हजारों विचार. सीमित शब्दकोष फिर भी भरपूर उबाल. तो शुरु हुई रचना प्रक्रिया लेखन की. ढली एक गज़लनुमा कविता. अगर पूरी बहर में निकले तो गज़ल वरना गीत तो है ही. आदतानुसार मँहगे शब्दों से भयवश दूरी अतः हल्के फुल्के शब्द, गहरे भाव. .
From समीर अपनी बात कहते |
वो देखो कौन बैठा, किस्मतों को बांचता है
उसे कैसे बतायें, उसका घर भी कांच का है.
नहीं यूँ देखकर मचलो, चमक ये चांद तारों सी
जरा सा तुम संभलना, शोला इक ये आंच का है.
वो मेरा रहनुमा था, उसको मैने अपना जाना था,
बचा दी शह तो बेशक, शक मगर अब मात का है.
पता है ऐब कितने हैं, हमारी ही सियासत में
मगर कब कौन अपना ही गिरेबां झांकता है.
यूँ सहमा सा खड़ा था, कौन डरके सामने मेरे
जरा सा गौर से देखा, तो चेहरा आपका है.
चलो कुछ फैसला लेलें, अमन की फिर बहाली का
वो मेरे साथ न आये, जो डर से कांपता है.
थमाई डोर जिसको थी, अमन की और हिफाजत की
उसी को देखिये, वो देश को यूँ बांटता है.
दिखे है आसमां इक सा, इधर से उस किनारे तक
न जाने किस तरह वो अपनी सरहद नापता है.
कफ़न है आसुओं का और शहीदों की मज़ारें है
बचे है फूल कितने अब, बागबां ये आंकता है.
-समीर लाल ’समीर’
जब यह सब टाइप करने बैठे तो साथ ही पीछे से अपने मित्र बवाल लगे अपनी आदतानुसार ताका झांकी करने. हमने पूछा भी कि भई ,क्या बात है, कुछ बात जंची भी या नहीं. जाने किस किस मूड में तो रहता है वो भी. लगता है उस समय अमीर खुसरो या मीर तकी ’मीर’ मोड में रहा होगा और उर्दु का जानकार तो है ही एक बेहतरीन गायक और गज़लकार होने के साथ साथ. कैसे पचा ले इतनी सरलता से. इसीलिये मैं उन महिलाओं से हमेशा कहता हूँ जिनके पतियों को खाना बनाना नहीं आता कि तनिक भी दुखी न हो बल्कि तुम तो बड़ी सुखी हो. कम से कम पतिदेव ये तो नहीं कहते कि फलाना मसाला कम है या ठीक से भूना नहीं. जो परोस दो वो ही बेहतरीन.
बस, बवाल ने भी निकाली अपनी उर्दु की तरकश, गज़ल ज्ञान का तलवार और लगे गाते हुए नये नये अंदाज में पैंतरें आजमाने और जुट गये विकास कार्य में. तब जो गज़ल निकल कर आई और उन्होंने गाई, भाई वाह. आप भी पढ़ें और बतायें कि क्या विचार बनता है इस पर:
From बवाल की बात |
वो जो बेदार बैठा, क़िस्मतों को बाँचता हैगा
उसे टुक ये बता दे, उसका घर भी काँच का हैगा
मचलना मत, चमक ये देखकर के, चाँद तारों की
सम्भलना पर, सम्भलना शो'ला ठंडी आँच का हैगा
फ़ित्नापरवर हैं सब रहबर, हमारी इस सियासत के
मगर अब कौन ख़ुद का भी गरेबाँ, झाँकता हैगा
वो मेरा रहनुमा था, उसको मैंने अपना जाना था
बचा दी शह तो बेशक, शक मगर अब मात का हैगा
थमाई डोर जिसको थी अमन की, और हिफ़ाज़त की
उसी को देखिये, वो मुल्क को यूँ काटता हैगा
दीखे है आसमाँ यकसा, इधर से उस किनारे तक
न जाने किस तरह वो मेरी सरहद, नापता हैगा
वो दरकारे-जनाज़ा थी, जो चिलमन आपकी सरकी
वगरना आपका हमसे ही कितना, वास्ता हैगा ?
कफ़न हैं आँसुओं के और मज़ारें, हैं शहीदों की
बचेंगे फूल कितने बाग़बाँ ये, भाँपता हैगा
जो गै़रत की वजह से, चश्मे-पुरनम सामने आया
ज़रा सा गौ़र फ़रमाया तो चेहरा, आपका हैगा
हाँ डटकर फैसला करलें अमन की, ख़ुश बहाली का
वो मेरे साथ न आए जो डर से, काँपता हैगा
बवाल इस बात पर है के ये क़ीमत, 'लाल' की कम है
तो तय करके बता दें, वो हमें क्या, आँकता हैगा
शब्दार्थ :-
बेदार= सचेत, हैगा= है, फ़ित्नापरवर= षड्यंत्रकारी,
दरकारे-जनाज़ा = शवयात्रा में शामिल हो जाने की चाह
चिलमन = परदा, गै़रत = स्वाभिमान
लाल = रत्न