शनिवार, दिसंबर 30, 2017

न जाने किस रुप में, प्रभु दर्शन हो जायें...


शादी का गठबन्धन राजनीतिक गठबंधन से जहाँ पहले बहुत मजबूत हुआ करता था वहीं आज थोड़ा कमजोर हुआ करता है. बीच में एक दौर ऐसा भी आया था जब दोनों ही लगभग एक बराबर स्ट्रेन्थ रखने लगे थे. राजनीतिक गठबंधन तोड़ने में तो फिर भी राजनीतिक दल, एक तो पद की लोलुपता और दूसरे, वोटर के अहसान की वजह से कुछ वक्त लगाते हैं मगर वैवाहिक गठबंधन तोड़ने में तो जोड़े आजकल एक सेकेंड नहीं लेते. बस!! एक डायलॉग कि आई कान्ट टेक इट ऐनी मोर..यू आर सो डिस्गस्टिंग और खतम गठबंधन.
राजनीतिक गठबंधन घटनाओं से टूटते बनते हैं. गधे को बाप कहना और फिर बाप को गधा कह देना भी एक गठबंधनीय वजह के तहत होता है जबकि शादी में गधे को बाप ठहरा देना या सामने वाले के बाप को गधा, दोनों हॊ गठबंधन तोड़ने के कारक हो जाते हैं.
राजनीतिक गठबंधनों की चरमराती हालत और बदलते परिवेश से शादी के गठबंधन ने बहुत कुछ सीखा..वहीं गुरु गुड़ न रह जाये और चेला शक्कर न बन जाये..इस चक्कर में राजनीतिक गठबंधनों ने भी शादी के गठबंधनो से लगातार सीखा.
शादी के गठबंधन पहले दो प्रकार के होते थे. एक तो तय तमाम हो कर..याने कि अरेन्जड और दूसरा गंधर्व...जिसे परिवार और समाज की सहमति न मिलती थी तुरंत ..मगर एकाध बच्चा होते ही अधिकतर परिवार तो कम से कम उनको अपना वापस मान ही लेते थे सो ही हालत थे छुपे छुपे से राजनीतिक गठबंधनो की..जो समाज को बताये नहीं जाते थे मगर एक दूसरे के खिलाफ कमजोर प्रत्याशी खड़े करवा कर क्षेत्रवार जीत सुनिश्चित कर चुनाव के बाद एकाएक मिलमिला कर सरकार बना लेते थे. जनता शुरु में ठगा सा महसूस करती मगर एकाध साल गुजर जाने पर, एक दो फायदे की साझा योजना देखते हुए अपना लेती थी भले ही अंततः ठगी ही रह जाती हो. गंधर्व वाले विवाह के गठबंधन में अक्सर जब दो मजहबों का गठबंधन होता तो बवाल ज्यादा कटता, बात मारापीटी से मर्डर तक आकर अक्सर गठबंधन टूटने पर आ जाती. वही हाल उनका राजनीति में होता, हिन्दु हिन्दु करके जीत गये और हाथ मिला बैठे दलितों के वोट बैंक वालों से..सरकार बनाने को...और जैसा होना था कि खूब बवाल कटती..कुछ दिन सरकार चली, कुछ लोग मरे, कुछ जी गये और सरकार समेत गठबंधन फिर धाराशाही.
वक्त बदला...गंधर्व विवाह, लव मैरिज सामान्य सी बात हो गई. किसी को इससे फर्क पड़ना ही बन्द हो गया. लोग भी इसे यूं कह कर अपनाने लगे कि जब मियां बीबी राजी, तो क्या करेगा काजी. मानो इस बात से समझौता कर लिया हो कि नियती के आगे हमारा क्या जोर? नेता है तो धोखा तो देगा ही!! मगर समाज से मिली इस मान्यता नें समाज के सामने जो आँख की शर्म होती थी, उसे भी हटा दिया तो जब जुड़ने में शर्म नहीं तो तोड़ने में शर्म कैसी? छोटी छोटी बातों पर विवाह टूटने लगे. सबके लिए परिवार से ज्यादा अह्म और कैरियर महत्वपूर्ण हो गया. वहीं राजनिती में राष्ट्र हित से ज्यादा पदलोभ और सत्ता में बने रहना महत्वपूर्ण हो गया. समाज की परवाह दोनों ही ने करना छोड़ दी.
दुगर्ति की विशेषता ये होती है कि उसकी गति बड़ी तेज होती है और उसकी इस गति को विराम मिलना मुश्किल हो जाता है. वो ही हालात यहाँ हो लिए. हर चीज इतनी व्यवहारिक हो गई..हर सोच इतनी सो काल्ड प्रगतिशील हो गई कि किसी भी अन्य मान्यताओं के लिए स्थान बचा ही नहीं मात्र खुद की सहूलियतों के. जिन्दगी जैसे मकान हो गई हो. दो शरीरों के लिए एक छत ताकि रह सकें आराम से. तयशुदा जरुरतें शरीर और रहवास की पूरी होती रहें और बस!! इससे ऊपर कुछ भी नहीं तो लिव ईन रिलेशनशिप का जमाना आ गया. मानो कह रहे हों..कि हाँ, हम गठबंधन कर रहे हैं मगर अपनी सहूलियत के लिए. जैसे ही ऐसा लगेगा कि हममे से कोई भी एक दूसरे पर हाबी हो रहा है या अब हमें एक दूसरे के साथ जम नहीं रहा.. हम दोनों स्वतंत्र होंगे कि अपनी अपनी नई राह चुन कर उस पर चल दें.
तुम जो हमसे रुठोगे तो और भी हैं हमारी सरकार बनवाने वाले..मिनट लगता है..पलक झपकते ही खेल और साथी बदल जाते हैं..और मुस्कराते हुए मेरे सरकार फिर से नजर आते हैं...बिहार याद आता है अक्सर जब एक लिविग इन रिलेशनशिप में साथी बदलते देखता हूँ. हुआ होगा कोई सियासी साहसी खेल या एक नया करार...मगर टूटा तो समाज का भरोसा ही न!!
राजनीति में एक तरह का गठबंधन ऐसा भी होता है जिसमें मुद्दा आधारित बाहर से समर्थन देने का आश्वासन दिया जाता है, जैसे पहले के सेठ साहूकार एक अलग से रख लिया करते थे. उसे सारी सुख सुविधा, खर्चा पानी और यहाँ तक की शहर भी जानता था कि सेठ जी दूसरी वाली है मगर बस, समर्थन बाहर से. न तो हमारी धन संपत्ति में कानूनी हिस्सेदारी और न ही संतानों को हमारा नाम. हैं भी मगर कोई पूछेगा तो मना भी कर देंगे कि नहीं हैं. अजब सा गठबंधन.
वैवाहिक गठबंधन अब कई नई राहें ले रहा है. एक तो यह कि अगर गठबंधन में बंधना हैं तो इसके टूटने की कीमत पहले से तय कर लो, बाद के सरप्राईज नहीं चाहिये. याने जोड़े प्री नेपच्यूल एग्रीमेन्ट कर लेते हैं इसके लिए. अगर अलग हुए तो क्या शर्तें होंगी? उस अलगाव की कीमत क्या होगी? ताकि कोई प्रापर्टी या धन लूटने की मंशा से जुड़ रहा हो तो पहले ही लगाम कस दी जाये कि इस मुगालते में न रहना कि सब तुम्हारा हो जायेगा.. और दूसरा नजरिया, सेम सेक्स मैरिज.....इसका राजनीतिक गठबंधन क्या सबक लेता है यह शायद अभी देखना या दिखना बाकी हो..मगर कम से कम सेम सेक्स वाली बात पर...जैसा लोग बताते हैं कि ऐसे संबंध जमाने से रहे हैं भले ही मान्यता अलग अलग देशों में अब मिल रही हो...भले ही लोग खुल कर अब सामने आ रहे हों..मगर राजनीति में इनके समकक्ष किसे रखूँ यह अब तक मेरी समझ में नहीं आया है..मगर दबा छुपा ऐसा कुछ तो यहाँ भी अर्सों से कोई न कोई गठबंधन होगा ही जो कल को खुल कर सामने आयेगा और मान्यता प्राप्त करने के लिए आवाज लगायेगा और इन सबके साथ, प्री नेपच्यूल एग्रीमेन्ट टाईप बातें भी क्या स्वरुप लेंगी, प्राईवेट रहेंगी कि पब्लिक कर दी जायेंगी, कौन जाने!!
मुझे ऐसे एग्रीमेन्ट वाले गठबंधन और उस राजनीतिक प्राईड परेड का इन्तजार है जो एलजीबीटी (सेम सेक्स वालों की प्राईड परेड) की रेन बो परेड के समकक्ष अपना झंडा लहरायेंगे कि हम अपने राजनीतिक गठबंधन पर गर्व करते हैं..हमें मान्यता दो..हम किसी से कम नहीं!!
एक सोच ही तो है..न जाने किस रुप में, प्रभु दर्शन हो जायें...
-समीर लाल ’समीर’
  
दैनिक सुबह सवेरे भोपाल में रविवार ३१ दिसम्बर, २०१७ को प्रकाशित:
http://epaper.subahsavere.news/c/24973807

फोटो साभार: Photo Courtesy:
https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Rainbow_warriors_-_DC_Gay_Pride_Parade_2012_(7171056053).jpg

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सोमवार, दिसंबर 25, 2017

नेता का नाम लो, जेहन में भ्रष्टाचार का ख्याल आता है



नेता का नाम लो, जेहन में भ्रष्टाचार का ख्याल आता है. सचिन का नाम लो, तो क्रिकेट कौंधता है दिमाग में. सर्दी की बात आती है तो रजाई याद आती है. कभी कोई नहीं कहता कि कम्बल में दुबके बैठे हैं. हमेशा रजाई में दुबकने की ही बात होती है.
भारत में ठंड में रजाई में दुबके रहने का आनन्द ही अलग होता था. रजाई ओढ़े हुए ही चाय पी ली, अखबार पढ़ लिया, गरमागरम मूँगफली खा ली. अगर बहुत जरुरी हुआ तब बड़ी हिम्मत जुटा कर निकलते थे रजाई से. कभी कभी तो ठंड इतनी ज्यादा पड़ती थी कि अगर कोई जरुरी काम न हो, तो सारा दिन रजाई में घुसे रहते थे.
चाय, गरमाहरम पकोड़ी, मूँगफली, अंगीठी, हीटर, मफलर, कम्बल चाहे जिसकी भी बात कर लो, ठंड का किंग तो रजाई को ही माना जायेगा.
भारत में सर्दियों में जब तापमान घट कर ३ या ४ डिग्री पहुँच जाता था तो हाड़ गला देने वाली ठंड कहलाती थी. रजाई का आनन्द अपने चरम पर पहुँच चुका होता था. रजाई में घुसने के बाद उसे गरम होने में थोड़ा समय लगता था. एक बार गरम हो जाये तो कोई उसे छोड़ना ही नहीं चाहता था. जैसे कोई नया नया मंत्री कुछ समय लेता है पैसा खाने के गुर सीखने के लिए और जैसे ही रमा हो जाये तो फिर कुर्सी छोड़ना ही नहीं चाहता.
कनाडा आकर बस गये तो बचपन से जुड़ी अनेकों चीजों की तरह इस रजाई का मजा भी जाता रहा. हालांकि तापमान यहाँ -३० और -४० डिग्री सेल्सियस तक जाता है और रजाई भी घरों में होती है मगर हाय!! ये देश और इनके विकसित हो जाने के घाटे. इनको तो खैर वो भारत वाला रजाई का आनन्द मालूम ही न होगा तो इनको तो क्या घाटा? जैसे हमने कभी इमानदार नेता देखे ही नहीं है तो भ्रष्टाचारी नेता से हमें कैसा नुकसान? ले देकर काम कराना तो हमारे डीएनए में है.
प्रकृति अपना कहर बरपाती है तो विकसित देश उसकी काट लिए खड़े हो जाते हैं. जैसे हमारे देश में सरकार लाख सर पटक ले, हजार कानून ले आये, नोट बंदी कर दे मगर काला धन अपने रास्ते खोज ही लेता है. इच्छाधारी नागिन की तरह इस बिल से उस बिल, कभी यहाँ दिख गये, कभी वहाँ दिख गये. जब कोई पकड़ने पहुँचा तो अदृष्य हो लिये. मीडिया वाले भी इसका नाट्य रुपांरण दिखाने और बीन बजाने में मगन हो लेते हैं. मानो उनका काम समाचार दिखाना न होकर फिल्म बनाना हो. काला धन जस का तस बरकरार रहता है.
विकसित देश है तो विकास का परचम लहरा रहा है. बिजली कभी जाती नहीं. घर पूरी तरह से इन्सूलेटेड, स्टेशन से लेकर रेल, बस, कार सब पूर्ण सुविधाओं से सुसज्जित. गरमी में ठंडे और ठंड में गरम. कभी सोचता हूँ कि अच्छा है यहाँ सूखा नहीं पड़ता वरना इस हिसाब से तो ये उस समय घर में पानी बरसवा रहे होते. सरकारी योजना में दिमाग तो लगाना नहीं होता. वो तो बाद में पता चलता कि अरे, घरों में पानी बरस रहा है तो एमेन्डमेन्ट लाते कि सूखा पड़े तो घरों में पानी नहीं बरसाना है. जैसे जीएसटी में रोज नये एमेन्डमेन्ट लाते ही हैं.
ठंड में जो थोड़ा बहुत बाहर निकलना भी हो तो एकदम ऐसा बख्तरबंद सिपाही सा निकलते हैं मानो युद्ध पर जा रहे हों. ठंड का अहसास तो होता है मगर तब तक आप फिर किसी हीटेड गरमागरम माहौल में अपने आपको पाते हैं. अब बाहर -३० डिग्री का तापमान और आप खिड़की के काँच से बाहर बरफ गिरती देख रहे हैं टीशर्ट पहने हुए. मानो बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का नेता जी हेलीकाफ्टर से दौरा कर रहे हों.  हीटिंग चालू है. रजाई में घुसो तो कोई आनन्द ही नहीं. आधी रात में रजाई हटा ही देने का मन करता है. -३० डिग्री बाहर का तापमान और आप मखमली रजाई ओढ़े जिसमें से भले ही लैवेन्डर की खुशबू आ रही हो मगर आपको लुभाती तो ३ -४ डिग्री वाली वो ठंड ही है जिसमें रजाई से उठती नैप्थेलीन बाल की खुशबू में रजाई गरमाते कुकुड़ रहे होते थे.
मैं विकास का विरोधी कतई नहीं हूँ मगर विकास के साथ साथ लुप्त हो गया वो गरमाहट का आनन्द कचोटता तो है चाहे वो संबंधों में हो, संवेदनशीलता में हो या रजाई में हो.
रजाई का आनन्द ये नरम नरम कम्बल और गरम गरम हीटर कभी नहीं दे पायेंगे.

-समीर लाल समीर

दैनिक सुबह सवेरे, भोपाल के रविवार २४ दिसम्बर, २०१७ में प्रकाशित


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शुक्रवार, दिसंबर 22, 2017

आऊट ऑफ द बॉक्स थिंकिंग: एक साक्षात्कार ऐसा भी

नमस्कार, अब गुजरात और हिमाचल के चुनाव हो चुके हैं और दोनों ही जगह आपको हार का मूँह देखना पड़ा, इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?
देखिये, आपको शायद जानकारी नहीं है लेकिन हम दोनों ही जगह जीते हैं. आप मीडिया वाले सब गलत सलत दिखाते हैं. दरअसल, सब आपका नजरिया है देखने और दिखाने का. आप बताईये कि गुजरात में पिछली बार हमारी कितनी सीटें थी? ६१ है न!! अबकी बार हमारी ७७ और साथियों के साथ मिलाकर ८०..तो हम १९ सीटें एकस्ट्रा जीते कि नहीं. असल में हारे तो वो हैं १२० से ९९ पर आ गिरे, २१ सीटें हार गये मगर आप मीडिया वाले तो उन्हीं के गुण गाओगे.
लेकिन सर बहुमत में तो वो ही हैं, सरकार तो वो ही बनायेंगे?
बात हार जीत की है साहब! सरकार कौन बनाता है, किसकी बनती है, वो अलग बात है. सरकार पार्टी से उपर उठ कर होती हैं. जो सरकार बनेगी वो गुजरात की बनेगी. कभी किसी मुख्यमंत्री या मंत्री का कार्ड पढ़ कर देखियेगा- उस पर लिखा होता है- मुख्य मंत्री, गुजरात राज्य!! वहाँ पार्टी अपनी पहचान खो देती है.
चलिये आप की बात मान भी लें कि आप गुजरात जीत गये मगर हिमाचल, वहाँ तो आप साफ साफ हारे हैं?
जी नहीं, आप एक्लिट पोल के परिणाम देखें. सब चिल्ला रहे थे कि हिमाचल में पार्टी का सूपड़ा साफ याने की जीरो सीटें, है न? और परिणाम देखिये २१ सीटें..वो दान में नहीं मिली, वो हम जीते हैं. और फिर वहाँ बात एन्टी इन्कमबेंसी की भी थी.
एन्टी इन्कमबेंसी तो खैर गुजरात में उनके लिए भी लागू होता है, फिर?
फिर क्या, अभी बताया तो कि वो हार गये है, अब क्या लिख कर लिजियेगा मुझसे?
खैर जाने दिजिये इसको, आप यह बतायें कि आपने चुनाव परिणाम आने के बाद हिमाचल के विषय में कोई बयान नहीं दिया?
देखिये, हम मेहनतकश गरीब मजदूर के एक एक पसीने की बूँद का सरकार से हिसाब मांग रहे हैं. आप हमारे हर बयान देखिये, उसमें मजदूर के पसीने की बात है. पसीने की कमाई की बात है. फिर आप देख ही रहे हैं कि हिमाचल में कित्ती ठंड पड़ती है. अभी तो बर्फ बारी भी हो रही है. ऐसे में किसी को वहाँ पसीना आ ही नहीं रहा, तो हम क्या बयान दें, किसकी बात उठायें, इस लिए चुप रह आये.
जी, बात तो आपकी सही है. अब २०१९ के चुनाव की उल्टी गिनती शुरु हो गई है, क्या रोड मैप तैयार किया है आपने और क्या माईल स्टोन्स सेट किये हैं जो तय करेगा कि आप जीत की अग्रसर हैं?
ये तो आपने सवालों की झड़ी लगा डाली और वो भी एक दूसरे से असंबंधित सवाल. मैं आपको एकएक करके जबाब देता हूँ- पहली बात, उल्टी गिनती हमारे यहाँ न तो किसी को आती है और न ही कोई गिनता है. ये उन लोगों का काम है, उन्हें करने दें सीधी सादी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए. कौन सा ऐसा पाठ्यक्रम है जिसमें उल्टा गिनना सिखाया जाता है? एक से शुरु होकर असंख्य तक गिनती गिनी जा सकती है मगर उल्टी गिनती. आप ही बताईये कि आपके कहे अनुसार अंसख्य से गिनना शुरु करते हैं, अंसख्य के एक पहले क्या? नहीं बता पाये न!! मुझसे ऐसे प्रश्न मत करिये जिसमें आप खुद उलझ जायें.
दूसरी बात, रोड मैप की. तो मैं आपको बता दूँ कि अव्वल तो जीपीएस के जमाने में अब कोई रोड़ मैप नहीं बनाता. और जब सभाओं के स्थान तय होंगे, रैलियों की शहर तय होंगे तो हम तो हर जगह हैलीकाप्टर और हवाई जहाज से आते जाते हैं तो उसमें रोड मैप कैसा? रोड़ से जायें तो भी एक बार रोड़ मैप की सोचें मगर वो भी अब जरुरत नहीं पड़ती, मेरी कार में तो जीपीएस लगा है वरना फ्री डाटा के जमाने में फोन पर गुगल मैप से देखते हुए चले जाओ जहाँ जाना है. आप लोग अपनी नॉलेज अप टू डेट रखा किजिये वरना फोरेन मीडिया तो आपको बुद्धु करार दे देगा.
तीसरी बात आपने माईल स्टोन की पूछी है. तो आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि माईल स्टोन अलग से सेट नहीं किये जाते. जहाँ जहाँ आवश्यक होता है, हम सड़के बनवाते हैं और जब सड़कें बनती है तो उसके किनारे किनारे माईल स्टोन दूरी के हिसाब से ठेकेदार लगवाते हैं. आप पार्टी के माईल स्टोन की बात करते हैं. आप भारत का एक भी माईल स्टोन दिखा दें जिस पर लिखा हो कि यह कांग्रेस ने सेट किया या ये बीजेपी ने? यह सरकार का काम है और जैसा मैने बताया कि सरकार पार्टी से उपर देश या प्रदेश की होती है. वो ही सड़के बनवाती हैं और वो ही माईल स्टोन लगवाती है.
नहीं, नहीं, मैं २०१९ के लिए आपकी पार्टी की प्लानिंग की बात कर रहा था?
देखिये, प्लानिंग का काम प्लानिंग कमीशन का होता है. अब आप उनसे जाकर यह प्रश्न किजिये जिन्होंने प्लानिंग कमीशन ही खत्म कर दिया. उनसे तो आप कुछ पूछते नहीं और आप हमसे प्लानिंग की बात कर रहे हैं?
सुना है अगले चुनाव में टेक्नोलॉजी का खूब इस्तेमाल होगा, सोशल मीडिया, डाटा, बिग डाटा, क्लाऊड बेस डाटा सेन्टर और भी न जाने क्या क्या- आर्टिफीशियल इन्टेलिजेन्स. क्या हैं आपकी तैयारियाँ इस दिशा में.
देखिये, हम गरीब किसानों और मजदूरों के हितों की बात करने वाली पार्टी है. हम चाहते हैं कि उनकी खेती में टेक्नोलाजी का इस्तेमाल हो. इस हेतु हमसे जो मदद बन पड़ेगी वो करेंगे. सोशल मिडिया के माध्यम से मैं उनसे जुड़ा महसूस करना चाहता हूँ. मैं हर किसान और मजदूर के हाथ में टेक्नोलाजी देखना चाहता हूँ, व्हाट्सएप देखना चाहता हूँ ताकि वो मुझे जुड़ सके और हमें अपनी समस्या बिना बिचौलियों के बताये. एक नया व्हाटसएप भारत का निर्माण मेरा सपना है. रही बात डाटा की तो मैं स्माल हो या बिग, उसमें फरक नहीं करता. जैसे हर देशवासी को एक समान अधिकार प्राप्त कराने के लिए मैं प्रयासरत हूँ वैसे ही डाटा के क्षेत्र में भी मैं बिग और स्माल की दूरी को पाटने के लिए हर संभव कदम उठाऊँगा. यह हमारे मेनिफेस्टो में डालूँगा.
और आज आपको स्पष्ट रुप से बता दूँ कि किसी गरीब किसान का हक मार कर किसी अमीर को उसकी जमीन दिलवा देने जैसे कार्य का मैं सख्त विरोधी रहा हूँ. जो गरीब किसान का हक है उसे मारने का प्रश्न ही नहीं होता. अतः आप क्लाऊड बेस डेटा सेन्टर की तो मुझसे बात भी न करें. क्लाऊड का काम है कि वो पानी एकत्रित कर गरीब किसान के खेत में उसे बरसाये और आप मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं उनका पानी हटा कर वहाँ डाटा सेन्टर खोलूँ. यह हमारी पार्टी की सोच नहीं है. किसानों की जमीन पर खेती ही होगी, उद्योग नहीं खुलेंगे
और आपके प्रश्न की अंतिम बात, आर्टिफीशियल इन्टेलिजेन्स. हमें उसकी जरुरत नहीं है. हमारे पास हमारी पार्टी के ब्रेन टैंक में ओरिजन आर्गेनिक ह्यूमेन इन्टेलिजेन्स कूट कूट कर भरा है तो हम आर्टिफीशियल चीजों का इस्तेमाल क्यूँ करें? जिनके पास न हो वो करे तो इससे हमें कोई एतराज भी नहीं. उनके यहाँ तो आर्टिफीशियल के साथ साथ ब्यूरो वाला इन्टेलिजेन्स भी इन्हीं सब के लिए इस्तेमाल होता है.
सर! मान गये! जैसा लोग बताते है वाकई वैसी ही आपकीआऊट ऑफ द बॉक्स थिंकिंगहै, कैसे सोच लेते हैं इस तरह आप?
देखिये, हम चाहते हैं कि इस देश की महिलायें जब सड़को पर निकलें तो सुरक्षित महसूस करें. खुद को एमपावर्ड महसूस करें. बुजुर्ग कभी असुरक्षित न महसूस करें. उन्हें घर में ताले लगाने की जरुरत न पड़े..
सर! हमारे पास समय कम है आप कृप्या सवाल से न भटकें.
नहीं, मैं आपके सवाल का ही जबाब दे रहा हूँ. मेरी बात तो पूरी होने दें. वो इतना अधिक सुरक्षित महसूस करें कि उन्हें अपने कीमती सामानों को तिजोरी या बक्से में बंद करके रखने की जरुरत ही न पड़े. याने हर सोच ऐसी हो जिसमें बक्सा और तिजोरी का नाम ही न हो..इसे ही मैं मानता हूँ आऊट ऑफ द बॉक्स थिंकिंग याने कि बक्से के बाहर निकल पर सोचो और मैं इसी को जीता हूँ इसीलिए लोग ऐसा कहते होंगे.
अब समय समाप्त होना चाहता है मगर चलते चलते एक निवेदन, जैसे ही २०१९ चुनाव का आपका ब्लू प्रिन्ट तैयार हो जाये, हमें जरुर सूचित करियेगा.
देखिये, प्रिन्ट तो गुजरे जमाने की बाद है. आजकल तो ईमेल, स्कैन से काम होता है. मोबाईल में सब डाऊनलोड किया होता है. प्रिन्ट कौन निकलवाता है? और जहाँ तक रंग की बात है तो मैं वर्ड डाकुमेन्ट में डिफाल्ट फॉन्ट कलर ब्लैक ही रखता हूँ. आपको भेज दूँगा ईमेल में फिर आप चाहो तो ब्लू, ग्रीन, आरेंज जिस कलर में मन चाहे कन्वर्ट करके सेव कर लेना.अगर मैं हरा करुँगा तो लोग मुझे एक वर्ग विशेष से जोड़ने लगते हैं इसलिए डिफाल्ट काला ही भला.
थैन्क यू सर, आपने इतना समय दिया और उससे भी ज्यादा, इतना ज्ञान दिया. पूरा देश आपका आभारी रहेगा.
डिसक्लेमर: यह इन्टरव्यू मात्र मनोरंजन के लिए काल्पनिकता पर आधारित है, अतः इसे उसी रुप में पढ़कर आनन्द उठाया जाये. कृप्या इसे भविष्य में कभी मुझे पार्टी के टिकिट से वंचित करने का आधार न बनाया जाये.
-समीर लाल समीर
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के दिसम्बर २३, २०१७ के अंक में:


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