मंगलवार, जून 30, 2009

ॐ जय बेनामी देवा!!!

आजकल पूरे ब्लॉगजगत में बेनामियों का तहलका है. बिना नाम के मन मर्जी अनाप शनाप, अच्छी बुरी जैसा जी आया, टिप्पणी कर गये, अब आप आपस में लड़ते रहो. वो बीच बीच में आकर हवन सामग्री और घी डालते रहेंगे. न जाने उनके पक्ष विपक्ष में, उनसे बचने के उपायों पर कितने आलेख लिखे जा चुके, सब बिना किसी हल के ही रहे. कोई भी एकदम सफल और कारगर उपाय बताने में असक्षम रहा. कुछ तो उन्हें पकड़ने के लिए अभी भी जाल बिछाये बैठे हैं मगर हाथ लग रहा है वही सिफर.

बचपन से समझाया गया है कि जब कोई रास्ता न दिखे तो बस, ईश्वर की शरण में चले जाओ. खूब आरती भजन पूजन में मन लगाओ, कुछ न कुछ हल भगवान दिखा ही देगा. उसके पास और कोई काम भी क्या है, बाकी तो सब इन्सानों ने उससे छीन ही लिया है.

बस, उन्हीं संस्कारों की गठरी बाँधे हम तो शुरु हो गये हैं-दिन में दो बार पूरे झाम से बेनामी याने बिन नामियों की आरती उतारने में. बड़ा फायदा लग गया है. अतः, विचारा कि आम जन की साहयतार्थ स्वामी समीरानन्द जी के आश्रम से यह आरती सब लोगों तक पहुँचाई जाये.

बेनामी महाराज!!

चाहें तो इस रिकार्डिंग को अपने ब्लॉग पर लगा लें और सुबह शाम बजा दिया करें या जैसे ही कम्प्यूटर ऑन करें, इसे गाकर फिर ब्लॉगलेखन में जुटें, निश्चित फायदा मिलेगा. फायदे का वादा वैसा ही है जैसा मानसून को बुलाने और गरमी को भगाने जगह जगह आरतियों और यज्ञों के पंडाल से किया जा रहा है इस वक्त भारत में. कितनी जगह तो इन आरतियों के प्रताप से मानसून बड़ी सून आ गया और बाकी जगह भी आ ही जायेगा. मानो कि आरती न होती तो मानसून आता ही न!! जय हो!!

तो नीचे आरती सुनिये, पढ़िये, समझिये, गुनिये और गुनगुनाईये. धुन और आवाज इलाहाबद के एक पंडे से कॉपी करने की कोशिश की है: :)




ॐ जय बिन नामी देवा, स्वामी जय बे नामी देवा
तुमको पकड़ न पाये, गुगल की सेवा.

ॐ जय बिन नामी देवा....

क्म्प्यूटर के जोधा, करते हैं धंधे
तुमको खोज सके न, हो गये वो अंधे

ॐ जय बिन नामी देवा....

तुम नर हो या नारी, सब अनुमान करें
ब्लॉगजनों मे हर कोई, हर पल खूब डरें

ॐ जय बिन नामी देवा....

कितनी मेहनत करके, टिप्पणी हो करते
फिर काहे को अपना, नाम नहीं धरते.

ॐ जय बिन नामी देवा....

तेरी सब पर नजरें, तुम से कौन बचा
ब्लॉगजगत में कितना, तुमसे विवाद मचा..

ॐ जय बिन नामी देवा....

तुम हो अगम अगोचर, कभी नहीं थकते
किस बिधि बचूँ दयामय, गाली तुम बकते.

ॐ जय बिन नामी देवा....

तुमसे उसने सीखा, कैसे बात करें
कुछ न कुछ तो कह दें, काहे मौन धरें...

ॐ जय बिन नामी देवा....

तुम हो ज्ञान के सागर, अपना ब्लॉग लिखो
छुप कर के क्या जीना, खुल कर खूब दिखो!!

ॐ जय बिन नामी देवा....



-समीर लाल ’समीर’

निवेदन:
.कोई भक्त अगर इसे करयोके पर मय ढपली, मंजिरा और शंखनाद आदि के संग गाये तो कृप्या रिकार्डिंग आश्रम तक भी पहुँचाये और साथ ही स्वामी समीरानन्द का क्रेडिट भी लगा देगा तो स्वामी जी प्रसाद स्वरुप टिप्पणियों की मानसून का वादा करते हैं.

. यदि किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँची हो तो कृप्या बेनामी टिप्पणी न करें, हम तो पहले ही क्षमा मांग लेते हैं. :) Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जून 28, 2009

किस बात का गुस्सा? कहीं कोई भय तो नहीं?

पहली मंजिल की खिड़की पर बैठा बैकयार्ड में बगीचा देख रहा हूँ. मौसम बहुत सुहाना लग रहा है.

विज्ञान ने यह संभव कर दिया है कि मौसम चाहे कैसा भी गरम या ठंडा क्यूँ न हो, आप अपने घर का तापमान अपने मन के अनुरुप ढाल कर बाहर शीशे से निहारें और प्रसन्न रहें. क्या फरक पड़ता है बाहर के तापमान से, जब कमरे में ही बैठे रहना हो.

ऐसी सुविधा विज्ञान ने तन के लिए दी और हम ऐसे आदी हुए कि मन नें भी वही आदत बना ली. तन की संगत का असर होगा. कहते हैं न कि संगत अपना प्रभाव छोड़ ही देती है. अब तो कौन कितनी तकलीफ में है या खुश हैं, उससे मन न तो विचलित होता है और न खुश. मायने रखता है तो बस इतना कि क्या हम पर दुख गिरा है या हमें खुशी मिली है. बस, वही कमरे का तापमान. सब कुछ उसी भी निर्भर है. हीटिंग ऑन कर दी तो गरम और कूलिंग चालू तो ठंडा. कितना गरम हो या कितना ठंडा, सब अपने ही हाथ तो है. अखबार की खबरें मात्र शब्द बन कर रह गई हैं. कोई अन्तर नहीं पड़ता. संवेदनाऐं मृत प्राय हो चली है.

खिड़की से देखता हूँ कि सेब के पेड़ में नये फूल आ गये है. कल यही फूल फल बन जायेंगे-मीठे मीठे लाल लाल सेब. एक स्वास्थयवर्धक और स्वादिष्ट फल. तभी एक काली, नारंगी रंग की मिली जुली चिड़िया जंगल से उड़ कर यहाँ चली आई है. सुना है उसे मैने बोलते. घर के बाजू में जंगल है. अक्सर टहलने जाते समय देखा है इस प्रजाति को. बहुत सुन्दर गाती है, बेहद मीठा. जंगल में टहलते, सामने ओन्टारियो लेक से आती शीतल बयार और उसके साथ इसका गायन, मन को आहलादित कर देता है. आज पहली बार उसे अपने बगीचे में देख रहा हूँ.

जंगल से आई: चिड़िया

न जाने किस बात का गुस्सा है. सारे सेब के फूल नोंच नोंच कर बिखराती जा रही है. बीच बीच में दो तीन और चिड़िया भी आ जाती है. कुछ इस तहस नहस में उसका साथ देती है. कुछ जोर जोर से चूँ चूँ कहती लड़ती हैं. शायद इनको समझा रही होंगी कि क्यूँ नुकसान कर रही हो? क्यूँ तोड़ रही है इन नई आती कलियों को और फूलों को? कुछ सब्र करो, फल तो आ जाने दो, तब खा लेना. पेड़ खुद खुशी खुशी खिलायेगा. पेड़ अपने फल खुद तो खाता नहीं, तुम्हारे लिए ही तो हैं. फिर ऐसी क्या नाराजगी कि तुम फूलों को ही खत्म किये दे रही हो.

समझाती होगी कि देखो, यही फूल हैं जिस पर आकर भ्रमर बैठेगे, गुनगुनायेंगे इस पेड़ से उस पेड़. साथ ही झील से आती पावन पवन भी इसके फूलों से पराग अपने साथ बहा कर दूसरे पेड़ तक ले जायेगी और नव सृजन होगा. नये पेड़ होंगे, नये फूल आयेंगे. नये फल होंगे. कितना खुशहाल वातावरण होगा.

कहती होगी कि अगर तुम फूलों का ही नाश कर दोगी तब फिर यह सब कैसे संभव हो पायेगा. नव सृजन ही रुक जायेगा. ये पेड़ भी पूरे परिपक्व होने के पहले ही खत्म हो जायेंगे. सूख कर बस ठूंठ. विचारो मित्र, हर तरफ बस ठूंठ ही ठूंठ. तुम्हारा तो सीमित जीवन है. अब तक उपलब्ध पेड़ पौधों से कट जायेगा पर आने वाली भावी पीढ़ियाँ, तुम्हारे बच्चे..उनका क्या होगा. वो क्या खायेंगे और कहाँ चहकेंगे?

मगर वो माने तब न!! अपने सुन्दर गाने का ऐसा दंभ, ऐसा धमंड कि फूलों की सुन्दरता कैसे बरदाश्त हो. बस, मिटा गई दिन भर में बगिया के दोनों सेब के पेड़.

अब उसमें इस बरस सेब नहीं आयेंगे. क्या पता आने वाले साल में भी आते हैं या नहीं. कल उन हरे भरे पेड़ों की जगह मेरी सुन्दर बगिया में भी ठूंठ होंगे. सोच कर ही दिल दहल जाता है. कितने प्यार से सींचा, संजोया था इस बगिया को. सब बस उस पागल चिड़ियों के दंभ के चलते मिट गया. वो तो वैसे भी जंगल में रहती थी और रह ही रही है, उसे क्या जरुरत आन पड़ी थी इस करीने से सजी बगिया में. शायद जंगल में अपनी पहचान ठीक से काबिज न कर पा रही हो या इस सुन्दर बगिया से घबरा गई हो कि इस बगिया के रहते भला जंगल में कौन आयेगा हरियाली निहारने और उसके गीत सुनने.

कैसे समझाऊँ उसे कि तुम्हारी महत्ता तुम्हारी जगह है ही और अगर बगिया में आती हो तो भी स्वागत करने सब फूल पत्ती फल खुला दिल लिए खड़े ही हैं फिर ऐसी क्या नाराजगी?

आज मुझे जंगली चिड़ियों की भाषा न आ पाने का बहुत दुख हुआ. काश, भाषा समझता होता तो मैं उनका मनतव्य तो जान लेता और उसके अनुरुप ही, उनमें न सही अपनी बगिया में ही कुछ बदलाव या सुधार कर लेता.

तो हे कलमपीरों, हे तथाकथित साहित्यकारों!! हमें दुख है कि हम आपकी भाषा नहीं बोल पाते, हम आपकी भाषा नहीं समझ पाते हैं!! हमारी अपनी छोटी सी बगिया है. नये पौधे रोपें जा रहा हैं. बड़े प्यार से उन्हें सींचा जा रहा है. स्नेह से दुलराकर बड़ा किया जा रहा है. कुछ में फूल भी आने लगे हैं. कुछ तो फलदायी वृक्ष भी हो गये हैं. स्वागत आपका भी है इस बगिया मे.

आप तो ज्ञानी हैं इसलिये भले हम न समझ पायें, आप तो हमारी बात समझ ही जायेंगे. बस!! अपने अहंकार पर काबू पा लिजिये और अपने दंभ को किनारे रख कर आईये. हम तो आपके आने से लाभांवित ही होंगे मगर, यह तहस नहस कैसी? कैसी यह नाराजगी? क्यूँ फूलों को नोंच ले रहे हैं. क्या पा लेंगे इससे? कहीं यह अपना असतित्व खो जाने का भय या इसी तरह की कुंठा तो नहीं?

ऐसा मत करों वीरों. याद है न वो ठूंठ वाली दुनिया. क्या आप वैसी दुनिया चाहते हो!!

चलिये, ऐसा कर लिजिये कि अगर नव-आगंतुको को उत्साहित करने से आपका कद घटता हो तो कम से कम हतोत्साहित न करिये.

वैसे, चलते चलते एक बात और बता दूँ, सेब का पेड़ भारत में लगे, जंगल में लगे या फिर विदेश में-सेब तो सेब ही होता है.मीठे मीठे लाल लाल सेब. एक स्वास्थयवर्धक और स्वादिष्ट फल.

ऐसे ही तो हैं?

नोट: अभी पिछले दिनों किसी कवि की कविता को लेकर किसी वरिष्ट साहित्यकार ने बहुत हंगामा खड़ा किया था कि उन्हें कविता लिखना नहीं आती, फिर भी लिख रहे हैं. फिर, दो-चार दिन पहले किसी वरिष्ट साहित्यकार द्वारा विदेशों में किये जा रहे हिन्दी लेखन को दौ कौड़ी का घोषित कर देना मन दुखी कर गया और उपरोक्त भाव उभरे. Indli - Hindi News, Blogs, Links

बुधवार, जून 24, 2009

कुछ विल्स कार्ड और...

दो रोज पहले हॉस्टल के मित्र, जो उस जमाने में मेरा रुम मेट हुआ करता था, का पत्र प्राप्त हुआ भारत से. बड़ा आश्चर्य का विषय था कि आज के जमाने में कोई पत्र लिखे. ईमेल से काम चला जा रहा है. लेकिन उसने मेरे ब्लॉग पर विल्स कार्ड पर उतरी बातें पढी और फिर यह पत्र भेजा.

(याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......)

जाने कब और किस मूड में लिखे मेरे कुछ कार्ड उसके पास रखे हुए थे, वही उसने पत्र के माध्यम से भिजवाये. सोचता हूँ ऐसा कुछ खास था भी नहीं उसमें, फिर भी बस याददाश्त बतौर शायद रखे रहा होगा सहेज कर. इतने सालों से सहेजे इन चन्द कागज के टुकड़ों को अपने से अलग करते क्या अहसासा होगा उसने. एक टीस तो उठी होगी. मैं तो भूल भी चुका था फिर क्यूँ उसने वो मुझे वापस भेजा.बस सोच रहा हूँ. बरसों बीते उससे मुलाकात हुए भी. बहुत यादें जुड़ी हैं उस समय के साथ, उन प्यारे दोस्तों के साथ बम्बई की सड़के नापते, सारा समय अपना, अपनी मौज.

क्या भूलूँ क्या याद करुँ को चरितार्थ करता.

ज्यादा नहीं लिखता. भावुकता जकड़ने लगती है फिर उससे उबरने की जद्दोजहद, तो इतना ही लिख वो विल्स कार्ड नोट्स पेश कर देता हूँ.




-१-

कल मैं नहीं रहूँगा..

यह तय है..

रहोगे तो तुम भी नहीं..

फिर ये अकड़ कैसी ?



-२-

कब्र पर

खारे आंसूओं का सबब

कुछ अनकही बातें

और

अपूर्ण वादों का पाश्चाताप.



-३-

वो नहीं रहे...

अति दुखद..

रहोगे तो तुम भी नहीं..

ऐसा कुछ कर जाओ

कि कोई तो कहे..

अति दुखद!!


-४-

एक आम आदमी मर गया...

क्या आंसूं बहाना....

वो तो मरा ही पैदा हुआ था!!



-५-

वो मर गया

चलो,

आज उसका शरीर फूँक आयें...

आत्मा तो अपनी

उसने सालों पहले ही फूँक दी थी...

-नेता था हमारा!!


-६-

( बम्बई के छोटे से फ्लैट में रह रहे मेरे दोस्त के दादा जी मृत्यु पर मेरे दोस्त की माता जी के व्यक्तव के आधार पर-आज का भौतिकवाद)

बाबू जी नहीं रहे!!

हमारे परिवार की बगिया को

बिन माली कर गये....

बस, तसल्ली इतनी है कि

कमरा खाली कर गये!!


-७-

मेरी कलम से

निकलते

वो

नीले आँसूं

बरबस ही

खींच लाते हैं

तेरी आँखों से

वो

पनीले आँसूं

जो

लुढ़क कर

जब जा मिलते हैं

मेरी कलम के

उन नीले आँसूंओं से

तब छा जाता है

एक धुंधलका सा

अपने साथ लिए

सन्न सन्नाटा

और

गहरी उदास उदासी!!



-समीर लाल ’समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जून 21, 2009

आप जलूल आना.....चोनू!!

जिन्दगी का सफ़र भी कितना अजीब है. रोज कुछ नया देखने या सुनने को मिल जाता है और रोज कुछ नया सीखने. पहले भी इसी पहलु पर कुछ सीखा था और आज नया सीखा.

पता चला कि दफ्तर की महिला सहकर्मी का पति गुजर गया. बहुत अफसोस हुआ. गये उसकी डेस्क तक. खाली उदास डेस्क देखकर मन खराब सा हो गया. यहीं तो वो चहकती हुई हमेशा बैठे रहती थी. यादों का भी खूब है, तुरन्त चली आती हैं जाने क्या क्या साथ पोटली में लादे. उसकी खनखनाती हँसी ही लगी गुँजने कानों में बेवक्त. आसपास की डेस्कों पर उसकी अन्य करीबी सहकर्मिणियाँ अब भी पूरे जोश खरोश के साथ सजी बजी बैठी थी. न जाने क्या खुसुर पुसुर कर रहीं थी. लड़कियों की बात सुनना हमारे यहाँ बुरा लगाते हैं, इसलिए बिना सुने चले आये अपनी जगह पर. हालांकि मन तो बहुत था कि देखें, क्या बात कर रही हैं?

जो भी मिले या हमारे पास से निकले, उसे मूँह उतारे भारत टाईप बताते जा रहे थे कि जेनी के साथ बड़ा हादसा हो गया. उसका पति गुजर गया. खैर, लोगों को बहुत ज्यादा इन्टरेस्ट न लेता देख मन और दुखी हो गया. भारत होता तो भले ही न पहचान का हो तो भी कम से कम इतना तो आदमी पूछता ही कि क्या हो गया था? बीमार थे क्या? या कोई एक्सीडेन्ट हो गया क्या? कैसे काटेगी बेचारी के सामने पड़ी पहाड़ सी जिन्दगी? अभी उम्र ही क्या है? फिर से शादी कर लेती तो कट ही जाती जैसे तैसे और भी तमाम अभिव्यक्तियाँ और सलाहें. मगर यहाँ तो कुछ नहीं. अजब लोग हैं. सोच कर ही आँख भर आई और गला रौंध गया.

हमारे यहाँ तो आज मरे और गर सूर्यास्त नहीं हुआ है तो आज ही सूर्यास्त के पहले सब पहुँचाकर फूँक ताप आयें. वैसा अधिकतर होता नहीं क्यूँकि न जाने अधिकतर लोग रात में ही क्यूँ अपने अंतिम सफर पर निकलते हैं. होगी कोई वजह..वैसे टोरंटो में भी रात का नजारा दिन के नजारे की तुलना में भव्य होता है और वैसा ही तो बम्बई में भी है. शायद यही वजह होगी. सोचते होंगे कि अब यात्रा पर निकलना ही है तो भव्यता ही निहारें. खैर, जो भी हो मगर ऐसे में भी अगले दिन तो फूँक ही जाओगे.

मगर यहाँ अगर सोमवार को मर जाओ तो शनिवार तक पड़े रहो अस्पताल में. शानिवार को सुबह आकर सजाने वाले ले जायेंगे. सजा बजा कर सूट पहना कर रख देंगे बेहतरीन कफन में और तब सब आपके दर्शन करेंगे और फिर आप चले दो गज जमीन के नीचे या आग के हवाले. आग भी फरनेस वाली ऐसी कि ५ मिनट बाद दूसरी तरफ से हीरा का टुकड़ा बन कर निकलते हो जो आपकी बीबी लाकेट बनवाकर टांगे घूमेगी कुछ दिन. गज़ब तापमान..हड्ड़ी से कोयला, कोयले से हीरा जैसा परिवर्तन जो सैकड़ों सालों साल लगा देता है, वो भी बस ५ मिनट में.

साभार: गुगल

खैर, पता लगा कि जेनी के पति का फ्यूनरल शनिवार को है. अभी तीन दिन हैं. घर आकर दुखी मन से भाषण भी तैयार कर लिया शेर शायरी के साथ जैसा भारत में मरघट पर देते थे. शायद कोई कुछ कहने को कह दे तो खाली बात न जाये इतने दुखी परिवार की. बस, यही मन में था और क्या.

शुक्रवार को दफ्तर में औरों से पूछा भी कि भई, कितने बजे पहुँचोगे? कोई जाने वाला मिला ही नहीं. बड़ी अजीब बात है? इतने समय से साथ काम कर रहे हैं और इतने बड़े दुखद समय में कोई जा नहीं रहा है. हद हो गई. सही सुना था एक शायर को, शायद यही देखकर कह गया होगा:

’सुख के सब साथी, दुख का न कोई रे!!’

आखिर मन नहीं माना तो अपने एक साथी से पूछ ही लिया कि भई, आप क्यूँ नहीं जा रहे हो?

वो बड़े नार्मल अंदाज में बताने लगा कि वो इन्वाईटेड नहीं है.

लो, अब उन्हें फ्यूनरल के इन्विटेशन का इंतजार है. हद है यार, क्या भिजवाये तुम्हें कि:

’भेज रही हूँ नेह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें बुलाने को,
हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाने आने को.’

हैं? मगर बाद में पता चला कि वाकई उनका फ्यूनर है STRICTLY ONLY BY INVITATION याने कि निमंत्रण नहीं है तो आने की जरुरत नहीं है.

गजब हो गया भई. तो निमंत्रण तो हमें भी नहीं आया है. फिर कैसे जायेंगे. कैसे बाँटूं उसका दर्द. हाय!!

सोचा कि शायद इतने दुख में भूल गई होगी. इसलिये अगले दिन सुबह फोन लगा ही लिया. शायद फोन पर ही इन्वाईट कर ले. चले जायेंगे. भाषण पढ देंगे. दो बूँद आँसूं बहा कर कँधा आगे कर देंगे कि वो भी सर रख कर इस दर्द भरी घड़ी में हल्की हो ले. इन्सानयित का तकाज़ा तो यही कहता है और इसमें अपना जाता भी क्या है. कँधा कोई शक्कर का तो है नहीं कि उस दुखिया के आँसूओं से गल जायेगा.

पता चला कि ब्यूटी पार्लर के लिए निकल गई है फ्यूनरल मेकअप के लिए. भारतीय है तो थोड़ा गहराई नापने की इच्छा हो आई और जरा कुरेदा तो पता चला कि ब्लैक ड्रेस तो तीन दिन पहले ही पसंद कर आई थी आज के लिए और मेकअप करवा कर सीधे ही फ्यूनरल होम चली जायेगी. कफन का बक्सा प्यूर टीक का डिज़ायनर रेन्ज का है फलाना कम्पनी ने बनाया है और गड़ाने की जमीन भी प्राईम लोकेशन है मरघटाई की. अगर इन्विटेशन नहीं है तो आप फ्यूनरल अटेंड नहीं कर सकते हैं मगर अगर चैरिटी के लिए डोनेशन देना है तो ट्रस्ट फण्ड फलाने बैंक में सेट अप कर दिया गया है, वहाँ सीधे डोनेट कर दें एण्ड एक स्पेशल हिदायत, स्वाईन फ्लू के चलते, कृप्या फ्लावर्स न भिजवायें. स्वीकार्य नहीं होंगे.

हम भी अपना मूँह लिए सफेद कुर्ता पजामा वापस बक्से में रख दिए और सोचने लगे कि अगर हमारे भारत में भी ऐसा होता तो भांजे का स्टेटमेन्ट भी लेटेस्ट फैशन के हिसाब से निमंत्रण पत्र में जरुर रहता:

"मेले मामू को छनिवाल को फूँका जायेगा. आप जलूल आना....चोनू" Indli - Hindi News, Blogs, Links

रविवार, जून 14, 2009

गज़ल मुझसे रुठी है..

पिछले तीन हफ्तों से हर हफ्ते तीन चार दिन बाहर जाना हो रहा है. मौका ही नहीं लग पा रहा है कि ब्लॉगजगत की बहुत सुध ली जाये मगर फिर भी प्रयास जारी है. अगला हफ्ता फिर व्यस्त है. उसके बाद शायद कुछ राहत हो. अभी दो हफ्ते पहले कैलिफोर्निया यात्रा के दौरान इन प्यारे तोताराम जी से मुलाकात हुई और कुछ बात हुई.

तोताराम

कैद!!


कुछ सोच की
आसमानी सरहदें..
कुछ अनुभव के
नुकीले किनारे..

कुछ सामाजिक मर्यादाओं की
चहारदीवारियाँ..
कुछ कुटुम्बीय मान्यताऐं
मानिंद खेत की मेढ़ें..

कुछ व्यक्तिगत व्यवहारजनित
मान्यताऐं..

इन सबके भीतर
सिमटता हुआ
इक
मेरा जहाँ..

और

मैं

उस जहाँ को सोचता हूँ!!

-कैद में कौन कब खुश रहा है?






अहमियत!!


उपर से चौथी पंक्ति में
बायें से तीसरा शब्द
दायें से गिनों
तो पाँचवां
और नीचे से हिसाब लगायें
तो
सातवीं पंक्ति..

ये वो जगह है
जहाँ बहर टूटी है
और
गज़ल मुझसे रुठी है..

कितनी अहमियत है
हर स्थल की!!!


-समीर लाल 'समीर'



एक जरुरी सूचना: मेरी पुस्तक ’बिखरे मोती’ जीतने का सुनहरा मौका

आप कविता लिखते हैं और हिन्दी ब्लॉगरों के बीच ख़ास मुकाम बनाना चाहते हैं? आप कविता के अच्छे पाठक हैं, कविताओं की समालोचना में यक़ीन रखते हैं। तो हिन्द-युग्म की यूनिकवि एवं यूनिपाठक प्रतियोगिता के जून 2009 अंक में भाग लीजिए और उपहार स्वरूप ले जाइए मेरी नवीनतम प्रकाशित कविता-संग्रह 'बिखरे मोती' की एक प्रति। अंतिम तिथि- 15 जून 2009। अधिक जानकारी के लिए यहाँ देखें।


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मंगलवार, जून 09, 2009

कमबख्त, पसीने की बू नहीं जाती!!!

कमरे में वापस आ गया हूँ. दिन थकान भरा रहा हमेशा की तरह.

गगनचुंबी इमारत की गगन के पास वाली फ्लोर.

यह है टोरंटो की 'क्वीन्स के' नामक सड़क पर..ओन्टारियो लेक से सटी हुई अभिजात्य रहवासी कॉलोनी.


टोरंटो



कल रात यहीं तो इसी कमरे में मैं और लिंडा बैठे थे वाईन सुड़कते हुए, एक दूसरे से सटे हुए भारत की हालत पर बात कर रहे थे. एक निहायत थकी हुई बात. यहाँ के हिसाब से बेबात की बात.

हाँ, पिछले साल ही तो मैं और लिंडा भारत गये थे. लिंडा पहली बार भारत गई थी कितनी ही किताबें पढ़कर, मुझसे सुन कर और तस्वीरें देखकर ख्वाब सजाये. उन्हें सच होता देखने.

यहाँ से दिल्ली तक का थकाऊ २२ घंटे का हवाई सफर-बैठे बैठे. बीच में पेरिस के ४ घंटे का अल्प विराम कैसे गुजरा टर्मिनल बदलते कि पता ही नहीं चला कि कहीं रुके भी.

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही गर्म हवा का भभका और साथ घुली पसीने की खुशबू-(लिंडा उसे बदबू की संज्ञा दे गई-बेवकूफ!!)

फिर रेल में जबलपुर और आगे सिवनी के पास गांव तक की रोडवेज की यात्रा. लगा कि कहाँ आ गये. सब तरफ उड़ती धूल..उधड़ी सड़कों पर चलते..हवा में गोबर की महक. लिंडा की गोरी चमड़ी देख ग्रमिणों की अचरज भरी आंखें और अपनी ओर ध्यानाकर्षण करवाने विचित्र भाव भंगिमा बनाते लोग.

मैं भी बिना ज्यादा चले थका हुआ साथ चलता रहा एक खीज, एक घृणा का दायरा अपने आसपास साधते..कैसे लोग हैं बिल्कुल अनपढ़...एकदम लिंडा जैसी सोच हो गई मेरी भी. २१ दिन की यात्रा..तालाब के किनारे मंदिर. बरगद के नीचे सिंदूरी पत्थर याने हनुमान जी-बुझी हुई अगरबत्तियो की जलती खुशबू. कोई सार्थकता नहीं बस एक निष्ठ भाव. भूली हुई पुरानी यादों का साक्षी, जो मुझे न जाने क्या क्या याद दिला जाता है और लिंडा नाक पर रुमाल रखे पास से आती पैशाब और पैखाने की बदबू से एक हारी लड़ाई लड़ती हुई और मैं उस हवा की महक में अपना बचपन अहसासता.

बस, एक दिन में ही २१ दिन की यात्रा १५ दिन में बदल गई.

मै भी भारत की स्थितियों की बुराई करते हुए उसी के साथ वापस आ गया. उसी शाश्वत झिड़कन के साथ कि यह हालात कभी नहीं सुधरेंगे जबकि भीतर से मैं ही जानता था कि कितना कुछ बदल चुका है.

मगर लिंडा तो अपने जेहन में बसे किताब वाला भारत, दूध दही की नदियों वाला भारत, सोने की चिड़िया वाला भारत, दुनिया के माथे की बिंदिया वाला भारत, जान से प्यारा मेहमान को मानने वाला भारत और न जाने कौन कौन सा भारत खोज रही थी. वो नाक पर रुमाल रखे तलाशती थी उस भारत को जिसके दामन से आने वाली हवाओं को सलाम करने का जी चाहता है वो उसे कहाँ दिखाता? उसे कैसे बताता कि यही वो दामन से उठने वाली हवा है, यही वो माहौल है जो मुझे वापस बुलाता है..मुझे मेरा अतीत याद दिलाता है. मुझे मेरा अपना लगता है. मेरा दिल इन्हें ही सलाम करने को मचलता है. वो नहीं समझेगी.

आज खिड़की के नजदीक जाता हूँ..इतने उपर..सामने आकाश..सामने तैरता ओन्टारियो लेक..मानो जैसे लेक नहीं महासागर हो. खिडकी से सट कर सड़क देखता हूँ तो लगता है कि सड़कों पर कारें नहीं हजारों चिटिंया कतार बनाये घूम रही हैं.

बचपन में गांव के खेत में लाल चीटीं की बांबि पर पैर रख दिया था अनजाने में. सब पैर पर चढ़ गईं थी और जी भर के काटा. मैं रोने लगा था तब माँ ने पुचकारते हुए उस पर घी और नमक मिला कर लगाया था तब जाकर जलन कम हुई थी... मन में सिरसिरी सी चढ़ जाती हैं. अचकचा कर खिड़की से दूरी बना लेता हूँ. गोड़ झटक लेता हूँ, तब थोड़ा ठीक लगता है. आँख पोंछ कर देखता हूँ, न जाने कहाँ से आज फिर एक नमी सी है बस पुचकारने वाला कोई नहीं. घी नमक लगाने वाला कोई नहीं. मैं और बस मैं-निपट अकेला.

सब मन की उड़ान है.

आज से मुझे, न जाने क्यूँ, लिंडा अच्छी नहीं लगती. अब नहीं मिलूँगा उसे.

लगता है कि अभी मर जाऊँ इतने उपर की मंजिल में..तो जितना समय इस फ्लोर से जमीन तक जाने में लगेगा..उतने ही समय में ही उपर पहूँच जाऊँगा.. आधा रास्ता तय कर लिया है अपनी जड़ों को छोड़ कर.

मन नहीं मानता..दराज खोल लेता हूँ..१३ साल पहले भारत छोड़ते समय टीका लगाते हुए माँ ने लिफाफा दिया था....उसे आज खोलता हूँ...१०१ रुपये हैं - १०० का नोट और १ का सिक्का. यह कह कर कि रास्ते के लिए रख ले. क्या पता कब काम आ जाये. सच, अभी रास्ते में ही हूँ..देखो, आज आ ही गया. माँ की फिर से याद हो आई. लिफाफे ने उनके होने का अहसास दिया. पैर में जलन कुछ राहत पा गई.

आँख भर आई है. उठ कर बाथरुम में आ गया हूँ..आईना देखता हूँ ..मैं दिखता हूँ उसमें. आँख मे नमी लिए. मगर खुद से आँख मिलाने की हिम्मत कहाँ....सर झटक देता हूँ...यथार्थ में लौटने के लिए.

कमरे में वापस आ जाता हूँ.

मैं तो अब भारतीय ही नहीं रहा...मगर यहाँ का भी तो नहीं हो पाया. ब्राउन स्किन्ड, हाऊ कैन यू बिकम व्हाईट स्किन्ड गाय!!!

ए सी कमरे में मैं घबरा कर अदबदाया सा पसीने में भीग जाता हूँ.. पसीने की बू..काँख से उठती हुई.. वही..गांव वाली....

कमबख्त..पसीने की बू नहीं बदलती...क्या करुँ? क्यूँ नहीं जाती यह..कोलोन और महक वाले साबुन..सब इस्तेमल कर लिए...!! और फिर मैं तो भारत में रहता भी नहीं. इतने साल हो गये यहाँ रहते..शायद ये मेरे खून में रची बसी है. मेरे साथ ही जायेगी.

नाईट सूट गड़ने लगता है. न जाने क्यूँ..आज लूँगी न होने की कमी खली.

वरना घुटने तक उसे खींचें अधलेटा सा मसनद टिकाये पड़ा रहता, पिता जी की तरह जब वो टूर से थक कर लौटते थे. मैं भी तो बहुत थक गया हूँ. कितना दूर चला आया हूँ.

वाईन का गिलास!! इसे बदल देता हूँ स्कॉच से. वो ज्यादा स्ट्रांग होती है. शायद कुछ बेहतर अहसास दे. एक भ्रम ही सही मगर और रास्ता भी क्या है?

मैं फिर स्कॉच का गिलास लिये खिड़की पर खड़े उस आईलेन्ड को निहारने लगता हूँ जिसे लोग सेन्ट्रल आईलेण्ड कहते हैं.

टोरंटो का मुख्य आकर्षण केन्द्र. दिन भर सेलानियों का फेरी से आने जाने का तांता लगा रहता है.

चारों तरफ सिर्फ पानी मगर फिर भी अपना जमीनी अस्तित्व बरकरार रखे हुये लोगों को आकर्षित करता!!

लेकिन मेरा अस्तित्व, उसे मैं बरकरार नहीं रख पाया और न ही मुझमें अब कोई आकर्षण शेष रहा!!!

यही हाल होता है अपनी जड़ों से दूर-उपर से महकती क्लोन की खुशबू और भीतर से उठती पसीने की वही गांव वाली बू!!

दोनों की मिली जुली गंध- तेजाब से तीखी गंध का भीतरी अहसास-जो सिर्फ मैं महसूस कर सकता हूँ. उस गंध की जलन से मेरी आँखें जलने लगती हैं और बह निकलती है एक अविरल अश्रुधारा.

ऐसे आँसू, जो किसी को नहीं दिखते. दिखती है तो सिर्फ मेरी वो मुस्कराहट और आती है सिर्फ मेरे उस कोलोन की खुशबू, जिसमें दफन किये फिरता हूँ अपने इन आँसूओं को और उस गांव वाली पसीने की बू को. Indli - Hindi News, Blogs, Links

सोमवार, जून 08, 2009

मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाऊँगा....

आज सुबह सुबह एक हृदय विदारक दुखद समाचार मिला.

एक सड़क दुर्घटना में मंच के लोकप्रिय कवि ओम प्रकाश आदित्य, नीरज पुरी और लाड सिंह गुज्जर का निधन हो गया और ओम व्यास तथा ज्ञानी बैरागी गंभीर रूप से घायल हुए हैं. सभी विदिशा से भोपाल एक इनोवा द्वारा म.प्र. संस्मृति विभाग द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में भाग ले कर वापस आ रहे थे.

एक शोक सूचना और- वरिष्ठ रंग-कर्मी हबीब तनवीर का भोपाल में ८६ वर्ष की उम्र में निधन हो गया. रंगमंच की एक महत्वपूर्ण कठपुतली को जगत-नियंता ने अपने पास वापस बुला लिया.

हबीब तनवीर जी, आदित्य जी, नीरज पुरी जी, और लाड सिंह गुज्जर जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

और

ओम व्यास तथा बैरागी जी शीघ्र स्वास्थय लाभ की कामना.

वाकई, आज का दिन "मंच" पर वज्रपात का दिन है.

आदित्य जी



नीरज पुरी जी




लाड सिंह गुज्जर जी



हबीब तनवीर जी



जब जब ख्याल आता है तो आदित्य जी की यह रचना उनकी विशिष्ट स्वर लहरी में कानों में गुँजने लगती है.


दाल रोटी दी तो दाल रोटी खाके सो गया मैं
आँसू तूने दिये आँसू पीये जा रहा हूँ मैं
दुख तूने दिये मैने कभी न शिकायत की
सुख दिये तूने सुख लिए जा रहा हूँ मैं
पतित हूँ मैं तो तू भी पतित पावन है
जो तू कराता है वही किए जा रहा हूँ मैं
मृत्यु का बुलावा जब भेजेगा तो आ जाऊँगा
तूने कहा जिये जा तो जिये जा रहा हूँ मैं

बचपन में खिलौने, जवानी में जोश
और बुढ़ापे में आदमी का धन साथ देता है
संपत्ति में साथ देने तो हजारों आ जाते हैं
विपत्ति में प्रभु का मनन साथ देता है
तन स्वस्थ रहे तो ये मन भी न होता पस्त
मन मस्त रहे तो ये तन साथ देता है
हिम्मत के हथियार हाथ से जो खिसके तो
तन साथ देता है न मन साथ देता है.


-बस, आज इतना ही. अगर इस रचना को आदित्य जी की आवाज में सुनने का मन हो तो यू ट्यूब पर यहाँ सुनें. Indli - Hindi News, Blogs, Links