देख तेरे संसार की हालत, क्या हो गई भगवान,
कितना बदल गया इन्सान!!
वाकई कितना बदल गया है इन्सान. चुनाव का मौसम है. दोपहर ही एक नेता हाथ जोड़ कर वादा करते हुए मिल कर गये हैं. न पुराने वादों को पूरा न करने अपराध बोध और न ही अभी किए जा रहे वादों की नींव में झूट की बुनियाद से कोई हिचकिचाहट-बस चेहरे पर घाघी मुस्कराहट.
विचारों के सागर में डूबने लगता हूँ.
कितनी बदल चुकी है दुनिया. दो पड़ोसी, भाई भाई की तरह खुशी खुशी जिन्दगी बसर कर रहे हैं. कभी मन में भी नहीं आया कि ईद मुसलमान की और दीवाली हिन्दु की. मगर क्या करें इन सियासतदारों का. इन्होंने ने इसी सियासी खेल में अपना उल्लू सीधा करने के लिए कैसी फूट डाल दी. सरहदें बाँट दीं और दिलों में नफरत भर दी. आज पूरे फक्र से उन्हीं बिछड़ों पर राज करते हैं न जाने किस मूँह से:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
ऐसा गंदा खेल हो चुकी है यह सियासत कि अब आदमी दूसरों का तो क्या कहें, खुद का खुद पर भरोसा खो चुका है. बस, एक भ्रम में सियासी खेल खेले चले जा रहा है. न कोई अंकुश और न कोई मर्यादा :
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
क्या सही क्या गलत जैसे कोई सरोकार ही नहीं बचा इन सब बातों से. वादा खिलाफी तो फिर भी काबिले-बर्दाश्त है, इतने बरसों से आदत सी हो गई है इनकी वादा खिलाफी को झेलना. मगर अब तो उनकी नजरों में सब सही है और मानो कानून नाम से तो कोई डर ही नहीं रहा इन कानून बनाने वालों को. खुद बनाते हैं जैसे तोड़ने के लिए ही. किसी भी हद तक गिर जाते हैं और किस किस तरह के केसों में इनके नाम निकल कर आते हैं:
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
हर सीख बेकार जा रही है. कभी कहते थे जल्दबाजी में किया हर काम किसी भी अंजाम तक नहीं पहुँचाता. एक शास्वत नियम सा है कि एक एक कदम साधकर चलो अगर मंजिल पाना है और उस पर अपना परचम लहराना है. कितनी ही कहानियाँ सुनाई गई इस पाठ को सिखाने के लिए. याद है वो खरगोश और कछुए की दौड़ मगर देखो आज के नेताओं को, आज संपर्क में आये, कल जीते और परसों करोड़पति और साथ में तमगे के बतौर हजारों विचाराधीन मुकदमें. इसी कुछ तर्ज पर आज के युवा भी जाने क्या पाने की आस लिए भागे चले जा रहे हैं, हालांकि नेताओं और इन युवाओं की मंजिलों में फरक है और इन नेताओं का तो कुछ नहीं बिगड़ता मगर आज का युवा-कौन मान रहा है ये सीख:
दौड़ कर के सीढ़ियाँ, लाँध कर जो चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
वाकई, कितना बदल गया है इन्सान और कितना बदल गया है यह जमाना. अब तो बदले जमाने के हिसाब से जीना सीखना होगा. वरना तो बसर ही मुमकिन नहीं. जिन्दा लाशों के बीच रहने वाले मौत का मातम नहीं मनाते बल्कि वो तो मुक्ति का और खुशी का मौका बन चुका है:
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
और इसी तरह की सोच में डूबे शेर दर शेर बन कर निकलती है एक गज़ल. हम्म, पर चाय ठंडी हो गई. नई बनवा कर मंगवाता हूँ. तब तक आप गज़ल पढ़ो:
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर.
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
-समीर लाल ’समीर’
नोट:
१. बस, एक अलग तरह का प्रयोग करने की कोशिश मात्र है. बताईयेगा, कैसा रहा यह प्रयास?
२. यह आलेख तैयार जबलपुर में हो गया था मगर पोस्ट दिल्ली से किया जा रहा है. जब आप इसे पढ़ रहे होंगे, मैं वापसी की तैयारी में हूँगा. देर रात ब्रसल्स के लिए फ्लाईट है और वहाँ से दिन में लंदन और फिर यॉर्क, बेटे, बहु के पास. कुछ दिन उनके साथ रहकर फिर कनाडा वापसी. अब नेट पर १५/१६ अप्रेल को ही आना होगा, ऐसा लगता है.
३. वापसी की तैयारी में ही पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता बनी हुई है और वही नेट से दूर रखे है-न कोई पठन, न लेखन और न ही टिप्पणी. जल्द पूरे जोर शोर से वापस आते हैं.
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75 टिप्पणियां:
बहुत खूब समीर भाई। चलिए मैं भी त्वरित दो पँक्तियों से कोशिश करूँ-
हर किसी को हो भरोसा खुद के ही इमान का।
वर्ना बिकते हैं इमान अब तो छोटे मोटे दाम पर।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बहुत सुंदर विचार पूर्ण रचना है।
"ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर."
भाई समीर लाल जी!
आपकी यह शैली एक अलग ही प्रकार की नही है अपितु रोचकता लिए हुए भी है। आप इस शैली में कुछ और भी लिखें ।
पढ़ने की चाह बढ़ा दी है आपने।
धन्यवाद।
आपकी यात्रा शुभ हो . वैसे सियासत पर समय जाया न किया जाए तो अच्छा है .
होती रही चाय ठंडी समीर के हाथ में सुबह सुबह
और हो गयी एक ग़ज़ल जवान समीर के मकान पर.
बहुत बढिया पोस्ट ... पूरे जोर शोर से ब्लागिंग की दूनिया में आपके आने का इंतजार रहेगा।
रेसिपी और व्यंजन साथ-साथ! स्वादिष्ट!
बहुत सुंदर और सार्थक प्रयास .
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.....
यह मुझे खास तौर पर पसंद आया .बधाई .
हमने तो सोचा कि यह उड़नतश्तरी पर आरूढ़ होने के बाद की विचार सरनि है! बढिया है और हाँ किताब मिल गयी ,शुक्रिया !
बढि़या पोस्ट, काव्य विखरे मोती इलाहाबाद में सभी के पास पहुँच गई।
सूचना
यह पोस्ट आपसे सम्बन्धित है इस लिये भेज रहा हूँ
http://pramendra.blogspot.com/2009/04/blog-post_14.html
इस पोस्ट में आपने बहुत सारे स्टाइल प्रयोग किये है ...ये nai बात नहीं है....बहुत मजा आया इसे पड़ कर ,,,,,,
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
ये जमाना वो नहीं है, जिससे सीखा था ’समीर’
मत बहा तू अश्क अपने, आज कत्ले-आम पर.
waah bahut hi badhiya
मुझे क्यूँ लगता है की ये लेख मैंने आपके ही ब्लॉग पर पहले कभी पढ़ा है...मेरी याददास्त चली गयी है या फिर मैं ठीक हूँ...आप ही बता पाएंगे...मेरा भविष्य आपकी हाँ ना पर टिका है प्रभु...
नीरज
आपकी यात्रा मंगलमय हो.
समीर जी,
ये नया प्रयोग बहुत ही अच्छा लगा।ग़ज़ल
भी बहुत अच्छी लगी।धन्यवाद , इस ब्लाग के
लिए।मुझे पहले पता नही था कि ब्लाग्स पर वो
सब कुछ है, जो मैं चाहता हूँ।पुनः बधाई।
हर रविवार को नई ग़ज़ल,गीत अपने तीनों
ब्लाग पर डालता हूँ।मुझे यकीन है कि आप
को जरूर पसंद आयेंगे....
आदरणीय
आपको और राज भाटिया जी को बहुत मिस करता हूं।
चलो 2-3 दिन की बात ही रह गई है। कट जायेंगें ।
समीर जी,बातों बातों मे बहुत बढिया गज़ल बना डाली।आज कल के हालात पर बहुत सामयिक गज़ल है।बधाई।
बहुत सुंदर प्रयास. आपकी इंगलैंड की यात्रा सुखमय हो. हमारी शुभकामनाएं और बस इसी तरह लोगों के दिल मे प्यार बढाते रहें.
आपकी जिंदादिली को सलाम. आपके भारत प्रवास मे करीब रोज ही बात होती रही. और अब ये अखरेगा.
आपने दिसम्बर मे लौट आने का वादा किया है. हमतो दिसम्बर का राम के अयोध्या लौटने सदृष्य इंतजार करेंगे.
रामराम.
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
......सुंदर पंक्तियाँ। आपकी वापसी का इन्तजार रहेगा।
bade sundar khyaal,garm chai aur samyik gazal..........
आप की तो वैसे हर बात ग़ज़ल बन जाती है. अब यहाँ तो चाय को ठंडी होने तक सोच समझ कर लिखा है. आपने बहुत अहम् बात की है. एक ज़माना था जब मुसलमानों से कोई शिकवा शिकायत नहीं हुआ करती थी न ही कोई परहेज. सबन हमारे जैसे ही लोग थे कुछ बुजुर्गों को छोड़कर. अब तो जब कोई टोपी दाढी वाला बगल से निकलता है तो आतंकी लगता है.
वाह समीर भाई ....................
बहुत ही दिलकश ग़ज़ल के बोल हैं .....व्यंग और यथार्थ से भरी हुयी है ग़ज़ल.........अक्सर कवी मन सामाजिक परिस्थिति को देखे कर अनजाना नहीं रह सकते हैं .....और आप तो मन से कवी............लेख से कविताकार, व्यंगकार, चिठाकार, गुलुकार और मल्टी प्रतिभा के स्वामी हो..............आपका ये अंदाज़ बहुत खूब है ..........चिठे के साथ साथ ग़ज़ल का भी आनंद.............सोने पर सुहागा
वाह जनाब आप दिल्ली आये और मुझे बताया तक नहीं क्या ये इन्साफ किया है आपने...? आपकी पुस्तक मुझे मिल गयी जैसा की आपने वादा किया था मगर मेरे वादे का क्या...? अब मैं कैसे पूरा करूँ...? खैर आपकी यात्रा सफल और सकुशल HO यही कामना करता हूँ ... ....ये शे'र खासा पसंद आया ... बधाई आपको...
अर्श
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
आपकी पोस्ट की हर लाइन एक सच्चाई को बयां कर रही है और गजल ने तो सुहागे का काम किया है .
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर .
आपका ये नया प्रयास ऐसा लगा जैसे चाय के साथ-साथ बिस्कुट या पकोडे मिल जाएँ....
बाकी ज्यादा तारीफ नहीं करूँगा नहीं तो आपको आदत पढ़ जायेगी और आप वही आदत भाभी जी पर आजमाने लगेंगे....
यह लेख नहीं, ज्ञानचक्षुखोलकयंत्र है।
दूसरी ओर, आपके चिट्ठे पर लगा छोटा-सा विज्ञापन मेरे जैसे "छड़ों" को अपनी "छड़िता" से छुटकारा पाने के लिये विवश करता-सा प्रतीत होता है! :)
चिकने घड़ों पर तो फिर भी पानी ठहर जाता होगा पर ये तो वो बलाएं हैं जिनके पास भी शर्म नहीं फटकती। दोषी हम भी हैं, कहीं न कहीं, जिनके कंधों पर चढ कर आज ये आसमान छू रहे हैं।
एक-एक शब्द सच्चाई बयान कर रहा है।
आप का इंतजार रहेगा।
गजल तो दमदार है, (और आज तो व्याख्या भी मौजूद है:)
खासतौर पर ये पंक्तियॉं सोचने को मजबूर करती हुई-
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
waah!!!! sameer ji,
rajneeti pr achchha prahar.
vah aaj to hame hi pehli tippani karne ka mauka mila, bahut achha likha hai, laukik netaon par lagu hoti hai
aap ki nayi pustak ..hetu dheron badhaayee..
Arsh ki post mein kuchh ansh aur sameeksha padhi ..bahut achchee lagi..aap ke ek naye vyaktitv se parichay hua.
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
waah! khuuub!
bahut hi umda gazal lagi...
jabalpur-delhi---Aap ka yah prayog bhi badhiya hai.
क्या बात है, क्या बात है....
बहुत ही बेहतरीन पोस्ट...
बीच बीच में क्या जबरदस्त शेर दिए हैं...
एक एक शेर अपने आप में एक कहानी लिए है...
दौड़ कर के सीढ़ियाँ, लाँध कर जो चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
बहुत खूब
मीत
साहब जी सच कितना बदल गया है इंसान
ये प्रयोग बहुत ही अच्छा लगा
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.-----------
दुख तब होता है कि बांटने वाले किसी वैचारिक प्रतिबद्धता के चलते नहीं, महज पोलिटिकल लाभ के लिये बांटते हैं।
गिरगिट के आधुनिक अवतार हैं वे।
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
बहुत बढ़िया लगा यह नया प्रयोग ...आपकी वापसी और आपकी किताब का इन्तजार रहेगा :)
समीरजी,
बेहद खूबसूरत गजल, अशार दिल को छू गये।
यार्क से आपका अर्थ न्यूयार्क है क्या? :-)
कब तक उत्तर का ही रूख करे रहेंगे, कभी दक्षिण में आईये, गल्फ़ आफ़ मैक्सिको में सैर करायेगें, :-)
न्यूयार्क में आने पर अगर आप अपना सम्पर्क नंबर दे सकें तो अच्छा रहेगा, कम से कम आपसे बातचीत का सुख ही ले लिया जाये।
कुछ-कुछ पुराने चावल सी गमक है, उम्दा पोस्ट।
बेहद सुन्दर एवं विचारणीय पोस्ट......व्यंग्य और यथार्थ का सम्मिश्रण.
Have a Safe home ward journey & enjoy the time with family ...Nice post Sameer bhai
वापस तो वो आता है जो कही जाता है आप तो समेशा हमारे पास है यहाँ है तो भी हमारे पास हैं (नेट के जरिये )
वहां रहेंगे तो भी हमारे पास रहेंगे (नेट के जरिये ) क्योकि नेट तो हर जगह है यत्र तत्र सर्वत्र
आपका वीनस केसरी
प्रस्तुति की ये अदा खूब भायी सरकार
यार, आपको तो इस चुनावी मौसम में पत्रकार होना चाहिए था. इतनी तरीके की रपट जो लिखी है. आखिर कुछ कायदे की बातें तो टीवी अथवा अखबारों में होती रहतीं.
हमारे प्रियवर स्वर्गीय प्रदीप जी का गीत है वह. आगे है कि चाँद न बदला सूरज न बदला, बदल गया आसमान, कितना बदल गया इंसान. इसे उन्होंने अपनी आवाज़ में गाया था. और जिस तरह गाया था उससे पता चलता है की मात्रा, छंद, बहर और वज़न का कितना आभास उन्हें था.
मित्र होने के नाते चंद सुझाव:- 'ए' की इज़ाफ़त के लिए मात्रा या हाइफ़न का इस्तेमाल मत कीजिए; जैसे कि कत्ले-आम या काबिले-बर्दाश्त. इन्हें लिखा जाना चाहिए क़त्ल-ए-आम या काबिल-ए-बर्दाश्त आदि.
सचमुच आज की आपकी पोस्ट एक बदले हुए आदमी की पोस्ट लगती है. कुछ दिन यही अवतार धारण किये रहें. मैं तो कहता हूँ आम आदमी की हालत को लेकर नेताओं के बारे में थोड़ा और तल्ख़ हों. किसी पार्टी का ख़याल न करें. लोगों की असलियत खुल जायेगी.
wah!! bahut ache sirji
हम तो आजकल बिखरे मोती पढ़ रहे हैं।
आपकी ताजी ग़ज़ल अपने कहे जाने (जन्म) के आख्यान के साथ बहुत अच्छी लगी। जमाए रहिए जी।
गजल तो बड़ी उम्दा है ! आपकी यात्रा शुभ हो... वापसी का इंतज़ार रहेगा.
गुरु जी, एक एक शब्द जीवन की सच्चाई बयान करता है, अच्छा लगा ये नया प्रयास!
मुझे कविता और गजल कि ज्यादा समझ नही है लेकिन आपकी यह गजल व्याख्या के साथ मिली तो बहुत कुछ जान गया हू । लेकिन जो शेर आपकी फोटो के साथ लिखा वहा कम जमता है क्यों कि यह आप पर लागू नही होता है ।
aapki yahi ada to katil hai naye naye paryog karte rahen sab kaa dil harte rahen shubhkaamnaayen
apka lekhan sadev hi mere liye prerna shrot hain...
apke blog ki charcha "Blog varta" mai http://darpansah.blogspot.com
बहुत सुन्दर.
भैया, इस तरह से भी गजल लिखी जा सकती है, पहली बार देखा. बहुत सुन्दर प्रयोग है. आशा है आगे भी इस तरह से बनाने वाली गजलें पढने को मिलेंगी.
और लीजिए हमने आपकीगजल की तारीफ भी कर दी। अब तो आप खुश।
----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
gazal ke saath lekh bhi sone pe suhaaga, wah , bahut umda likha hai aapne.sachchai hai.
shabdon ko chhote-2 girah me bandhna koi aapse sikhe,ki aapke dil me chintan athah hai.dhanybad
दौड़ कर जो सीढ़ियाँ, लाँध कर के चढ़ गया
हाँफ कर वो गिर गया, पहुँचा जब मुकाम पर.
waah ji waah
समीर लाल समीर लाल ही हैं, उनसा कोई और नहीं हो सकता। हमेशा की तरह उम्दा रचना
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
यूँ बन गई गज़ल इस शीर्षक पर बहुत ही आपने बहुत ही उम्दा सारगर्वित लिखा है . आभार
Its really a very very great work. I don't know how to write here in Hindi, but your work is very gorgeous. Thanks for sharing it here.
Sameer Bhai,
yah prayog aapka bha gaya.
aap vakt ke saath hain ya vakt aapke saath hai.pata nahin magar dono ka mel achchha hai.vartmaan vakt ka ahsaas kara jati aapki rachna.yah aapki khoobi kaabile tareef hai.Badhai.
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
Sameer Bhai,
yah prayog aapka bha gaya.
aap vakt ke saath hain ya vakt aapke saath hai.pata nahin magar dono ka mel achchha hai.vartmaan vakt ka ahsaas kara jati aapki rachna.yah aapki khoobi kaabile tareef hai.Badhai.
बाँट डाला है दिलों को, सरहदों के नाम पर
शर्म भी आती नहीं है उनको अपने काम पर.
Please read this article about...
Blogging And Password Hacking Part-I
अक्सर हम अपने आस पास से चीजो को उठाकर कागजो में रखते है ...आपका फोटुवा का प्रयोग अच्छा है.
आज कल के चल रहे समय पर बहुत खूब चाचा ।\
मैं तो यही कहूंगा-
बहुत खूब बनी है आपकी गजल।
----------
जादू की छड़ी चाहिए?
नाज्का रेखाएँ कौन सी बला हैं?
ग़ज़ल बनती है ,गीत बन जाते है व्यंगभी बन जाते है वाहवाही भी मिल जाती है
किंतुआज तक अक भी अदद नेता नहीबना पाई हमारी साहित्यिक विधा|
हमारे राजनीतिक नेताओ तो अक ही मन्त्र सीखा है |
"या बेशर्मी तेरा आसरा "
शोभना चौरे
बहुत सुन्दर गजल लिख दी आपने। और ये नया प्रयोग भी अच्छा लगा।
'नाक तक डूबा हुआ है, वो सियासी खेल में,
किस तरह करता भरोसा, खुद के ही इमान पर'
-बहुत सुन्दर..
आपके ब्लाग से गुजरते हुए लगा कि आपको न जानकर भी जान गई। आपकी उड़नतश्तरी खुब चक्कर लगाती है। सच कहें तो लिखते रहने के लिए प्रेरित भी करती है। यूं ही उड़ते रहिए।
मज़ा आ गया
आप ब्लॉग जगत के शिरोमणि हैं। मैं समझ नहीं पाता कि आप अपने काम के बीच से ही इतना समय कैसे निकाल लेते हैं कि सभी को खुश भी रखते हैं खुद पोस्ट भी करते हैं। और, सिर्फ पोस्ट के लिए पोस्ट नहीं करते, बल्कि उम्दा तरीन विरासत छोड़ते हैं। असल में जिस प्रकार हर आदमी के अंदर हर गुण नहीं होता, उसी प्रकार हम लोगों के भीतर भी आप जैसा बनने का गुण नहीं है। शायद यही वजह है कि हम लोग (यानी आपके प्रशंसक-कायल) आपकी मेहनत को देखकर रश्क करते हैं। ये रश्क कोई नेगेटिव नहीं होता, बल्कि एक बड़े भाई अपने पिता आदि के सम्मान का बागीदार बनने के करीब होता है। खैर, मैं तो हमेशा आता रहता हूं और टिप्पणी न भी करूं, तो ऎसे ही इतना खोया रहता हूं कि आपसे अब एक आत्मीय लगाव सा हो गया है। कोशिश में लगा हूं कि आपकी ही तरह ऊर्जा संचित करूं, देखिये क्या होता है।
रांचीहल्ला
शब्द शब्द सत्य कहते शेर ,सियासत का खेल तो बहुत ही बुरा हैं ,उसके बारे में सोचना भी दुखद हैं ,लेकिन जब मन बहुत उलझा हुआ होता हैं ,बहुत सारे प्रश्न सामने होते हैं तभी इतने अच्छे और सच्चे शेर बना करते हैं ,आपको बहुत बहुत बधाई
देश,जाति,धर्म बाँटा,कर्म पहले बट चुका था,
डूब तो पूरे गये है,नाक का क्या कट चुका था.
रो रही इंसानियत है,खुद जो इतना जा गिरे,
शर्म को ताखे पे रख के,दाँत दिखलाते फिरे.
क्या रहा वादा इरादा,अब तो भूले है सभी,
स्वार्थ,लालच,नीचता मे,अब तो झूले है सभी,
याद करने की ये बातें,याद मे ही डर गयी,
आपकी ग़ज़ले मगर,इस दिल मे दस्तक कर गयी.
आज के परिवेश का बड़ा ही अच्छा अहसास था,
और लोगो को आईना दिखाने का,आपका सार्थक प्रयास था.
Apne "Hindi Sahitya Manch" main aakar meri Poem "Sandook " ko aur "Prachi ke Paar" main aakar "Brain-Drain" ko saraha iske liye dhanyvaad.
:)
Apki choti-choit tippaniya bhi hamare liye bada prerna shrot hoti hain.....
बहुत अच्छा रहा आपका प्रयास श्री समीर लाल ‘समीर’ जी। रफ़्ता-रफ़्ता आपने गजल लिख डाली और वह भी उम्दा। बधाई। -सुशील कुमार ।
करके वादा तोड़ देना, ये तो फितरत में रहा,
किस तरह हंसता रहा वो, हर लगे इल्जाम पर.
सुन्दर अभिव्यक्ति और भाव
समीर जी आपका ब्लॉग लम्बे अरसे से खोज रहा था की इसका पता क्या है लेकिन पता नहीं लग रहा था . आज जैसे ही आपकी उड़न तश्तरी के बारे में पता लगा तो लगा जैसे मंजिल मिल गई हो . विदेश में रह कर भी आप ने जो लिखा वो घर कर गया . आपका एक एक वर्ड जैसे दिल को छु गया . मैं अभी ब्लॉग पर नया हु . आपने 300 पोस्ट लिखी है जबकि मैंने सिर्फ 50 का आकडा छुना है . आपका भी मेरे ब्लॉग पर स्वागत है . शायद आपको मेरी गुफ्तगू अच्छी लगे .
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