एक अंदाज बस है कि शायद रात के तीन बजे के आस पास का समय होगा. नींद एकाएक सामने की सड़क से जाते ट्रक के हॉर्न से टूटी है.
पलंग से लगी खिड़की से लेटे लेटे बाहर झांकता हूँ आकाश में. आज कुछ भूरा सा रंग लिए है न जाने क्यूँ. बाहर क्या पता कि कैसा मौसम होगा-शायद महिने के अनुसार गरम ही हो. मगर कमरे में ए सी चल रहा है बिना किसी आवाज के शीतल वातावरण निर्मित करता.
विज्ञान की प्रगति के साथ प्रकृति से साथ छूटा. आप अपना वातावरण खुद निर्मित करने में सक्षम हुए. गरमी में सर्द या सर्दी में गर्म. मानव को एक अहंकार का भाव मिला. कमरे में रुम फेशनर की खुशबू से फूलों सी महक भरी है जबकि अस्पताल के ठीक नीचे बहता नाला जाने कितना बजबजा रहा होगा किन्तु मुझे उससे क्या लेना देना. मैं आत्म मुग्ध, अपने निर्मित वातावरण में.
अक्सर ही पाया गया कि अपने अनुरुप गढ़ा गया वातावरण, कहीं न कहीं शायद अहंकार की वजह से, वो नैसर्गिक सुख देने से वंचित हो जाता है जो हम अपने समय में सुविधाओं के आभाव में प्रकृति से जुड़ कर पाते थे. अब न गर्मी में छत पर खुले में सोने वाले और पड़ोसियों से छत से गपियाने वाले दिन रहे और न ही सर्दी में अँगीठी की आँच सेकते कमरे में रजाई में गुमड़ियाने के दिन जब मटर की गर्मागरम घुघरी हरी मिर्च और लहसून की चटनी के साथ अपनी अमिट छाप छोड़ जाती थी.
मैं चितरंजन अस्पताल में भरती हूँ कमरा नम्बर ४११. सीने में तीन दिन पहले दर्द उठा था शायद गैस की वजह से. दिन भर दबाये रहा मगर जैसा कि इस दर्द की शक्शियत है, रात को असहनीय हो उठा और बेटे को आवाज देनी ही पड़ी. आज बाजू में केयर टेकर के बिस्तर पर इस प्राईवेट एक्ज्यूकिटिव सूट के शानदार कमरे में बड़ा बेटा सोया है मेरी केयर करने को. बड़ी कम्पनी में अधिकारी है तो उसके पिता इससे कम सुविधा वाले कमरे में कैसे भरती रह सकते हैं.
सुबह ८ बजे बड़ी बहू नौकर के साथ आ जायेगी मेरे लिए चाय और नाश्ता लेकर. तब बड़ा बेटा घर चला जायेगा और नहा धो कर दफ्तर जायेगा. इस बीच छोटा बेटा ९.३० बजे यहाँ चला आयेगा ताकि बड़ी बहू घर जा सके. वो ११ बजे तक यहीं रहेगा. सूप वगैरह वो ही लायेगा. फिर ११ बजे छोटी बहू आ जायेगी और मेरे पास ही रहेगी २ बजे तक, जब बड़ी बहू वापस आयेगी लंच लेकर ताकि छोटी बहू घर जाकर छोटी और बड़ी बहू के स्कूल से लौटते बच्चों की टेक केयर करे.
अब ६ बजे छोटा बेटा दफ्तर से आकर मेरे पास रहेगा, बड़ी बहू घर जायेगी. वो मुझसे बात करेगा. डॉक्टरर्स से बात करेगा. आते रिश्तेदारों से सिर्फ और सिर्फ मेरी ही बात होगी. सब मेरे ही आसपास केन्द्रित रहेंगे. फिर छोटी बहू आकर रात का खाना खिलायेगी, मेरे तो हाथ में आई वी लगा है, खुद से खा ही नहीं सकता. तब थोड़ी देर में बड़ा बेटा आ जायेगा और वो रात भर रहेगा. यही दिनचर्या है जबसे यहाँ भरती हुआ हूँ.
अपनों का और अपने बेटों का इतना सानिध्य और अपनपा-इतनी मेरे और सिर्फ मेरे विषय में बातचीत और सब कुछ मुझ पर ही केन्द्रित देखे तो ५ बरस बीत गये, जब पत्नि मरी थी. क्या पता मैं ही मर गया था शायद. दोनों बेटे, दोनों बहूऐं सब मेरे साथ ही एक ही घर में रहते हैं मगर यहाँ मेरे ही कमरे में-मुझसे बात करते और मेरे ही लिए. यही बस अलग सी बात है यहाँ जो मुझे इतनी खुशी दिए जा रही है अपनी बीमारी की.
आई वी से टपकती बूँद बूँद ग्लुकोज की मिठास में पूरे वातावरण में अहसास रहा हूँ. जुँबा पर कोई स्वाद नहीं, बस अहसास, ठीक ग्लुकोज की मिठास सा.
कितना ही अच्छा लग रहा है मुझे कि मैं बीमार हुआ. लेकिन जाहिर भी तो नहीं कर सकता यह बात.
मेरी अशक्त्ता नें मुझे डरपोक बना दिया है शायद. हर वक्त डर रहता है कि मेरी कोई बात से मेरा ही कोई बच्चा नाराज न हो जाये. सामने हैं, दिखते रहते हैं तो एक मानसिक संबल रहता है. भले ही उनके पास मेरे लिए समय न हो.
डॉक्टर का कहना है कि जल्दी ही डिस्चार्ज कर देंगे.
है भगवन, मैं ठीक होकर अपने ही बनाये उस घर लौटना नहीं चाहता- मैं उस भरे पूरे घर के अपने एकाकी जीवन में, जहाँ होने को ये सब हैं पर मेरे पास कोई नहीं, लौटना नहीं चाहता. बस, वहाँ मैं और मेरे ही घर में मेरे कमरे तक सीमित मैं. मुझे तो तू अपने साथ यहीं से ले चल.
मैं अपने साथ अपनों की वो मधुर स्मृतियाँ ले जाना चाहता हूँ जो पिछले तीन दिनों में मैने सहेजी हैं मानो कि पत्नि के जाने के बाद के ५ बरस मैनें इन तीन दिनों के इन्तजार में ही जिए हों.
मगर भगवन, तू जल्दी कर, मैं अब भी चाहता हूँ कि मेरे बच्चे, समाज में अपनी पोजिशन बनाये रखने के लिए, अपनी इस नियमित कठिन अस्पताल आने जाने की जिम्मेदारियों से जल्दी मुक्त हो अपनी उन्मुक्त जिंदगी बितायें.
हे प्रभु, तुम सुन रहे हो न!!! बड़ा बेटा अभी बाजू के बिस्तर में गहरी नींद में है. चल, मुझे चुपचाप ले चल!!!!
(नोट: पिछली बार कुछ लोगों को लगा कि मैं अपनी डायरी का पन्ना दे रहा हूँ. एक स्पष्टीकरण देना चाहूँगा कि यह मेरी डायरी नहीं बल्कि अपने आस पास महसूस कर मैं एक बुजुर्ग को जीने का प्रयास कर रहा हूँ इन पन्नो के माध्यम से ताकि उन्हें मैं और आप बेहतर समझ सकें और उन्हें यथोचित मान सम्मान और समय देने का प्रयास करें.)
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चलो, अब मामला भारी सा हो लिया है तो एक नई रचना सुनो और खुश हो लो. डायरी उनकी, दर्द उनका..हमें क्या, हम ऐसे ही तो जीने के आदी हैं. तो फिर रचना हमारी-मुस्कान आपकी -की दरकार के साथ.
चुनाव का माहौल है तो उससे प्रभावित पहले कुछ शेर फिर कुछ चुलबुले भी, मूड ठीक करने को:
झूट की बैसाखियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
मूँग दलते छातियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
तू दगा करता उन्हीं से, जो भी तेरा साथ दे
वार करते साथियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
सज गया संपर्क से तू, कितने ही सम्मान से
कागजी इन हाथियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
यूँ जमीं कब्जे में करके, दे गया तू मशविरा,
घर बसा लो नालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
-समीर लाल ’समीर’
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सूचना:
१. कल १० दिनों के कलकत्ता और सिक्किम के प्रवास पर जा रहा हूँ. कलकत्ता में शिव भाई दौड़ा भागी में लगे सब इन्तजाम कर रहे हैं और मीत भाई से भी मुलाकात तय है. वापसी ३१ मार्च की है.
२. १८ मार्च की संजय तिवारी ’संजू’ के संदेशा द्वारा प्रस्तुत श्री विजय शंकर चतुर्वेदी जी (आजाद लब) के सम्मान में आयोजित रात्रि भोज की रिपोर्ट में यह बात हमारे संजय साहब आराम से दबा गये कि मैने जबलपुर के सभी ब्लॉगर्स को न्यौता देने की जिम्मेदारी उन पर रख छोड़ी थी.
थोड़ी गल्ति मेरी थी कि सब कुछ तय शाम ५ बजे पाया गया और संजय तक सूचना पहुँचते ५.३० बज गया और सब ७.३० बजे एकत्रित हो लिए जिन को भी वो सूचित कर पाये. बहुतों तक इस सूचना के न पहुँच पाने का मुझे दुख है. आगे फिर किसी दिन जल्द ही कनाडा वापस लौटने के पहले. :)