भारत की आबादी को अगर आप त्रिवेणी
पुकारना चाहते हैं, तो इत्मिनान से पुकार लिजिये. आपके पास तो अपने त्रिवेणी कहने
का आधार भी होगा वरना तो लोग कुछ भी जैसे अंध भक्त, भक्त, देश द्रोही, गद्दार, पप्पू, गप्पू आदि जाने क्या क्या पुकारे चले जा रहे हैं, कोई
कहाँ कुछ पूछ पा रहा है.
त्रिवेणी आबादी याने कि वह आबादी जो तीन
तरह के लोगों से मिलकर बनी है. एक तो वो जो आंदोलनकारी हैं, एक वो जो आंदोलनकारी
थे और आज आंदोलन के राजमार्ग पर चलते हुए सत्ता कब्जा कर बैठे हैं और एक वो जिन्हें
निचोड़ने में सत्ताधीष लगे हैं और आंदोलनकारी उन्हें भविष्य में निचोड़ने की फिराक
में हैं. यह तीसरा वर्ग इस विचारधारा का होता है कि
’कोउ नृप होई हमै का हानि, चेरी छांड़ि कि होइब रानी’.
याने जितना उसे पेरा जा सकता है, उतना तो
उसे पेरा ही जायेगा. न उससे ज्यादा और न उससे कम. अतः क्या फर्क पड़ता है कि कौन
सत्ता कब्जा लेता है और कौन आंदोलन की राह पकड़ लेता है.
मगर ऐसी मानसिकता यह तीसरा वर्ग सिर्फ
दिखावे के लिए रखता है. भीतर ही भीतर उसके सुप्त मन को आंदोलनकारियों से यह उम्मीद
रहती है कि शायद ये मेरे हक की बात कर रहे हैं और इनके आने से मेरे अच्छे दिन आ जायेंगे.
तभी तो जो आंदोलनकारी थे वो इनके सुप्त मन की आवाज के साहरे आज सत्ता पर काबिज हैं
और जो सत्ता में थे वो आज आंदोलन की राह पर हैं कल को फिर सत्ता में काबिज होने की
राह तकते. वर्तमान से कब मानव मन खुश रहा है? उसे तो बस आने वाले अच्छे दिनों की
आशा में जीना आता है.
वैसे तो इस तीसरे वर्ग में अपवाद भी बहुत
हैं. कुछ तो इतने उदासीन हैं कि मान बैठे हैं, अब अच्छे दिन तो अगले जनम में ही
आयेंगे, यह जन्म तो पाप काटने को मिला है. वैसे सच भी यही है. जिस गति और दिशा में
देश चल रहा है, इस जन्म में अच्छे दिनों की आशा करना भी तो अतिश्योक्ति ही
कहलायेगी.
यूँ तो जैसी मान्यता है कि मरने पर बस
शरीर बदलता है और आत्मा एक नये शरीर में प्रवेश कर पुनः जीवन यात्रा प्रारंभ करती
है. ऐसे में अगले जन्म तो क्या, अगले सात जन्म की गुंजाईश भी कम से कम अभी तो नहीं
दिखती. अभी तो हमने रसातल की ओर रुख किया है, यात्रा बहुत लम्बी है और मंजिल अभी
बहुत दूर है. रसातल के धरातल तक ले जाने का समय तो देना ही होगा तभी तो फिर उछाल
आयेगा. वो उछाल हर रोज यह अहसास करायेगा कि अच्छे दिन आ गये. भले वो आज से कितने
बुरे क्यूँ न हो.
इसी तीसरे वर्ग के अपवाद में वो लोग भी
हैं जो ’परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है’ में विश्वास रखते हैं और उसी को मंत्र
मानकर माला जपते रहते हैं. उनका मानना है कि परिवर्तन आकर ही रहेगा. यह वर्ग चुनाव
के समय मतदान के बदले पिकनिक मनाने निकल पड़ता है सब कुछ प्रकृति के हाथ छोड़ कर कि
वो परिवर्तित कर देगी. प्रकृति इन दयनीय विचारधारकों के लिए परिवर्तन करती भी है
मगर बरबादी की दिशा में एक कदम और बढ़ा कर. और फिर यह वर्ग पिकनिक से वापस आकर
प्रकृति को कोसता है कि यह सब ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है. उम्मीद थी कि गर्मी
होगी मगर पड़ रही है बर्फ. दरअसल केमिकल लोचा इनकी सोच में है. प्रकृति तो वो ही कर
रही है जो इन्होंने पोसा है. पेड़ काट कर सर्दी में हाथ ताप लेने के बाद गर्मी में
उस पेड़ से छाया की आशा करना कहाँ तक जायज है.
जब बात चली है अपवादों की तो बताते चलें
कि सभी आंदोलनकारी भी सत्ता लोलुप्ताधारी नहीं होते. कुछ तो प्रोफेशनल आंदोलनकारी
होते हैं और कुछ एक शौकिया भी. इन्हें सत्ता और विपक्ष से कुछ लेना देना नहीं
होता. इन्हें आंदोलन से मतलब होता है. यही इनकी जीवनी है और यही इनकी जीवनचर्या.
ये तो कई बार इसलिये आंदोलन कर बैठेते हैं कि कोई आंदोलन क्यूँ नहीं हो रहा.
भारत आंदोलनों का देश बन कर रह गया है. यही
इसकी पहचान हो चली है. चलो एक आंदोलन करें कि आंदोलन का चिराग कभी बुझने न पाये.
एक ना एक शम्मा अन्धेरे में जलाये रखिये
सुब्ह होने को है माहौल बनाये रखिये.
सुब्ह होने को है माहौल बनाये रखिये.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में रविवार जनवरी १९,
२०२० में प्रकाशित:
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