जैसे हाऊस वाईफ होती
हैं, याने कि वो महिला जिसके जिम्मेदारी घर संभालना रहती है मसलन खाना बनाना, कपड़े
धोना एवं एवं घरेलु कार्य करना. वह कहीं काम पर नहीं जाती है. उस पर कमाने की
जिम्मेदारी नहीं होती है. काम पर जाना और कमा कर लाना पति का काम होता है. समय के
साथ साथ थोड़ी परिभाषा बदली है जिसमें अब हाऊस वाईफ होने के लिए केवल कम्पल्सरी बात
इत्ती सी बची है कि वह कहीं काम पर नहीं जाती है. उस पर कमाने की जिम्मेदारी नहीं
होती है बाकि सब ऑप्शनल हो गया है.
वैसे भी आजकल
महानगरों में तो कम से कम पति पत्नि दोनों ही काम पर जाते और कमाते हैं तो हाऊस
वाईफ वाली तो बात इनके बीच बची नहीं. दोनों ही वर्किंग हैं. इसमें तो हसबैण्ड वाईफ
वाली बात ही सलामत रह आये, उसी की कशमकश है. दोनों कैरियर के प्रति सजग. दोनों की
अपनी प्राथमिकतायें. दोनों के पास सफेद कमीज इस हेतु कि भला उसकी कमीज मेरी कमीज
से ज्यादा सफेद कैसी? इसी होड़ में दांपत्य जीवन की गाड़ी के दो पहिये अक्सर ही
समानान्तर चलने की बजाये आगे पीछे हो लेते हैं और कई बार तो अलग अलग दिशाओं में
भागने लगते हैं और दांपत्य जीवन की गाड़ी लड़खड़ाते लड़खड़ाते टूट कर धाराशाही ही हो
जाती है.
तब एक नया ऑप्शन और
बाजार में पापुलर हो रहा है जिसे हाऊस हसबैण्ड कहते हैं. पश्चिम में नौकर चाकर तो
होते नहीं तो सभी काम खुद करने होते हैं. अतः हाऊस हसबैण्ड से आशा रहती है कि वो
घर के कामकाज देखेगा और वर्किंग वाईफ बाहर जाकर काम करके पैसा कमा कर लायेगी जिससे
घर चलेगा. पश्चिम के लिए हो सकता हो यह काम पर न जाने वाला पति जिसे हाऊस हसबैण्ड
कहा गया, एक नया कान्सेप्ट हो मगर हमारे यहाँ तो कई पुश्तों से घर में एकाध लोग
ऐसे होते ही थे. सारा परिवार उनको निख्खट्टू पुकारता था मगर उनकी अकड़ किसी भी
कमाने वाले के ऊपर ही होती थी. बड़े बुजुर्ग उनको देख कर कहते थे कि न काम के न काज
के, दुश्मन अनाज के..
दरअसल निख्खट्टू और
हाऊस हसबैण्ड में एक व्यवहारिक अंतर तो यह दिखता है कि निख्खट्टू की पत्नि फिर भी
हाऊस वाईफ ही होती थी अधिकतर और उनके यहाँ ज्वाईन्ट फैमली के कारण कामकाज की
जिम्मेदारी पिता से लेकर भाईयों तक, किसी की भी हो सकती थी.
वक्त के साथ साथ
जैसे जैसे महिलाओं के सम्मान और दर्जे की बात जोर पकड़ती गई, हाऊस वाईफ को होम मेकर
पुकारा जाने लगा. नाम बदल जाने का बहुत असर माना गया है. प्लानिंग कमीशन और निति
आयोग..नाम का अंतर ही इन्हें एक दूसरे से अलग बनाता है. और वही होम मेकर जब माँ बन
जाये तो स्टे होम मॉम कहलाने लगी. नये समय के हाऊस हसबैण्ड होम मेकर वाली पायदान
पर कभी खड़े न हो सके मगर पिता बनते ही स्टे होम डैड जरुर हो लिए. पुरुष और होम
मेकर..हूंह..ही केन नेवर बी होम मेकर..घर लौट कर हमको रोज चैक करना ही पड़ता है कि
उसने अपनी जिम्मेदारी का ठीक से निर्वहन किया कि नहीं और गैस व्हाट? ९०% हम पातीं
हैं कि नहीं!! लगता है जल्द जमाना आयेगा, जब पुरुष अपने अधिकारों के लिए आवाज
उठाने पर बाध्य होंगे इस तरह की लानतों मलानतों के बाद.
वैसे सहस्त्र सदियों
से पुरुष प्रधानता का आदी पुरुष मस्तिष्क ..कुछ सदियां तो लेगा ही सुधरते सुधरते..तो आज भी
वो हाऊस वाईफ में जहाँ वाईफ से पत्नि धर्म निभाने, पति की हुकुमत मानने आदि का आदी
है, वो वाईफ जब वर्किंग वाईफ हो जाती है और खुद चाहे वर्किंग हसबैण्ड हों या हाऊस
हसबैण्ड हो जाते हों..वाईफ के साथ का वर्किंग और खुद के साथ का हाऊस उनके लिए
साइलेन्ट शब्द हो जाता है और रोल परिवर्तन या कमाने में साझेदारी के बावजूद भी पत्नि
से उम्मीदों में वही आसमां पाले रहते हैं जबकि पत्नि को आशा हो जाती है कि अब मैं
कमाती हूँ या मैं भी कमाती हूँ तो फिर वही पुराना आसमां क्यूँ उम्मीदों का..
यहीं क्यूँ और यही
पुरानी उम्मीदें और आशायें.. जीवन के आंतरिक ढ़ांचे को इस तरह हिलाता है कि सब बेहतरीन
है दिखाने के लिए रंग रोगन की जरुरत पड़ने लग जाती है. सहज कुछ दिखता ही नहीं. तेल
घी खाने की गलत आदतों से ऊगे मुहासे जब चेहरे पर दाग धब्बे छोड़ जाते हैं तो अपनी
झूठी खूबसूरती का भ्रम पैदा करने के लिए फाउण्डेशन और मेकाप की परतों का इस्तेमाल
जरुरी हो जाता है. हालांकि कुछ ही समय में यह परत भी धता बता जाती है और सब जग
जाहिर हो लेता है मगर एक अन्तराल तक तो काम चल ही जाता है. भ्रम की उम्र भी तो
इंसानी कैफियत रखती है..सीमित होने की.
यही क्रीम फाऊन्डेशन
आज के इन दरकते रिश्तों में तरह तरह के संबोधन बने हुए हैं...दोनों एक दूसरे से
बात बात में पब्लिक के सामने...बेबी, खाना खा लिया? जानू, नाई नाई (नहाई) कर ली?
लव यू डार्लिंग!! मेरा बाबू...मेरा सोना.. लेट मी गिव यू ए हग्गी...और न जाने क्या
क्या? आपको सुन कर ऐसा लगेगा कि यार हम तो आपस में प्यार करते ही नहीं...हमारी तो
पूरी जनरेशन निक्कमी निकल गई मगर बात वही..इनके टूटते रिश्तों को देखकर...अच्छा
है..हमने सिर्फ रिश्ते को अहसासा है..जताया नहीं...ये जता तो रहे हैं इन वाक्यों
से..संबोधनों से मगर अहसास क्यूं नहीं रहे?
हम उस युग के जस्ट
बाद के ही सही जब खाने की थाली उठाकर फेंकी नहीं का मतलब होता था कि खाना बढ़िया
बना है..मगर ये कह कर कि खाना बेहतरीन बना है, आज तक इससे बेस्ट कहीं खाया नहीं...और
उस खाने की फेस बुक पर फोटो चढ़ा कर भूखे उठ जायें कहीं और बेहतर खाने की तलाश में..कि
कम से कम पेट तो भर जाये ..वो हमने सीखा नहीं.
चाहे कैसा भी जमाना
आ जाये..हाऊस वाईफ, हाऊस हसबैण्ड, स्टे होम मॉम, स्टे होम डैड..वर्किंग कपल...हर
वक्त दरकार बस एक ही होगी..एक दूसरे को इंसान समझने की..एक दूसरे को सम्मान देने
की, एक दूसरे से समझौता करने की..एक दूसरे के दर्द साझा करने की...तभी सही मायने
में.. मेरा बेबी, खाना खाया क्या? खाना खा पायेगा और नाई नाई कहने के पहले ही नहा
धो कर राजा बेटा बन कर सामने आ जायेगा!
-समीर लाल ’समीर’
मासिक पत्रिका
’गर्भनाल’ के फरवरी, २०१८ के अंक में: