रविवार, जनवरी 30, 2011

मिल लो भोलाराम से…

ये हैं हमारा जबलपुरिया तोताराम. बढ़िया सीटी बजाता है, मिट्ठू बोल लेता है, फोन की घंटी हू ब हू वैसे ही बजाता है जैसे सचमुच फोन आया हो. जब घर के लोग फोन उठाने भागते है तो बस तोताराम की खुशी देखते ही बनती है कि क्या बेवकूफ बनाया. मैंने जब इसका नाम भोलाराम रखा था तो पत्नी ने बताया कि यह तोता नहीं तोती है. उसकी बहन के यहाँ रहता है, उसकी बहन ने ही उसको बताया है.

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अब देखकर हम क्या पहचान पाते कि तोता है कि तोती जब आजकल लड़के लड़कियों में भेद कर पाना ही मुश्किल हो चला है. सुबह हो, दोपहर हो या शाम, लड़के हों या लड़कियाँ. चेहरा पूरा गमछे/स्कार्फ से ढँका, जींस, टी शर्ट और उपर से एप्रोन. स्पोर्टस शूज़ और दस्ताने. सर टोपी से ढका. सब मोटरसाईकिल भी चलाते हैं, स्कूटी भी..भला कोई कैसे पहचानें?

समझ नहीं आता ये सब क्यूँ आखिर? धूप भी नहीं तो भी गमछानुमा कपड़ा लपेटे हैं जैसे कि कॉलेज नहीं, डकैती डालने जा रहे हों कि कोई पहचान न ले.

मित्र की बिटिया से इस विषय में जानना चाहा तो कहती है कि डस्ट और पल्यूशन से स्किन खराब हो जाती है इसलिए ब्यूटी केयर का यह तरीका है.

ऐसी कैसे ब्यूटी की केयर जिसे कोई देख ही न पाये. एक जुमला है beauty lies in the eye of the beholder याने सुन्दरता आपमें नहीं होती देखने वाले की नजरों में होती है .अब जहाँ नज़र दौड़ाओ वहीं गमझा लपेटा चेहरा दिखे तो कैसी ब्यूटी और किसकी नज़र. अब निर्भर करता है कि गमछा कितना सुन्दर है. पैकिंग खुले और अंदर से क्या निकले, कोई गारंटी नहीं.

गारंटी का जमाना रहा नहीं तो भी जीना तो है इसी जमाने में अत: संतोष करने और कोसने को, दोनों के लिए ही पुरानी पीढ़ी अनेक उपाय दे गई है. संतोष करना हो और जिसकी बहु सुन्दर न निकले, तो कहता नज़र आयेगा कि सुन्दरता को चाटना है क्या? वो तो सूरज की रोशनी सी है, दो पल की मेहमान. सुबह आई, शाम चली. काम तो सीरत और संस्कार ही आने हैं. कोसना हो तो कहते नजर आयेगा कि न सूरत, न शक्ल और नखरे ऐसे कि गमछा लपेट कर स्कूटर में फुर्र इधर और फुर्र उधर. घर के काम धाम से तो दूर दूर तक कोई मतलब नहीं.

इसका ठीक उल्टा अगर सुन्दर आ जाये तो कोसने और संतोष करने का इसका ठीक विपरीत डायलॉग रेडीमेड तैयार है.

अब सुन्दरता अगर सूरज की रोशनी ही मान ली जाये तो भी जरा उनसे पूछ कर देखो तो उस ध्रुव के उस भाग में रहते हैं, जहाँ सूरज छः माह तक निकलता ही नहीं, एक किरण के लिए क्या तड़पन होती है, मैने जानता हूँ और उस पर से जब टीवी में दूसरे देश में सूरज निकलते तस्वीर दिखती है तो सांप लोट जाता है जिगर पर.

एक अनुपात में सब कुछ हो तो ही बेहतर.

ना अति बरखा ना अति धूप।
ना अति बकता ना अति चूप।।

जाने बात कहाँ की कहाँ चली गई. बात चली थी जबलपुरिया तोताराम से. एक वाकया याद आया कि मेरे मित्र के पिता जी को बहुत शौक था कि ऐसा तोता पालें जो बोलता हो. सलाहकारों के इस देश में आप विचार तो करके देखो, सलाह देने वाले हजार हाजिर हो जाते हैं. किसी ने बताया कि जिस मिट्ठू के गले में लाल रंग का छल्ला बना हो, उसे लालमन तोता कहते है, वो बोलता है. वही खरीदियेगा.

बस, फिर क्या था. हमारे मित्र के पिता जी एक दिन एक ठेले वाले सेखरीद लाये लाल रंग के छल्ले वाला लालमन तोता ३०० रुपये का और साथ में ८०० रुपये का पिंजरा और जाने क्या क्या.

फिर रोज उसको सिखाये-बेटा बोलो, राम राम!! वो बोलने को बिलकुल भी न तैयार. हफ्ते भर बाद उसे नहलाया गया तो लाल छल्ला गुम. वो ठेले वाला पेन्ट करके बेच गया था. ठगे से बेचारे लालमन की जगह साधारण तोता लिए बैठे रहे और मृत्युपर्यंत उनकी आँखें उस ठेले वाले को खोजती रहीं.

कई बार विचार आता है कि ऐसा ही कुछ स्नान अपने नेताओं को करवाने का इन्तजाम चुनाव के पहले होना चाहिये ताकि पता तो चले कि सच के लालमन हैं कि रंगे हुए.

फिर लगता है कि सब किस्मत की बात है. अब इसे ही देखो-ये मेरा भोलाराम न तो तोता है और न लालमन फिर भी बोल लेता है मगर खाने में शौक काजू बदाम का ही है नेताओं टाईप क्या किया जाये.

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नोट:

यह शायद भारत से अंतिम पोस्ट इस बार के लिए. २ को जबलपुर से और ४ को भारत से प्रस्थान. अब कनाडा पहुँच कर फिर लिखते हैं भारत यात्रा के कुछ रोचक किस्से और भी बहुत कुछ जो पिछले दिनों देखा, अहसासा, जेहन में दर्ज किया मगर समयाभाव में लिखा नहीं.

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गुरुवार, जनवरी 27, 2011

ये चाँद कैसे कैसे!!!

दीनानाथ, हमारा ड्राईवर.

उसका बेटा चोरी के इल्जाम में,जेल में एक साल की सजा काट रहा है।  . दीनानाथ का मानना है कि झूठा फँसाया है पुलिस ने उसे.

पिछले ह्फ्ते दीनानाथ ने बताया कि उसकी बहु रात गये चुपचाप भाग गई. कुलच्छनी थी. दीनानाथ का कहना है कि उसे शुरु से ही उसके चाल चलन ठीक नहीं दिखते थे.

परसों वो लौट आई. पता लगा कि उसके पिता जी की तबीयत एकाएक खराब हो गई. दीनानाथ जाने न देता सो वो चुपचाप बिना बताये ही चली गई.

आज दीनानाथ की लड़की भाग गई. कहता है कि गऊ है. गली के नुक्कड़ वाला धोबी का लड़का फुसला कर भगा ले गया. दुष्ट नहीं तो!!!

 

रात वही,

बात वही

चाँद ये 

अलग सा ऊग आया

और

देखो,

बात ……..

कितनी बदल जाती है.....

 

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, जनवरी 24, 2011

ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है:आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे

देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में शिक्षविद मनीषी एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे का उदबोधन:

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भाई समीर लाल जी ’समीर’ के सद्य प्रकाशित ग्रंथ ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी को सुशोभित कर रहे परम सम्मानीय श्रद्धास्पद प्रोफेसर ज्ञानरंजन जी, भाई समीर लाल जी की जो लाली है, उस लाली के केन्द्र बिन्दु वो लाली जहाँ से आती है फूल सब देखते हैं लेकिन फूल का मूल जिससे वो आभा चमक है उसके मूल परम सम्मानीय श्री पी.के.लाल साहब, आज के इस कार्यक्रम को संचालित कर रहे, यहाँ के युवाओं के चेतना केन्द्र हमारे परम प्रिय भाई गिरीश बिल्लोरे जी, आज के इस कार्यक्रम के एक और केन्द्र बिन्दु बिल्लोरे जी के सहयोगी भाई गिरीश जी के सहयोगी डॉ विजय तिवारी जी और लाल साहब की इस विचार यात्रा की जो साधना है उस साधना की केन्द्र बिन्दु माननीय साधना जी, माननीय अलिनि श्रीवास्तव जी, यहाँ पर विराजमान माननीय श्री श्रवण दीपावरे जी, श्री श्याम गुप्ता जी, श्री लाल साहब के बचपन के मित्र श्री कथूरिया जी, श्री द्वारका गुप्त जी, श्री गुलुश स्वामी जी, बवाल जी और माननीय मुख्य अतिथि जी के बोलने के बाद जो स्वयं अपने आप में आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतने प्रामाणिक पुरुषार्थ के स्वयं प्रतीक हों, जो एक व्यक्ति के रुप में नहीं एक संस्था के रुप में विराजमान हों और जिनका मंगल आशीष मिल जाये, उनके कुछ कहने के बाद कुछ शेष नहीं रहता है. जहाँ उनकी उपस्थिति हो वहाँ निश्चित रुप से हम सबको गौरव होता है कि उनके साथ हमें कुछ क्षण बिताने का अवसर मिले. उनका साहचर्य प्रेरणादायी होता है वहाँ उनकी उपस्थिति में जिनके हम आशीर्वदा है जिनसे आशीष प्राप्त करते हैं उनके सामने कुछ कहना बहुत कठिन स्थिति है किन्तु भाई समीर लाल जी ने समय के सीने पर अपनी सोच से सत्य की जो सड़क बनाई है उसकी स्तुति के लिए मुझे उपस्थित होना ही था और यह मेरा धर्म भी है और कर्तव्य भी है इसलिए मैं उपस्थित हूँ.


ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है.


आपकी आज्ञा हो तो ज्वेल्स हैनरी का एक कथन मुझे स्मरण आ रहा है ’यदि समझना चाहते हो कि परिवर्तन क्या है, सामाजिक परिवर्तन क्या है, और अपना आत्मगत परिवर्तन क्या है, तो अपने समय और समाज के बारे में एक किताब लिखो’ ऐसा ज्वेल्स हैनरी ने कहा. ये पुस्तक इस बात का प्रमाण है कि कितनी सच्चाई के साथ और कितनी जीवंतता के साथ और कितनी आत्मीयता के साथ समीर लाल ने अपने समय को, अपने समाज को, अपनी जड़ों को, जिगरा के साथ देखने का साहस संजोया है.


ये कृति कनाडा से भारत को देख रही है या भारत की दृष्टि से कनाडा को देख रही है विशेषकर कनाडा में बसे प्रवासी भारतीयों को, ये दो बिन्दु हैं. कनाडा में रहकर भी वो अपने भारत को एक एक घटनाओं में देख रहे हैं चाहे वो ट्रेफिक पुलिस वाला हो, चाहे वो पुरोहित की बात हो, चाहे वो साधु संत की बात हो, और चाहे कुछ भी हो बहुत बेबाकी से और बहुत ईमानदारी के साथ जिसमें कल्पना भी है, जिसमें विचार भी है, और जैसा अभी संकेत किया माननीय ज्ञानरंजन जी ने कि ये केवल एक उपन्यासिका भर नहीं है, कभी कभी लेखक जो सोच कर लिखता है जैसा कि भाई गुलुश जी ने कहा था कि ५ घंटे साढ़े ५ घंटे में लेकिन ये साढ़े ५ घंटे नहीं हैं साढ़े ५ घंटे में जो मंथन हुआ है उसमें पूरा का पूरा उनके बाल्य काल से लेकर अब तक का और बल्कि कहें आगे वाले समय में भी, आने वाले समय को वर्तमान में अवस्थित होकर देखने की चेष्टा की है कि आने वाले समय में समाज का क्या रुप बन सकता है उसकी ओर भी उन्होंने संकेत दिया है तो वो समय की सीमा का अतिक्रमण भी है, और उसी तरीके से विधागत संक्रमण भी है, जिसमें आप देखते हैं कि वह संस्मरणीय है, वह उपन्यास भी है, वह कहीं यात्रा वृतांत भी है और कहीं रिपोर्ताज जैसा भी है कि रिपोर्टिंग वो कर रहे हैं एक एक घटना की तो ये सारी चीजें बिल्कुल वो दिखाई देती हैं और आरंभ में ही जब वो कहते हैं कि (प्रमोद तिवारी जी की पंक्तियाँ)
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं


तो जब वो बात कहते हैं तो उनके पगों के द्वारा वो नाप लेते हैं जैसे कभी बामन ने तीन डग में नापा था ऐसा कभी लगता है कि एक डग इनका भारत में है, और एक चरण उनका कनाडा में है और तीसरा चरण जो विचार का चरण है उस तीसरे चरण .......इन तीन चरणों से वो नाप लेते हैं निश्चित रुप से जब वो बूढ़े बरगद की याद करते हैं जब वो मिट्टी के घरोंदों की याद करते हैं, जब वो जलते हुए चूल्हे की याद करते हैं और उन चूल्हों पर बनने वाले सौंधे महक से भरे हुए पराठों की याद करते हैं तो निश्चित रुप से लगता है कि उड़न तश्तरी जिसनें भी यह नाम दिया हो उन्होंने स्वयं चुना होगा तो निश्चित रुप से वो उड़न तश्तरी है जो इस लोक से जैसे कनाडा से इधर और इधर से उधर तक और तीसरी चीज जो दिखाई नहीं देती दृष्यमान नहीं है तीसरी बराबर यह है और प्रवासी भारतीयों की पीड़ा झलक उठती है जब वो, क्यूँकि मूलतः वो कवि भी हैं तो जब परदेश पर वो लिखते हैं दो लाईन पढ़ना चाहता हूँ
परदेस, देखता हूँ तुम्हारी हालत,
पढ़ता हूँ कागज पर,
उड़ेली हुई तुम्हारी वेदना,
जड़ से दूर जाने की...


तो जड़ से दूर हो जाने की जो वेदना है परदेश में जाकर बराबर वो देखते हैं और जितने भी सारी चीजें हैं चाहे वो वीक एण्ड का चोचला हो, जो उन्हें व्यथित करता है, वीक एण्ड आप लोग अपने घर में, अपने मित्रों के साथ क्यूँ नहीं मनाना चाहते, क्या थकान मिटाने के लिए अपनों से जाना दूर है, या बूढ़े माता पिता को लेकर के बड़े प्रसन्न होते हैं कि हमारे बेटे ने विदेश में हमें बुलाया है लेकिन बुलाया इसलिए है कि उसे वहाँ नौकरों का आभाव है और उसी लिए अपने बूढ़े माता पिता को वो नौकरों के स्थापन्न रुप में वो बुला रहे हैं तो कितनी मार्मिकता के साथ, जैसा अभी सम्मानीय ज्ञान जी ने कहा कि इसके अंदर केवल व्यंग्य भर नहीं है जो अन्तर्वेदना है और जो त्रासदी की बात उन्होंने की थी वो त्रासदी कम से कम आगे जाकर के वो प्रकट होना चाहिये- त्रासदी की बात वो बहुत बड़ी बात है.


निश्चित रुप से मैं एक बात उल्लेख करना चाहूँगा जो कृतिकार ने अंत में कही है कि मैं लिखता तो हूँ मगर मेरी कमजोरी है कि मैं पूर्ण विराम लगाना भूल जाता हूँ. मुझे लगता है कि यह उनकी सहजोरी है कमजोरी नहीं है कि पूर्ण विराम लगाना भूल जाते हैं यह कृति में पूर्ण विराम नहीं है. आप पूर्ण विराम लगाना ऐसे ही भूलते रहिये ताकि कम से कम वो वाक्य पूरा नहीं होगा क्य़ूँकि जो कथ्य है जो भाव है जो आप कहना चाहते हैं वो आगे भी गतिमान रहेगा, मैं समीर लाल जी अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ और बधाई देता हूँ और इस उत्तम आयोजन के लिए, इस वैचारिक यात्रा के लिए आयोजकों को बधाई देता हूँ और मुझे इतना सम्मान दिया कि सम्मानीय ज्ञान जी, सम्मानीय श्री पी. के. लाल साहब के साथ बैठ कर उनके साहचर्य का मुझे सुख दिया है वो वर्णनातीत है आप सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आप सबके श्रीचरणों में अपना नम्र प्रमाण निवेदित करता हूँ. धन्यवाद.

यहाँ सुनें:

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गुरुवार, जनवरी 20, 2011

मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं: श्री ज्ञानरंजन जी: ‘देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर

सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी के मुख्य आथित्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ हरि शंकर दुबे की अध्यक्षता में समीर लाल ’समीर’ के उपन्यास ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन हुआ. विमोचन समारोह की विस्तृत रपट एवं चित्र यहाँ क्लिक करके देखें.

आज आपके समक्ष इस अवसर पर श्री ज्ञान रंजन का अभिभाषण:

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भाई समीर लाल और उपस्थित मेरे मित्रों

मुझे खुशी है कि समीर लाल के परिचय और उनकी कृति के बहाने मुझे कुछ टूटी फूटी बातें कहने का अवसर मिला. हमारे पास समय नहीं था. यह आयोजन सपाटे से तय हुआ. आप सब समीर लाल के प्रति अपनी चमकीली आत्मीयता के कारण एकत्र हुए हैं. मैने भी जल्दबाजी में ये बातें इसलिए तैयार कर लीं कि कहीं यह गलत संदेश न जाये कि मैं उम्रदराज, सुस्त और लद्धड़ हूँ. मैं समीर लाल का स्वागत करता हूँ पर अपनी बातें भी उसमें कहूँगा.

मैने उपन्यास या नावलेट को शीघ्रता मे लगभग चलते चलते पढ़ा है. इसलिए कुछ चीजें छूटी होंगी-अगर गंभीर आंकलन न किया जा सके तो यह लेखक के प्रति किंचित अन्याय भी हो सकता है. मेरे पास कुछ थोड़ी सी बातें हैं जो आप सब लोगों की प्रतिक्रिया और टिप्पणियों को जोड़कर मूल्यवान धारणा बन सकती हैं. अन्ततः किसी भी कृति के बारे में समवेत स्वर ही स्वीकृत होता है. हमारी चर्चा एक प्रकार की शुरुआत है. इसलिए इसको मेरा क ख ग घ ही माना जाये.

छोटे उपन्यासों की एक जबरदस्त दुनिया है. द ओल्ड मैन एण्ड द सी, कैचर ऑन द राईड, सेटिंग सन, नो लांगर ह्यूमन, त्यागपत्र, निर्मला, सूरज का सातवां घोड़ा आदि. एक वृहत सूची भी संसार के छोटे उपन्यासों की बन सकती है. छोटे उपन्यासों की शुरुआत भी बड़ी दिलचस्प है. स्माल इज़ ब्यूटीफुल एक ऐसा मुहावरा या जुमला है. विश्व की छोटी वैज्ञानिक कारीगरियों और सृजन के छोटे आकारों को वाणी देता हुआ लेकिन समाज, सौंदर्य और इतिहास के विशाल दौरों में एक कारण यह भी था कि वार एण्ड पीस, यूलिसिस और बाकज़ाक के बड़े उपन्यासों ने जो धूम मचाई उसके आगे बड़े आकार के अनेक उपन्यास सर पटक पटक मरते रहे. ये स्थितियाँ छोटे उपन्यासों की उपज के लिए बहुत सहज थीं. हिन्दी में गोदान, कब तक पुकारुँ, शेखर एक जीवनी, बूँद और समुद्र, मुझे चाँद चाहिये के बाद पिछले एक दशक में ५० से अधिक असफल बड़े उपन्यास लिखे गये. और अब छोटे उपन्यासों की रचने की पृष्टभूमि बन गई है. छोटा हो या बड़ा, सच यह है कि वर्तमान दुनिया में उपन्यासों का वैभव लगातार बढ़ रहा है. यह एक अनिवार्य और जबरदस्त विधा बन गई है.पहले इसे महाकाव्य कहा जाता था. अब उपन्यास जातीय जीवन का एक गंभीर आख्यान बन चुका है. समीर लाल ने इसी उपन्यास का प्रथम स्पर्श किया है, उनकी यात्रा को देखना दिलचस्प होगा.

समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है.

मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते. मुझे लगता है कि ब्लॉग एक नया अखबार है जो अखबारों की पतनशील चुप्पी, उसकी विचारहीनता, उसकी स्थानीयता, सनसनी और बाजारु तालमेल के खिलाफ हमारी क्षतिपूर्ति करता है, या कर सकता है. ब्लॉग इसके अलावा तेज है, तत्पर है, नूतन है, सूचनापरक है, निजी तरफदारियों का परिचय देता है पर वह भी कंज्यूम होता है. उसमें लिपि का अंत है, उसको स्पर्श नहीं किया जा सकता. किताबों में एक भार है-मेरा च्वायस एक किताब है, इसलिए मैंने देख लूँ तो चलूँ को उम्मीदों से उठा लिया है. किताब में अमूर्तता नहीं है, उसका कागज बोलता है, फड़फड़ाता है, उसमें चित्रकार का आमुख है, उसमें मशीन है, स्याही है, लेखक का ऐसा श्रम है जो यांत्रिक नहीं है.

आईये यह देखते हैं कि सृजन के छोटे से दायरे में समीर लाल का उपन्यास-देख लूँ तो चलूँ किस तरह एक आधुनिक बिम्ब बनाता है. मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं. यह उपन्यास मुझे उपन्यास और ट्रेवेलॉग का मिलाजुला रुप लगता है. एक तरह की यात्रा हाईवे पर इसमें होती है. छोटी छोटी मोटर यान से यात्रा. और इसी के मध्य उधेड़बुन, मानसिक टीकाएं, विचार और आलोचना, प्रतिक्रियाएं जो गंतव्य तक चलती रहती हैं. साथ साथ स्थानीय चित्र हैं, जीवन की झलकियाँ हैं. गंतव्य में एक लीक पर समाप्त होने वाला धार्मिक पाखंड कर्मकांड है, पारिवारिक भी है या मित्रवती. यह भारत देश में भी आम दृष्य है और परदेस में भी एक सिकुड़ा हुआ खानापूरी करने वाला प्रपंच. अब इसी के इर्द गिर्द यात्रा में उपजते विचार हैं, व्यंग्य हैं- यह एक सर्वसाधारण हिन्दु प्रवासी दृष्य है. प्रवासी भारतीय की, विशेष रुप से जो पश्चिमी संसार में हैं, उनकी यह राम कथा है. वह उथलपुथल होती निर्माण और संघार की नई संस्कृति, सागर में अपनी डोंगी न डालकर, मुख्यधाराओं में न शामिल होकर एक झूठे, समय बहलाऊ, चलताऊ जीवन की रामकथा में शामिल होता रहता है. एक विशाल वैज्ञानिक जगमगाते, स्पंदित फलक के बीच जिन्दगी की सारी ऊष्मा जर्जर वर्णाश्रम धर्म के कर्मकांड में डूब जाती है वर्णाश्रम का व्याकरण और भाषा की शुद्धता भी जहाँ फूहड़ बन गई है.

देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. ५० वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है. भूमंडल खौफनाक बदलाव से गुजर रहा हो. हममें धर्म, भाषा, शिल्प, विशेष पहचानें सब गर्क हो रही हैं. इसलिए राम कथा, सत्यनारायण कथा का एक व्यंग्यार्थ इस नावलेट में झलकता है.

समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म है,  बलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है. हमारे देश को पैसा, रोजगार, समृद्धि तो चाहिये पर उससे कहीं ज्यादा दूसरी चीजें चाहिये. इस बात को समीर लाल अच्छी तरह जानते हैं इसलिए वे लिखते हैं हर बार भारत छोड़ने के बाद कुछ दिन असहज रहता हूँ पर फिर मानव हूँ अपनी दुनिया में रम जाता हूँ. इसमें एक ही शब्द पर मुझे आपत्ति है और वह है मानव. मानव को मजबूर मानना इसलिए उसी दुनिया में रम जाना, एक कमजोर घोषणा है और अधूरी भी. प्रवासी की ट्रेजड़ी यह है कि प्रवास को स्थायित्व में नहीं बदल पाता और इस प्रकार अपने देश में भी एक विश्रंख्ल प्राणी ही रह जाता है. इसका कारण यह है कि उसकी वृहत्तर सांसारिक या देशीय चिन्तायें नहीं है. उसकी चिन्ता तालमेल की है यह दो नावों का या कितनी ही नावों का तालमेल है जो अंततः असंभव है. उपन्यास में ऊब और निरर्थकता के पर्याप्त संकेत हैं.  निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं. स्वयं उपन्यास में समीर लाल ने लिखा है कि बहुत जिगरा लगता है जड़ों से जुड़ने में. समीर लाल सत्य के साथ हैं, उन्होंने प्रवास में रहते हुए भी इस सत्य की खोज की है जबकि वहीं अनेक कवि प्रवासी दिवस पर फूहड़, निस्तेज, झूठी कविताएं सुनाते हैं मंच पर. ये दृश्य ही समीर लाल के मजबूत शब्द और वाक्य हैं, इनके आगे एक ऐसी राह है जिसमें अगला उपन्यास लिखा जा सकता है और जिसमें व्यंग्य कम होगा और त्रासदी ज्यादा. उपन्यास का उत्तरार्ध क्रमशः गमगीनी में बदलता है, उसमें शोक आता है, उस पर अभी मैं विचार नहीं कर पा रहा हूँ कभी आगे.

मेरे लिए अभी बहुत संक्षेप में, आग्रह यह है समीर लाल का स्वागत होना चाहिए. उन्होंने मुख्य बिंदु पकड़ लिया है. उनके नैरेशन में एक बेचैनी है जो कला की जरुरी शर्त है.

यह अच्छी बात है कि अनेक देशों में, प्रवासी भारतीय लिखने की तरफ मुड़ रहे हैं. अंग्रेजी के जबरदस्त वर्चस्व के बीच वे अपनी भाषा को बचा रहे हैं, उसे समृद्ध कर रहे हैं, ऐसे अनुभवों से जो सिर्फ प्रवासियों के पास ही है. यह हमारी भाषा के वर्तमान का एक नया पहलू है. प्रवासी शीत के पक्षियों की तरह लौट रहे हैं. उनमें पहचान की तड़प पैदा हुई है लेकिन गंभीर और शानदार वापसी तभी होगी जब वे डूबते हुए भारत के गणतंत्र और संस्कृतिक बहुलता की वृहत्तर चिंताएं करेंगे. रामकथा, वर्णाश्रम धर्म और सिकुड़ते हुए सुरक्षा कवच से उन्हें बाहर आना होगा.

समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.

अंत में मैं आपको एक सुखद उदाहरण भी देना चाहूँगा. पं. मदन मोहन मालवीय के पोते, मेरे सहपाठी और मित्र लक्ष्मीधर मालवीय ५० साल से जापान में हैं. वे बड़े निबंधकार, आलोचक, कथाकार और फोटोग्राफर हैं. वहां रहते हुए उन्होंने इलाहाबाद की गलियों, उसमें बोली जाने वाली बोली को कभी नहीं भुलाया. वे मुहावरे और बोलियों वाली भाषा का उपयोग करते हैं, लिखते हैं. बड़े लेखक हैं, उनकी किताबें दिल्ली के प्रकाशकों से आई हैं. वे रिसर्चर भी हैं. जापानी पत्नी को हिन्दी सिखाई, अपने बच्चों को हिन्दी सिखाई, और वे धारा प्रवाह बोलते हैं. जापानी, अंग्रेजी, संस्कृत में मर्मज्ञ होने के बावजूद हिन्दी स्वीकार की. आज भी हमारी टेलीफोन पर बातें अवधी में होती हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी भाषा की रक्षा जीवन और संस्कृति की रक्षा होती है.

समीर लाल को दोबारा मैं कोट करना चाहूँगा कि ’बड़ा जिगरा चाहिए जड़ से जुड़े रहने में’.

 

इस अभिभाषण को यहाँ सुनिये:

 

 

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पुस्तक के प्रकाशक:

शिवना प्रकाशन
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