बुधवार, सितंबर 29, 2010

मैं, अंधेरों का आदमी!!!

बचपन, खेल खेल में जुगनू पकड़ कर शीशी में बंद कर लिए. ढक्कन में एक छेद भी बनाया कि वो सांस ले सकें. सुबह को देखता था उन जुगनुओ को. कोई चमक न दिखती तो बंद अलमारी के अंधेरे में ले जाकर देखता. रात तीन बंद किये थे, अब बस एक चमकता था धीरे धीरे. वहीं अलमारी में उनको रखकर जब देर शाम लौटा तो उनमें से कोई भी नहीं चमकता था. सुबह उठकर देखा, तीनों मर गये. आज रात फिर नये पकड़ूंगा, सोच कर उनको बोतल से निकाल कर बाहर फेंक दिया.

बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये. छेद भी किया ढक्कन में सांस के वास्ते. सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं.

कुछ यादों के जुगनू तुम्हारे खतों की शक्ल में डायरी में मोड़ कर रख दिये थे. अब अंधेरा हैं. वो चमकते नहीं, अलमारी के भीतर भी नहीं. हालांकि अलमारी के भीतर हो या बाहर, क्या फरक पड़ता है. अँधेरा तो बराबर से है. ट्यूब लाईट की रोशनी कई बार चीख चुकी मगर ये जिद्दी अँधेरा, हटता ही नहीं. डटा है जस का तस.

सबने लूटा जहां मेरा
फिर भी कोई कहाँ मेरा...

-खोजता फिरता हूँ पता उसका...

अँधेरे में बस यूँ ही टटोलते. कुछ हाथ नहीं आता.

कुछ टेबल से गिर कर टूटा अभी छन्न से. वो कहती कि कांच का टूटना अशुभ होता है.

मैं सोचता गिलास टूटा है, कांच तो कभी टूटता नहीं, बस, रुप बदल जाता है. टुकड़े टुकड़े. होता फिर भी कांच ही है. वो भला कब टूटा है. फिर क्या शुभ और क्या अशुभ. मैं भी टूटा कब, बस टुकड़ो में बटा.

वस्ल कहते हैं:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

तब एक शायराना ख्याल:

सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...

झपट कर कुछ पकड़ा तो है. हाथ आया मुट्ठी भर और अँधेरा. एक टुकड़ा अँधेरा और जुड़ गया हिस्से में मेरे.

डायरी से निकाल कुछ मुर्दा खत उस अँधेरी आग के हवाले कर देता हूँ. कुछ नई यादें पकड़ूंगा फिर से. कुछ मरे जुगनू मिले, चमकते ही नहीं. मरे जुगनू चमका नहीं करते. एक खत हाथ लगा. लिखती हो ’खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे’. एक चमक बाकी हैं कहीं. सब कुछ लुट जाने पर भी एक उम्मीद की किरण, हल्की हल्की चमकती, सांस तोड़ती. अब शाम का इन्तजार भी नहीं. सपने मर रहे हैं.

अबकी नासमझी है कि खुदा के चाहने से कुछ होगा. खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार. सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे. आज वायदा बाजारी में सौदागरों का महत्व है, उन्हीं का बोलबाला, सौदे का नहीं. आर्टिफिशियल कमोडिटी की चमक दूर तक जाती है.

अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.

एक कविता लिखूँगा तेरे नाम की आज शाम और शीर्षक रखूँगा-अँधेरा.

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झपट कर पकड़ता हूँ

हवा से

कुछ....

फिर

जोड़ लेता हूँ

एक मुट्ठी

अंधेरा और...

अपनी जिन्दगी के खाते में...

-मैं, अंधेरों का आदमी!!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 26, 2010

एक अलग अनुभव...

दो हफ्ते पहले एक मित्र का फोन आया कि एक हिन्दी सीरियल बना रहा हूँ, जरा आ जाना, कुछ बात करना है. वैसे वो पहले भी यहाँ फिल्म वगैरह बना चुका है. मौका देख कर पहुँचे उसके दफ्तर तो हाल चाल लेने के बाद उसने एक साउन्ड ट्रेक सुनाया और एक गीत. फिर कहा इस नेसल (नाक की) टोन के साथ एक गीत लिख दो तो वो काम आ जाये. मैने कहा कि भाई, किसी प्रोफेशनल से लिखा ले, मेरा ऐसा अनुभव नहीं है, जबरदस्ती इसके चक्कर में पूरा मामला ही न फ्लॉप हो जाये.

मगर न उसे मानना था, न माना. जिद पकड़ली कि कुछ तो लिखो. नहीं पसंद आयेगा तो फिर किसी और को ट्राई करेंगे. फिर चाय का दौर चला और मैं अपना लेपटॉप लिए कुछ कुछ टाईप करने की कोशिश करता रहा और वो फोन पर किसी के साथ सीरियल की रुपरेखा बनाने में व्यस्त था. चाय खत्म होते होते, मैंने कुछ पंक्तियाँ उसे दीं और और उसके म्यूजिक डायरेक्टर को दिखाई. उसने उसे गा कर मित्र को सुनाया और बस, यही फायनल है...सुनकर लगा कि जाने क्या होगा इस सीरियल का.

घर आ कर पत्नी को बताया. जरा सा टूं टां करके साऊन्ड ट्रेक पत्नी को भी बताया..उसी को आधार बना कर उसने गुनगुनाया है, आप भी पढ़ें और सुनें..साथ ही वो गीत जो उस सीरियल बनाने वाले मित्र के जेहन में गूँज रहा था और वो टुकड़ा जो उसने मुझे सुनाया था लिखने के लिए:


जाना, दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

बीती हुई रातों मे
दूर हुये थे तुम
भीगी हुई बारिशों में
भीग रहे थे तुम..

गिर के संभलने को
मेरा हाथ थामा.

जाना..मेरा हाथ थामा.....


जाना!!!!!! मेरा हाथ थामा....

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

रीती हुई जिन्दगी मे
गीत रहे हो तुम
तन्हा सफर में भी
मीत रहे हो तुम

तेरी हर अदा का
दिल हुआ दिवाना

जाना...दिल हुआ दिवाना

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना...

-समीर लाल ’समीर’

नोट: पोस्ट शायद हिन्दी सिनेमा से जुड़े ब्लॉगर्स का ध्यान आकर्षित करे इस प्रतिभा की ओर, यही एक मात्र कोशिश है. :)


साधना का गुनगुनाना:













वो गीत जो निर्माता के दिमाग में गूँज रहा था:














बस, आज इतना ही:

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बुधवार, सितंबर 22, 2010

एक अंश- ट्रेलर ही समझिये!!

पिछले दिनों सड़क मार्ग से नजदीक के एक गांव में गया था. उसी दौरान इस एक घंटे की ड्राईव वाली सड़क यात्रा का एक वृतांत लिखा जो कि अगर पूरा यहाँ प्रस्तुत करुँ तो शायद आपको पढ़ने में उससे ज्यादा समय लग जाये, अतः उस वृतांत में से फिलहाल लगभग २% अंश:
नजर पड़ती है ठीक सामने वाली सफेद कार में ३२/३५ साल का कोई लड़का है. अभी कुछ देर पहले मेरे बाजू वाली लेन में था, जाने कैसे मौका लगा कि सामने आ गया. शायद मैने ही मौका दे दिया हो या वो ज्यादा स्मार्ट रहा हो तो मौका निकाल लिया हो. कब जान पाया है कौन इस बात को जीवन में. गाड़ियाँ धीरे धीरे सरक रही हैं और वो अपने बाजू बाजू कार में बैठी लड़की को बड़े ध्यान से देख रहा है. इतना अधिक ध्यान से कि उसे होश ही नहीं रहा और अपने आगे वाली गाड़ी के पीछे से टक्कर दे मारी. लो, एक तो वैसे ही ट्रेफिक अटका था, ये एक और आ गये. ५/७ मिनट को तो मामला फंस ही गया. झगड़ा और गाली गलौच तो इस बात पर यहाँ होती नहीं. बस, शालीनता से दोनों कार वाले उतरेंगे, सॉरी सॉरी का मधुर गीत गायेंगे. एक दूसरे के इन्श्यिरेन्स की जानकारी, फोन नम्बर, लायसेन्स प्लेट आदि अदला बदली करेंगे और ये चले. बाकी काम इन्श्यूरेन्स कम्पनी और पुलिस मिल कर करेगी. (भारत वाली मिली भगत नहीं, सही वाली) मेरे मन में बस यूँ ही आया कि यह बंदा जब इन्श्यूरेन्स क्लेम लिखायेगा तो कारण क्या देगा? पक्का झूठ बोलेगा कि जाने कैसे ब्रेक तो मारा था मगर ब्रेक नहीं लगा. ब्रेक की तो जुबान होती नहीं कि बोल दे कि ये भाई साहब झूठ बोल रहे हैं. ये लड़की देखने में व्यस्त थे, ब्रेक मारा ही नहीं तो मैं लगता कहाँ से? और मुझ प्रत्यक्षदर्शी से कोई पूछने से रहा और पूछे भी तो मुझे क्या लेना देना है-कोई मेरी गाड़ी तो टकराई नहीं तो मैं क्यूँ इन दो की झंझट में फंसू. भारत का तजुर्बा है. खैर, ब्रेक की तो जुबान ही नहीं होती, मैंने तो कितने ही जुबानधारियों को रसूकदारों के आगे मजबूरीवश मूक बने उनके झूठ को सच बना पिसते देखा है.

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ये बंदे इतना क्या मगन हो जाते हैं लड़कियाँ देखने में कि सामने की गाड़ी से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. मैने आज तक इतने जीवन में कभी किसी से ऐसा किस्सा नहीं सुना कि हाई वे पर जा रहे थे, ये बाजू की कार से निकली, हमने एक दूसरे को ध्यान से देखा. फोन नम्बर उछाले और अफेयर हो गया. फिर, हाई वे पर चलते एक दूसरे को देखकर अफेयर हो जाने की संभावना से कहीं ज्यादा संभावना इस बात की है कि आप चले जा रहे हैं और आसमान से बिजली गिरी और आप मर गये या आप हाई वे पर कार भगाये जा रहे हैं. आप को हार्ट की बिना किसी पूर्व शिकायत के हार्ट अटैक आ गया, आपने किसी तरह गाड़ी किनारे लगाई मगर जब तक एम्बूलेन्स आदि पहुँचती, आप गुजर गये. बाद में मित्र रिश्तेदार जरुर नम आँख लिए बात करते दिख जायेंगे कि अगर समय पर ईलाज पहुँच गया होता या दवा मिल गई होती तो भैय्या बच जाते. मगर ज्यादा बलवति संभावनाओं का ज्ञान होते हुए भी कोई व्यक्ति जिसे हार्ट की पूर्व शिकायत न हो, अपनी गाड़ी में सॉरबिट्रेट या ऐसी जीवन रक्षक दवा रख कर नहीं चलता मगर लगभग नगण्य संभावना वाली घटना की आशा बांधे बाजू की कार में लड़की को देखते हुए जाने कितने सामने की कार से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. ऐसा एक दो बार नहीं, अनेकों बार हुआ है. शायद, मानव स्वभाव हो मगर है बड़ा रिस्की और ऐसा होता हमेशा ही दिख जायेगा.

यही आदत होती है और हम जीवन रुपी गाड़ी चलाते समय भी इससे छुटकारा नहीं पा पाते. ऐसी वस्तु की लालसा पाले अपना ध्यान भटका लेते हैं जो हमारे लिए है ही नहीं या जो हमारा उद्देश्य कभी थी ही नहीं या जिसे पाने की संभावना लगभग नगण्य है मानो मृग मरिचिका सी भटकन और इस चक्कर में अपने मुख्य उद्देश्य से, मंजिल से तो कभी संबंधों से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं और फिर सफाई में दोष ब्रेक जैसे किसी भी मूक पर मढ़ देते हैं. पता है वो कभी बोलेगा ही नहीं. मगर अंततः नुकसान हमारा ही होता है, भले ही कोई इन्श्युरेन्स कम्पनी मानिंद त्वरित भरपाई कर भी दे लेकिन प्रिमियम में वृद्धि के माध्यम से वसूला तो आपसे ही जायेगा.


संभल कर चलाना
जीवन की इस गाड़ी को
जरा सी चूक
और
कोई भी टकराहट
संबंधों की..
बड़ी से बड़ी कीमत
चुकाने के बाद भी
छोड़ जाती है
अपने निशान..
जो नासूर बन दुखते हैं
पूरी यात्रा में..

-समीर लाल ’समीर’

बताईयेगा कि क्या इसे पढ़ कर आपको उस वृतांत के कुछ और हिस्से पढ़ने की उत्सुक्ता है तो कभी प्रस्तुत किया जाये वरना वो किताब उपन्यासिका की शकल में छप कर तो आ ही रही है जल्दी एकाध महिने में. कॉपी बुक करना है क्या ट्रेलर पढ़कर?. :)

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रविवार, सितंबर 19, 2010

तुझे भूलूँ बता कैसे

आज कम्प्यूटर पर वायरस का हमला हुआ. सुबह से मोर्चा संभाला हुआ है उनके खिलाफ. देखिये, क्या नतीजा निकलता है. अच्छा है कि ९७% कम्प्यूटर का बैक अप है. याने चार दिन पहले तक का. टेंशन डाटा लूज करने की हमेशा ज्यादा होती है तो उससे मुक्त हूँ. बस, आपसे पूछना चाह रहा था कि आपके पास बैक अप है अपने कम्पयूटर का? क्यूँकि जिस तरह एक आतंकवादी नहीं जानता कि हमले में वो किसे मार रहा है, और किस समय कर रहा है, उसी तरह वायरस की चपेट में भी कोई भी आ सकता है कभी भी. अपनी सुरक्षा का इन्तजाम खुद करें. हर समय तैयार रहें बैक अप के साथ.

अब मौसम जा रहा है. सर्दियाँ लगने को है. फल सब्जी जो भी बगीचे में हुए, तोड़ लिए गये या तोड़े जा रहे हैं. खूब खीरे, मिर्च, टमाटर, चेरी, नाशपाती खाई गई बगीचे की. कल सेब की अंतिम खेप भी तोड़ ली और लौकी (भ्रष्टाचार से तेज गति से बढ़ी) कल तोड़ी जायेगी. तो सेब और लौकी की तस्वीरें:



इन्हीं वजहों के चलते कुछ लिखना नहीं हुआ, बड़ी मिटती उड़ती फाईलें, उनका बचाव दिन ले गया तो बीच में नजर पड़ी अपनी एक पुरानी कविता पर जिसे मैं मंचों से अक्सर सुनाता हूँ मगर आश्चर्य कि वो मेरे ब्लॉग पर नहीं है. न जाने कैसे छूट गई. तो आज वो ही:


तुझे भूलूँ बता कैसे

मैं हूँ इस पार तू उस पार, मगर दिल साथ रहते हैं
हमारे देश में यारों, इसी को प्यार कहते हैं
मुझे तुम भूलना चाहो तो बेशक भूल जाना पर
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

न जाने कौन सा बंधन, न जाने कैसे रिश्ते हैं
दर्द उस पार उठता है, आँसूं इस पार गिरते हैं
ये हैं अहसास के रिश्ते, इसे तुम नाम मत देना
जैसे फूल में खुशबू, ये हर इक दिल में रहते हैं.

इन्हीं रिश्तों के बंधन से, हुआ जो हाल इस दिल का
कई बीमार कहते हैं, कई लाचार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

मुझे अक्सर रुलाती हैं, सुनहरी याद अपनों की
हमारे साथ के किस्से, लगे है बात सपनों की
मैं उन पत्तों से पूछूंगा, बता दो मुझको मजबूरी
छोड़ कर साथ शाखों का, बना ली तुमने क्यूँ दूरी

यूँ ही रोते बिलखते ही, मिटाने दूरियाँ निकला
हुई है मेरी हालत जो, उसे बेजार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

जहाँ बचपन ये खेला था, गली वो याद रहती है
जहाँ भी जा बसें हम तुम, याद वो साथ रहती है
उन्हीं यादों के साये में, गुजरती रात की घड़ियाँ
यहाँ अक्सर ही दिन में भी, अँधेरी रात रहती है.

हँसता हूँ यहाँ पर मैं, तुम्हारे बिन ही महफिल में,
मेरी जाँ ये समझ ले तू, इसे व्यवहार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

--समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, सितंबर 15, 2010

जिन्दा सूखा गुलाब...

हरि बाबू, टूटती काया, माथे पर चिन्ता की लकीरें, मोटे चश्में से ताकती बुझी हुई आँखें, शायद ८४ बरस की उम्र रही होगी. हर दोपहर अपने अहाते में कुर्सी पर धूप में बैठे दिखते मानो किसी का इन्तजार कर रहे हों.

दो बेटे हैं. शहर में रहते हैं और हरि बाबू यहाँ अकेले. निश्चित ही बेटों का इन्तजार तो नहीं है, क्योंकि हरि बाबू जानते हैं कि वो कभी नहीं आयेंगे. बहु और बच्चों के लिए हरि बाबू देहाती हैं, तो इनके वहाँ जाने का भी प्रश्न नहीं. फिर आखिर किसका इन्तजार करती हैं वो आँखें?

उम्र की मार के कारण हरि बाबू की स्मृति धोखा देती है, पर बेटों से थोड़ा कम. आसपास देखी घटनायें ४-६ दिन तक याद रह जाती हैं. कुछ पुरानी यादें भी और कुछ पुरानी बातें भी, कुछ टीसें-नश्तर सी चुभती. इतना सा संसार बना हुआ है उनका जिसमें वो जिये जा रहे हैं. यही आधार है उनका और उनकी सोच का.

अकेले आदमी की भला कितनी जरुरतें, खुद से थोप थाप कर एक दो रोटी, कभी गुड़ तो कभी सब्जी के साथ खा लेते हैं और अहाते में बैठे-बैठे दिन गुजार देते हैं. बोलते कुछ नहीं.

जब नहीं रहा गया तो एक दिन उनके पास चला गया. पूछ बैठा कि ’चाचा, किसका इन्तजार करते हो?’

हरि बाबू पहले तो चुप रहे और फिर धीरे से बोले,’देश आजाद हो जाता तो चैन से मर पाता.’

मैं हँसा. मैने कहा कि ’चाचा, देश तो आजाद हो गया…. देश को आजाद हुए तो ६३ बरस हो गये. सन ४७ में ही आजाद हो गया था.’

देश तो आजाद हो गया…. सुनते ही एकाएक हरि बाबू के होंठों पर एक मुस्कान फैली और चेहरा बिल्कुल शांत.

हरि बाबू नहीं रहे.

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चलते चलते:

देखता हूँ जब

उस अँधेरे कमरे की

खिड़की पर रखा

बुझी लौ लिए एक दीपक,

जिन्दा सूखे हुए गुलाब

फंसे हुए गुलदस्ते में

और उस कोने वाली

दीवार से

टिका

टूटे तारों वाला

सितार....

तब दिखती है

इक रोशनी

उठती हुई दिये से

सुनाई देती है एक धुन

तारों से झंकृत

और

महक उठता है

गुलाब की खुशबू से

मेरा तन-मन!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 12, 2010

कुछ शामें और आज का दिन

मालूम तो था ही कि आ रहे हैं मगर कहाँ और कब मिलेंगे, यह आकर बताने वाले थे.

गुरुवार की सुबह बात हुई कि शुक्रवार की शाम को ७ बजे सिनेमा देखकर फुरसत होंगे, तब आ कर ले जाईये. टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में भारत से पधारे हमारे चव्वनी चैप (छाप नहीं) ब्लॉग के मालिक अजय ब्रह्मात्मज को लेने हम पहुँचे घर से ८० किमी दूर, यही विचारते कि अभी खाना खिलवाकर फिर छोड़ने यहीं आना है फिर ८० किमी. ५ बजे शाम से रात १२.३० बजे के बीच हमारी ३६० किमी की ड्राईविंग किन्तु मिलकर इतना आनन्द आया कि पता ही नहीं चला.

८ बजे उनको घर लेकर पहुँचे और फिर जमीं महफिल हमारे बार में. कुछ जाम छलके, अनेको विषयों से लेकर ब्लॉगिंग और फिल्मों की बात चली, भोजन किया गया और फिर उनको होटल छोड़ आये. यादगार शाम थी. अपनी पुस्तक भी उसी दौर में उन्हें टिका दी. कह गये हैं कि पढ़ेंगे. :)

मुलाकात की कुछ तस्वीरें:

 

 

फिर कल शाम अनूप जलोटा जी के साथ गुजरी. एक से एक भजन सुने गये. नई बात जो देखने में आई वो यह कि आजकल उन्होंने भी बीच बीच में कुछ चुटकुले जोड़ना शुरु कर दिया है जिसे पब्लिक ने खूब मस्त होकर सुना. साथ ही चामुंडा स्वामी जी का प्रवचन भी था. तो कल की शाम भी मजेदार गुजरी. उनके चुटकुले की एक बानगी.भजन तो आप यू ट्यूब पर यूँ भी सुन सकते हैं.

आज सुबह से ही एक मित्र के घर जाना हो गया बार-बे-क्यू का इन्तजाम, शहर से १०० किमी दूर. अभी लौटे.

शाम अजय भाई भारत वापस निकल गये. फोन से बातचीत हो गई. उन्होंने हमारी तारीफ की, हमने उनकी. बाय बाय हो गई. अभी वो हवाई जहाज में होंगे.

ये सब इसलिए सुनाया कि इन सब के बीच कुछ लिखने का मौका नहीं लगा, तो आज ये ही. :)

तो आज के लिए:

 

चाहता

तो लिख देता

एक कविता

तुम्हारे लिए

लेकिन

जब कविता

कुछ कह न पाये

तब सोचता हूँ

बेहतर है

चुप रह जाये!!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, सितंबर 08, 2010

नीरो बाँसुरी बजाता है...

गुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है.

अवसाद में न घिर जाऊँ इसीलिए डायरी नहीं लिखता. पहले लिखता था. बंद कर दिया. कई बार कलम उठाई, फिर रख दी.

एक गुलाब तोड़ लाया था बगीचे से. कांटा चुभ गया. कुछ देर गुलाब महकता रहा फिर मुरझा गया. ऊँगली में कांटा चुभने का दर्द बना रहा. मुरझाया फूल फेंक दिया.  ऊँगली में जहाँ कांटा गड़ा था, उसे छूकर देखा, तेज दर्द बना है. आँख से एक छोटी सी बूंद लुढ़क चन्द लम्हों में दम तोड़ती है. दर्द कुछ कम तो हुआ.

कुछ ही पन्ने लिखे हुए डायरी के. पन्ने भूरे से हो गये हैं. ज़िल्द की प्लास्टिक उखड़ने को है. अब नहीं लिखता डायरी वरना तो ज़िल्द कब का उखड़ गया होता. क्या लिखा है याद नहीं. पढ़ने का दिल भी नहीं.

डायरी से इतर कुछ घटनायें जेहन में कहीं अंकित हो गई हैं. सबको बसेरा चाहिये. बेहतर होता डायरी में लिखकर संदूक में बंद कर देता. जेहन पर अंकित हैं तो साथ साथ घूमती हैं हर वक्त.

जेहन पर अंकित हर्फ धुँधलाते नहीं. सफ्हे भी उजले के उजले.

हर की पौड़ी- हरिद्वार. गंगा आरती. कुछ यादें दोने में जला कर बहा देता हूँ. दूर जाते देखता हूँ उन्हें. बह गईं? भ्रम है शायद. पाप पुण्य बहते नहीं. पंडा अपने हिस्से के पैसे ले गया. प्रसादी में पेड़ा. ज्यादा मीठा खाकर मूँह में कसैलापन भर जाता है.

रेल भागी जा रही है. दरवाजे पर खड़ा अंधेरे में झांक रहा हूँ. दूर गांव में टिम टिम बत्ती. वो भी पीछे छूटती.

नीरा नाम है उसका. सामने की बर्थ पर. अम्मा ने उसे पुकारा, तो मैं जान गया. वो, उसकी अम्मा और बाबू जी. अगले स्टेशन पर तीनों उतर गये. कौन सा स्टेशन? क्या पता-कोई गांव, अंधेरे में नाम ही नहीं दिखा.

खिड़की से आती हवा सर्द है. कोई बड़ा स्टेशन आने को है. चाय पीने का मन है.

कौन से झौंके के साथ नींद आई-आँख खुली तब ट्रेन मेरे स्टेशन पर रुक रही है.

गरमा गरम चाय..चाय गरम. नहीं ली.

रिक्शे वाला बुढ़ा है, धीरे धीरे चल रहा है.

तिवारी जी टहलने निकल पड़े हैं. उनकी लड़की का नाम भी नीरा है.

डायरी मैं अब नहीं लिखता, कहीं अवसाद से घिर न जाऊँ.

नारंगी सूरज निकल रहा है. घर पर क्यारी में एक गुलाब ऊगा है-लाल रंग का.

ऊँगली को हल्का सा दबा कर देखता हूँ वहाँ जहाँ कांटा गड़ा था, दर्द नहीं है फिर आँख से ये बूंद कैसी? 

 

flute

 

वो
चुपके से
होले होले
कदम संभालते
बढ़ चला है
जाने किस ओर
गीली मिट्टी
उतार लेती है
पद चिन्ह
अपने सीने पर
और
बुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.

-आज फिर
नीरो बांसुरी बजा रहा है!!
न जाने क्यूँ??

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, सितंबर 05, 2010

अक्सर दिल करता है मेरा

अक्सर दिल करता है मेरा

चलूँ, बादलों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ रहता है वो चाँद
जो झाँकता है अपनी खिड़की से
मेरी खिड़की में सारी रात

चलूँ, उन पहाड़ों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ से आता है सूरज
जिसे देख मेरा चाँद
छुप जाता है
जाने किस परदे की ओट में

चलूँ, नदी की गहराई में चलूँ
मिलूँ, उन मछलियों से
जिनके साथ भी रहता है
एक चाँद
उस रात झील में देखा था उसे

चलूँ, गली के उस मोड़ तक चलूँ
देखूँ, उस कोने वाले मकान को
जहाँ रहती हो तुम..
और साथ दिखती है
चाँद की परछाई...

-समीर लाल ’समीर’

यहाँ सुनिये:

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बुधवार, सितंबर 01, 2010

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया...मानो उल्लू बुला लिया!!

पहले दिवाली में गुनिया लोग उल्लू बुलाया करते थे याने वो मंत्रों और तन्त्रों की सहायता से उल्लू को इंसानों की आवाज में बुलवा लेते थे और अपने जंतर सिद्ध किया करते थे. अक्सर सुना करता था कि फलाने गुनिया नें उल्लू बुला लिया और सिद्ध हो चला.

कभी एक्चूवल उल्लू को इन्सानों की आवाज में बोलते तो नहीं देखा और न ही उसे इन्सानो सी हरकत करते देगा है यद्यपि कई इन्सानों को उल्लू की हरकत करते तो हमेशा ही देखता आया हूँ मगर फिर भी जब भी सुना कि किसी गुनिया ने उल्लू बुला लिया तो फिर क्या कहना उस गुनिया का. मानो उसकी किस्मत खुल गई. उसी गुनिया से सब उपाय पूछें हर परेशानी का. लोगों की परेशानी हल हो या न हो मगर उसने उल्लू बुला लिया तो उस पर पैसों की बरसात तय है. उसकी परेशानी तो हल हुई ही समझो.

आज कॉमन वेल्थ का थीम सॉन्ग सुना तो न जाने क्यूँ उस गुनिया वाली बात की याद हो आई जबकि उसका इससे कुछ लेना देना नहीं है.

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कल जब यह गीत सुन रहा था तो मुझे एक बार फिर कवियों पर गुस्सा आया. न जाने क्या सोच कर गीत लिखते हैं कि सामने वाला गीत पढ़ेगा या उनका दिमाग? जाने क्या चल रहा होता है दिमाग में और उसे शब्द दे देते हैं, फिर यह आप पर छोड़ देते हैं कि चलो अब लगाओ इसका अर्थ अपने हिसाब से.

मेरा इतना सा निवेदन करने का मन करता है कि जो भी दिमाग में हो वो लिख दो, फिर उसे कविता के फार्म में सुना देना याने कविता लिखो तो भावार्थ के साथ. जो भाव तुम्हारे मन में हो. हम पर मत डिपेन्ड करो कि हम अटकल लगायें.

बचपन से हिन्दी की पर्चा हल करते करते यह गुस्सा एक एक बूँद बन कर भरता चला आया है. वो मुझे डर है कि यह बूँद बूँद कर बचपन से भरता गुस्सा किसी दिन ज्वालामुखी की शक्ल में न फट पड़े. खैर, अभी तो थामे हैं.

हर परीक्षा में होता था कि फलाने कवि की इन पंक्तियों का भावार्थ संक्षिप्त में बताईये और हम लगे हैं पास होने के जुगाड़ में अपनी अटकल को शब्द देने में. वो तो कविता लिखकर रोयल्टी खा पी कर किनारे हो लिए और पसीने हमारे निकल रहे हैं. अधिकतर तो स्वर्गवासी ही होते थे, अतः पूजनीय भी और उनके चक्कर में हम पहले मास्साब से लात खा रहे होते थे और फिर पिता जी से. जाने क्यूँ पाठयपुस्तक में छपने के पूर्व अधिकतर स्वर्गवासी हो लेते थे, शायद यह हमारे संस्कारों और संस्कृति का भावार्थ हो कि स्वर्गवासी को बड़ा सम्मान मिलता है. जिन्दा रहने पर भले कोई आपको सुने न सुने, मरते ही पहले तो पदवी स्वर्गवासी की और फिर आपके बताये मार्ग पर चलना ही सच्ची श्रृद्धांजलि.

इस गीत को सुन कर भी वही भावार्थ वाली बात दिमाग में आई. अपनी अटकल लगाने का सिलसिला शुरु हुआ. अब आप कॉपी जाचों तो पता चले कि सही के आसपास है कि नहीं. कवि तो फैशन के हिसाब से भावार्थ देने से कतरा ही लिए. थीम और लोकेशन के ज्ञान से उन कविताओं का अर्थ निकाला करते थे तो सो ही यहाँ भी किया.

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया

-देखा न?? कैसा बेवकूफ बना कर बुला लिया जबकि हमारी तो तैयारी पूरी है ही नहीं, बस दिखावे के लिए फटाफट लीपापोती में जुटे हैं और रही खेल की बात, तो वो तो हमें खेलना आता ही नहीं. ओलम्पिक से लेकर किसी भी टूर्नामेन्ट का रिकार्ड उठा कर देख लो, हम अपने मूँह से क्या कहें? हमारे पास तो खिलाड़ी ही नहीं है जो जीत सकें..जो जीत सकने लायक तैयार होते हैं वो मॉडलिंग में चले जाते हैं. आजकल हमारे यहाँ खेल के लिए मेहनत कर अच्छा प्रदर्शन करना मॉडलिंग और ग्लैमर की दुनिया में सिक्का जमाने पहुँचने का राजमार्ग है और उतने तक ही अच्छा प्रदर्शन सीमित है. फिर भी देखो, कैसे सब के सब को बुला लिया मानो सबसे बड़े तीस मार खाँ हम ही हैं.

तभी तो कह रहे हैं: यारो, बुला लिया. खैर तुम्हें बुला तो न सिर्फ खेलों के लिए लिया बल्कि:

दीवानों ये इंडिया बुला लिया

सारे होटल, बार, डिस्को सजवा दिये हैं और यहाँ तक की कोठे भी ठीक करवा लिए. ढेरों एस्कार्ट वेब साईटें लॉन्च कर दीं..हिन्दुस्तानी से लेकर विदेशी तक, हर रेट रेन्ज में सरकारी सहमति से इन्तजाम है. दीवानों चले आओ..

दीवानों ये इंडिया बुला लिया

ये तो खेल है, बड़ा मेल है

-ये वो खेल है जिसमें पूरे मेल जोल के साथ एवं संपूर्ण खेल भावना के साथ, सब ठेकेदार, नेता, अधिकारी रह रहे हैं, खा रहे हैं, पी रहे हैं..ऐश कर रहे हैं...

मिला दिया..

पूरे भारत की इज्जत को मिट्टी में मिला दिया..मिला रहे हैं. पूरा विश्व जान रहा है कि भारत का सदी का सबसे बड़ा घोटाला इसी कॉमन वेल्थ (साझा संपति) के माध्यम से हो रहा है..इतना ही नहीं, फिर से कहा...

मिला दिया………….

मिला दिया न मिट्टी में पूरे भारत की तरक्की का सपना भी इज्जत के साथ साथ. हे हे, मिला दिया..ले ठेंगा, जो करना हो सो कर लो..सब मिले हैं, सबको मिला लिया..सबको मिला दिया..तुम कुछ नहीं कर सकते..बस गीत सुनो..सुरबद्ध..रहमान की आवाज में..

रूकना रूकना रूकना रूकना रूकना नहीं

रुकना मत..सुनते रहो..अभी समय बाकी है..अभी तो हम और खायेंगे..रुकेंगे नहीं..मना किया है - रुकना नहीं..खाते चलो..अभी समय बचा है. बाद में ऐसा मौका हाथ नहीं लगेगा..बस, एक महिना और...

हारना हारना हारना हारना हारना नहीं

जो हारा वो बेवकूफ कहालायेगा..उसने एक करोड़ बनाया, तुम दो करोड़ बनाओ और जीत जाओ..यही होड़ है सब अधिकारियों, नेताओं और ठेकेदारों में....हारना मत..जीतना ही ध्येय है. जीत कर दिखा दो...हारना नहीं..

चलो न सिर्फ

सिर्फ चलते रहने से कुछ न होगा..साथ साथ कमाते चलो...चलो न सिर्फ..याने कमाओ भी...खाओ भी..खिलाओ भी...पैसा खिलाओ, दावत खिलाओ..शराब पिलाओ..मजे कराओ..खूब कमाओ..मगर सिर्फ चलो नहीं.

करो न सिर्फ

काम सिर्फ दिखावे को करो कि काम चल जाये...बाद किसने देखा है. सिर्फ करते रहे तो करते ही रह जाओगे..मैदान मारो...लगे कि काम कर रहे हो मगर तुम तो याद रखो कि अपना ही नहीं, अपने परिवार और आने वाली पुश्तों का इन्तजाम कर रहे हो..

मैदान मारो !!

मैदान मार गये तो बाद में कोई कुछ नहीं पूछने वाला वरना पछताओगे...यहाँ तक कि जो पकड़ायेंगे वो वहीं होंगे जिन्होंने मैदान नहीं मारा होगा मारना तो दूर देखा भी न होगा.. पूछ उसी की होगी जो मैदान मार जाये. हमेशा मैदान मारा ही विजेता कहलाता है...एक बार मैदान मार लो फिर

Lets go

Lets go

- Lets go to Switzerland...वहीं जमा करा देंगे. घूम भी लेंगे. सेकेन्ड हनीमून भी मना लेना..वहाँ के जमा पैसे की चर्चा भले ही कितनी भी हो जाये मगर होता जाता कुछ नहीं...बस, Lets go..हल्ला मचता रहेगा कि पैसा वापस आ रहा है..आयेगा जायेगा कुछ नहीं..इत्मिनान से जमा कराओ...

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो

जियो, उठो, बढ़ो, जीतो…..

यही काम आयेगा...सारी दुनिया कहेगी जियो..जब जेब में पैसा होगा...वैसे भी बिना पैसे कैसे जिओ..बेकार है..फिर जब पैसा हो तो उठो..तब भला बैठेगा कौन..जब बैठना नहीं है तो बढ़ो.. बढ़ चल बेटा पैसे भर कर जेब में...तभी तू जीता कहलायेगा...कहता हूँ न जीतो..तब जियो..वरना मरा हुआ तो बाकी का हिन्दुस्तान है ही..उनके लिए थोड़ी न है कि

ओ यारों ये इंडिया बुला लिया

--ये सिर्फ उनके लिए है जिन्हें हमने बेवकूफ बना कर बुला लिया है..अपना काम बन गया अब हारे या जीतें...मगर शुभकामना तो दे ही सकते हैं कॉमन वेल्थ गेम्स की.

इसीलिए तो इस बार नहीं कहा ’ जय हो’ ..खुद को तो हम जानते ही हैं. बेवकूफ बनाते हैं, बेवकूफ हैं नहीं.

पूरा गाना तो और भी है मगर इतना ही काफी है कम्पलीट बात समझ आने को. पूरा पढ़ना चाहो तो यहाँ क्लिक कर लो, मगर इससे ज्यादा निष्कर्ष क्या निकालोगे??

-अब क्या है भई, सुनना भी है गाना तो लो सुनो:

नोट: यह भावार्थ मेरी दिमागी अटकल के हिसाब से है. हो सकता है गलत हो और मुझे बचपन याद आ जाये जीरो अंक प्राप्त करके.

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