के विख्यात चित्रकार विजेन्द्र ’विज’ से प्रभावित होकर पाल लिया.
अब एक कलाकार का हौसला दूसरा कलाकार ही तो बढ़ाता है. एक कवि/लेखक का दूसरा कवि/लेखक, एक चिट्ठाकार का दूसरा चिट्ठाकार, एक चित्रकार का दूसरा चित्रकार. मगर अब हमारी सोच का दायरा हमने जरा बढ़ाया और न सिर्फ चिट्ठाकार/कवि और लेखक की हौसला अफजाई करने के हमने चित्रकारों को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया.
हॉल मे घुसे और जिस चित्र के नीचे सबसे ज्यादा भीड़ थी वहाँ पहुँच लिये. चित्रकार महोदय फुसफुसाते से, हाथ में कूची पकड़े चित्र की डिटेल समझा रहे थे. पता चला कि प्रदर्शनी का विषय था ’ध्यान’. यह चित्र समझाया जा रहा था.
हम कवि सम्मेलनियों को फुसफुसाहट सुनाई नहीं देती सो कान एक पास ले जाकर सुनना पड़ा. बाकी सब दूर से भी सुन ले रहे थे या कम से कम सुन रहे हैं इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर रहे थे.
चित्रकार महोदय गंभीरता से कह रहे थे कि इस लाल बिन्दु को ध्यान से देखें. इसमें साक्षात ब्रह्म है. यही शून्य है और यही एक मात्र सत्य. इस पर ध्यान केन्द्रित किजिये, यही उर्जा का स्त्रोत है. एकटक बिना पलक झपकाये पूरी श्रृद्धा से इस पर ध्यान केन्द्रित करें और कुछ ही पल में आप अपने आपको दूसरे लोक में पायेंगे, इसका विराट स्वरुप आपको दिखने लगेगा. बस डूब जाईये इस बिन्दु में. डुबकी लगाईये इस सागर में. यही ध्यान है और यही सफल जीवन का एक मात्र मार्ग है. भीड़ के साथ हम भी लगे डुबने. सबने विस्तार देखा और उन सभी ने भी समझा कि हमने भी विस्तार देखा. कौन अपने आपको भीड़ मे मूर्ख घोषित करवाये मना करके.
फिर बाकी के चित्र भी देखे जो और चित्रकारों द्वारा बनाये गये थे. बड़ी बड़ी मेहनत के नमूने. कुछ समझ में आये और अधिकतर नहीं. मगर सुना बड़ी गंभीरता से सभी चित्रकारों को. पहला पहला अनुभव था न!
अगले दिन अखबार में देखा, लाल बिन्दी को सर्वश्रेष्ठ चित्र घोषित किया गया. बाकी सबकी घोर मेहनत नदी, पहाड़, आकाश रंगने की गई पानी में. ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
फिर तो मानिये सिलसिला सा लग गया इस तरह की प्रदर्शनियों में जाने का. अगली बार गये तो बिल्कुल वही माहौल मगर टॉपिक अलग. इस बार ’रक्त दान’ सप्ताह के उपलक्ष्य में रेड क्रास द्वारा स्पॉन्सर्ड शो था.
फिर हॉल में पहुँचे. तरह तरह के चित्र लगे थे. मगर जिस जगह सबसे ज्यादा भीड़ थी हम भी वहीं पहुँच गये. अरे, यह तो वही चित्रकार हैं. फिर नजर दौड़ा कर देखा तो चित्र भी वही और वो फुसफुसा रहे थे. यह रक्त की वह बूँद है जो किसी को जीवन दे सकती है या इसका आभाव किसी की जिन्दगी ले सकता है. आपकी एक बूँद से किसी का जीवन संवर सकता है और आपका कुछ नहीं जाता और जाने क्या क्या. हम तो ऐसा प्रभावित हो गये कि वहीं रक्त दान शिविर में एक बोतल खून भी दान दे आये.
अगले दिन पता चला कि उनका वही चित्र इसमें भी फिर सर्वश्रेष्ठ चुना गया. हम तो दंग रह गये या ज्यादा साहित्यिक हो कहें तो सन्न रह गये. मगर ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. भले ही हर मंच से वही पढ़ रहे हों बार बार. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
इसके बाद तो एक के एक बाद उसी चित्र पर अलग अलग आख्यान दे उन्हें सर्वश्रेष्ठ घोषित होते मैने न जाने कितनी प्रदर्शनियों में देखा. एक बार किसी भारतीय शादी की साईट द्वारा स्पान्सर्ड ’सुहाग’ टॉपिक पर. आख्यान था कि यह लाल बिन्दी सुहाग की निशानी है. यह सुहागन का गहना है.
फिर जापान के सांस्कृतिक कार्यक्रम में- इसे जापान के झंडे के रुप में प्रदर्शित किया गया और फिर संस्कृति की रक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ चुना गया.
फिर ’यातायात जागरुकता अभियान’ में, वही लाल बिन्दी लाल सिग्नल लाईट बन गई. सबसे जरुरी. न ध्यान दिया तो जान जा सकती है. आह्ह!!
हम तो सोच में ही पड़ गये. प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी याद आ गये जो कवियों से रश्क खाते हुये कहते थे कि हम रोज एक व्यंग्य लिखते हैं और सुनाते हैं और हर बार नया सुनाये, तब किसी तरह नाम चला पाते हैं और एक ख्याति प्राप्त कवि जीवन भर छः कविता लिख कर हमेशा मंच साधे रहता है. वही वही कविता हर बार.
मगर आज तो हमने कवि को भी रश्क खाते देखा. एक चित्रकार सारा जीवन एक चित्र के सहारे काट दे..हद है भाई..और उस पर से हर बार सर्वश्रेष्ट. हाय! हम क्यूँ फंस गये छः कविता के चक्कर में सस्ता सौदा समझ कर.
आगे से ध्यान रखूँगा. ऐसा चित्र बनाऊँगा जो हर जगह फिट हो जाये फिर छः कविता लिखने की झंझट भी छूटे. कौन पड़े चक्कर में.
चलते-चलते:
आधा दर्जन गीत लिख, यूँ जीते मंच मचान
सारा जीवन काट गये, वो अपना सीना तान
अपना सीना तान कि नाम कवियों में होता
बार बार सुन करके भी, श्रोता ताली है धोता
कहे समीर कविराय, इससे भी सस्ता पाओ
एक ही चित्र बनाओ,जीवन भर नाम कमाओ.
--समीर लाल ’समीर’
निवेदन: कोई भी कलाकार इसे अन्यथा लेकर आहत न हो. यह मात्र मौज मजे के लिये है. हर कला का सम्मान हो, यही मेरी मान्यता है.
यह दृश्य है एक चित्रकला प्रदर्शनी का जिसमें जाने का शौक हमने कुछ समय पूर्व अपने मित्र भारत के विख्यात चित्रकार विजेन्द्र ’विज’ से प्रभावित होकर पाल लिया.
अब एक कलाकार का हौसला दूसरा कलाकार ही तो बढ़ाता है. एक कवि/लेखक का दूसरा कवि/लेखक, एक चिट्ठाकार का दूसरा चिट्ठाकार, एक चित्रकार का दूसरा चित्रकार. मगर अब हमारी सोच का दायरा हमने जरा बढ़ाया और न सिर्फ चिट्ठाकार/कवि और लेखक की हौसला अफजाई करने के हमने चित्रकारों को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया.
हॉल मे घुसे और जिस चित्र के नीचे सबसे ज्यादा भीड़ थी वहाँ पहुँच लिये. चित्रकार महोदय फुसफुसाते से, हाथ में कूची पकड़े चित्र की डिटेल समझा रहे थे. पता चला कि प्रदर्शनी का विषय था ’ध्यान’. यह चित्र समझाया जा रहा था.
हम कवि सम्मेलनियों को फुसफुसाहट सुनाई नहीं देती सो कान एक पास ले जाकर सुनना पड़ा. बाकी सब दूर से भी सुन ले रहे थे या कम से कम सुन रहे हैं इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर रहे थे.
चित्रकार महोदय गंभीरता से कह रहे थे कि इस लाल बिन्दु को ध्यान से देखें. इसमें साक्षात ब्रह्म है. यही शून्य है और यही एक मात्र सत्य. इस पर ध्यान केन्द्रित किजिये, यही उर्जा का स्त्रोत है. एकटक बिना पलक झपकाये पूरी श्रृद्धा से इस पर ध्यान केन्द्रित करें और कुछ ही पल में आप अपने आपको दूसरे लोक में पायेंगे, इसका विराट स्वरुप आपको दिखने लगेगा. बस डूब जाईये इस बिन्दु में. डुबकी लगाईये इस सागर में. यही ध्यान है और यही सफल जीवन का एक मात्र मार्ग है. भीड़ के साथ हम भी लगे डुबने. सबने विस्तार देखा और उन सभी ने भी समझा कि हमने भी विस्तार देखा. कौन अपने आपको भीड़ मे मूर्ख घोषित करवाये मना करके.
फिर बाकी के चित्र भी देखे जो और चित्रकारों द्वारा बनाये गये थे. बड़ी बड़ी मेहनत के नमूने. कुछ समझ में आये और अधिकतर नहीं. मगर सुना बड़ी गंभीरता से सभी चित्रकारों को. पहला पहला अनुभव था न!
अगले दिन अखबार में देखा, लाल बिन्दी को सर्वश्रेष्ठ चित्र घोषित किया गया. बाकी सबकी घोर मेहनत नदी, पहाड़, आकाश रंगने की गई पानी में. ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
फिर तो मानिये सिलसिला सा लग गया इस तरह की प्रदर्शनियों में जाने का. अगली बार गये तो बिल्कुल वही माहौल मगर टॉपिक अलग. इस बार ’रक्त दान’ सप्ताह के उपलक्ष्य में रेड क्रास द्वारा स्पॉन्सर्ड शो था.
फिर हॉल में पहुँचे. तरह तरह के चित्र लगे थे. मगर जिस जगह सबसे ज्यादा भीड़ थी हम भी वहीं पहुँच गये. अरे, यह तो वही चित्रकार हैं. फिर नजर दौड़ा कर देखा तो चित्र भी वही और वो फुसफुसा रहे थे. यह रक्त की वह बूँद है जो किसी को जीवन दे सकती है या इसका आभाव किसी की जिन्दगी ले सकता है. आपकी एक बूँद से किसी का जीवन संवर सकता है और आपका कुछ नहीं जाता और जाने क्या क्या. हम तो ऐसा प्रभावित हो गये कि वहीं रक्त दान शिविर में एक बोतल खून भी दान दे आये.
अगले दिन पता चला कि उनका वही चित्र इसमें भी फिर सर्वश्रेष्ठ चुना गया. हम तो दंग रह गये या ज्यादा साहित्यिक हो कहें तो सन्न रह गये. मगर ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. भले ही हर मंच से वही पढ़ रहे हों बार बार. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
इसके बाद तो एक के एक बाद उसी चित्र पर अलग अलग आख्यान दे उन्हें सर्वश्रेष्ठ घोषित होते मैने न जाने कितनी प्रदर्शनियों में देखा. एक बार किसी भारतीय शादी की साईट द्वारा स्पान्सर्ड ’सुहाग’ टॉपिक पर. आख्यान था कि यह लाल बिन्दी सुहाग की निशानी है. यह सुहागन का गहना है.
फिर जापान के सांस्कृतिक कार्यक्रम में- इसे जापान के झंडे के रुप में प्रदर्शित किया गया और फिर संस्कृति की रक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ चुना गया.
फिर ’यातायात जागरुकता अभियान’ में, वही लाल बिन्दी लाल सिग्नल लाईट बन गई. सबसे जरुरी. न ध्यान दिया तो जान जा सकती है. आह्ह!!
हम तो सोच में ही पड़ गये. प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी याद आ गये जो कवियों से रश्क खाते हुये कहते थे कि हम रोज एक व्यंग्य लिखते हैं और सुनाते हैं और हर बार नया सुनाये, तब किसी तरह नाम चला पाते हैं और एक ख्याति प्राप्त कवि जीवन भर छः कविता लिख कर हमेशा मंच साधे रहता है. वही वही कविता हर बार.
मगर आज तो हमने कवि को भी रश्क खाते देखा. एक चित्रकार सारा जीवन एक चित्र के सहारे काट दे..हद है भाई..और उस पर से हर बार सर्वश्रेष्ट. हाय! हम क्यूँ फंस गये छः कविता के चक्कर में सस्ता सौदा समझ कर.
आगे से ध्यान रखूँगा. ऐसा चित्र बनाऊँगा जो हर जगह फिट हो जाये फिर छः कविता लिखने की झंझट भी छूटे. कौन पड़े चक्कर में.
चलते-चलते:
आधा दर्जन गीत लिख, यूँ जीते मंच मचान
सारा जीवन काट गये, वो अपना सीना तान
अपना सीना तान कि नाम कवियों में होता
बार बार सुन करके भी, श्रोता ताली है धोता
कहे समीर कविराय, इससे भी सस्ता पाओ
एक ही चित्र बनाओ,जीवन भर नाम कमाओ.
--समीर लाल ’समीर’
निवेदन: कोई भी कलाकार इसे अन्यथा लेकर आहत न हो. यह मात्र मौज मजे के लिये है. हर कला का सम्मान हो, यही मेरी मान्यता है.
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शुक्रवार, सितंबर 14, 2007
तन्हा रात
नोट: यह पोस्ट जनवरी, २००७ की पुरानी पोस्ट है जो कि गल्ती से सुधार कार्य के चक्कर में फिर से पोस्ट हो गई है और पुरानी दिनाँक में पोस्ट कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है. अतः आप सबको हुई असुविधा के लिये क्षमापार्थी हूँ.
अब कल फुरसतिया जी हमारे द्वार संदेश " एक आग का दरिया है और डूब के जाना है" पर हमें ऐसा लपेटे कि हमारी तो हवा ही खिसक गई. मगर, हम भी कम चिरकुट चक्रम नहीं हैं, जवाब में जरुर लिखेंगे, जो कुछ भी पूछा गया है. अपनी बात को और पुख्ता करने के लिये एक गीत का मल्लमा और चढ़ा देता हूँ फिर इक्कठे ही फोड़ेंगे. :)
तो सुनिये, हमारी नयी रचना, जो जी में आये, कहिये और जो जी में आये वो सोचिये, हम तो लिख गये. आगे खुलासा किया जायेगा, फुरसतिया जी के लेख को देख कर और आपकी टिप्पणियों के मद्दे नजर इस पोस्ट पर:
तन्हा रात
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
-समीर लाल 'समीर'
अब कल फुरसतिया जी हमारे द्वार संदेश " एक आग का दरिया है और डूब के जाना है" पर हमें ऐसा लपेटे कि हमारी तो हवा ही खिसक गई. मगर, हम भी कम चिरकुट चक्रम नहीं हैं, जवाब में जरुर लिखेंगे, जो कुछ भी पूछा गया है. अपनी बात को और पुख्ता करने के लिये एक गीत का मल्लमा और चढ़ा देता हूँ फिर इक्कठे ही फोड़ेंगे. :)
तो सुनिये, हमारी नयी रचना, जो जी में आये, कहिये और जो जी में आये वो सोचिये, हम तो लिख गये. आगे खुलासा किया जायेगा, फुरसतिया जी के लेख को देख कर और आपकी टिप्पणियों के मद्दे नजर इस पोस्ट पर:
तन्हा रात
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
-समीर लाल 'समीर'
बुधवार, सितंबर 12, 2007
हिन्दी हैं हम वतन है, हिन्दुस्तां हमारा...
मौका है भारत से सात समंदर पार कनाडा में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के लिये आयोजित समारोह का. अब समारोह है तो मंच भी है. माईक भी लगा है.टीवी के लिये विडियो भी खींचा जा रहा है. मंच पर संचालक, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि विराजमान है और साथ ही अन्य समारोहों की तरह दो अन्य प्रभावशाली व्यक्ति भी सुसज्जित हैं. माँ शारदा की तस्वीर मंच पर कोने में लगा दी गई है और सामने दीपक प्रज्ज्वलित होने की बाट जोह रहा है.
कार्यक्रम पूर्वनियोजित समय से एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हो चुका है. संचालक महोदय सब आने वालों का जुबानी और मंचासीन लोगों का पुष्पाहार से स्वागत कर चुके हैं. अब वह मुख्य अतिथि महोदय से दीप प्रज्ज्वलित कर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार कार्यक्रम की विधिवत शुरुवात का निवेदन कर रहे हैं.
मुख्य अतिथि ने अपनी टाई बचाते हुए दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया है. हिन्दी द्वैदीप्तिमान होने लगी है. उसका प्रकाश फैलने लगा है. मुख्य अतिथि वापस अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं. अध्यक्ष महोदय अपना उदबोधन कर रहे हैं. हिन्दी के प्रचार और प्रसार कार्यक्रम के अध्यक्ष बनाये जाने के लिये आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों का नाम ले लेकर गिर गिर से पड़ रहे हैं.
वहीं मंच पर विराजित सूट पहने मुख्य अतिथि, जो कि भारत में मंत्रालय के हिन्दी विभाग में उच्चासीन पदाधिकारी हैं और यहाँ किसी अन्य कार्य से भारत से पधारे हैं एवं उन दो मंचासीन प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक के संयोजन से मंच पर महिमा मंडित हो रहे हैं, अपने चेहरे से पसीना पोंछ रहे हैं.
उनको पसीना आने के दो मुख्य कारण समझ में आ रहे हैं. पहला, गर्मी के मौसम में वो उनी सूट पहने हैं और दूसरा, मंच से बोलने का भय. दोनों ही कारण स्वभाविक हैं.
भारत से आने वाले अधिकारियों द्वारा यहाँ के किसी भी मौसम में गरम सूट पहनना तो एकदम सहज और सर्व दृष्टिगत प्रक्रिया है, इससे मुझे कोई आश्चर्य भी नहीं होता. और दूसरा मंच से बोलने का भय, वह भी मौकों और अभ्यास के अभाव में सामान्य ही है. वहाँ भारत में भी दफ्तर में यह न सिर्फ बिना बोले ही काम चला लेते हैं बल्कि बिना लिखे भी. मात्र दस्तखत करने में महारत हासिल है और उसका इस मंच से कोई कार्य नहीं, तो पसीना आना स्वभाविक ही कहलाया.
उनकी हालत देखकर कार्यक्रम के प्रथम स्तरीय संयोजक, जो कि संचालक की हैसियत से मंचासीन हैं, मंच के आसपास घूमते द्वितीय स्तरीय संयोजक को इशारा करते हैं और वो द्वितीय स्तरीय संयोजक उपस्थित श्रोताओं के पीछे घूमते तृतीय स्तरीय संयोजक को इशारा करता है जो कि भाग कर कनैडियन एयरफ्लो पंखे का इन्तजाम कर मंच के बाजू में लगा देता है.
पंखे से चलती अंग्रेजी हवा से, जहाँ एक ओर मुख्य अतिथि महोदय राहत की सांस ले रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ हिन्दी को प्रचारित, प्रसारित और प्रकाशित करती दीपक की लौ लड़खड़ाते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का भरसक प्रयास कर रही है. आखिरकार उसकी हिम्मत जबाब दे गई.
हिन्दी का प्रचार और प्रसार थम गया. दीपक में अंधेरा छा गया. संचालक महोदय दीपक की तरफ भागे. अध्यक्ष का भाषण एकाएक रुक गया. पंखा बंद कर उस अंग्रजी हवा को रोक दिया गया. माचिस से जला कर दीपक पुनः प्रज्ज्वलित हुआ. हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार पुनः प्रारंभ हुआ. हिन्दी प्रकाशित हुई.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार को बाधित करने का जिम्मेदार वह तृतीय स्तरीय संयोजक द्वितीय स्तरीय संयोजक से डांट खाकर किनारे खड़े खिसियानी हंसी हंस रहा है.
कार्यक्रम सुचारु रुप से चलता जा रहा है. सभी भाषण हो रहे हैं. कुछ कवितायें भी पढ़ी जा रहीं हैं और अंत में मुख्य अतिथि द्वारा हिन्दी के प्रचार प्रसार में विशिष्ठ योगदान देने वाले पाँच लोगों को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा रहा है, जिस पर लिखा है:
इन रिक्गनिशन ऑफ योर कॉन्ट्रिब्यूशन टूवर्डस हिन्दी………..
( In Recognisition of your contribution towards Hindi.)..
इसके आगे मुझसे पढ़ा नहीं जा पा रहा है. मैंने हिन्दी का ऐसा प्रचार और प्रसार पहले कभी नहीं देखा शायद इसलिये.
कार्यक्रम समाप्त हो गया है. माँ शारदा की तस्वीर को झोले में लपेट कर रख दिया गया है. दीपक बुझा कर रख दिया गया है. अब अगले साल फिर यह दीप प्रज्जवलित हो हिन्दी का प्रचार, प्रसार करेगा और हिन्दी को प्रकाशित करेगा.
तब तक के लिये जय हिन्दी.
आप सबको १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की औपचारिक एवं सरकारी शुभकामनायें.
कार्यक्रम पूर्वनियोजित समय से एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हो चुका है. संचालक महोदय सब आने वालों का जुबानी और मंचासीन लोगों का पुष्पाहार से स्वागत कर चुके हैं. अब वह मुख्य अतिथि महोदय से दीप प्रज्ज्वलित कर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार कार्यक्रम की विधिवत शुरुवात का निवेदन कर रहे हैं.
मुख्य अतिथि ने अपनी टाई बचाते हुए दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया है. हिन्दी द्वैदीप्तिमान होने लगी है. उसका प्रकाश फैलने लगा है. मुख्य अतिथि वापस अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं. अध्यक्ष महोदय अपना उदबोधन कर रहे हैं. हिन्दी के प्रचार और प्रसार कार्यक्रम के अध्यक्ष बनाये जाने के लिये आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों का नाम ले लेकर गिर गिर से पड़ रहे हैं.
वहीं मंच पर विराजित सूट पहने मुख्य अतिथि, जो कि भारत में मंत्रालय के हिन्दी विभाग में उच्चासीन पदाधिकारी हैं और यहाँ किसी अन्य कार्य से भारत से पधारे हैं एवं उन दो मंचासीन प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक के संयोजन से मंच पर महिमा मंडित हो रहे हैं, अपने चेहरे से पसीना पोंछ रहे हैं.
उनको पसीना आने के दो मुख्य कारण समझ में आ रहे हैं. पहला, गर्मी के मौसम में वो उनी सूट पहने हैं और दूसरा, मंच से बोलने का भय. दोनों ही कारण स्वभाविक हैं.
भारत से आने वाले अधिकारियों द्वारा यहाँ के किसी भी मौसम में गरम सूट पहनना तो एकदम सहज और सर्व दृष्टिगत प्रक्रिया है, इससे मुझे कोई आश्चर्य भी नहीं होता. और दूसरा मंच से बोलने का भय, वह भी मौकों और अभ्यास के अभाव में सामान्य ही है. वहाँ भारत में भी दफ्तर में यह न सिर्फ बिना बोले ही काम चला लेते हैं बल्कि बिना लिखे भी. मात्र दस्तखत करने में महारत हासिल है और उसका इस मंच से कोई कार्य नहीं, तो पसीना आना स्वभाविक ही कहलाया.
उनकी हालत देखकर कार्यक्रम के प्रथम स्तरीय संयोजक, जो कि संचालक की हैसियत से मंचासीन हैं, मंच के आसपास घूमते द्वितीय स्तरीय संयोजक को इशारा करते हैं और वो द्वितीय स्तरीय संयोजक उपस्थित श्रोताओं के पीछे घूमते तृतीय स्तरीय संयोजक को इशारा करता है जो कि भाग कर कनैडियन एयरफ्लो पंखे का इन्तजाम कर मंच के बाजू में लगा देता है.
पंखे से चलती अंग्रेजी हवा से, जहाँ एक ओर मुख्य अतिथि महोदय राहत की सांस ले रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ हिन्दी को प्रचारित, प्रसारित और प्रकाशित करती दीपक की लौ लड़खड़ाते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का भरसक प्रयास कर रही है. आखिरकार उसकी हिम्मत जबाब दे गई.
हिन्दी का प्रचार और प्रसार थम गया. दीपक में अंधेरा छा गया. संचालक महोदय दीपक की तरफ भागे. अध्यक्ष का भाषण एकाएक रुक गया. पंखा बंद कर उस अंग्रजी हवा को रोक दिया गया. माचिस से जला कर दीपक पुनः प्रज्ज्वलित हुआ. हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार पुनः प्रारंभ हुआ. हिन्दी प्रकाशित हुई.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार को बाधित करने का जिम्मेदार वह तृतीय स्तरीय संयोजक द्वितीय स्तरीय संयोजक से डांट खाकर किनारे खड़े खिसियानी हंसी हंस रहा है.
कार्यक्रम सुचारु रुप से चलता जा रहा है. सभी भाषण हो रहे हैं. कुछ कवितायें भी पढ़ी जा रहीं हैं और अंत में मुख्य अतिथि द्वारा हिन्दी के प्रचार प्रसार में विशिष्ठ योगदान देने वाले पाँच लोगों को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा रहा है, जिस पर लिखा है:
इन रिक्गनिशन ऑफ योर कॉन्ट्रिब्यूशन टूवर्डस हिन्दी………..
( In Recognisition of your contribution towards Hindi.)..
इसके आगे मुझसे पढ़ा नहीं जा पा रहा है. मैंने हिन्दी का ऐसा प्रचार और प्रसार पहले कभी नहीं देखा शायद इसलिये.
कार्यक्रम समाप्त हो गया है. माँ शारदा की तस्वीर को झोले में लपेट कर रख दिया गया है. दीपक बुझा कर रख दिया गया है. अब अगले साल फिर यह दीप प्रज्जवलित हो हिन्दी का प्रचार, प्रसार करेगा और हिन्दी को प्रकाशित करेगा.
तब तक के लिये जय हिन्दी.
आप सबको १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की औपचारिक एवं सरकारी शुभकामनायें.
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सोमवार, सितंबर 10, 2007
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
आज ऐसे ही ऑर्कुट पर टहल रहा था. एकाएक कुछ स्क्रेप्स पर नजर चली गई. कुछ कवितायें टंगी थीं. बचपन की याद दिला गई.
बस सीडी में यह नज़्म लगाई और याद करने लगा:
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
गर्मी की छुट्टियाँ. तपती दुपहरी. घर की खिड़कीयों पर बंधी वो खस की टट्टियाँ. उस पर बार बार सिंचाई और उसके सामने रख कर चलता सिन्नी का काला वाला टेबल फैन. कितनी ठंडा हो जाता था कमरा. मगर बच्चों को कहाँ चैन. इधर माँ दुपहरी का काम निपटा कर कमर सीधी करने जहाँ आँख झपकाये, उधर सारे बच्चे घर के बाहर धूप में लगे खेलने. तब टीवी वगैरह तो होता नहीं था कि कार्टून देखने बैठ जाते.
याद आते हैं, कितनी तरह के खेल खेला करते थे.
कंचे, तरह तरह के रंग बिरंगे. आधे खरीदे और उससे ज्यादा जीते हुए. रोज रात में गिन कर रख कर सोते और सुबह उठकर फिर गिनते. साथ में होते कई सारे सुन्दर सुन्दर बंटे, जिनसे निशाना लगाते थे.
भौरां याने लट्टू-इसमें तो हमारी मास्टरी थी. बढ़ियां नुकीली आर वाला लट्टू बिना जमीन में छुलायें सीधे हाथ पर नचाते हुए गुद्दा खेला करते थे. न जाने कितनों की कितने लट्टू गुद्दा मार मार कर फोड़ने का विश्व रिकार्ड हमारे नाम जाता अगर इस खेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली होती.
सतौलिया, सात पत्थर के चिप्स एक के उपर एक जमा कर उसे गेंद से फोड़ना और फिर भाग कर उन्हें जमाना जब तक दूसरी टीम के लोग आपको गेंद से मारने की कोशिश करते रह्ते थे. जैसे ही जम जाये-जोर से चिल्लाना-सतौलिया. हम्म!!
मार गेंद-इसमें एक दूसरे को गेंद से मारा जाता था. रबर की लाल गेंद. कई बार तो ऐसी चिपकती थी कि निशान ही बन जाये.
मेरे काफी बाद उम्र तक प्रिय रहा-टीप रेस याने छुप्पन छुपाई. क्यूँ प्रिय रहा यह नहीं बतायेंगे. पूरे मोहल्ले के लड़के लड़कियाँ खेला करते थे एक साथ.
गुल्ली डंडा-इस खेल में तो सारे दोस्त डरा करते थे हमसे. इसलिये नहीं कि मैं बहुत अच्छा खेलता था. मगर जितना भी सामने वाले को दाम देना पड़ जाये, जिसमें जो दाम देता है वो आपको कंधे पर लाद कर चलता है उतनी दूर जितनी दूर आपने गुल्ली मारी है, उसकी तो दम ही बैठ जाती थी. हमारा यह विस्तार आज का भर थोड़े ही है. हम हमारी उम्र के हिसाब से हमेशा ही मोटे थे और दुबले होने का आजीवन प्रयास इस बात का साक्षी है. जब से होश संभाला, हमारे मोटापे और दुबले होने के प्रयास, दोनों ने बराबरी से आजतक हमारा साथ निभाया है. जैसे कि अपने नेताओं का साथ मक्कारी और भ्रष्टाचार निभाते हैं.
और भी ढ़ेरों खेल होते थे जैसे गुलेल, खुद बनाते थे अमरुद के पेड़ (जबलपुर में हम उसे बीही का झाड़ कहते थे) से केटी काट कर और ट्रक की पुरानी गास्केट से ट्यूब निकालकर. निशाना ऐसा कि जिस काँच पर नाराज बस हो जायें.
फिर विष अमृत, नदी पहाड़ बाकि तो नाम भी याददाश्त से जाते रहे. याद है क्या वो जिसमे लंगड़ी कुद कर सात खाने कुदने होते थे चिप फेकने के बाद उसे लंगड़ी मे पार कराना होता था, मुझे तो नाम ही नहीं याद आ रहा. शायद एक्कड़ दुक्कड़ या अड़ई गुड़ई या जाने क्या..
क्रिक्रेट, फुटबाल, हॉकी, पतंगबाजी आदि तो आजकल भी बच्चे खेलते दिख जाते हैं मगर वो मेरे खेल कहाँ गये??
मेरे बीते बचपन के साथ ही वो भी दफन हो जायेंगे, अगर यह तभी पता चल जाता तो थोड़ा और खेल लेता. कुछ और गुद्दे मार लेता और कंचे तो आराम से और जीत ही ले आता.
अब पछताने से क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. मगर इन कविताओं को तो अब भी सहेज सकते हैं. इसीलिये यहाँ पर दर्ज कर देता हूँ कि भले ही रोज नहीं, पर कभी कभी तो मेरे जमाने का कोई इससे अपना बचपन फिर से जी कर देख सके. आज के बच्चों का बचपन तो शायद इन कविताओं से विहीन होगा मगर हमारे समय के सभी हिन्दी भाषी बच्चों ने कभी न कभी इन कविताओं का पढ़कर या सुनकर लुत्फ जरुर उठाया होगा.
पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।
************
आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।
**************
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
************
आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
************
झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।
************
चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************
तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।
************
कविता साभार: आर्कुट-विचरण
चित्र साभार: डिस्कवर इंडिया-स्ट्रीट गेम्स
बस सीडी में यह नज़्म लगाई और याद करने लगा:
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
गर्मी की छुट्टियाँ. तपती दुपहरी. घर की खिड़कीयों पर बंधी वो खस की टट्टियाँ. उस पर बार बार सिंचाई और उसके सामने रख कर चलता सिन्नी का काला वाला टेबल फैन. कितनी ठंडा हो जाता था कमरा. मगर बच्चों को कहाँ चैन. इधर माँ दुपहरी का काम निपटा कर कमर सीधी करने जहाँ आँख झपकाये, उधर सारे बच्चे घर के बाहर धूप में लगे खेलने. तब टीवी वगैरह तो होता नहीं था कि कार्टून देखने बैठ जाते.
याद आते हैं, कितनी तरह के खेल खेला करते थे.
कंचे, तरह तरह के रंग बिरंगे. आधे खरीदे और उससे ज्यादा जीते हुए. रोज रात में गिन कर रख कर सोते और सुबह उठकर फिर गिनते. साथ में होते कई सारे सुन्दर सुन्दर बंटे, जिनसे निशाना लगाते थे.
भौरां याने लट्टू-इसमें तो हमारी मास्टरी थी. बढ़ियां नुकीली आर वाला लट्टू बिना जमीन में छुलायें सीधे हाथ पर नचाते हुए गुद्दा खेला करते थे. न जाने कितनों की कितने लट्टू गुद्दा मार मार कर फोड़ने का विश्व रिकार्ड हमारे नाम जाता अगर इस खेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली होती.
सतौलिया, सात पत्थर के चिप्स एक के उपर एक जमा कर उसे गेंद से फोड़ना और फिर भाग कर उन्हें जमाना जब तक दूसरी टीम के लोग आपको गेंद से मारने की कोशिश करते रह्ते थे. जैसे ही जम जाये-जोर से चिल्लाना-सतौलिया. हम्म!!
मार गेंद-इसमें एक दूसरे को गेंद से मारा जाता था. रबर की लाल गेंद. कई बार तो ऐसी चिपकती थी कि निशान ही बन जाये.
मेरे काफी बाद उम्र तक प्रिय रहा-टीप रेस याने छुप्पन छुपाई. क्यूँ प्रिय रहा यह नहीं बतायेंगे. पूरे मोहल्ले के लड़के लड़कियाँ खेला करते थे एक साथ.
गुल्ली डंडा-इस खेल में तो सारे दोस्त डरा करते थे हमसे. इसलिये नहीं कि मैं बहुत अच्छा खेलता था. मगर जितना भी सामने वाले को दाम देना पड़ जाये, जिसमें जो दाम देता है वो आपको कंधे पर लाद कर चलता है उतनी दूर जितनी दूर आपने गुल्ली मारी है, उसकी तो दम ही बैठ जाती थी. हमारा यह विस्तार आज का भर थोड़े ही है. हम हमारी उम्र के हिसाब से हमेशा ही मोटे थे और दुबले होने का आजीवन प्रयास इस बात का साक्षी है. जब से होश संभाला, हमारे मोटापे और दुबले होने के प्रयास, दोनों ने बराबरी से आजतक हमारा साथ निभाया है. जैसे कि अपने नेताओं का साथ मक्कारी और भ्रष्टाचार निभाते हैं.
और भी ढ़ेरों खेल होते थे जैसे गुलेल, खुद बनाते थे अमरुद के पेड़ (जबलपुर में हम उसे बीही का झाड़ कहते थे) से केटी काट कर और ट्रक की पुरानी गास्केट से ट्यूब निकालकर. निशाना ऐसा कि जिस काँच पर नाराज बस हो जायें.
फिर विष अमृत, नदी पहाड़ बाकि तो नाम भी याददाश्त से जाते रहे. याद है क्या वो जिसमे लंगड़ी कुद कर सात खाने कुदने होते थे चिप फेकने के बाद उसे लंगड़ी मे पार कराना होता था, मुझे तो नाम ही नहीं याद आ रहा. शायद एक्कड़ दुक्कड़ या अड़ई गुड़ई या जाने क्या..
क्रिक्रेट, फुटबाल, हॉकी, पतंगबाजी आदि तो आजकल भी बच्चे खेलते दिख जाते हैं मगर वो मेरे खेल कहाँ गये??
मेरे बीते बचपन के साथ ही वो भी दफन हो जायेंगे, अगर यह तभी पता चल जाता तो थोड़ा और खेल लेता. कुछ और गुद्दे मार लेता और कंचे तो आराम से और जीत ही ले आता.
अब पछताने से क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. मगर इन कविताओं को तो अब भी सहेज सकते हैं. इसीलिये यहाँ पर दर्ज कर देता हूँ कि भले ही रोज नहीं, पर कभी कभी तो मेरे जमाने का कोई इससे अपना बचपन फिर से जी कर देख सके. आज के बच्चों का बचपन तो शायद इन कविताओं से विहीन होगा मगर हमारे समय के सभी हिन्दी भाषी बच्चों ने कभी न कभी इन कविताओं का पढ़कर या सुनकर लुत्फ जरुर उठाया होगा.
पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।
************
आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।
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मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
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आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
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झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।
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चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************
तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।
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कविता साभार: आर्कुट-विचरण
चित्र साभार: डिस्कवर इंडिया-स्ट्रीट गेम्स
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संस्मरण
बुधवार, सितंबर 05, 2007
जाओ तो जरा स्टाईल से...
जरा हट के का भाग-२ ही समझो इसे.....
आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा. इतना सुनकर सेठ जी ने आँख खोली और कहा कि मेरी चप्प्ल ला दो, मैं खुद ही चला जाता हूँ.
चिट्ठी ही कुछ ऐसी थी. एक बीमा कम्पनी की. लिखा था कि अपने अंतिम संस्कार का बीमा करा लें. पहले बताया गया कि यहाँ अंतिम संस्कार में कम से कम ५००० से ६००० डालर का खर्च आता है और अक्सर तो १०००० डालर भी अगर जरा भी स्टेन्डर्ड का किया. जरा विचारिये कि जब तक आप का नम्बर आयेगा तब तक मुद्रा स्फिति की दर को देखते हुए यह २५००० डालर तक भी हो सकता है.
आगे बताया गया कि आप अपनी मनपसन्द का ताबूत चुनिये, डिजाईनर. जिसमें आप को आराम से रखा जायेगा. कई डिजाईन साथ में भेजे ताबूत सप्लायर के ब्रोचर में थे. सागौन, चीड़ और हाथी दाँत की नक्काशी से लेकर प्लेन एंड सिंपल तक. उसके अन्दर भी तकिया, गुदगुदा गद्दा और न जाने क्या क्या. उदाहरण के लिये यह देखिये अन्दर और बाहर की तस्वीर.
और:
फिर आपके साईज का सूट, जूते आदि जो आपको पहनाये जायेंगे पूरी बामिंग और मेकअप के साथ. मेकअप स्पेशलिस्ट मेकअप करेगी, वाह!! यह तो हमारी शादी में तक नहीं हुआ. खुद ही तैयार हो गये थे. मगर उस समय तो खुद से तैयार हो नहीं पायेंगे तो मौका भी है और मौके की नजाकत भी.
फिर अगर आपको गड़ाया जाना है तो प्लाट, उसकी खुदाई, उसकी पुराई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड आदि आदि. अगर जलाया जाना है तो फर्नेस बुकिंग और ताबूत समेत उसमें ढकेले जाने की लेबर. सारे खर्चे गिनवाये गये. साथ ही आपको ले जाने के लिये ब्लैक लिमोजिन. अभी तक तो बैठे नहीं हैं उतनी लम्बी वाली गाड़ी मे. चलो, उसी बहाने सैर हो जायेगी. वैसे बैठे तो ट्रक में भी कितने लोग होते हैं?
हिट तो ये कि आप हिन्दु हैं और राख वापस चाहिये तो हंडिया का सेम्पल भी है और उसे लकड़ी के डिब्बे में रखकर, जिस पर बड़ी नक्काशी के साथ आपका नाम खोदा जायेगा और आपके परिवार को सौंप दिया जायेगा.
और:
इतने पर भी कहाँ शांति-फूल कौन से चढ़वायेंगे अपने उपर, वो भी आप ही चुनें. गुलाब से लेकर गैंदा तक सब च्वाइस उपलब्द्ध है.
अब जैसी आपकी पसंद वैसा बीमा का भाव तय होगा.
तब से रोज फोन करते हैं कि क्या सोचा?
क्या समझाऊँ उन्हें कि भाई, यह सब आप धरो. हम तो भारत के रहने वाले हैं. समय से कोशिश करके लौट जायेंगे. यह सब हमको नहीं शोभा देता. अपच हो जायेगी.
हमारे यहाँ तो दो बांस पर लद कर जाने का फैशन है, अब कंधा दर्द करे कि टूटे. यह उठाने वाला जाने और उस पर खर्चा भी उसी का. अपनी अंटी से तो खुद के लिये कम से कम इस काम पर खर्च करना हमारे यहाँ बुरा मानते है.
भाई, अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह भी बात-है तो जरा हट के.
आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा. इतना सुनकर सेठ जी ने आँख खोली और कहा कि मेरी चप्प्ल ला दो, मैं खुद ही चला जाता हूँ.
चिट्ठी ही कुछ ऐसी थी. एक बीमा कम्पनी की. लिखा था कि अपने अंतिम संस्कार का बीमा करा लें. पहले बताया गया कि यहाँ अंतिम संस्कार में कम से कम ५००० से ६००० डालर का खर्च आता है और अक्सर तो १०००० डालर भी अगर जरा भी स्टेन्डर्ड का किया. जरा विचारिये कि जब तक आप का नम्बर आयेगा तब तक मुद्रा स्फिति की दर को देखते हुए यह २५००० डालर तक भी हो सकता है.
आगे बताया गया कि आप अपनी मनपसन्द का ताबूत चुनिये, डिजाईनर. जिसमें आप को आराम से रखा जायेगा. कई डिजाईन साथ में भेजे ताबूत सप्लायर के ब्रोचर में थे. सागौन, चीड़ और हाथी दाँत की नक्काशी से लेकर प्लेन एंड सिंपल तक. उसके अन्दर भी तकिया, गुदगुदा गद्दा और न जाने क्या क्या. उदाहरण के लिये यह देखिये अन्दर और बाहर की तस्वीर.
और:
फिर आपके साईज का सूट, जूते आदि जो आपको पहनाये जायेंगे पूरी बामिंग और मेकअप के साथ. मेकअप स्पेशलिस्ट मेकअप करेगी, वाह!! यह तो हमारी शादी में तक नहीं हुआ. खुद ही तैयार हो गये थे. मगर उस समय तो खुद से तैयार हो नहीं पायेंगे तो मौका भी है और मौके की नजाकत भी.
फिर अगर आपको गड़ाया जाना है तो प्लाट, उसकी खुदाई, उसकी पुराई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड आदि आदि. अगर जलाया जाना है तो फर्नेस बुकिंग और ताबूत समेत उसमें ढकेले जाने की लेबर. सारे खर्चे गिनवाये गये. साथ ही आपको ले जाने के लिये ब्लैक लिमोजिन. अभी तक तो बैठे नहीं हैं उतनी लम्बी वाली गाड़ी मे. चलो, उसी बहाने सैर हो जायेगी. वैसे बैठे तो ट्रक में भी कितने लोग होते हैं?
हिट तो ये कि आप हिन्दु हैं और राख वापस चाहिये तो हंडिया का सेम्पल भी है और उसे लकड़ी के डिब्बे में रखकर, जिस पर बड़ी नक्काशी के साथ आपका नाम खोदा जायेगा और आपके परिवार को सौंप दिया जायेगा.
और:
इतने पर भी कहाँ शांति-फूल कौन से चढ़वायेंगे अपने उपर, वो भी आप ही चुनें. गुलाब से लेकर गैंदा तक सब च्वाइस उपलब्द्ध है.
अब जैसी आपकी पसंद वैसा बीमा का भाव तय होगा.
तब से रोज फोन करते हैं कि क्या सोचा?
क्या समझाऊँ उन्हें कि भाई, यह सब आप धरो. हम तो भारत के रहने वाले हैं. समय से कोशिश करके लौट जायेंगे. यह सब हमको नहीं शोभा देता. अपच हो जायेगी.
हमारे यहाँ तो दो बांस पर लद कर जाने का फैशन है, अब कंधा दर्द करे कि टूटे. यह उठाने वाला जाने और उस पर खर्चा भी उसी का. अपनी अंटी से तो खुद के लिये कम से कम इस काम पर खर्च करना हमारे यहाँ बुरा मानते है.
भाई, अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह भी बात-है तो जरा हट के.
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रविवार, सितंबर 02, 2007
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं
सलाहकारों की भूमि-भारत भूमि. मैं गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि मैने ऐसी भूमि पर जन्म लिया. यही पुण्य आदत मेरी भी है. आप मांगे न मांगे, मैं तो हाजिर हो जाता हूँ मुफ्त में सलाह लेकर.
याद आता है जब भारत में रहता था. कार पंचर हो जाये और हमारे सलाहकार मित्र हाजिर. तुमको फलानां टायर लगाना चाहिये और बात बढ़ते बढ़्ते सरकार तक पहुँच जाये कि सड़के बेहतरीन होना चाहिये जैसी अमरीका में होती हैं. अव्वल तो वो कभी अमरीका गये नहीं, उस पर से अगर आप पूछो कि कैसे बनेंगी तो बस इतना ही-हमें क्या करना इससे कि कैसे बनेंगी. सरकार का काम है वो जाने. आप खांसिये तो, छींकये तो, सलाह हाजिर.
आज हमारे मित्रों और शुभचिंतकों की तो कमी नहीं, तब जाहिर सी बात है कि सलाहें भी उसी अनुपात में आती होंगी. मुझे बहुत अच्छा लगता है कि कितना चाहते हैं सब मुझे. कितना ख्याल रखते हैं? कभी तो रात में घबरा कर उठ बैठता हूँ कि अगर मैं भारत का न होता तब तो सलाह के आभाव में क्या से क्या हो गया होता. फिर वंदे मातरम गाता हूँ तब जाकर नींद आ पाती है.
अभी पिछले दिनों नारद की फीड पर हमारी तस्वीर नहीं आती थी. जीतू भाई से बात हुई और उनके कहने पर हमने अपनी तस्वीर भेज दी. उन्होंने तस्वीर लौटती ईमेल से वापस कर दी और साथ मे सलाह कि भाई, आपकी तस्वीर 800 X 600 पिक्सल वाली है. यह नारद पर नहीं चलेगी. 50 x 50 पिक्सल की भेजिये. अब बताईये, हमारी फोटो तो 800 X 600 पिक्सल में भी अगर कोई शातिर फोटोग्राफर सही निशाना साध कर न खींचे तो कहो एकाध बाजू कट ही जाये. 50 x 50 पिक्सल में तो हमारे अंगूठे की फोटो ले लो.
खैर, मित्र की सलाह तो हम टालते नहीं. किसी तरह काट पीट कर सिर्फ चेहरे को छोटा छोटा करते करते 50 x 50 पिक्सल किया, तो करेला उस पर से नीम चढ़ा वाली कहावत एकदम से चरितार्थ होती नजर आई. एक तो भगवान की रचना वैसे ही माशा अल्ला और उस पर यह 50 x 50 पिक्सल की कलाकारी. हमने तो हाथ जोड़ दिये कि जीतू भईया, तस्वीर की जगह ऐसे ही ब्लैक स्पॉट मार दो, मगर हमसे फोटो भेजने को न कहो. तब जाकर वो थोड़ा पसीजे और 100 x 100 पिक्सल पर मान गये. फिर भी जो नतीजा आया वो तो आप हमारी हर फीड पर देख ही रहे हैं.
इसी सदमे से उबरने के लिये हम बैठे ’मासूम’ फिल्म का गाना गा रहे थे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
पूरी राग में आँखों में पानी लिये कि तब तक टिप्पणी के माध्यम से खबर मिली. अपनी ब्लॉग पर तस्वीर बदलिये भाई..यह कौन सी लगा रखी है बेकार सी.
अब उनको क्या बतलाऊँ कि १००/१२५ तस्वीरों में से ढ़ूँढ़ कर सबमे बेस्ट वाली लगाई थी. वो तो यहाँ भी साईज का लफड़ा फंस गया वरना बड़ी खूबसूरत तस्वीर है क्यूट सी. साईज क्या छोटी की कि मानो खूबसूरती ही पिट गई, जैसे ग्रहण लग गया हो. इसी से मेरा तो दुबले होने से मन ही हट गया है. कैसा तो लगता हूँ दुबला छोटा..हम तो यूँ ही ठीक है बकौल गालिब क्यूट से.
यह देखिये पूरी साईज-क्या खूबसूरत और हसीन, कोई भी वाह कर उठे!!!
और यह देखिये, फोटो शॉप में दुबला/छोटा करने पर हुई हालत- ह्म्म्म!!!
मगर अच्छा लगा. मित्र ने ध्यान दिया. यही तो स्नेह है. वरना किसी को क्या लेना देना? आप अपनी बंदर जैसी फोटो लगा लें. चाहने वाले मित्र न होंगे तो लगी ही रह जायेगी, एक सलाह न मिलेगी. लोगों ने लगा ही रखी है. मित्रों के आभाव में टंगी है. हमने सलाह मानते हुए तुरन्त फेर बदल किया. नई तस्वीर खोजी. काटा पीटा और लगा दिया.
यह देखिये, करेंट वाली:
फिर जो एकदम खास मित्र और रहनुमा ने सलाह दी कि इसे जरा ब्राईट कर लिजिये. हमने फोटोशॉप खोली और शुरु हो गये. पता चला कि ऑलरेडी ९९% ब्राईट है. १% की गुंजाईश है फिर फोटो दिखना बंद हो जा रही है. मगर फिर भी उनकी सलाह टाली नहीं जा सकती, इसलिये इस १% की गुंजाईश में भी जो भी बन पायेगा, रविवार तक कर ही दूँगा.
लेकिन यह हमारे दूसरे मित्र की सलाह क्या करुँ? उनका कहना है कलर्ड फोटो लगाईये न..क्या ब्लैक एंड व्हाईट लगाते हैं हर बार.
अब कैसे समझाऊँ तुम्हे हे मेरे सखा!!! यह कलर्ड ही है. बस कुर्ता सफेद पहने हैं बस. बाकि हमारा रंग तो हम कई बार अपने नख शिख वर्णन में आपको बता ही चुके हैं. अब और कैसा कलर.
होली के दिन खिंचवा कर टांग दूँ क्या?
ये होली टाईप की चलेगी क्या कलर्ड में??
हमारा तो दिमाग ही काम करना बंद कर दिया है. कोई सलाह हो तो बताईयेगा जरुर!!
हम तो बस गाना गायेंगे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
तेरे मासूम सवालों से... परेशान हूँ मैं...
परेशान हूँ मैं...
नोट: कृप्या कोई भी सलाहकार मित्र बुरा न माने. यह पोस्ट किसका उपहास करने हेतु नहीं वरन बस मौज मजे के लिये है. बस आप सलाह देना बंद मत करियेगा. हम तो मस्ती लेते ही रहते हैं, आप तो जानते हैं.
याद आता है जब भारत में रहता था. कार पंचर हो जाये और हमारे सलाहकार मित्र हाजिर. तुमको फलानां टायर लगाना चाहिये और बात बढ़ते बढ़्ते सरकार तक पहुँच जाये कि सड़के बेहतरीन होना चाहिये जैसी अमरीका में होती हैं. अव्वल तो वो कभी अमरीका गये नहीं, उस पर से अगर आप पूछो कि कैसे बनेंगी तो बस इतना ही-हमें क्या करना इससे कि कैसे बनेंगी. सरकार का काम है वो जाने. आप खांसिये तो, छींकये तो, सलाह हाजिर.
आज हमारे मित्रों और शुभचिंतकों की तो कमी नहीं, तब जाहिर सी बात है कि सलाहें भी उसी अनुपात में आती होंगी. मुझे बहुत अच्छा लगता है कि कितना चाहते हैं सब मुझे. कितना ख्याल रखते हैं? कभी तो रात में घबरा कर उठ बैठता हूँ कि अगर मैं भारत का न होता तब तो सलाह के आभाव में क्या से क्या हो गया होता. फिर वंदे मातरम गाता हूँ तब जाकर नींद आ पाती है.
अभी पिछले दिनों नारद की फीड पर हमारी तस्वीर नहीं आती थी. जीतू भाई से बात हुई और उनके कहने पर हमने अपनी तस्वीर भेज दी. उन्होंने तस्वीर लौटती ईमेल से वापस कर दी और साथ मे सलाह कि भाई, आपकी तस्वीर 800 X 600 पिक्सल वाली है. यह नारद पर नहीं चलेगी. 50 x 50 पिक्सल की भेजिये. अब बताईये, हमारी फोटो तो 800 X 600 पिक्सल में भी अगर कोई शातिर फोटोग्राफर सही निशाना साध कर न खींचे तो कहो एकाध बाजू कट ही जाये. 50 x 50 पिक्सल में तो हमारे अंगूठे की फोटो ले लो.
खैर, मित्र की सलाह तो हम टालते नहीं. किसी तरह काट पीट कर सिर्फ चेहरे को छोटा छोटा करते करते 50 x 50 पिक्सल किया, तो करेला उस पर से नीम चढ़ा वाली कहावत एकदम से चरितार्थ होती नजर आई. एक तो भगवान की रचना वैसे ही माशा अल्ला और उस पर यह 50 x 50 पिक्सल की कलाकारी. हमने तो हाथ जोड़ दिये कि जीतू भईया, तस्वीर की जगह ऐसे ही ब्लैक स्पॉट मार दो, मगर हमसे फोटो भेजने को न कहो. तब जाकर वो थोड़ा पसीजे और 100 x 100 पिक्सल पर मान गये. फिर भी जो नतीजा आया वो तो आप हमारी हर फीड पर देख ही रहे हैं.
इसी सदमे से उबरने के लिये हम बैठे ’मासूम’ फिल्म का गाना गा रहे थे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
पूरी राग में आँखों में पानी लिये कि तब तक टिप्पणी के माध्यम से खबर मिली. अपनी ब्लॉग पर तस्वीर बदलिये भाई..यह कौन सी लगा रखी है बेकार सी.
अब उनको क्या बतलाऊँ कि १००/१२५ तस्वीरों में से ढ़ूँढ़ कर सबमे बेस्ट वाली लगाई थी. वो तो यहाँ भी साईज का लफड़ा फंस गया वरना बड़ी खूबसूरत तस्वीर है क्यूट सी. साईज क्या छोटी की कि मानो खूबसूरती ही पिट गई, जैसे ग्रहण लग गया हो. इसी से मेरा तो दुबले होने से मन ही हट गया है. कैसा तो लगता हूँ दुबला छोटा..हम तो यूँ ही ठीक है बकौल गालिब क्यूट से.
यह देखिये पूरी साईज-क्या खूबसूरत और हसीन, कोई भी वाह कर उठे!!!
और यह देखिये, फोटो शॉप में दुबला/छोटा करने पर हुई हालत- ह्म्म्म!!!
मगर अच्छा लगा. मित्र ने ध्यान दिया. यही तो स्नेह है. वरना किसी को क्या लेना देना? आप अपनी बंदर जैसी फोटो लगा लें. चाहने वाले मित्र न होंगे तो लगी ही रह जायेगी, एक सलाह न मिलेगी. लोगों ने लगा ही रखी है. मित्रों के आभाव में टंगी है. हमने सलाह मानते हुए तुरन्त फेर बदल किया. नई तस्वीर खोजी. काटा पीटा और लगा दिया.
यह देखिये, करेंट वाली:
फिर जो एकदम खास मित्र और रहनुमा ने सलाह दी कि इसे जरा ब्राईट कर लिजिये. हमने फोटोशॉप खोली और शुरु हो गये. पता चला कि ऑलरेडी ९९% ब्राईट है. १% की गुंजाईश है फिर फोटो दिखना बंद हो जा रही है. मगर फिर भी उनकी सलाह टाली नहीं जा सकती, इसलिये इस १% की गुंजाईश में भी जो भी बन पायेगा, रविवार तक कर ही दूँगा.
लेकिन यह हमारे दूसरे मित्र की सलाह क्या करुँ? उनका कहना है कलर्ड फोटो लगाईये न..क्या ब्लैक एंड व्हाईट लगाते हैं हर बार.
अब कैसे समझाऊँ तुम्हे हे मेरे सखा!!! यह कलर्ड ही है. बस कुर्ता सफेद पहने हैं बस. बाकि हमारा रंग तो हम कई बार अपने नख शिख वर्णन में आपको बता ही चुके हैं. अब और कैसा कलर.
होली के दिन खिंचवा कर टांग दूँ क्या?
ये होली टाईप की चलेगी क्या कलर्ड में??
हमारा तो दिमाग ही काम करना बंद कर दिया है. कोई सलाह हो तो बताईयेगा जरुर!!
हम तो बस गाना गायेंगे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
तेरे मासूम सवालों से... परेशान हूँ मैं...
परेशान हूँ मैं...
नोट: कृप्या कोई भी सलाहकार मित्र बुरा न माने. यह पोस्ट किसका उपहास करने हेतु नहीं वरन बस मौज मजे के लिये है. बस आप सलाह देना बंद मत करियेगा. हम तो मस्ती लेते ही रहते हैं, आप तो जानते हैं.
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