रविवार, जुलाई 30, 2017

गठबंधन का तो स्वभाव ही खुलना और बँधना है...

ये बंधन तो प्यार का बंधन है, जन्मों का संगम है
यह गीत के बोल हैं करण अर्जुन फिल्म के जो इस वक्त कार में रेडिओ पर बज रहा है.
सोचता हूँ कि कितने ही सारे बंधन हैं इस जीवन में. विवाह का बंधन है पत्नी के साथ. प्यार भी ढेर सारा और कितना ही टुनक पुनक हो ले, लौट कर शाम को घर ही जाना होता है और फिर जिन्दगी उसी ढर्रे पर हंसते गाते चलती रहती है . गाने की पंक्ति बज रही है... विश्वास की डोर है ऐसी, अपनों को खीच लाती है. विवाह का बंधन इतना तगड़ा होता है कि फेवीकोल वाले भी इसे अपने इस्तेहार में जोड़ की ताकत दिखाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. रिटर्न गिफ्ट में शादी डाट कॉम वाले फेवीकोल से मजबूत रिश्तों की दुहाई देते हैं.
रिश्तों के बंधन है. कर्तव्यों और दायित्वों को निभाने का बंधन है. समाज के बंधन हैं जो आपको गलत कार्य करने से रोकते हैं वरना समाज को क्या मूँह दिखायेंगे वाले. 
मित्रता के बंधन हैं. अपने वचनों और वादों को निभाने का बंधन है. मगर ये बंधन भी उन्हीं के लिए हैं जो इन्हें माने. वरना तो इन बंधनों की हालत भी गाँधी जी के समान ही हो ली है. जो इन्हें मान्यता देता है वह राष्ट्रपिता कह कर भारत की आजादी में उनके योगदान और अहिंसा को नमन करके श्रृद्धावनत हो जाता है, वहीं न मानने वाले कहते हैं कि गाँधी न होते तो आज भारत की तस्वीर दूसरी होती. भारत का कभी बटवारा न होता. नेहरु प्रधानमंत्री न होते बल्कि पटेल होते ..आज भारत जो २०१४ के बाद से बनना शुरु हुआ है वो १९४७ से बन रहा होता. ये दूसरी बात है कि क्या बन रहा है वो दिखता तो इतने सालों में भी नहीं, यह तय है.
ठीक ऐसे ही इन बंधनों से मुक्त संपूर्ण नेताओं की जमात है, जैसे आर टी आई से लेकर तमाम कानून, परोक्ष या अपरोक्ष, मगर इन पर लागू नहीं होते हैं.
वादों को जुमलों का नाम देकर उसके बंधन से मुक्त होना भी इसी मुक्ति मार्ग का नया प्रचलन है मगर मुक्त तो ये सर्वदा से थे ही.
इस जमात में जो सबसे प्रचलित बंधन है उसे गठबंधन का नाम दिया गया है. नाम किसने दिया है यह तो नहीं मालूम मगर संधि विच्छेद विशेषज्ञ इसे गांठ वाला बंधन बताते हैं. सुविधानुसार जब मरजी हुई और जिससे सत्ता में काबिज होने का अरमान पूरा होता दिखा, उससे गांठ बांध ली. हो गया गठबंधन और बन गये सत्ताधीष. जब लगा कि अब सामने वाली की अपेक्षायें बढ़ती जा रही हैं और उसे पूरा करना संभव न हो पायेगा तो गाँठ खोल कर दूसरे को लुभा लाये और उससे गठबंधन कर लिया और पहले वाले से खत्म. मुद्दा सत्ता बनी रही...गाँठ का तो स्वभाव ही खुलना और बँधना है, इसमें ये बेचारे क्या करें.
जैसा कि पहले ही बता दिया गया है ये जमात समस्त बंधनों से मुक्त है अतः इन्हें न तो जनमत के बंधन से कुछ लेना देना है और न ही किस मूँह से वापस उसी जनता के बीच वापस जायेंगे, वाली शरम के बंधन से कुछ लेना देना है.
कुछ रोज पहले जिसको सामने तो क्या, पोस्टर पर देखना भी मंजूर न था. जिसे सुबह शाम धोखेबाज करार दे रहे थे, आज एकाएक उसी से गाँठ बाँध ली. बस किसी भी तरह, सत्ता पर काबिज रहें.
कभी कभी लगता है कि जनता के बदले तोते से पर्चियाँ निकलवा कर प्रत्याशी चुन लिया जाना चाहिये और फिर गठबंधन गठबंधन खेल कर सरकार बना ली जाना चाहिये. जब जनता की मरजी का कुछ होना ही नहीं है तो उनका समय, चुनाव की तामझाम, लुभावने वादों से नाहक सपनों के संसार की उम्मीदें, बेइंतहा पैसा आदि व्यर्थ क्यूँ गंवाना? न ईवीएम में गड़बड़ी का चार्ज लगेगा, न घपलेबाजी का और न ही हैकाथन करवाने की झंझट मोल लेना पड़ेगी..
हम तो सिर्फ उपाय ही बता सकते हैं भलाई के लिए अतः बता दिया. करना धरना तो उन्हीं को है मगर हमारे बताये उपाय और उनकी अब तक की जुगत (वे इसे चाणक्य निती पुकारते हैं) देख कर मन में एक संशय जाग उठा है कि अगर तोते ट्रेन्ड करके ले आये तब तो बस उन्हीं की पर्चियाँ खींचेगा...और विपक्षी चीखेंगे कि तोताथन करवाओ जी..सब के सब तोते भी इनसे मिले हुए हैं...
तब पहली बार तोता और नेता का गठबंधन यह विश्व देखेगा...
विश्वगुरु यूँ ही थोड़े न कहलायेंगे.
-समीर लाल ’समीर’
    
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार ३० जुलाई के अंक में:

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शनिवार, जुलाई 22, 2017

मर्यादाएं तोड़ना अक्सर तबाही की ओर ले जाता है..


भरपूर बारिश का इन्तजार किसान से लेकर हर इंसान और प्रकृति के हर प्राणी को रहता है. भरपूर बारिश शुभ संकेत होती है  इस बात का कि खेती अच्छी होगी, हरियाली रहेगी, नदियों, तालाबों, कुओं में पानी होगा. सब तरफ खुशहाली होगी. लेकिन जब यही बारिश भरपूर की मर्यादा  तोड़ बेइंतहा का दामन  थाम कर  बाढ़ की शक्ल अख्तियार कर लेती है, तब वह अपने साथ तबाही का मंजर लाती है.
मर्यादाएं तोड़ना अक्सर तबाही की ओर ले जाता है.
इसीलिए कहते हैं ना अति बरखा  ना अति  धूप - अति सर्वत्र वर्जिते!
बाढ़ से जहां एक ओर खेती नष्ट होती है. वहीं दूसरी तरफ जान माल की भी बहुत हानि होती है इसे प्रकृति का प्रकोप माना जाता है.
ऐसा नहीं की बाढ़ सिर्फ पानी  की होती है. जहां कहीं मर्यादाएं   लाँधी जाती है.. किसी बात की अति कर दी जाती है, तब वह बाढ़ का ही स्वरुप मानी जाती है और एक तबाही का मंजर पैदा करती है. हमारे देश में समय समय पर कभी धरनों की बाढ़,  कभी आंदोलनों की बाढ़, कभी पुरस्कार वापसी की  बाढ़, कभी देशद्रोह की बाढ़ और भी न जाने कैसी कैसी बाढ़ें देखने में आती है.. अंततः देखा यही गया है कि सभी  तबाही की ओर एक नया कदम होते हैं.
पिछले दशक में इंटरनेट, फेसबुक, ब्लॉग, व्हाटसएप आदि नें  संपादकों द्वारा  साहित्य में निर्धारित मानकों  की मर्यादाओं को तोड़ते हुए सीधे लिखने वाले के हाथ में छापने की बागडोर  सौंप दी.. तब देखिए  नए-नए कहानीकारों और कवियों की ऐसी बाढ़ आई कि जो भी  टाइप करना सीख गया, वह कवि और कहानीकार हो गया. अगड़म बगड़म चार पंक्तियां लिखी और उसे नव कविता का नाम दें   फेसबुक पर छाप  खुद को  नामचीन  कवि मान बैठे. इस जमात की बाढ़ ने कविता और साहित्य की दुनिया में कैसी तबाही मचाई है, यह किसी से छुपी नहीं है. पानी की बाढ़ की तबाही से  तो खैर देश  जल्द ही उबर आता है.. लेकिन साहित्य  और कविताओं की इस तबाही से  उबरने में साहित्यजगत को सदियाँ लग जाएंगे मगर  दर्ज यह मंजर फिर भी रहेंगे.
इसी कड़ी में हाल ही में व्यंग्यकारों की  भी एकाएक बाढ़ सी आ गई है और जल्द ही व्यंग्य के क्षेत्र में भी तबाही का मंजर देखने में आएगा. व्यंग्य के स्थापित मठाधीशों को तो नजर आने भी लगा है. मैं खुद भी अपनी तरफ से इस तबाही के हवन में कुछ  दो  चार  आहूतियां डालते चल रहा  हूं ताकि इतिहास बनाने में पीछे न छूट जाऊँ. कविता और कहानी के क्षेत्र में भी मेरी आहूतियां की अहम भूमिका को इनकी तबाही का इतिहास हमेशा याद  करेगा.
कुछ बरस पहले भ्रष्टाचार की बाढ़ का मंजर सब ने देखा.  भ्रष्टाचार  की अति  ने सदियों से जमीं कांग्रेस पार्टी को ऐसा नेस्तनाबूद और तबाह किया कि अब  चंद गिनती के  सिपाही इसे जिंदा रखने के लिए सीपीआर देने में जुटे हैं और इसकी सांस है कि लौटकर आने का नाम ही नहीं लेती.
इधर कुछ वर्षों में मोदी-मोदी के समर्थन की भी बाढ़ सी आई हुई है.  बाढ़ तो क्या कहें इसे, सुनामी कहना ही ज्यादा मुफीद होगा.  जैसे सुनामी के बाद जहां देखो, सब कुछ जलमग्न दिखाई देता है.. एक आध  टापू नुमा  कुछ अगर बचा भी रह जाए तो इस अताह जलराशि के समुंदर में वो कहीं अपनी कोई अहमियत नहीं रखता और देखते देखते एक दिन  हिम्मत हार कर वह भी उसी समंदर में डुबकी लगा लेता है. वही हाल पूरे हिंदुस्तान  ने इस सरकार को समर्थन देकर सब कुछ मोदीमय एवं मोदीमग्न कर दिया है.
लोकसभा के बाद  सबसे बड़े प्रदेश, उत्तर प्रदेश में पुनः  वही सुनामी ऐसा हाहाकार मचा कर उठी कि गोवा और उत्तराखंड जैसे प्रदेश जहां बाढ़  न भी आई थी, वह भी टापू मानिंद सुनामी की हाहाकार में मोदी रुपी समुंदर में डुबकी लगा कर बैठ गए. फिर तो चाहे दिल्ली महानगरपालिका हो या लेफ्टिनेंट गवर्नर या राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव.. हर तरफ समर्थन की वही बयार..
मैं नहीं कहता  कि हम किसी तबाही की ओर  अग्रसर है और न ही  मुझे देश के कोने कोने से प्राप्त, भले ही कोई इसे ईवीएम की  घपलेबाजी माने  या झूठे वादों और  प्रलोभनों का असर, समर्थन से कोई एतराज है.. बस बाढ़ का स्वभाव जानता  हूँ और  सुनामी का तांडव देख चुका हूं  तो मन घबरा सा जाता है..
घबराए मन की व्यथा लिख दी है ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे..
-समीर लालसमीर

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे के जुलाई २३, २०१७ के अंक में प्रकाशित
http://epaper.subahsavere.news/c/20762304

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बुधवार, जुलाई 19, 2017

पानी केरा बुदबुलदा, अस मानस की जात



कम्प्यूटर पर उपल्ब्ध अनगिनित खेलों में से एक है – बर्स्ट द बबल.
इस खेल में कम्प्यूटर स्क्रीन के अलग अलग कोने में कहीं से भी एक बबल (बुलबुला - बुदबुदा) उठता है और आपको अपने कर्सर से नियंत्रित सुई को उस बबल पर ले जाकर उसे फोड़ना होता है. अगर आप निर्धारित समय में निशाना साध कर बबल न फोड़ पाये तो बबल चंद सेकेंडों के लिए इधर उधर उड़ते हुए अन्नत में कहीं खो जाता है और दूसरा बबल दूसरी जगह उभर कर आ जाता है.
बबल फोड़ लेने पर आपको एक पाईंट मिलता है और न फोड़ पाने पर कम्प्यूटर को एक. आप बस कभी यहाँ कभी वहाँ बबल का पीछा करते हुए इस खेल में ऐसा उलझ जाते हैं कि आपके जीवन में मानो बबल फोड़ लेना ही एक मात्र समस्या हो..ऐसे में बाकी दिन भर की परेशानियाँ और जिन्दगी की समस्यायें बाजू में खड़ी मूँह बाये आपकी नजरे इनायत का इन्तजार करती हैं.
इसी वजह से इस खेल को स्ट्रेस बस्टर केटेगरी में रेड कार्पेट गेम ऑफ द गेम्स के अवार्ड से नवाजा गया है.
निश्चित ही कम्प्यूटर खेल खिला रहा है तो जीतना भी उसी का तय है मगर बस आप निराश न हों और जीत की आशा कायम रहे इस हेतु बीच बीच में आपको एक दो बबल फोड़ने भी देता है और आपके खेलने का उत्साह देखते हुए एक दो बार आपको जिता भी देता है...जैसे हम अपने बच्चों को दौड़ना सिखाते हुए कई बार बहाने से हांफते हुए उन्हें रेस में जीत जाने देते हैं और बच्चा खुशी के मारे चिल्लाते हुए आत्म विश्वास से भर जाता है कि मैने पापा को हरा दिया...मम्मी भी उसका कंधा थपथपाती है..ओह मेरे बेटे, पापा को हरा दिया..मेरा बेटा सुपर मैन हैं. बच्चे को छोड़ सब जानते हैं कि यह उसके आत्मविश्वास के खोखले गुब्बारे में भरी जा रही वो हवा है जिससे वह अपने आने जीवन को जी जाने को उत्साहित होता है.
इधर जबसे इस खेल को जाना, खेला और सोचा तो समझ आया कि..ये बबल और कुछ नहीं..कभी अच्छे दिन, कभी काला धन, कभी नोटबन्दी, कभी भगवा ब्रिगेड, कभी घर वापसी, कभी रोमियो एक्ट, कभी मंदिर मस्जिद, कभी पशुरक्षक, कभी आतंकवाद, कभी भारत पाक, कभी कश्मीर, कभी वन्दे मातरम, कभी क्रिकेट विश्व कप, कभी राष्ट्रपति चुनाव, कभी जी एस टी, कभी भारत चीन समस्या.... तो कभी कुछ और हैं...
खिलाने वाला कम्प्यूटर और कोई नहीं..हमारी सरकार है...जीतना उसी को है..आपके मन बहलाने के लिए कभी कभी आप जीते का भ्रम पैदा करती रहती है बस!!
और खेलने वाले आप...सारे दुख दर्द भूल कर कभी इस बबल को फोड़, कभी उस बबल को फोड़ में उलझे जीवन जिये जा रहे हैं..कल फिर एक नया बबल उगेगा..आज का भारत चीन समस्या का बबल फिर अनन्त में खो जायेगा..फिर कभी भविष्य में आपके जीवन के स्क्रीन पर उबरने के लिए..
और आप फिर तत्पर होंगे एक बौखलाहट की सुई लिए इस बबल को फोड़ डालने के लिए..शायद फोड़ देने का भ्रम आपके खाते में कभी आ भी जाये मगर जीत तो खिलाने वाले की ही तय है..
कबीर का कहा याद आया:
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात
आपकी नियति उन्हें हरा कर भी हार जाना है और उनकी सियासी सोची समझी चाल.. कभी कभी हार कर जीत सुनिश्चित करना..

-समीर लाल ’समीर’ 

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शनिवार, जुलाई 15, 2017

छिद्दन बाबू कहत रह चिंता में सरकार

बताते हैं छिद्दन बाबू का नाम चिन्तन के अपभ्रंश से बना. बचपन में उनका नामकरण चिन्तन हुआ था. जथा नाम तथा काम की तर्ज पर बचपन से हर विषय पर इतना अधिक चिन्तित हो लेते कि पूरा परिवार परेशान हो उठता. ऐसे में ही एक बार बारिश को देखकर ऐसा चिन्तित हुए कि कहने लगे कि जाने कौन को ऐसी गजब गुंडई छूटी है कि पूरा आसमान छेद डाला. बचपने के इस चिन्तन की चर्चा पूरे गांव में माखौल का विषय बनी और चिन्तन बाबू को लोग छिद्दन बाबू पुकारने लगे, मगर उनकी हर विषय पर चिन्तित रहने की आदत न गई.
इसी चिन्ता चिन्ता में पढ़ लिख तो अधिक न पाये मगर दखल हर विषय में देने लगे. प्रभु की कृपा से वाणी भी ओज़ भरी पाई तो कालान्तर में जब किसी विषय पर चिन्तित होकर अपनी चिन्ता प्रकट करते और उसका हल सुझाने का दावा करते तो लोग उन्हें मगन होकर सुनते.
सुबह से लेकर शाम तक वह चौराहे पर चौरसिया जी की पान की दुकान के बाहर बैंच पर बैठे पर चिन्तन करते रहते और जहाँ चार पाँच सुनने वाले इक्कठे हो जाते तो अपना ओजस्वी भाषण भी दे डालते. यही उनकी दिनचर्या रही है.
छिद्दन बाबू का तकिया कलाम रहता कि अरे ससुरे, हमसे तो पूछ लेते एक बार..हम बताते न उनको समस्या का हल चुटकी में. बात करते हैं!!
इसी हल बताने की श्रृंखला में कभी वह नोट बंदी पर चिन्तन करते हुए पाये गये कि ये तो कोई तरीका न हुआ काला धन निकलवाने का.. अरे ससुरे, हमसे तो पूछ लेते एक बार..हम बताते न उनको, काला धन मिनटों में बाहर निकलवा देते. हम तो वो बला हैं कि काला धन तो क्या, काला नाग बिल में मिनटों में बिना बीन बजाये बाहर निकाल डालें..बात करते हैं. ऐसे में कोई अगर पूछ बैठता कि छिद्दन बाबू, अगर आपसे पूछते तो आप क्या हल बताते? छिद्दन बाबू लगभग चीखते हुए कहते कि पूछते तब की तब बताते..अब उनने अपनी मन की कर ली है तो अपनी ही करें..हमसे न पूछें..वरना तो हमारा गुस्सा जानते ही हो..इधर उनकी स्कीम और इधर हाथ में हमारा जूता..बात करते हैं!
बस, गुस्से में रिसाये बोलते रहते कि पहले पूछते तो हल बताते..अब जाओ अपने मन की ही करो!! मगर कभी हल न बताते..
उनके जानने वालों को बस उस दिन का इन्तजार है जब कोई किसी बात के हल पर अपना तरीका न आजमाकर पहले छिद्दन बाबू से हल मांगने आ जाये और लोग देखें कि कैसे छिद्दन बाबू ने चुटकी बजाते ही हल कर दी समस्या. मगर यह भी काला धन निकल आने की तरह ही शास्वत इन्तजार का विषय ही बना रहा गया है अब तक तो.
आज छिद्दन बाबू भारत चीन समस्या को लेकर चिन्तित दिखे. कहने लगे ये तो हमेशा की समस्या रही है फिर आज क्यूँ कूद कर सामने आ रही है. वैसे भी इसका हल तो चुटकी में निकाल सकता हूँ मगर ससुरे हमसे पूछे तब न.. करने दो उन्हें उनके मन की.
अभी पहले का चिन्तन का कोई हल निकल न पाता इसके पहले एक नई समस्या की चिन्ता की आँधी पुरानी चिन्ता को अपने गुबार के नीचे दबा डालती. लोग उनके नये ओजस्वी भाषण सुनने लगते और पुरानी समस्या भूल जाते..ऐसा लगता कि वो समस्यायें अब न रही और बस, एक ही समस्या बच रही है कि भारत चीन न भिड़ जायें आपस में...
गहराई से सोचें तो यह मात्र छिद्दन बाबू की चिन्ता के साथ नहीं है ..पूरा देश इसी लपेटे में हिचकोले खाते हुए जिये जा रहा है...और हमारे रहनुमा इस बात से भली भाँति परिचित हैं कि आज की समस्या को हल करने के लिए कल बस एक नई समस्या ही तो चाहिये..जनता का क्या है वो उसके हल के लिए बिलबिलाने लगेगी..
यही नियति है जनता की और यही तरीका भी इतने बड़े देश को चलाने का...
भारत चीन के आगे कई जहाँ और भी हैं..आगे आगे देखिये होता है क्या!!
-समीर लाल ’समीर’

भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जुलाई १६, २०१७ अंक में प्रकाशित
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शनिवार, जुलाई 08, 2017

अनेकता में एकता टाईप...एक देश एक टैक्स जी एस टी

जूते पर १८ प्रतिशत जीएसटी..मगर जूते अगर ५०० रुपये से कम के हैं तो ५ प्रतिशत जीएसटी..इसका क्या अर्थ निकाला जाये?
५०० से कम का जूता पैरों में पहनने के लिए हैं इसलिए कम टैक्स और महँगा जूता शिरोधार्य...इसलिए अधिक टैक्स? 
एक देश एक टैक्स के जुमले की बरसात में एक वस्तु अनेक टैक्स टिका गये और लोग जान ही न पाये..
एक देश एक टैक्स का छाता और उसमें से बरसात की बूँदों की तरह बाजू बाजू से सरकती अनेकों टैक्स स्लैबों की बूँदें..आम जन समझ ही नहीं पा रहा है कि ये कैसा एक टैक्स है? अनेकता में एकता टाईप...
आमजन को सरल भाषा में समझाने के लिए कुछ यूं समझाना होगा कि जैसे सरकार का कहना है कि अब तक का पूरा विकास इस बरस की भारी बरसात के कहर के चलते बरसात के बट्टे खाते में चला गया है....
लेकिन सर किसान तो वैसे ही सूखे की मार से मर रहा है और आप कह रहे हैं कि बरसात का कहर हुआ है...पत्रकार पूछ रहा है..
सरकार कह रही है कि देखिये सूखा दीगर मामला है. उसे विपक्षियों नें राजनेतिक रंग दे दिया है. सूखा गरमीसे पड़ता है और बरसात बारिश से होती है..ये दोनों विपरीत मामले हैं..अतः पहले आपको यह तय करना होगा कि आप सूखे पर बात करना चाहते हैं या बरसात पर. दोनों अलग अलग मुद्दे हैं. आप हर बार पाकिस्तान से संबंध और आतंकवाद से निपाटारा की तरह दो बातों को मिला जुला देते हैं फिर तो कन्फ्यूजन होगा ही. आप सूखे की बात अगले इन्टरव्यू में करियेगा..अभी गीले की करिये..
अभी आप यूँ समझें कि हमारे वैज्ञानिक गुप्त कमरे में बन्द सुबह शाम इस हेतु कार्य में लगे हैं कि किस तरह से हम बरसात के कहर से मुक्ति पायें. जल्द ही हम भारत को बरसात मुक्त करा देंगे.
हम आपको बताते हैं कि किसान को बरसात से अपनी डिपेन्डेन्सी हटानी होगी. इस देश को विदेश बनाने के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ेगा. उन्हें अपने खेतों को सींचने के लिए ट्यूब वैल, नदियों और नहरों के पानी पर अपनी निर्भरता बढ़ानी होगी. उन्हें अपने खेतों में स्प्रिंकलर लगाने होंगे..ताकि खेत को लगे बरसात हो रही है मगर देश में बरसात हो ही नही रही हैं. देश बरसात मुक्त हो गया है. थोड़ा चकमा देना भी तो जरुरी है चाहे खेत हो या आम जनता..फिर देखो खेत कैसे अनाज देता है जैसे आम जनता वोट देती है!!
अब आप ही देखो एक बार ऐसे ही गुप्त कमरे में बन्द होकर हमने नोटबन्दी करके जो पाना चाहा वो भले न हुआ हो मगर जनता को एहसास करा दिया कि काले धन के रुप में छुपे नोटों की बैक खातों में बरसात हो गई है और सब काले नोट निकल आये हैं. परिणाम ये हुआ कि यूपी के चुनाव में वोटों की बरसात हो गई. 
मगर बिना बरसात के ट्यूब वैल, नदी, नहरों में भी पानी कहाँ से आयेगा सर? पत्रकार ने अपनी आशंका जताई.
आयेगा आयेगा..भरोसा रखने से आयेगा..आखिर बिना काले धन की वर्षा हुए भी यूपी में गर्जन से साथ वोट वर्षा हुई ही न..वोट आये ही न!!
पानी की आप चिन्ता न करें..उसके लिए हम बातचीत कर रहे हैं. हमें अपने किसान भाईयों की चिन्ता है. हमें चाहे कितना भी पानी आयात करना पड़े, हम आयात करेंगे और नदियों, नहरों और ट्यूब वैलों को लबालब भर देंगे.
हमारे देश की दाल जब विदेशी हो गई तो आपने देखा ही कि इस साल हमने कितनी दाल विदेशों से आयात की..मगर दाल की कमी न होने दी..भले ही महँगी मगर बाजार में थी तो न! 
इतना कुछ जानने सुनने के बाद में लगा...कि बस एक चूक हो गई...
बरसात के पानी पर कितना जीएसटी हो उसकी बात तो हुई न..फिर आयत वाले पानी पर कितना टैक्स रखा जाये वो कैसे तय होगा..
बस!! इन्तजार है सरकार दौरे से लौटे और इस पर भी जीएसटी में एक बदलाव की बरसात करे..
संशोधनों की बरसात तो खैर नित होनी ही है!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे की जुलाई ९, २०१७ के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/20393977

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सोमवार, जुलाई 03, 2017

सागौन का पेड़

किसान है बिरजू..तो तय है परेशान तो होगा ही..मरी हुई फसलें और उनके चलते सर पर चढ़े बैंक के लोन का बोझ..
ये परेशानी भी ऐसी वैसी नहीं है..उस सीमा तक की है कि बिरजू जान गया था अब आत्म हत्या के सिवाय कोई विकल्प बाकी नहीं बचा है.
वो सुबह सुबह उठा, पत्नी और बच्चों को सोते में ही देखकर मन के भीतर भीतर माफी माँगते हुए अहाते में लगे पेड़ पर रस्सी से फंदा बना कर लटक गया..आज वो मुक्त हो जाना चाहता था हर दायित्व से और हर उस कर्ज के बोझ से..जिसके नीचे दबा वो जिन्दा तो था पर साँस न ले पाने को मजबूर.. मगर किस्मत जब साथ न तो मौत भी धोखा दे जाती है. पेड़ की टहनी कमजोर थी...जामुन के पेड़ में भला ताकत ही कितनी होती है कि उसका वजन ले पाती..कर्ज में डूबा था मगर था तो मेहनती किसान ही. टहनी टूट गई और वो धड़ाम से गिरा जमीन पर..
कहते हैं गिरना हमेशा एक सीख देकर जाता है..तो भला वो कैसे अछूता रह जाता...
वो जान गया है कि सदियाँ बीत जायेंगी मगर हालात नहीं बदलेंगे..किसान आज भी भले कहलाता अन्नदाता है मगर परिस्थितियाँ यूँ हैं कि आत्म हत्या को मजबूर है..ये कल भी यूं ही था और कल भी यूं ही रहेगा..
एकाएक वो उठा और घर में बचे सारे पैसे लेकर निकल पड़ा बस पकड़ कर शहर की तरह...
शाम देर से लौटा तो उसके पास सागौन के पेड़ के बीज थे..
कल वो अहाते से जामुन का पेड़ उखाड़ फेकेगा...और बोयेगा सागौन का बीज..
वो जानता है कि वो बीज अगले ५० साल बाद में जाकर परिपक्व मजबूत पेड़ बनेगा सागौन का..
मगर वो यह भी जानता है कि अगले ५० साल बाद भी हालात न बदलेंगे और उसकी आने वाली पीढियाँ भी उसी की तरह अन्नदाता कहलाती किसी पेड़ से लटक कर आत्म हत्या करने को अभिशप्त होंगी..
बस अब वो यह नहीं चाहता कि उसकी आने वाली पीढ़ियाँ भी उसी की तरह कम से कम आत्म हत्या कर इस जीवन से मुक्त हो जाने में धोखा न खायें..
बाकी तो हर तरफ धोखा खाना किसान होने के कारण उसकी नियति है ही..
आज वो खुश है कि चन्द दशकों में उसके अहाते में सागौन का एक मजबूत पेड़ खड़ा होगा सीना ताने..
वो तो न होगा तब..मगर उसकी आने वाली नस्लें उसे याद करेंगी कि क्या इंतजाम करके गये हैं बिरजू दद्दा..
-समीर लाल समीर
अमेरीका से प्रकाशित अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ’सेतु’ के वार्षिकांक, २०१७ में प्रकाशित

http://www.setumag.com/2017/06/Sameer-Lal-Fiction.html

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शनिवार, जुलाई 01, 2017

जीएसटी: देशप्रेमियों को चिन्ता करने की जरुरत नहीं

लगान भूमि पर सरकार द्वारा लगाया गया कर है. इस बात से अनजान मात्र आमजन नहीं, बल्कि सरकार पक्ष के नेता भी अपनी बात और पक्ष साबित करने के लिए जी एस टी को लगान लगान पुकारे जा रहे हैं.
मित्र कहने लगे कि सरकार बिल्कुल पुराने राजे महाराजे वाले समय की तरह हरकत कर रही है, आमजन की सुन ही नहीं रही और मनमानी करते हुए रात बारह बजे घंटा बजा कर प्रजा को यह बता रही है कि अब हम आ रहे हैं बैण्ड बजाने तुम्हारी.
सरकारी पक्ष के नेता, वो भले जी एस टी का फुल फार्म न जाने मगर इतना बयान देने में तो बिल्कुल नहीं चूक रहे हैं कि सरकार तो चलती ही लगान से है..लगान न लेंगे तो देश चलावेंगे कैसे?
लेकिन एक कहे वाक्य के पीछे हजार अनकहे वाक्य होते हैं जिन्हें पारखी ही सुन पाते हैं जैसे हर एक चेहरे के पीछे छिपे होते हैं हजार चेहरे...
लगान न लेंगे तो देश चलावेंगे कैसे के पीछे...फिर विदेश जावेंगे कैसे? बड़े बड़े साथी व्यापारियों को लोन से छुटकारा दिलावेंगे कैसे? चुनाव में मेगा रैलियाँ उनसे स्पॉन्सर करावेंगे कैसे? विपक्षियों की बाजा बजावेंगे कैसे? सांसदों की सेलरी बढ़ावेंगे कैसे? सांसद कैन्टीन में सब्सडी दिलावेंगे कैसे? दस लाख का सूट सिलावेंगे कैसे? जैसे अनेक वाक्य दाँत चियारे खड़े हैं मगर वो आमजन को दिखेंगे कैसे..इन बहु मुख धारियों के मेगा शो की चकाचौंध में जो इन्होंगे जी एस टी लॉन्च करने के लिए की है....मानो सब्सीड़ी बाँट रहे हों...या बेरोजगारों के लिए लोन मेला लगाया हो..
शायद मेरी सोच ही गलत है...लगान होगा कभी जमीन पर लगने वाला कर मगर आज तो खुदरा व्यापारी और किसान ही वो जमीन हो गया है जिसे निचोड़ा जा रहा है..और जिसकी छाती पर १५ लाख हर खाते वाली मूँग दल कर सरकार खड़ी हुई है.. उस पर लगा हर कर(टैक्स) जमीन पर लगा कर ही तो कहलायेगा..फिर जी एस टी को लगान कहने में गुरेज कैसा?
कांग्रेसी और विपक्षी हैं कि देश के व्यापारियों को जी एस टी के खिलाफ भड़का कर भारत बंद से शहर बंद और आक्रोश दिवस मना कर सरकारी योजनाओं को धता बता रहे हैं...ये कहना है सरकार के एक पक्षधारी का..
मेरा मानना है कि अगर विपक्ष और कांग्रेस इतनी ही दमदार है कि किसान आंदोलन में शहरो में आग लगवा देती है और जी एस टी के खिलाफ देश और शहर बंद करवा देती है तो चुनाव में इनकी लहर कहाँ गुम हो जाती हो जाती है..कहीं चुनाव वाली लहर किसी और समुन्दर की तो नहीं.. चुनावी समुन्दर जिसकी लहर ई वी एम उठाती है..जिसे चुनौती देना देश द्रोह है. अतः मुआफी मांगता हूँ.
कौन जाने..क्या सही क्या गलत..
मगर कल रात १२ बजे घंटा बजा..और देश पुरानी सारी कर विसंगतियों से आजाद होकर एक देश एक टैक्स प्रणाली में आ गया..और विश्व के सबसे बड़े आर्थिक रुप से समृद्ध देश होने के राजमार्ग पर अग्रसित हुआ..
देशवासियों की देशवासी जाने..देश उनसे ऊपर है..
जो जी एस टी को देश चलाने के लिए लगान न मानेगा..उसके लिए देश द्रोह के तहत मुकदमों का प्रावधान करना जरुरी है..यह सरकार समझती है.
जो देश प्रेमी हैं उन्हें चिन्ता करने की जरुरत नहीं है.
 -समीर लाल ’समीर’ 

भोपाल के सुबह सवेरे में आज जुलाई २, २०१७ में प्रकाशित

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