उस दिन कलकत्ता में था. रात पत्नी और साली की जिद हुई कि मूवी देखने चलें तो टाल न पाया. अब देखो क्या हाल हुआ: IMOX का थियेटर और पेट भर भोजन के बाद गद्दीदार लेटने योग्य सीट के साथ फिल्म देखने की शुरुवात.
अच्छा, ऐसा मानो कि ब्लॉगर्स को लेकर फिल्म बनायें. चलो, फुरसतिया जी हीरो..थोड़ी देर काम करवाया-पसंद नहीं आये, हटाओ और अब डॉ अनुराग हीरो, अरे, वो भी नहीं जमे. चलो जाने दो, अब समीर लाल हीरो..वो भी फिस्स..फिर कोई और. फिर कोई और..हीरोईन जो भी बन जाओ. कोई नहीं जमा. सब एक दूसरे को गोली मार दो. सब मर जाओ. अब, हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन. बाकी सब मर गये, क्या पूछ रहे हो यार?? कि ये हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी हीरोईन-ये कौन लोग हैं. इनको तो कभी ब्लॉग पर देखा नहीं. सही है, हमारी तरह ही गुलाल देख कर भी आखिर में हीरो हीरोईन के बारे में यही कहोगे-उनको भी कभी देखा नहीं. आखिर में सबके मरने पर एकाएक भये प्रकट कृपाला टाईप आ गये. शायद कुछ लोग जानते हों तो वो तो हरी और रुक्मणी को भी जानते होंगे तो उससे क्या लेना देना.
यूँ भड़ास ब्लॉग से गुरेज कि गाली गलौज सब लिखी होती है. जो भी बात गले में अटक गई हो, उसे उगल दी जाती है और इस फिल्म पर वाह वाह!! सिर्फ इसलिये कि फिल्म है और अनुराग कश्यप की है. नाम की महिमा भी अपरंपार है. भड़ास की गालियों और भाषा की तो फिर भी वजह है कि भड़ासी लय में गाली बक कर हल्का हो लेता है और शायद उद्देश्य भी यही है मगर यहाँ तो बगैर वजह, निरुदेश्य और बिना सुर ताल के सब चालू रहे और लोग बैठे देखते रहे.
ऐसे देश में ,जहाँ हर नेता अपने कुकर्मों की कालिख अपने मूँह पर पोते घूम रहा हो और हम उसे फिर भी अलग से पहचान कर अनजान बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि हमने इसे अपनी किस्मत मान हालातों से समझौता कर लिया है. ऐसे देश में जहाँ की एक बहुसंख्यक आबादी अपने आपका असतित्व बचाये रखने के लिए मुखौटा लगाये घूम रही हो. वहाँ चेहरे पर गुलाल पोत कर, भले ही सांकेतिक, एक रंग होना न जाने किस आशय और मकसद की पूर्ति कर रहा है, यह समझ पाना मुश्किल सा रहा. फिल्में देश और काल के मद्दे नज़र न बनें तो जादू देखना ज्यादा श्रेयकर होगा. संपूर्ण तिल्समि दुनिया. क्या आधा अधूरा देखना.
ऐसे देश में, जो खुद ही अभी विखंडित होने की मांग से आये दिन जूझता हो, कभी खालिस्तान, तो कभी गोरखालैण्ड तो कभी आजाद कश्मीर, इस तरह का एक और बीज बोना, आजाद राजपूताना, जिसकी अब तक सुगबुगाहट भी न हो, क्या संदेश देता है? क्या वजह आन पड़ी यह उकसाने की-समझ से परे ही रहा.
अक्सर फिल्म की कहानी को भटकते देखा है मगर इस फिल्म में तो कहानी भटकी, डायरेक्शन भटका, हीरो हीरोईन भटके और यहाँ तक कि दर्शक भी भटक गये. ऐसे भटके कि घर आने का रास्ता खोजना पड़ा.
गीतों के नाम पर कविताओं की पैरोडी और उन पर झमाझम नाचती, बल खाती बाला.पियूष मिश्रा के गीत पर-जैसे दूर देश के टावर में घुस गयो रे ऐरोप्लेन...नाचते देख तब्बू की हमशक्ल को लगा कि यही हीरोईन है मगर वो नहीं थी. दूसरी ही निकली जिसकी कतई उम्मीद न थी. अरे, वही, उपर फोटो वाली गुलाल पोते.
71 टिप्पणियां:
सहज विश्लेषण हास्य की चासनी के साथ बढ़िया है महाराज..
आजकी त्रासदी सच है और "गुलाल " जैसी फिल्मेँ उस सच को मोडर्न आर्ट बनाकर पेश करती हुई सी -
आपने कोलकता मेँ फिल्म देखी ..अच्छा किया ! सौ. साधना भाभी जी प्रसन्न हुईँ ये क्या कम है ? :)
- लावण्या
अपने आसपास ही नजर दौड़ाएँ तो इतनी मजेदार चीजें घटती रहती हैं कि फ़िल्म देखने की जरूरत ही नहीं महसूस होती।
चिंतन दो होते हैं...गरीबों का चिंतन, गरीबों के लिए चिंतन. पहले फिल्म बनते हैं ..दूसरे फिल्म बनाते हैं.
फिल्म समीक्षक समीर लाल जी को प्रणाम -पैसे बचवा दिए वर्ना दूर देश के टावर के चक्कर मे खर्च होने ही वाले थे
समादरणीय समीर लाल जी!
कोलकाता के संस्मरणों का आपने
सजीव चित्रण किया है। साथ में कुछ ब्लागर्स के नाम की भी आपने चर्चा कर दी।
व्यंग, विनोद से भरे इन यादगार लम्हों
को आप से अच्छा और कौन शब्दों मे कैद कर सकता है।
आप लिखते रहें।
इन्ही कामनाओं के साथ बधायी।
बहाने से हीरो बनने की क्या जरूरत? चलो एक फ़िलिम बना के डाल दें।
भाई समीर सीधा-सा हल....या तो भूतनाथ को हीरो बनाओ.....या तो पी.एम......वर्ना सबको झेलते रहो....बाकि अच्छा लिखा है.....!!आओ ना हम भी गुल-गुलाल या गुल-गपाडा हो जाते हैं....!!
ओह तो मन्ने नहीं जाना देखने !
अक्सर फिल्म की कहानी को भटकते देखा है मगर इस फिल्म में तो कहानी भटकी, डायरेक्शन भटका, हीरो हीरोईन भटके और यहाँ तक कि दर्शक भी भटक गये. ऐसे भटके कि घर आने का रास्ता खोजना पड़ा.
अच्छा किया बता दिया ... मैने अभी तक ये मूवी नहीं देखी ... देखूंगी भी नहीं ... पता नहीं कहां कहां भटकना पडे।
sameer ji, filmon par aapki pratikriyen rochak hoti hain. padhkar achcha laga.
ऐसे देश में ,जहाँ हर नेता अपने कुकर्मों की कालिख अपने मूँह पर पोते घूम रहा हो और हम उसे फिर भी अलग से पहचान कर अनजान बने हुए हैं, सिर्फ इसलिए कि हमने इसे अपनी किस्मत मान हालातों से समझौता कर लिया है.
हम उन्हीं कुकर्मियों में अवतार तलाश रहे हैं।
बहुत अच्छी समीक्षा .लेकिन पोस्ट के माध्यम से बहुत सारे ऐसे सवालों को भी आपने अनुत्तरित छोड़ दिया है जिस पर शायद और भी बेहतर आर्ट फिल्म बन जाये पर हिट होगी की नहीं कोई गारंटी नही लेगा .
मेरे भी पैसे बच गए ...धन्यवाद
flim to yahi dekhne mil gyi:) bahutbadhiya:);)
बना ही डालो फिल्म सर जी... ्सारी स्क्रिप्ट किरदार ब्लोगस में मिल जायेगें..
वाह समीर भाई, आपकी फिल्म समीक्षा पढ़कर मजा आ गया...आपने हंसते-हंसाते बात-बात में ही समीक्षा कर दी.. अब फिल्म देखने की तो जरूरत ही नहीं रही :)
अरे दद्दा,
कसम से बडी भारी समीक्षा लिख गये आप तो, हमने तो फ़िल्म देखते समय इत्ता सोचा भी नहीं। सारा कसूर उस बोतल का है जिसे फ़िल्म देखने से पहले गुडका था, :-)
खैर वैसे भी हम छोटी छोटी बातों पे खुश हो जाते हैं। जैसे कि फ़िल्म की शुरुआत में "बीडो" गाने के प्रारम्भ में सारंगी की आवाज सुनी, आधे मिनट तक आंख बन्द करके सुनते रहे और खुश हो गये। सारंगी की फ़िल्म संगीत में अच्छी वापिसी पर ही खुश हो गये। आधे पैसे वसूल, बाकी आधे भी बीच में कहीं वसूल हो गये जैसे "पान की दुकान वाला सीन" या फ़िर "रश्मिरथी के कुछ अंश"।
आपकी कोलकाता यात्रा के बारे में पढा, मन प्रसन्न हो गया। गालिब भी गये थे कलकत्ता लेकिन आपने सस्ते में थोडी चर्चा करके निपटा दिया। ममतादीदी को एक ठौ कविता सुनायी कि नहीं।
mujhe "aarambh hai prachand" geet (ya kavita) bahut pasand aaya (aayie)
khaskar ye line:
Jis kavi ki kalpana main prem geet ho chupa,
Us kavi ko aaj tum nakar do.
Haan waise movie kuch khas acchi nahi thi.
leek se hatkar thi aur kala ka put tha ye zarror hai...
is mulk ne har shaksh ko ek kaam saunpa tha....
har shaksh ne us kaaam ki 'bhadas' nikal ke chor di,
फिल्मी चर्चा ब्लागर को लपेट कर किया मजेदार रहा । फिल्म के गाने तो लाजवाब है , हां कहानी जरूर कुछ टूटती है ।
आप फिल्म बना रहे हैं तो हमारे लिये तो तय है कि इसमें विलेन की भूमिका तो हम ही करेंगें क्योंकि हीरो तो आप ही होंगें । ये पहली फिल्म होगी जिसमें हीरो से ज्यादा तालिया विलेन को मिलेंगी । हा हा हा ।
movie ki kahani aur presentation...
दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय....
(
apke to "blog archive" main bhi "NAGINE" jade hain..... )
अरे भैय्या वो कौन सी फिल्म थी. हम तो भटक गए.
गुलाल बस कुछ गाने हैं कमाल :) ..आपने बढ़िया ढंग से समीक्षा कर दी इसकी
कई सालों से फिल्में देखना छोड़ दिया है इसलिये किसी प्रकार के विचार नहीं रख सकता। बस इतना कहूँगा कि पढ़ कर मजा आ गया।
जय हरि!
जय रुक्मिणी!!
जय भड़ासतत्व!!!
so funny maja aa gaya...
meet
फिल्म तो बहुत बकवास थी किन्तु समीक्षा बहुत पंसद आई जो भी महसूस किया वो आपकी समीक्षा में पढ़ा खुशी हुई कि सिर्फ हम ही ऐसा महसूस नहीं करते। चलिए और भी फिल्में देखते रहिये, समीक्षा करते रहिए और सबसे बड़ी बात भाभी की इच्छाओं को पूरा करते रहिए...
हमें तो फ़िल्म पसंद आई थी । और ३-४ गाने भी पसंद आए ।
हमने तो फ़िल्म देखने के बाद समीक्षा भी की थी । :)
आजाद राजपुताना! क्या बकवास है?
गुलाल देखें कि नहीं? आपने उलझन में डाल दिया है.
समीर जी ...फिल्मों की त्रासदी यही है ...ना श्रेष्ठ मनोरंजन ना संदेश...जो ललक फिल्मों के बारें मैं बचपन में हुआ करती थी ..अब नही रही...फूहड़ता इतनी की बस वितृष्णा होती है ....लेकिन अभी कल ही प्रियदर्शन की ..बिल्लू बार्बर ..देखी...थोडी सहज है और फिल्म आपको बांधे रहेगी...पर जिन्दगी में एसा होता नही ..ऊपर से चीजें साफ दिखाई देने की बजाय आदमी को कम ही दिखाई देता है....आप देखें और बताएं
फिल्म की समीक्षा के बहाने बहुत कुछ कहने के लिए साधुवाद.
Film maadhyam ka durupayog hi lagti hain aisi filmein.
भली बता दी आपने। मैं तो वैसे भी फिल्मों के लिए तीन घंटे एफोर्ड नहीं कर सकता। यदि परिवार या मित्रों के साथ फँस गया तो सोने का मजा जरूर ले लेता हूँ। :)
नई पुस्तक बिखरे मोती की बधाई।
ऐसे देश में जहाँ की एक बहुसंख्यक आबादी अपने आपका असतित्व बचाये रखने के लिए मुखौटा लगाये घूम रही हो. That's pain of many.
Thanks for your warning, I am gonna stay away from such rubbish.
phir ek manoranjak peshkash.........
byangyaatmak vishleshan me maza aagaya.. bahot bahot badhaayee..
arsh
समीर भाई........अब तो फिल्म समीक्षक भी बन गए......चलो पहला अच्छा काम तो ये हुवा म्हारे पैसे बच गए .........आगे भी ऐसे बचते रहेंगे उम्मीद है
आपकी लेखनी मजेदार है.......
हरी शंकर शर्मा हीरो और रुकमणी देवी को हीरोईन- बना कर हम एक फ़िल्म बनाने जारहे हैं. और आप आ ही रहे हैं तो आपसे ही मुहुर्त शाट करवा लेंगे.
गुरुजी आपका इंतजार हो रहा है. और हमारे तो चारों तरफ़ फ़िल्मे ही फ़िल्मे बिखरी पडी हैं.:) सो क्या करना देखकर. वैसे सोने की इच्छा होती है तो आपकी तरह हम भी चले जाते हैं.:)
रामराम.
हमें तो पसंद आई जी फिल्म..
अरे महाराज इसमें सोचने की क्या बात है ? हम ब्लागर्स को लेकर एक फ़िल्म घोषित करते हैं--
नाम है --
ब्ला॓गरिंग इन फ़र्नो
हा हा
स्टार कास्टिंग कल आपके साथ राइट टाउन में बैठ कर कर लेंगे।
समीर जी ,हमने फ़िल्म नही देखी है लेकिन सुना है कि इसका हीरो या निर्देशक शायद झुन्झुनू से सम्बन्ध रखता है इस प्रकार की न्यूज मैने टीवी मे देखी थी ।
आप केवल लिखते नहीं,
लिखने में जिंदगी भर देते हैं.
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आभार
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
main to film dekhta hi nahi, chaar ghante barbaad karna ho to theek hai.
virtual duniya mein ramne se yah drishtidosh hua hai.sach aur bhavana mein farq hai.sach aisa hi hai bhatka hua aur gulaal pote.film mere chavanni ke saath dekhen..vichaar badal jayega..
आपने बहुत ही उन्दा सवाल किया है कि राजपुताना राज्य की हवा देना,कहा कि अक्लमन्दी है.वैसे ही देश समय समय पर प्रांतवाद से जुझता रहा है उसपर से एक और राजपुताना राज्य आर्ट फिल्म के नाम पर हिंसा और विघटन को फैलना, यह कला नही सिर्फ हिंसा लगती है.अगर दुसरे रुप से फिल्म को देखे तो फिल्म मे आज का सच भी दिखता है.आज मनुश्य के कोमल भावनाये मर गयी है उसकी जगह आज हिंसा ले चुकी है.
चाहे वह प्यार की हिंसा हो या अन्य सवेदनाओ का.
आपने बहुत ही उन्दा सवाल किया है कि राजपुताना राज्य की हवा देना,कहा कि अक्लमन्दी है.वैसे ही देश समय समय पर प्रांतवाद से जुझता रहा है उसपर से एक और राजपुताना राज्य आर्ट फिल्म के नाम पर हिंसा और विघटन को फैलना, यह कला नही सिर्फ हिंसा लगती है.अगर दुसरे रुप से फिल्म को देखे तो फिल्म मे आज का सच भी दिखता है.आज मनुश्य के कोमल भावनाये मर गयी है उसकी जगह आज हिंसा ले चुकी है.
चाहे वह प्यार की हिंसा हो या अन्य सवेदनाओ का.
ऐसे देश में, जो खुद ही अभी विखंडित होने की मांग से आये दिन जूझता हो, कभी खालिस्तान, तो कभी गोरखालैण्ड तो कभी आजाद कश्मीर, इस तरह का एक और बीज बोना, आजाद राजपूताना, जिसकी अब तक सुगबुगाहट भी न हो, क्या संदेश देता है? क्या वजह आन पड़ी यह उकसाने की-समझ से परे ही रहा.
इस तरह सुगबुगाहट फैलाने वाली फिल्म को सेंसर बोर्ड ने पास कैसे कर दिया समझ से परे है !
वाह फिल्म देखे बिना ही फिल्म देखने का असीम आनंद प्राप्त हुआ , कुछ बातो को आप ने अधुरा ही छोड़ दिया एक सस्पेंस की तरह .
ऐसी चाटू फिल्म बड़े दिनों के बाद देखी.
निर्देशक दिखाना क्या चाहता था ये अंत तक समझ नहीं आया.
अच्छा हुआ आपने बता दिया, वरना हम तो इस सन्डे को जाने वाले थे...
फिल्में तो मैं भी अमूमन कम ही देखता हूँ पर पीयूष मिश्रा की वज़ह से देखने जा पहुँचा।
मुझे फिल्म में अधिकांश कलाकारों के अभिनय और पीयूष मिश्रा के गीतों ने प्रभावित किया। फिल्म का उत्तरार्ध खासकर क्लाइमेक्स उतना रुचा नहीं।
समीर जी हम ने तो हिन्दी िल्म को नींद की दवा घोषित कर रखा है, कभूई अजमा कर देख ले, जिस दिन नींद ना आये आप नयी हिन्दी फ़िल्म देखना शुरु कर दे... झट से नींद आ जायेगी..
आप ने अच्छी समीक्षा की है.
धन्यवाद
गुलाल, ये फिल्म से ज्यादा है। फिल्म के बारे में जो भी आपने लिखा उसको पढ़ने के बाद मैं ये लिखने बैठ रहा हूं रात के २.३० बज रहे हैं, सुबह तक पोस्ट डाल दूंगा। बस एक आग्रह है कि अन्यथा ना लीजिएगा। छोटा हूं ये भी ध्यान रखिएगा। पर,
पहली बार में मैं आप से सहमत नहीं हूं।
गुलाल एक बेहतरीन फिल्म है ...कई लोगों की मेहनत है उसमें
मेरा अपना जहान
मजेदार।
Aapne to yahi pe hi free mai movie dikha di...itni achhi samikshaa ke sath...ab dobaara dekhne ka mood nahi hai...
दिलचस्प समीक्षा, आपकी समीक्षाए तो फिल्म देखने को प्रेरित ही करती है.
अच्छा विश्लेषण किया है . आजकल की फिल्म अधिकतर मसाला ही होती है . पढ़कर आनंद आ गया . काफी देर से आपकी पोस्ट का अवलोकन किया है . जब से टी.वी. का आगाज हुआ है मैंने फिल्म सिनेमा हाँल में देखना छोड़ दिया है कल मुलाकात होगी . . बहुत बढ़िया पोस्ट आभार.
par ek tabka hai jise yeh picture bahut pasand aayee, youtube par iska trailor dekhe, young generation likes this kind of absive and provocative stuff.
फ़िल्म के बारे में तो आप से ही सुना, नाम भी नहीं सुना हुआ था। हम तो ब्लोगर्स फ़िल्ल्ल्म देखने को झट से पॉपकॉर्न ले आये, एक पॉपकॉर्न मुंह में डाला ही था तो देखा यहां तो सब को मार ही दिया और कोई अलते भलते पैदा कर दिये। अब आइडिया आ ही गया है तो बना ही डालिए एक और 'सरकार' आप अमिताभ के रोल में बहुत अच्छे लगेगें। तख्त पर लेटे लेटे पूछेगें अबे फ़ुरसतिया ये राजपुताना का क्या किस्सा है, पृथ्वीराज चौहान फ़िर कोई लफ़ड़ा किए क्या? फ़ुरसतिया जी कहेगें 'बाबा अभी पता करने की फ़ुरसत किधर है, चुनाव सर पर है और अपना चुनाव प्रचार करने वाला कोई नहीं, पहले वो मामला सुलटा लें'पिक्चर अभी चालू है मेरे दोस्त्…:)
मजा आ गया समीर जी।
यह कौन सी फिल्म है??
सुनी ही नहीं..
खैर , bloggers की फिल्म बनाते बनाते रह गए..रुकमनी कहाँ से आई?कहाँ गयी??
पियूष मिश्रा जी ऐसे गीत भी लिखते हैं!घोर कलयुग है!
ऐसे देश में जहाँ की एक बहुसंख्यक आबादी अपने आपका असतित्व बचाये रखने के लिए मुखौटा लगाये घूम रही हो. वहाँ चेहरे पर गुलाल पोत कर, भले ही सांकेतिक, एक रंग होना न जाने किस आशय और मकसद की पूर्ति कर रहा है, यह समझ पाना मुश्किल सा रहा.
What an idea sir ji!!!
समीर जी,वैसे फिल्म तो नही देखी,लेकिन समीक्षा पढ़ कर लगने लगा है कि शायद फिल्म देख कर भी इतना मजा नही आता जितना आपकी समीक्षा पढ़ कर आया है।बहुत बढिया समीक्षा की है।और आपका बहुत बहुत धन्यवाद,फिल्म के पैसे बचवानें के लिए।;)
ब्लोगर्स की फिलिम बनाइये, हमें भी कास्ट में लेना... आपकी पुस्तक प्रकाशित होने पर बधाई...
कभी भारतीय फिल्में समाज को सही राह दिखाने के लिए लिए मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वहण किया करती थी,लेकिन आज इस से बढकर समाज का पथभ्रष्टक अन्य कोई माध्यम नहीं होगा.
अच्छी लेखनी....पड़कर बहुत खुशी हुई / हिन्दी मे टाइप करनेकेलिए आप कौनसी टूल यूज़ करते हे / रीसेंट्ली मे एक यूज़र फ्रेंड्ली इंडियन लॅंग्वेज टाइपिंग टूल केलिय सर्च कर रहा ता, तो मूज़े मिला " क्विलपॅड " / आप भी इसीका इस्तीमाल करते हे क्या ?
सुना हे की "क्विलपॅड ", गूगलेस भी अच्छी टाइपिंग टूल हे ? इसमे तो 9 इंडियन भाषा और रिच टेक्स्ट एडिटर भी हे / क्या मूज़े ये बताएँगे की इन दोनो मे कौनसी हे यूज़र फ्रेंड्ली....?
"फिल्में देश और काल के मद्दे नज़र न बनें तो जादू देखना ज्यादा श्रेयकर होगा. संपूर्ण तिल्समि दुनिया. क्या आधा अधूरा देखना."
समीक्षा पढने के बाद मैं कुश की टिपण्णी ढूंढ़ रहा था क्योंकि मिला जुला के मुझे भी बुरी नहीं लगी थी.
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