शनिवार, दिसंबर 19, 2020

विकास की रेल यात्रा

 


चार दिन बाद गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से लौटा. बचपन में भी हर साल ही गोरखपुर जाना होता था. ननिहाल और ददिहाल दोनों ही वहाँ हैं. तब तीन दिन की रेल यात्रा करते हुए राजस्थान से थर्ड क्लास में जाया करते थे. कोयले वाले इंजन की रेल. साथ होते लोहे के बक्से, होल्डाल, पूरी, आलू और करेले की तरकारी. सुराही में एकदम ठंडा पानी. रास्ते में मूंगफली, चने, कुल्हड़ में चाय. फट्टी बजाकर गाना गा गा कर पैसा मांगते बच्चे.राजनित और न जाने किन किन समस्याओं पर बहस करते वो अनजान सहयात्री जिनके रहते इतने लम्बे सफर का पता ही नहीं चलता था.तीन दिन बाद जब घर पहुँचते तो कुछ तो ईश्वरीय देन( खुद का रंग) और कुछ रेल की मेहरबानी, लगता कि जैसे कोयले में नहाये हुए हैं. इक्के या टांगे में लद कर नानी/दादी के घर पहुँचते थे. फिर पतंग उड़ाना, मिट्टी के खिलोने-शेरे, भालू.हर यात्रा याददाश्त बन जाती. जैसे ही वापस लौटते, अगले बरस फिर से जाने का इन्तजार लग जाता.घर लौट कर फट्टी वालों की नकल करते, उनके जैसे ही गाने की कोशिश,

इस बार जब गोरखपुर से चला तो वही पुराने दिनों की याद ने घेर लिया. मगर एसी डिब्बे में वो आनन्द कहाँ? और यात्रा भी मात्र १६ घंटे की. यही सोच कर एसी अटेंडेन्ट को सामान का तकादा कर कुछ स्टेशनों के लिए जनरल डिब्बे में आकर बैठ गया. कितना बदल गया है सब कुछ. काफी साफ सुथरा माहौल. न तो कोई बीड़ी पी रहा था. न बाथरुम से उठती गंध, न मूंगफली वाले, न कुल्हड़ वाली चाय. जगह जगह ताजे फलों की फेरी लगाते फेरीवाले, प्लास्टिक के कप में बेस्वादु चाय, कुरकुरे और अंकल चिप्स बेचते नमकीन वाले. बस्स!! लोहे की संदुक की जगह वीआईपी और सफारी के लगेज जिनके पहियों ने न जाने कितने कुलियों की आजिविका को रौंद दिया, वाटर बाटल में पानी. आपसी बातचीत का प्रचलन भी समाप्त सा लगा, अपने सेलफोन से गाने बजाते मगन लोगों की भीड़ में न जाने कहाँ खो गये वो हृदय की गहराई से गाते फट्टी वाले बच्चे और राजनित पर बात करते सहयात्री.

कहते है सब विकास की राह पर है. वाकई, बहुत विकास हो रहा है. आम शहरों में न बिजली, न पानी, न ठीकठाक सड़कें..बस विकास हो रहा है. बच्चे बच्चे के हाथ में सेल फोन, तरह तरह की गाड़ी, सीमित जमीनों के बढ़ते दाम, लोगों के सर पर ऋणों का पहाड़, हर गांव-शहर से महानगरों को रोजगारोन्मुख पलायन करते युवक, युवतियाँ. भारत शाईनिंग-मगर मुझे पुकारता मेरे बचपन का भारत-जिसे ढ़ूंढ़ने मैं आया था, न जाने कहाँ खो गया है और अखबार की खबरें कहती है कि इसी के साथ ही खो गई है वो सहिष्णुता, सहनशीलता, आपसी सदभाव और सर्वधर्म भाईचारा. सब अपने आप में मगन हैं.

मुझे बोरियत होने लगती है. मैं उठकर अपने एसी डिब्बे में वापस आ जाता हूँ.

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर २०, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/57148406

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रविवार, दिसंबर 13, 2020

अगर ससम्मान जीवन जीना है तो वक्त के साथ कदमताल करो

 


किसी ने कहा है कि अगर ससम्मान जीवन जीना है तो वक्त के साथ कदमताल कर के चलो अर्थात जो प्रचलन में है, उसे अपनाओ वरना पिछड़ जाओगे. अब पार्ट टाईम कवि हैं, तो उसी क्षेत्र में छिद्रान्वेषण प्रारंभ किया. ज्ञात हुआ कि वर्तमान प्रचलन के अनुसार, बड़ा साहित्यकार बनना है तो दूर दराज के विदेशी कवियों की रचनाऐं ठेलो.

पोलिश कवियत्री, रुमानिया का कवि, उजबेकिस्तान का शायर, फ्रेन्च रचनाकार, और साथ में इटेलियन चित्रकार की चित्रकारी ससाभार उसी चित्रकार के, जैसे कि उसे व्यक्तिगत जानते हों. वैसे, बात जितनी सरल लग रही है, उतनी है नहीं. मन में कई संशय उठते हैं. अतः मैने अपने मित्र को किसी के द्वारा प्रेषित एक बड़े साहित्यकार द्वारा छापी एक विदेशी कवि की रचना मय चित्र भेज कर उसके विचार जानने चाहे. त्वरित टिप्पणी में उसे हमसे भी ज्यादा महारथ हासिल है. तुरंत जबाब आ गया. कहते हैं कि कविता तो खैर जैसी भी हो, विदेशी होते हुए भी हिन्दी पर पकड़ सराहनीय है.

मैं माथा पकड़ कर बैठ गया. लेकिन फिर सोचता हूँ कि इसमें उसकी क्या गल्ती है. अव्वल तो ऐसी कविताओं के साथ लिखा ही नहीं होता कि यह अनुवाद है या भावानुवाद या किसने किया है और अगर गल्ती से लिख भी दें तो कहीं कोने कचरे में हल्के से और कवि का नाम और उनका देश बोल्ड में.

मगर फैशन है तो है. सब लगे हैं तो हम क्यूँ पीछे रहें. शायद इसी रास्ते कुछ मुकाम हासिल हो.

मूल चिन्ता यह नहीं की कैसे करें? मूल चिन्ता है कि किसकी कविता का अनुवाद करें? वो बेहतरीन रचना मिले कहाँ से, जो हिन्दी में भी बेहतरीनीयत कायम रख सके? घोर चिन्तन और संकट की इस बेला में हमें याद आया हमारा पुराना संकट मोचन मित्र. उसकी दखल हर क्षेत्र में विशेषज्ञ वाली है और इसी के चलते कालेज के जमाने में उसे संकट मोचन की उपाधि से अलंकृत किया गया था हम मित्रों के द्वारा. संकट कैसा भी हो, उन्हें पता लगने की देर है और वो उसे मोचने चले आयेंगे. अतः हमने खबर भेजी कि संकट की घड़ी है, चले आओ और वो हाजिर.

विषय वस्तु समझने, सुनने और अनेकों उदाहरण जो मैने प्रस्तुत किये, देखने के बाद पूरी अथॉरटी से बोले: ’यार, तुम भी तो कविता लिखते हो? एकाध गद्यात्मक कविता निकालो अपनी डायरी से.’ हमने धीरे से अपनी एक कविता बढ़ा दी. एक नजर देखकर बोले, हाँ, यह चल जायेगी क्यूँकि कुछ खास समझ नहीं आ रही कि तुम कहना क्या चाह रहे हो!!’

फिर उन्होंने इन्टरनेट का रुख किया और गुगल सर्च मारी: ’स्विडन के फेमस लोग’. सर्च के जबाब में ओलिन सरनेम चार पाँच बार दिखा, नोट कर लिया. दूसरा सरनेम दो बार दिखा तो वहाँ से फर्स्ट नेम ’पीटर’ निकाल लाये और शीर्षक तैयार ’स्विडन के प्रख्यात जनकवि पीटर ओलिन की कविता’. मेरा तो नहीं मगर इस संकट मोचक का दावा है कि बहुतेरे लोग इसी तरह चिपका रहे हैं अपनी रचनाऐं विदेशी नाम से और चल निकले हैं.

आगे के लिए भी सलाह दी है कि अगर कविता तैयार न हो तो किसी भी जगह से ८-१० लाईन का अच्छा गद्य उठा कर कौमा फुलस्टाप की जगह बदलो. शब्दों की प्लेसिंग बदलो, थोड़ा कविता टाईप शेप देकर ठेल दो, तुम तो कवि हो, इतना तो समझते ही हो. एक विदेशी नाम मय देश के चेपों और बस, चल निकलोगे गुरु.

 

संकट मोचन तो हमारा संकट मोच चले गये, कहीं और किसी और का संकट मोचने और हम खोज रहे हैँ एक नया विदेशी नाम अपनी अगली कविता के लिए.

अपना काम का श्रेय किसी और को देने वाला हम जैसा दानवीर साहित्यकार कहीं न देखा होगा। इतिहास में नाम दर्ज होकर रहेगा.

-समीर लाल ‘समीर’

 

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर १३ , २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56998010

 

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शनिवार, दिसंबर 05, 2020

बहुत कमजोर होता है जिज्ञासुओं का पाचन तंत्र

 


तिवारी जी का कहना है कि आजकल वो फैशनेबल हो गए हैं। अचरज बस इस बात का है कि तिवारी जो पहले भी इसी लिबास में रहते थे और आज भी, चलते भी उसी साइकिल पर हैं पिछले कई दशकों से, फिर फैशनबेल होने से क्या फरक पड़ा?

जिज्ञासुओं का पाचन तंत्र हमेशा से कमजोर माना गया है। कोई भी जिज्ञासा पचा ही नहीं पाते। इसीलिए जिज्ञासु अच्छे नेता नहीं बन पाते होंगे। कठोर त्वचा और घनघोर पाचन क्षमता तो नेतागिरी के लिए आवश्यक तत्व हैं। गाली खाने से लेकर पैसा पचा जाने तक में न कोई शर्म आए और न ही डकार, तो ही आप सफल नेता बन सकते हैं।

जिज्ञासु प्रवृति का होने की वजह से मैं भी अपनी जिज्ञासा पचा न पाया और उनसे पूछ बैठा कि आप अपनी ही बात कर रहे हैं न? मुझे तो आप बिल्कुल पहले वाले ही नजर आ रहे हैं, क्या बदला है आपके फैशनेबल हो जाने से?

तिवारी जी उन्हीं जानी पहचानी नजरों से मुस्कराते हुए मुझे देखा जिसमें वो बिना बोले ही बोल जाते है कि तुम कितने बड़े बेवकूफ हो, कुछ समझते ही नहीं? इन नजरों का फायदा उनको तब पक्का मिलेगा जब कभी वो चुनाव जीत कर मंत्री बन जाएंगे। हर नेता चुनाव जितने के बाद उनके वादे याद दिलाने पर ऐसे ही तो मुस्कराता है और बिना बोले बोल जाता है कि तुम कितने बड़े बेवकूफ हो!!

मुस्कराने के बाद करीबी संबंधों की वजह से उन्होंने बताया कि आजकल वो अधिकतर समय स्व-उत्थान में लगा रहे हैं। सफलता के सिद्धांत सीख रहे हैं। जीवन में तरक्की करने के सूक्ष्म सूत्र समझ रहे हैं। ऐसी ऐसी गहन विधायें जान गए हैं कि किसी भी मनचाही मंजिल पर पहुँचने के लिए मंजिल खुद चल कर आप तक आए।

मैं आश्चर्य चकित सा उनकी बात सुन रहा था। मैंने कहा कि आप कहाँ से और कैसे सीख रहे हैं यह बाद में बताइएगा मगर पहले यह बतायें कि उम्र के इस पड़ाव में, जहाँ से इंसान ढलान पर उतरने की तैयारी करता है, तब आप चढ़ने के गुर सीखने निकले हैं?

तिवारी जी पुनः उन्हीं जानी पहचानी नजरों से मुस्कराये। फिर बोले उसका भी जबाब देता हूँ।  मगर पहले यह जान लो कि यूट्यूब पर ज्ञान का सागर है। आजकल यही फैशन ट्रेंड है। हजारों मोटिवेशनल स्पीकर सुबह से शाम तक यही सिखा रहे हैं। बस आपमें सीखने की ललक होना चाहिए। पिछले दो दिनों से तो एक स्पीकर को सुन कर मैं चार बजे सुबह उठ जाता हूँ यूट्यूब सुनने के लिए। वो बता रहे थे कि यदि आप २१ दिन तक कोई भी कार्य लगातार करें तो वह आपकी आदत बन जाता है। २१ दिन के बाद ४ बजे सुबह उठना मेरी आदत बन जाएगा। मैंने तिवारी जी से पूछा तो नहीं किन्तु जो बंदा रात में नींद की गोली खाकर सोता हो, वो चार बजे सुबह जागने की आदत डालने पर क्यूँ उतारू है? और अगर आदत पड़ भी गई तो जाग कर करेगा क्या? सारा दिन जो चौक पर पान की दुकान पर बैठा समय काटता है, उस अकेले के लिए पान वाला चार बजे तो दुकान खोलने से रहा। वैसे भी इन मोटिवेशनल स्पीकर्स को जरूरत से ज्यादा सुनने में और गंजेड़ी हो जाने में कोई खास फरक नहीं है। दोनों ही  निष्क्रियता के चरम पर बैठे मंजिल के खुद चले आने की ललक जगाए बैठे हैं।

तिवारी जी आगे बोले कि उम्र की तो हमसे बात करो मत – जब ७८ साल में बंदा अमरीका का राष्ट्रपति बन सकता है तो मैं कुछ तो बन ही सकता हूँ। मैं उनको क्या बताता कि वो ७८ साल की उम्र में राष्ट्रपति बना जरूर है मगर वो इसके पहले सारा जीवन पान की दुकान पर बैठा ज्ञान नहीं बाँट रहा था।

मैंने उनको समझाया कि नेता बनने के लिये ही अगर यह सब सीख रहे हैँ तो २१ दिन लगातार झूठ, वादा खिलाफी, गुंडई, रिश्वतखोरी, असंवेदनशीलता, अमानवीयता, घड़ियाली आँसू बहाने की प्रेक्टिस करके इन सबको   अपनी आदत बनाइये, फिर देखिए कैसे सफलता की मंजिल आप तक खुद चल कर आती है।  कैसे आपका ही नहीं आपके जानने वालों का जीवन भी सफल हो जाता है।

तिवारी जी आज पहली बार कुछ अलग तरह से मुस्कराये, मानो कह रहे हों कि मैं भी कहाँ यूट्यूब के चक्कर में पड़ा था, असली गुरु तो तुम निकले। आज पहली बार तिवारी जी एकदम मोटिवेटेड दिखे।

उनके इस भाव को देखकर मेरा मन हो रहा है कि मैं भी अपना यूट्यूब चैनल शुरू कर ही दूँ मोटिवेशनल स्पीकिंग का। लोग यही तो चाहते हैं इसीलिए फैशन में भी है।

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसम्बर ६, २०२० के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/56820874

 

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