रविवार, अप्रैल 30, 2023

अनुभव की कीमत डिग्री से ज्यादा होती है

 

बरसों पहले पहली बार किसी फाईव स्टार होटल में घुसने का मौका था एक दोस्त के साथ.

तय हुआ था कि एक एक कॉफी पी जायेगी. एक कोई वहाँ बिल और १०% टिप देगा. बाहर आकर आधा आधा कर लेंगे. इसी बहाने फाईव स्टार घूम लेंगे,

छात्र जीवन था. बम्बई में पढ़ रहे थे. एक जिज्ञासा थी कि अंदर से कैसा रहता होगा फाईव स्टार. छोटे शहर के मध्यम वर्गीय परिवार से आये हर बालक के दिल में उस जमाने में ऐसी जिज्ञासायें कुलबुलाया करती थीं.

बम्बई से जब घर जाया करते थे तो वहाँ रह रहे मित्रों के सामने अमिताभ बच्चन वगैरह के नामों को इग्नोर करना बड़ा संतुष्टी देता था जैसे उनसे बम्बई में रोज मिलते हों और उनका कोई आकर्षण हममें शेष नहीं बचा है. यथार्थ ये था कि एक बार दर्शन तक नहीं हो पाये थे तब तक.

खैर बात फाईव स्टार की हो रही थी. होटल तय हुआ ताज. दोपहर से ही दो बार दाढ़ी खींची. सच कहता हूँ डबल शेव या तो उस दिन किया या अपनी शादी के दिन.. बस!!! सोचिये, दिलो दिमाग के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा.

अपनी सबसे बेहतरीन वाली सिल्क की गहरी नीली कमीज, जो अमिताभ नें मिस्टर नटवर लाल में पहनी थी, वो प्रेस करवाई. साथ में सफेद बेलबॉटम ३४ बॉटम वाला. जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी होती है. दोनों तरफ लूजर.

४५ साल तक सिगरेट पीते रहे और फिर छोड़ कर ज्ञान बांटने लगे कि सिगरेट पीना अच्छा नहीं है. मगर उससे होना क्या है, जितनी बैण्ड लंग्स की बजनी थी, बज चुकी. अब तो दुर्गति की गति को विराम देने वाली ही बात शेष है.

खैर, शाम हुई. हाई हील के चकाचक पॉलिश किये हुए जूते पहनें हम चले फाईव स्टार-द ताज!!!

चर्चगेट तक लोकल में गये और फिर वहाँ से टेक्सी में. ४-५ मिनट में पहूँच गये. दरबान नें दरवाजा खोला. ऐसा उतरे मानो घंटा भर के बैठे टेक्सी में चले आ रहे हैं. दरबान के सलाम को कोई जबाब नहीं. बड़े लोगों की यही स्टाईल होती है, हमें मालूम था.

सीधे हाथ हिलाते फुल कान्फिडेन्स दिखाने के चक्कर में संपूर्ण मूर्ख नजर आते (आज समझ आता है) लॉबी में. और सोफे पर बैठ लिए. मन में एक आशा भी थी कि शायद कोई फिल्म स्टार दिख जाये. नजर दौड़ाई चारों तरफ. लगा मानो सब हमें ही घूर रहे हैं. यह हमारे भीतर की हीन भावना देख रही थी शायद. मित्र नें वहीं से बैठे बैठे रेस्टॉरेन्ट का बोर्ड भांपा और हम दोनों चल दिये रेस्टॉरेन्ट की तरफ.

अन्दर मद्धम रोशनी, हल्का मधुर इन्सट्रूमेन्टल संगीत और हम दोनों एक टेबल छेक कर बैठ गये. मैने सोचा यहाँ तक आ ही गये हैं तो बाथरुम भी हो ही लें. बोर्ड भी दिख गया था, दोस्त को बोल कर चला गया.

अंदर जाते ही एक भद्र पुरुष सूटेड बूटेड मिल गये. नमस्ते हुई और हम आग्रही स्वभाव के, कह बैठे पहले आप हो लिजिये. वो कहने लगे नहीं सर, आप!! बाद में समझ आया कि वो तो वहाँ अटेडेन्ट था हमारी सेवा के लिए. हम खामखाँ ही फारमेल्टी में पड़ लिए. बाद में वो कितना हँसा होगा, सोचता हूँ तो आज भी शर्म से लाल टाईप स्थितियों में आ जाता हूँ.

वापस रेस्टॉरेन्ट में आये, तब तक हमारे मित्र, जरा स्मार्ट टाईप थे उस जमाने में, कॉफी का आर्डर दे चुके थे.

कॉफी आई तो आम ठेलों की तरह हमारा हाथ स्वतः ही वेटर की तरफ बढ़ गया आदतानुसार कप लेने के लिए और वो उसके लिए शायद तैयार न रहा होगा तो कॉफी का कप गिर गया हमारे सफेद बेलबॉटम पर. वो बेचारा घबरा गया. सॉरी सॉरी करने लगा. जल्दी से गीला टॉवेल ला कर पौंछा और दूसरी कॉफी ले आया. हम तो घबरा ही गये कि एक तो पैर जल गया, बेलबॉटम अलग नाश गया और उस पर से दो कॉफी के पैसे. मन ही मन जोड़ लिए. सोचे कि टिप नहीं देंगे और पैदल ही चर्चगेट चले जायेंगे तो हिसाब बराबर हो जायेगा. अबकी बारी उसे टेबल पर कप रख लेने दिये, तब उसे उठाये.

बाद में उसने फिर सॉरी कहा और बताया कि कॉफी इज ऑन द हाऊस. यानि बिल जीरो. आह!! मन में उस वेटर के प्रति श्रृद्धाभाव उमड़ पड़े. कोई और जगह होती तो पैर छू लेते मगर फाईव स्टार. टिप देने का सवाल नहीं था क्यूँकि नुकसान हुआ था सो अलग मगर जीरो का १०% भी तो जीरो ही हुआ. तब क्या दें?

चले आये रुम पर गुड नाईट करके उसे, दरबान को और टैक्सी वाले को. कॉफी का दाग तो खैर वाशिंग पाउडर निरमा के आगे क्या टिकता. ५० पैसे के पैकेट में बैलबॉटम फिर झकाझक सफेद.

फिर तो कईयों को फाईव स्टार घुमवाये. एक्सपिरियंस्ड होने के कारण हॉस्टल में हमारे जैसे शहरों और परिवेष से आये लोग अपना अनुभव बटोरने के लिए हमारा बिल पे करते चले गये.

अनुभव की कीमत डिग्री से ज्यादा होती है, हमने तभी जान लिया था.

समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 30, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3304

 

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शनिवार, अप्रैल 15, 2023

हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं


 

पत्नी स्त्रियों की बीमारी से ग्रसित आज शल्य चिकित्सा के तहत अस्पताल में भरती कर ली गई. सुबह ६.३० बजे से बुला लिया था चिकित्सक महोदय ने. कागजी कार्यवाही एवं अन्य आवश्यक खानापूर्ति करते ८ बज गये और शल्य चिकित्सा प्रारंभ हुई. पूरे दो घंटे चली.

हम बाहर बैठे रहे और वहीं अस्पताल की लायब्रेरी से उठाकर फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी एक किताब का अध्ययन करते रहे. घर से ही थर्मोकप में ले जायी गई चाय के गरमागरम चुस्कियों के साथ. बरसों चली इस क्रांति का सार दो घंटों में निपटाकर संतुष्टी को प्राप्त हुए-क्या फरक पड़ता है जब बरतन दूसरे घर के फूटे. बल्कि मजा ही आता है और च च च!! जैसा अफसोस भी पूरे सुर ताल में रहता है. लगता है कि आपसे ज्यादा कोई दुखी नहीं..भले ही वो इस क्रान्ति में अपना सर्वस्व लुटा बैठा हो.

डॉक्टर ऑपरेशन करके बाहर आ चुका है. मुझसे बात कर ली है. पत्नी की हालत सामान्य है. एनेस्थिसिया का असर है, अतः होश नहीं है और शायद अगले ४ घंटे लगें जब होश आ पाये. हद है, जिसे होश नहीं है, उसकी हालत सामान्य?? भारत की जनता याद आई, मन मान गया. डॉक्टर में अंध विश्वास जागा मात्र इसलिए कि अविश्वास से कोई फायदा नहीं. वो डॉक्टर ही रहेगा और मैं बीमार या बीमार का परीजन..मसीहा कितने वेष धरता है आज जाना. पुनः मेरा भारतीय होना काम आया. मैं निश्चिंत हो गया. स्थिती से तुरंत समझौता कर लिया. हमारा मसीहा भी तो ऐसे ही बरताव वाला है.

अगले ३ से ४ घंटे फिर इन्तजार करना था, जब वो कुछ होश में आये और उसे कमरे में स्थानान्तरित किया जाये. मैं अपने लिए एक कॉफी खरीद लेता हूँ-एकदम ब्लैक कॉफी. मूँह मे कड़वहाट भर दे मगर अंतरआत्मा को जगा कर रख दे. सब ऐसे ही जागे हैं मेरे देश में..कितने ही हैं जो मूँह में कड़वाहट भरे पूर्ण जागृत अवस्था का नाटक रचे घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो गया तो क्या?? कौन नोटिस करेगा-और कर भी लेगा तो मेरा क्या हो जाने वाला है, जब लगभग एक सौ बीस करोड़ का कुछ नहीं हुआ.

खैर, अब चार घंटे काटने के लिए मैने फिर अस्पताल की लायब्रेरी में किताब तलाशी. मेरे पास समय इतना कि लगभग दुगना. शल्य चिकित्सा, मुख्य भाग, में दो घंटे लगे..और रिकवरी में ४ घंटे लगने थे.आप समझ रहे होंगे क्यूँकि सामान्यतः यही होता है हमेशा!!! रिकवरी प्रोसेस हमेशा अपना समय लेती है, पूर्ववत स्थिती में आने को..पूर्ववत स्थिती की अहमियत का अहसास दिलाने.

क्या सही, क्या गलत!!! किस किस को रोईये..रो ही लेंगे तो खुद ही अपने आंसू पोछिये... छोडिये सब..बस, पत्नी की तबीयत देखिये, वो ही अपनी है..उसी से फरक पड़ता है, बाकि तो बस टाईम पास...चाहे प्रलय आ जाये..किसे बचाने भागियेगा... सोचो कुछई..भागोगे बीबी को बचाने ही न!!

 

खैर, वो कमरे में आ गई है. वेस्ट विंग का कमरा नं. ४००९. आलीशान कमरा..समृद्ध देश का समृद्ध अस्पताल...और मरीजों के लिए पेश किया खाना..मानो कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन अटेंड कर रहे हों. मरीज के साथ वालों के लिए हाई फाई स्नैक, ज्यूस..और न जाने का क्या क्या विथ डिजर्ट.

उपरी मंजिल पर कमरा. अस्पताल जो एक बहुत विशाल प्रांगण में बना हुआ है..उत्तर में दो मील तक सिर्फ घास का करीने से कटा मैदान..दक्षिण में भी दो न सही डेढ़ मील का तो कम से कम...कमरे से खिडकी से दिखता दक्षिणी छोर...बीच मैदान में एक हैलीपैड..हैलीकाफ्टर से लाये गये मरीजों के लिये-लोहे की जाली से घिरा अहातानुमा... कुछ दूर पर इलेक्ट्रीक रुम और एक अन्य कोने में लगा प्रोपेन टैंक..अस्पताल की गैस सप्लाई के लिए... मैदान के दोनों ओर सड़क.

देखता हूँ सामने वाली सड़क से एक कन्या को मैदान में आते. सोचने लगता हूँ इतनी लम्बी दूरी और पैदल..दूसरी तरफ भी याने उत्तर में दो मील और, तब अगली सड़क पर पहूँचेगी. मैं सोच ही रहा हूँ और वो चलते चलते हैलीपैड का मुआयना करती, हेलिकाफ्टर को निहारती (सोचता हूँ मैं अकेला नहीं हूँ जो हेलिकाफ्टर और हवाई जहाज देखकर आनन्दित हो उठता है), इलेक्ट्रीक हाउस को पार कर, प्रोपेन सिलेंडर से किनारा कर गुम हो गई उत्तर मे..जल्द ही सड़क पा लेगी जो उसकी रफ्तार दिखी. मैं बस सोच ही रहा हूँ तभी उल्टी दिशा में जाता आदमी भी दिख गया..और जल्द ही दक्षिणी सड़क पर पहूँच भी गया. शायद पहला कदम जरुरी रहा होगा और फिर सब फासला तय हो गया.

मैं आल्स्यवश बैठा अस्पताल में, बस सोच रहा हूँ कि कैसे चल लेते हैं यह इतना.

एक स्वास्थ्य के प्रति जागरुक श्रेणी के लोग और एक हम आलसी..बस, सोच की दुनिया में जीते.

शायद यही कारण होगा कि वो दक्षिणी छोर से घुसी और उत्तरी छोर से निकल गई..आस्पताल को पार करती हुई-अस्पताल में रुकने की कोई जरुरत नहीं और हम अस्पताल में बैठे हैं बीमार या बीमार के साथ. जल्दी कुछ इस तरीके का टहलना न शुरु किया तो यहीं लेटे नजर आयेंगे.

कितना अंतर है किसी कथा को लिख देने में और उसे जीने में. टहलना एक आलसी के लिए मनभावन बात नहीं है अतः सरल साहित्य के तहत राही मासूम रज़ा की किताब ’टोपी शुक्ला’ पढ़ने लगता हूँ. कुछ आनन्द का अनुभव होता है टोपी की बातें सुन "तुम मुसलमान हो क्या इफ्फन?- हाँ- और तुम्हारे अब्बू, क्या वो भी मुसलमान हैं?? :))..

बालमन, नादान गहरी बातें और हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं.

-समीर लाल ‘समीर’

 

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 16, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3104

 

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रविवार, अप्रैल 09, 2023

सच बोलने की तमन्ना अब हमारे दिल में है

 


कल एक जरुरी काम से नेता जी के घर जाना हुआ. वहीं से उनकी डायरी का पन्ना हाथ लग गया, साहित्यकार बनने की फिराक में लगा शिष्टाचारी लेखक हूँ सो इस मैदान के सामान्य शिष्टाचारवश चुरा लाया. बहुत ही सज्जन पुरुष हैं. सच बोलना चाहते हैं मगर बोल नहीं पाते. देखिये, उनका आत्म मंथन-उन्हीं की लेखनी से (अभी साहित्यकार बनने की फिराक में लगा हूँ अतः ऐसा कहा अन्यथा लिखता मेरी लेखनी से):

झूठ बोलते बोलते तंग आ गया हूँ. कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा. क्या करुँ, प्रोफेशन की मजबूरियाँ हैं.

रोज सोचता हू कि झूठ को तिलांजलि दे दूँ. सच का दामन थाम लूँ. मगर कब कर पाया है मानव अपने मन की.

हर दो महिने में तो चुनाव आ जाते हैं और ऐसे वक्त इस तरह के भाव-क्या हो गया है मुझे? लुटिया ही डूब जायेगी चुनाव में अगर एक भी शब्द सच निकल गया तो. वैसे राजनीति में रहते रहते रियाज़ ऐसा हो गया है कि झूठ यूं ही निकलता रहता है अलबत्ता सच कहने के लिए शायद सजग प्रयास करना पड़े.

बुरा लगता है जब लोग मुझे कभी झुटठा, कभी फेंकूँ, कभी जुमलेबाज पुकारते हैं मगर क्या किया जाए? सच नकारा भी कैसे जाए? नकारने जाओ तो दूसरा झूठ सामने आ जाता है.

अपने झूठ को सच करने के लिए कागज दिखाओ तो कागज का सच भी सामने आ जाता है- करेले पर नीम चढ़ जाता है. उससे बेहतर तो कई बार लगता है कि करेले को करेला ही रहने दो, लोग जानते तो हैं ही – क्या झूठ को सच साबित करना.

मगर कभी अकेले में मन धिक्कारता है तब सोचता हूँ कि क्या सच कह दूँ जनता से??

-यह कि तुम जैसे गरीब हो वैसे ही रह जाओगे, हमारे बस में नहीं कि तुम्हें अमीर बनवा दें? हम जो भी कहते हैं वो सब जुमले होते हैं मगर तुम हो कि बता देने के बाद भी समझते ही नहीं तो मेरा क्या दोष?

-यह कि मँहगाई बढती ही जायेगी. आज तक कुछ भी सस्ता हुआ है जो अब होगा? दाम कभी नहीं गिरते. वस्तुओं के दाम और हम नेताओं के नैतिक मूल्यों में यही तो मूलभूत अंतर है कि दाम कभी नहीं गिरते और हमारे नैतिक मूल्यों के गिरते चले जाने की कोई सीमा नहीं है. पाताल ने भी अपने धरातल के द्वार खोल दिये हैं हमारे लिए कि हमसे भी परे जाने की अगर किसी में क्षमता है तो वो आप में.

-यह कि मैं तुम्हारे बीच ही रहूँगा? लोग इतना भी नहीं समझते कि अगर मैं उनके बीच रहा तो फिर दिल्ली कौन जायेगा, विदेशों में कौन घूमेगा? मित्रों को विदेशों में काम कौन दिलाएगा – उनके हवाई जहाज कौन इस्तेमाल करेगा?

-यह कि तुम्हारी समस्यायों से मुझे कुछ लेना देना नहीं. तुम जानो, तुम्हारा काम जाने. इतना तो समझो कि मेरे पास अपने खास मित्रों की समस्याओं का ही अंबार खत्म होने का नाम नहीं लेता तो तुम तो मेरे मित्र हो भी नहीं – किसे पहले देखूँ?

-यह कि मैं बिना घूस खाये अगर सब काम करता रहा तो चुनाव का खर्चा और विदेशों में पढ़ रहे मेरे बच्चों का खर्चा क्या तुम्हारा बाप उठायेगा. घूस तुमसे न भी लूँ तो मित्रों से हिसाब किताब का बोझ तो तुम पर पहुँच ही जाता है।

-यह कि मैँ हिन्दु मुसलमानों के बीच दरार डालूंगा ताकि मैं लगातार चुनाव जीतता रहूँ. इस पर तो कुछ भी क्या कहना? कौवा कान ले गया कहना ही काफी है और तुम बिना कान चैक किए कौवे की पीछे भागने लगते हो तो मैं भी क्या करूँ? छू लगाने का शौक तो मुझे बचपन से रहा है.

-यह कि ..यह कि..यह कि....

क्या क्या बताऊँ, लोग तो सभी ज्ञानी हैं, सब समझते हैं. मेरी मजबूरी भी समझ ही गये होंगे.

फिर मैं ही क्यूँ अपराध बोध पालूँ?

मुझे तो एक पुरोहित ने बताया है गंगा गंगोत्री से भले निकलती हो मगर लोग उसे दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते- सबसे स्वच्छ और पवित्र – आँसू होते हैं और आप तो जानते ही हो मैं आँसू के दरिया में तो जब तब डुबकी लगा ही लेते हूँ -सारे पाप धूल जाते हैं.  

आज इतना ही, एक पार्टी में जाना है. देश हित में एक सौदे की बात है. मेरी नहीं- दोस्त की.

संपादकीय टिप्पणी: ध्यान दिया जाये कि नेता भाषण कितना भी लम्बा दे ले, लिखता जरा सा ही है.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार अप्रेल 9, 2023 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/3035

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