सोमवार, अप्रैल 30, 2007

टेमा बोले टैं....

आजकल ये टेली मार्केटिंग वाले भी न!! गजब होशियार हो गये हैं यहाँ पर. सब कंपनियों ने भारत और पाकिस्तान के बंदे रख लिये हैं और यहाँ रह रहे देसियों के घर पर हिन्दी में बात करवाते हैं टेली मार्केटिंग के लिये. बड़ी स्टाईल से आपके नाम के साथ भाई साहब या जी लगाकर बात शुरु करते हैं कि समीर भईया!! हम समझते हैं कि किसी पुराने परिचीत का फोन है.

जबाब देते हैं कि, 'हाँ, कौन?' ..वो कहता है 'नम्सकार भईया, कैसे हैं, मैं संदीप' . हम याद करने की कोशिश कर रहे हैं कि यह कौन बिछड़ा साथी मिल गया. इतने प्यार से उसने भईया पुकारा कि हमारी तो आँख ही भर आई. लगा कि उसको दो मिनट गले लगा कर रो लूँ. तब तक वो शुरु हो जाता है, 'भईया, एक जरुरी काम है...और बस शुरु'.


अब तो धीरे धीरे पता लगने लगा है कि बंदा टेली मार्केटिंग का है तो अब जान जाते हैं. कुछ दिन पहले हमारी जब इनसे बात हुई तो बड़ी मजेदार स्थिती बन गई, आप भी देखें इस चर्चा को:

फोन की घंटी बजती है और हम फोन उठाते हैं.

टेली मार्केटियर (टेमा): ' समीर भाई'
हम: 'हाँ, बोल रहा हूँ.'
टेमा: 'कैसे हो भईया. मैं विकास बोल रहा हूँ वेन्कूवर से.'

हम तुरंत समझ गये, हो न हो, बंदा टेमा ही है. फिर भी शरीफ आदमी हैं तो पूछ लिया, 'हाँ, बोलो.'

टेमा: ' भईया, हमारी कम्पनी फायर प्लेस की चिमनी साफ करने का कान्ट्रेक्ट लेती है'

अब तो बात साफ हो गई थी. हमने भी ठान लिया कि आज इनसे ठीक से बात कर ही ली जाये.

हम: 'अरे वाह, ये तो बहुत अच्छा है और तुम तो इतनी बढ़िया हिन्दी बोल रहे हो. मजा आ गया तुमसे बात करके.'

अपनी तारीफ सुन कर टेमा जी फुले नहीं समा रहे थे, कहने लगे,' अरे भाई साहब, हम भारत के हैं. हिन्दी से हमें बहुत लगाव है. आप भी तो हिन्दी एकदम साफ बोल रहे हैं.'

हमने कहा, ' तब तो तुम हिन्दी की कविता वगैरह भी सुनते होगे.'

टेमा, 'क्यूँ नहीं, कविता तो मुझे बहुत पसंद है.'

वो झूठ कह रहा था. मैं उसकी आवाज से भांप गया था. मगर उसे माल बेचना है, हां में हां मिलाना उसकी मजबूरी थी. हमने इसी मजबूरी का फायदा उठाया.

'चलो, तो तुमको एक कविता सुनाता हूँ. एकदम ताजी. अभी तक किसी मंच से नहीं पढ़ी.'

इधर काफी दिनों से गये भी नहीं हैं किसी कवि सम्मेलन में, तो मन कर भी रहा था कि कोई पकड़ में आये जो बिना प्रतिकार के वाहवाही करते हुए कविता सुनें. कवि सम्मेलन में भी अधिकतर दूसरे अच्छे सधे कवियों को सुनने के चक्कर में लोग हमें भी सुनते है बिना प्रतिकार किये.

टेमा:' अच्छा, तो आप कविता करते हैं?'

हम:'तब क्या. तो सुनाऊँ?'

टेमा:'ठीक है. सुनाईये, वैसे मेरे दफ्तर का समय है यह.'

हम:' हमारा भी कविता करने का समय है यह. नहीं सुनना है तो फोन रख दें, हम दूसरा श्रोता खोजें.'

बेचारा!! धंधा भी जो न करवा दे. मन मार कर तैयार हो गया सुनने को.

हम शुरु हुए हिदायत देते हुए, 'ध्यान से सुनियेगा' . उसने कहा, 'जी, जरुर'

'इक धुँआ धुँआ सा चेहरा
जुल्फों का रंग सुनहरा
वो धुँधली सी कुछ यादें
कर जाती रात सबेरा।

इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'

वो बेचारा चुपचाप दूसरी तरफ से कान लगाये सुन रहा था. हम इतना पढ़ने के बाद रुके और पूछा,' हो कि नहीं.'
टेमा:' सुन रहा हूँ, भाई.'
हमने कहा 'आह वाह, कुछ प्रतिक्रिया तो करते रहो.'
वो कहने लगा 'जी, जरुर'
हमने फिर से लाईनें दोहराना शुरु की. जब तक दाद न मिले, कवि में आगे बढ़ने का उत्साह ही नहीं आता. लगता है, पत्थर को कविता सुना रहे हैं.

'इक धुँआ धुँआ सा चेहरा
जुल्फों का रंग सुनहरा'

उसने कहा, 'ह्म्म'

हम आगे बढ़े:

'वो धुँधली सी कुछ यादें
कर जाती रात सबेरा।

इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'

वो कहने लगा, 'वाह, वेरी गुड..अच्छा लिखा है. सही है'

हमारा तो दिमाग ही घूम गया. हमने कहा, 'सुनो, ज्यादा मास्साब बनने की कोशिश मत करो. कोई परीक्षा नहीं दे रहे हैं कि कॉपी जांचने बैठ गये. गुड, वेरी गुड-अच्छा लिखा है. सही है, गलत है..अरे कविता को कविता की तरह सुनो, वाह वाह करो.'

टेमा, 'सॉरी, मेरा मतलब वही था.'

हमने कहा, 'मतलब था तो पहेली क्यूँ बूझा रहे हो.साफ साफ कहो न, वाह वाह.'

वो कहने लगा 'जी, जरुर'

हम फिर शुरु हुए:


'कभी नाम लिया न मेरा
फिर भी रिश्ता है गहरा'
टेमा, 'वाह!'
'कभी नाम लिया न मेरा
फिर भी रिश्ता है गहरा
नींदों से मुझे जगाता
जो ख्वाब दिखा, इक तेरा।

इक धुँआ धुँआ सा चेहरा……'
टेमा, 'वाह! वाह! मजा आ गया.' यह उसने फिर धंधा पाने की मजबूरीवश झूठ कहा, उसकी आवाज के वजन से हम जान गये. मगर अब घोड़ा अगर घास पर रहम खाये तो खाये क्या. रहम से तो पेट नहीं भरता. हम जारी रहे:

'वहाँ फूल है अब भी खिलते
जिस जगह कभी दिल मिलते'
टेमा, 'वाह!' और अब उसकी सहनशीलता जबाब दे रही थी. उसकी पूरे संयम बरतने की तमाम कोशिशें बेकार होती नजर आने लगीं और वो भूले से पूछ बैठा कि 'भईया, लगता है कविता बहुत लम्बी है. अभी काफी बाकी है क्या?'
हमें तो समझो कि गुस्सा ही आ गया. हमने कहा, 'बेटा, जब सांसद कोटे में अमरीका/कनाडा आने के लिये निकलते हैं (कबुतरबाजी) और सांसद साहब तुम्हें खुद छोड़ने जा रहे हों तब रास्ते भर उनसे नहीं पूछना चाहिये कि बड़ी लम्बी दूरी है और अभी कितना बाकी है. ऐसे में बस चुपचाप पड़े रहते हैं,-आने वाली चकाचौंध भरी खुशनुमा जिंदगी के बारे में सोचते हुये (भले ही पहुंच कर कुछ भी हो). ऐसे में सफर आसानी से कट जाता है.तुमको तो पहुँच कर वहीं रुक जाना है.उस सांसद की तकलीफ सोचो. उसे तो तुम्हें सही सलामत पहुँचा कर अकेले ही सारे पासपोर्ट लेकर तुरंत लौटना है. फिर एक बार की बात हो तो भूल भी जाओ कि चलो, थकान निकल जायेगी. उस बेचारे को फिर अगली खेप ले जानी है और फिर अकेले लौटना है. यह सतत करते रहना है और तुम एक तरफा यात्रा को लेकर रो रहे हो कि कितनी लंबी यात्रा है. तुम वैष्णव जन (हिन्दी में इसको कायदे का आदमी कहते हैं) हो ही नहीं सकते- गांधी जी गाया करते थे कि वैष्णव जन को दिन्हे कहिये जी, पीर पराई जाने रे!! तुम्हे तो दूसरों के दर्द का अहसास ही नहीं.

बेटा, जब सांसद कोटे में अमरीका/कनाडा आने के लिये निकलते हैं (कबुतरबाजी) और सांसद साहब तुम्हें खुद छोड़ने जा रहे हों तब रास्ते भर उनसे नहीं पूछना चाहिये कि बड़ी लम्बी दूरी है और अभी कितना बाकी है. ऐसे में बस चुपचाप पड़े रहते हैं,-आने वाली चकाचौंध भरी खुशनुमा जिंदगी के बारे में सोचते हुये (भले ही पहुंच कर कुछ भी हो). ऐसे में सफर आसानी से कट जाता है.


अरे, हमने इतनी मेहनत से कविता सोची, प्लाट बनाया, यहाँ वहाँ से शाब्द बटोरे और लिखी एक कविता. वो भी श्रृंगार रस में, जो हमारा फिल्ड भी नहीं है. और तुम्हें हूं हूं, वाह वाह करना भारी पड़ रहा है. कहते हो, कितनी लंबी कविता है, कब खत्म होगी. बेगेरत इंसान!! कुछ तो दूसरों की तकलीफ समझ. तब पता लगेगा कि तेरी तकलीफ तो कुछ भी नहीं.
वैसे तुम्हें बता दूँ कि कविता सुनने वाला भी कविता खत्म होने के सुनहले और खुशनुमा अहसास के सहारे ही आह, वाह करते हुये कविता के सफर का समय काटता है. कविता खत्म होने का अहसास भी अमरीका/कनाडा की सो-काल्ड चकाचौंध भरी जिन्दगी से कम नहीं होता. कविता सुनने वालों की सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है, जिसके तहत वो अपने कविता सुनने का यह खतरनाक समय काटता है. अब मजबूरियां भी कैसी- कोई अपनी सुनाने के लिये सुनता है. कोई संबंध बनाने के लिये सुनता है.सहारा का कर्मचारी अपने साहब को खुश करने के लिये सुनता है (इन पर हमें बड़ी दया आती है, यह निस्वार्थ और निशुल्क सेवा है बिना सर्विस एग्रीमेन्ट के). महामंत्री-मुख्यमंत्री महानायक के चापलूसी में उसे सुनते हैं और महानायक बाकियों को अपनी सुनाने के लिये सुनते हैं. कितना सही कहा गया है किसी ज्ञानी के द्वारा -तू मेरी पीठ खूजा, मैं तेरी. लेकिन सुनते सब हैं, चाहे जो वजह हो. कोई भी बीच मे रुक कर नहीं पूछता कि 'कितनी लंबी कविता है, अभी कितनी बची है.' देखते नहीं क्या, जब कविता खत्म होती है, तो कितनी खुशी से लोग बच्चों की तरह उछल उछल कर ताली बजाते हैं बच्चों की तरह. तुम क्या सोचते हो कि उन्हें कविता पसंद आई. इसी खुशफहमी में सभी कवि जिंदा हैं. दरअसल, वो कविता खत्म होने का उत्सव मना रहे होते है, ताली बजा बजा कर. उन्हें समझो भाई.
हमने कहते रहे, 'अभी तो शुरु की है. अभी तो भाव पूरे मुकाम पर भी नहीं पहुँचे हैं. उसके बाद समा बँधेगी'
अब उससे रहा नहीं गया. कहने लगा, 'भाई साहब, यह तो जबरदस्ती है. किसी को सुनना हो या न सुनना हो, आप सुनाये जा रहे हैं. मेरी इतनी अधिक भी साहित्य मे रुचि नहीं है और आप जबरदस्ती किये जा रहे हैं.'
हमने कहा, 'शुरु किसने की थी?'
वो बोला, 'क्या, मैने कहाँ जबरदस्ती की? मैं तो चिमनी साफ करने की बात कर रहा था. और आप मुझे साहित्य सुना रहे हैं जिससे मुझे कोई लगाव नहीं.'
हमने उससे कहा, 'नाराज क्यूँ होते हो, तुम्हें साहित्य से कुछ लेना देना नहीं है तो मुझे ही चिमनी से क्या लेना देना है. मेरे यहाँ तो गैस वाली फायर प्लेस है, उसमें तो चिमनी होती ही नहीं. मगर तुम फिर भी लगे हो. तो जबरदस्ती किसने शुरु की, मैने कि तुमने?'
गंजो को तो फिर भी एक बार कल को बाल वापस उग आने की झूठी उम्मीद धराकर कंघी बेची जा सकती है. लेकिन संसद में ईमान की दुकान खोल कर बैठ जाओगे तो भविष्य की उम्मीद में भी कुछ नहीं बिकेगा. भविष्य में भी इसका कोई स्थान नहीं बनने वाला वहाँ पर. एक खरीददार न मिलेगा. तुमसे कहीं ज्यादा तो मुंगफली वाला कमा कर निकल जायेगा. तुम बचे छिलके बीन बीन कर खाना और जीवन यापन करना. अरे, फोन पर अपनी दुकान लगाने के पहले देख पूछ तो लो कि अगले पास चिमनी है भी कि नहीं और तुम सही जगह पर ठेला खड़ा किये हो कि नहीं.

गंजो को तो फिर भी एक बार कल को बाल वापस उग आने की झूठी उम्मीद धराकर कंघी बेची जा सकती है. लेकिन संसद में ईमान की दुकान खोल कर बैठ जाओगे तो भविष्य की उम्मीद में भी कुछ नहीं बिकेगा. भविष्य में भी इसका कोई स्थान नहीं बनने वाला वहाँ पर. एक खरीददार न मिलेगा.


टेमा, 'तो आपको शुरु मे बताना था. मैं आपसे बात ही क्यूँ शुरु करता.'
हमने कहा, 'तो तुम भी तो बता सकते थे कि तुम्हें साहित्य में कोई लगाव नहीं.'
टेमा, 'आपने पूछा ही कहाँ?'
हमने कहा, 'तो तुमने भी कहाँ पूछा था कि हमारे यहाँ चिमनी है कि नहीं. तुम अपना शुरु हुये और हम अपना.'
हम जारी रहे कि ' तुमने मेरा दिल तोड़ दिया. वरना तुम्हारे जैसे ही एक टेमा ने अभी ३-४ दिन पहले मुझे इतना डूब कर सुना, खूब दाद लुटाई, खुल कर दाद दी, वाह वाह की, ताली बजाई और यहाँ तक कि कुछ शेर फिर से सुनाने को कहा. उससे तो मैं इतना खुश हूँ कि अगर कभी राजनैतिक सत्ता के गलियारों मे मेरी पैठ बन पाई तो उसे राज्य सभा का सदस्य जरुर बनवा दूँगा (साहित्य श्रोता श्रेणी में-श्रेणी तो आवश्यकता अनुसार बनती रहती हैं) अन्यथा अगर साहित्यिक सत्ता के गलियारों मे ही घुसपैठ बन पाई तो साहित्य श्रोता रत्न. सभी अपने चाहने वालों के लिये कर रहें है तो मैं क्यूँ नही. यही तो रिवाज़ है. चलो सब छोड़ो. आगे कविता सुनो.'
उसने फोन रख दिया था.
ऐसा मैं अब तक अलग अलग टेमाओं के साथ ५-६ बार कर चुका हूँ. अब बहुत कम फोन आते हैं. शायद उन्होंने हमारे फोन नम्बर पर नोट लगा दिया होगा. 'सावधान, यह आदमी कवि है. इसे फोन न किया जाये. यह जबरदस्ती कविता सुनाता है.'
हमने देखे हैं ऐसे नोट उन फोन नम्बरों पर भी, जो गालियां बकते हैं. उनके यहाँ भी ये लोग फोन नहीं करते. हम सभ्य हैं. हमने यह मुकाम बिना गाली के, कविता से हासिल कर लिया है.
हम कविता विधा को नमन करते हैं.

नोट: अगर आपको अभी भी यह कविता पूरी पढ़ने की इच्छा हो तो यहाँ पढ़िये न!! आप टेमा थोड़े ही न हैं.


डिस्क्लेमर: बस हंसने हंसाने के लिये यह पोस्ट लिखी गई है. यूँ तो हजार बहाने हैं आसूं बहाने के, जो अगली पोस्ट में बहाये जायेंगे. (यह पंक्ति पंगेबाज ने पंगा लेते लेते सुझाई है और हम बिना पंगे से डरे छाप रहे हैं)

शनिवार, अप्रैल 28, 2007

दो दिन की छूट....

अभी अभी शादी से लौटे, तब ख्याल आया कि कल तो हमें कुछ लिखना नहीं है. कल हम ३० अप्रेल को सारे ब्लॉगर द्वारा वर्जनिया टेक की घटना के विरोध में ब्लॉग न लिखने के समर्थन में नहीं लिखेंगे. तब सोचा, सबको बता दें कि आ गये हैं पहले से बेहतर होकर जो कि आप निम्न पंक्तियों से समझ जायेंगे:


दो दिन की छूट....

कई माह तक कसरत करके
थोड़ा वज़न घटाया था
तले भूने का मोह छोड़ कर
नया रुप कुछ पाया था.

शर्ट हमारी लटक रही थी
गेलिस से थी पैन्ट टंगी
हमरी फिटनेस की बातों से
सारी खबरें खूब रंगी.

हमसे पूछें अदनान सामी
कैसे दुबले होते हैं
हमने कहा-क्या जानें वो
सारा दिन जो सोते हैं.

खेल सीख कर हमसे सारे
वो दुबले हो अब गाते हैं
हमको जाना था शादी में
हम कार चलाये जाते हैं.

सुबह शाम बस दावत चलती
हलुआ पूरी खाते हैं,
जितना वजन घटाया था
दुगना उससे पाते हैं.

इतने दिन की मेहनत सारी
अब तो मटिया मेट हो गई
शर्ट कसी है पेट के उपर
पैन्ट लगे लंगोट हो गई.

मोटों की बिछड़ी दुनिया में,
फिर से मेरी पूछ हो गई!!!!!
मेरी मेहनत की अब दुश्मन
दो ही दिन की छूट हो गई!!!

--समीर लाल 'समीर'

गुरुवार, अप्रैल 26, 2007

ये तो छूट चिटिंग है!!!

आज मन खिन्न है, इसलिये नहीं कि हम बेवकूफ हैं. बल्कि इसलिये कि हमें बेवकूफ बनाया गया है. अरे, यह भी कोई बात हुई, सब मिल कर गुट बनायें है और हम अल्प संख्यकों को, ( १९३५ की पुरानी गणना के आधार पर, हालांकि आजकल हम ज्यादा हैं) उल्लू बना रहे हैं. कहते हैं कि तुम हमें टिप्पणी दो, हम तुम्हें देंगे. कोई कहता है कि इसे ऐसा मानो कि तू मेरी पीठ खूजा, और मैं तेरी. अरे मियाँ, सब माने लेते हैं. मगर यह क्या झटके बाजी है. हम लिखें चार छः लाईन की कविता या दस लाईन की रिपोर्ताज और आप लोग, जिसमें गौर तलब आलेख में समीर लाल, लम्ब लेख में फुरसतिया और अभी अभी नये रिकार्ड बनाते हुऎ अति लम्ब लेख में रवि रतलामी...और इसी गुट में अपनी सफल घुसपेठ कायम करते हुये लम्ब लेख लेखक मालवा नरेश माननीय अतुल शर्मा...माननीय इसलिये कि जो भी हमें सफलतापूर्वक लपेटता है उसे हम माननीय मान लेते हैं और फिर बंदा हमारे मध्य प्रदेश का है, जब तक मालवा प्रदेश अलग नहीं बन जाता.. इस माननीय श्रेणी में आजतक फुरसतिया जी को छोड़ कर, अरुण( हमरे पंगेबाज), हमरे मित्र काकेश (कौवों के राजा) और आज ही से पंकज बैगांणी भी पहले से मौजूद हैं. अन्य भी कई हैं.

अब आप हमारे जैसे चार लाईना वालों बीस को पढ़ कर टिप्पणी करके २० ग्राहक बना लो, अपने यहाँ टिप्पणी करने के लिये और हमें उतनी देर अकेले आपकी कभी न खत्म होने वली रचना को पढ़वाने में उलझा कर रखो. यह ठीक बात नहीं है. एक न एक दिन खमिजयाना भुगतना होगा. लिखो लिखो, खूब लिखो!! हमें क्या, कलई खुलते समय थोड़े लगता है...नहीं खुलेगी तो मसीजिवि से खुलवायेंगे ही ...वो तो इसमें स्पेशलाईज करते हैं. :)

यह सब तो सिर्फ़ सूचनार्थ था मगर दरअसल हम तीन दिन को एक शादी में यहाँ से ६०० किमी दूर मांट्रियाल जा रहे हैं कल. दोपहर तक निकलेंगे- ५ घंटे मे पहूँच जायेंगे मगर शायद शादी की अफरातरफी और उत्साह में अन्तरजाल पर ना आ पाये तो आपसे आकर रविवार को नई लम्ब पोस्ट के साथ मिलेंगे, जब भारत में सोमवार होगा. तब तक के लिये, सबको समीर लाल का लाल सलाम और उड़न तश्तरी का हरि ओम!! इतने जिक्रों के बाद भी हमें मालूम है कि राकेश खंडेलवाल भाई साः इस बीच हमारा महौल संभालें रहेंगे, क्यूँ भाई जी, सही है न!!!

जब राकेश भाई का नाम ले लिया है तो बिन मुक्तक के यूँ तो मैं जाने वाला नहीं. तो लो, सुनो एकदम ताजा मुक्तक:




अब तो लगता है, सूरज भी खफा होता है
जब भी होता है, अपनों से दगा होता है.
सोचता हूँ कि घिरती हैं क्यूँ घटायें काली
क्या उस पार भी, रिवाजे-परदा होता है.




तो अब आप दो-तीन दिन इत्मिनान से रहें, हम आकर मिलते हैं. मगर कोई भरोसा नहीं कि वहाँ से कनेक्ट हो जायें.

सोमवार, अप्रैल 23, 2007

मूषक पीर सही न जाये!!

मैने देखा है जो चुप रहता है और सीधा होता है, उसका फायदा सब लोग उठाते हैं. अब जरा सी आत्मा, बेचारा चूहा, क्या हालत कर डाली है सबने उसकी. कहाँ तो गजब का मान सम्मान था. गणेश जी तक उस पर बैठ कर सवारी करते थे. हर समय लड्डू के पास बैठा कर रखते थे कि जितना खाना है खाओ. उसके नाम लेकर शेर लिखे जाते थे: मूषक वाहन गजानना बुद्धिविनायक गजानना।.. और एक आज का समय आया है. अब गणेश जी भी यात्रा पर कम ही निकलते हैं और जब कभी कहीं जाना भी हो, तो ऐसा माहौल है कि बिना बुलेट प्रूफ गाड़ी में निकल ही नहीं सकते. चूहा वहाँ से भी बरखास्त! बस पुरानी फोटूओं में उनके साथ दिख जाता है.

सिर्फ पूजा का सामान बन गया है. वैसे भी आज के जमाने में, जो भी कभी बड़े काम का रहा हो या बड़े नाम का रहा हो, जब किसी काम का नहीं रह जाता तो उसे पूजनीय घोषित कर किनारे बैठा देने का रिवाज है और फिर खूब करो उसकी छत्र छाया में उसके पुराने प्रभाव और नाम का इस्तेमाल. वो कुछ नहीं कहेगा, बस पूजते रहो.वो इसी में खुश रहता है. इस तरह का प्रयोग राजनीति में तो खूब होता है. उम्र का शतक होने में मात्र १६-१७ साल बचे हैं. ठीक से चल नहीं पाते, घुटने साथ नहीं देते. आँखे मानो नशे में बंद हो रही हों. एक वाक्य बोलते बोलते बीच में ऐसा रुके कि लगने लगा कि बात ही खत्म हो गई. मगर नहीं साहब, हमारे पूजनीय हैं. फिर जो भी तुम कहना चाहो, वो बस वो ही कहेंगे. खूब पूजा की जाती है उनकी और उनकी छत्र छाया में चाहे जो कर जाओ. वो बुरा नहीं मानते. चाहे तो ड्रग्स के चक्कर में पड़ जाओ, साथ वाला मर जाये. सब संभल जायेगा. पूजनीय कह देंगे कि बच्चा है, गल्ती हो जाती है. जवानी का जोश है. सब रफा दफा. बस पूजा चलती रहे, आरती करते रहो, खूब खुश रहो और खूब खुश रखो. फिर चाहे जो जो न फजीयत करा दो. लेकिन चलो, इनका व्यवहार तो फिर भी समझ आता है,

वैसे भी आज के जमाने में, जो भी कभी बड़े काम का रहा हो या बड़े नाम का रहा हो, जब किसी काम का नहीं रह जाता तो उसे पूजनीय घोषित कर किनारे बैठा देने का रिवाज है और फिर खूब करो उसकी छत्र छाया में उसके पुराने प्रभाव और नाम का इस्तेमाल. वो कुछ नहीं कहेगा, बस पूजते रहो.वो इसी में खुश रहता है. इस तरह का प्रयोग राजनीति में तो खूब होता है.

ये तो मानव हैं, समझते हैं, चल जाता है. मगर चूहा!! वो तो बेचारा मूक प्राणी है. कुछ बोल नहीं पाता. चुप रहता है तो तुम तो उसकी हालत और खराब किये दे रहे हो. मूक प्राणी से झटकेबाजी. फोटो की पूजा करते हो और जिंदा को पिंजडे में फंसाने की फिराक में हो. क्या क्या नहीं जतन करते. कभी पिंजडा, कभी उसमें ब्रेड का टुकड़ा अटका कर ऐसी चालबाजी से आमंत्रित करते हो जैसे डिनर पर बुलाया है. तुम्हारा बस चले तो उसके पिंजडे में घुसने के पहले नाटकबाजी में द्वारचार का आयोजन भी करा दो. गले मिल कर मिलनी सिलनी हो जाये और जैसे ही बेचारा डिनर करने अंदर जाये और बाहर से ठक-बन्द, अटक गया. उसका तो तुमने, अपनी इसी करनी से, इंसानों पर से विश्वास ही डुलवा दिया. जब यह चाल न चलती, तो आंटे की गोलियां, लड्डू का भ्रम पैदा करती, बना कर उसमें चूहा मार दवाई डाल कर जगह जगह बगरा दी. सीधा सादा चूहा बेचारा, गणेश जी ने लड्डू का लती बना दिया, बस भ्रमवश खा ले और तुम्हारा काम बन गया. वो मर गया. हँसते खेलते परिवार का एक सदस्य गुजर गया. तुम्हें सुकुन मिल गया. नाक पर रुमाल धर कर उसका पार्थिव शरीर सड़क के किनारे फेंक आये और आकर शांति से चाय पीने लगे. हो गये खुश!! क्यूँ ?? कभी सोचा, उसके परिवार पर क्या गुजरी? खैर, इस तरह सोचो, यह तुम्हारा स्वभाव नहीं. मैं भी कहाँ बीन बजा रहा हूँ, तुम तो मुर्राते ही रहोगे. वो एक पोराणिक शेर है न: भैंस के आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुराय. --इसी दिन के लिये लिखा गया होगा.

बात चलती है चूहे की और मैं बार बार तुम पर आ जाता हूँ. मैं भी न!! जब तब अखबार पढ़ता हूँ. देखता हूँ कि मेडिकल साईंस में बड़ी रिसर्च चल रही है. तरह तरह की दवाईयां बन रही हैं. तरह तरह के परिक्षण किये जा रहे हैं. बहुत तरक्की चल रही है. परिक्षण सफल रहा. चूहे पर किया गया. चूहा बच गया. जिस तरह उसका व्यवहार होना चाहिये था, वैसा ही हुआ परिक्षण के बाद. बिल्कुल स्वस्थ. अब वो अगले परिक्षण के लिये उपयोगी नहीं क्योंकि एक

ठीक डर है तुम्हारा. तुम इंसान हो, इंसान की तरह ही तो सोच सकते हो. इसमें क्या गलत है. अरे, अगर उसे नहीं मारोगे तो कल को यही चूहा न उठ खड़ा हो कि तुम मेरे कारण बचे. अपनी सेहत का और सम्पति में एक हिस्सा मेरा भी लगाओ. डर स्वभाविक है. जैसा अपने आस पास होता देखते हो, उसी से तो सीखते हो. ठीक तो किया जो मार दिया उसको.
परिक्षण में उसने आशातीत परिणाम दे दिये. वो स्वस्थ है. इसलिये अब उसको मार दिया जायेगा. उसकी अब उपयोगिता नहीं रही क्योंकि उसके शरीर में उस दवा की गुणधर्मिता आ गई है. अब उन परिणामों के आधार पर मरते हुए तुम, फिर से सेहतमंद होकर जी सकोगे. अगले परिक्षण के लिये दूसरे नये चूहे पकड़ कर लाये जायेंगे और यह दिन रात चलता रहेगा अनवरत. न तो रोग खत्म हुये जा रहे हैं और न ही शोध. चूहों पर परिक्षण और उनको मारा जाना जारी रहेगा.ठीक डर है तुम्हारा. तुम इंसान हो, इंसान की तरह ही तो सोच सकते हो. इसमें क्या गलत है. अरे, अगर उसे नहीं मारोगे तो कल को यही चूहा न उठ खड़ा हो कि तुम मेरे कारण बचे. अपनी सेहत का और सम्पति में एक हिस्सा मेरा भी लगाओ. डर स्वभाविक है. जैसा अपने आस पास होता देखते हो, उसी से तो सीखते हो. ठीक तो किया जो मार दिया उसको. सही कहा है: न रहेगा बांस, न बजेगी बांसूरी.

किसी ने यह भी सही ही कहा है:

सच मानो या झूठ इसे तुम,
गुर सारे जिंदा रहने के,
यह जीवन ही सिखलाता है.


लेकिन जो चुप रहता है और सीधा होता है, उसे कमजोर न समझो. वो जब बोलता है न!! तब सारे पूँजी का जमा खर्च एक ही बार में बोलता है. जबाब देना भारी हो जाता है. चुप रहने वाला विचारक होता है और विचारक के तर्कों का तो तुम्हारे पास यूँ भी जबाब नहीं होता.

तो सुनो, बताओ!! आज चूहा पूछता है कि "आखिर उसकी ही ऐसी क्या खता है जो उसे तुम अपने परिक्षण का साधन बनाये हो और फिर मार देते हो ? क्या तुम्हें और कोई नहीं मिलता?"

तुम्हारे पास कुछ देर तक बहस करने की शक्ति तो हमेशा रही है जिसके आधार पर तुम अपना गलत सही सब सिद्ध करने की कोशिश करते हो. अपने को सबसे बड़ा ज्ञानी समझने लगते हो. तुम उस चूहे को भी जबाब देने लगते हो, अपने बड़े बड़े सुने हुये तर्कों के साथ:

क्यूँ न करें तुम पर परिक्षण? क्यूँ न मारे तुमको? तुम और हो किस काम के?

तुम जिस गोदाम में घुस जाओ, वहाँ का सारा अनाज खा जाओ. पूरे देश को खोखला कर डाल रहे हो. तुम्हारे पास कोई काम नहीं, सिवाय नुकसान करने के और अपनी जमात बढ़ाने के. बिना सोचे समझे बच्चे पैदा करते जाते हो. हर तरफ बस गन्दगी फैलाते हो. जहाँ से गुजर जाओ, पूरा माहौल खराब कर दो. बदबू ही बदबू. तुम्हें पकड़ने के लिये लोग पिंजड़ा लगाते है, तुम बच निकलते हो. जो भी जाल बिछा लो, तुम्हें उसे कुतर कर बच निकलने के सब गुर मालूम हैं. अरे, तुम खुद बच कर निकल लो तब भी ठीक. तुम तो जिस पर अपनी उदार नजर रख दो, उसे तक जाल कुतर कर छुड़ा ले जाते हो. तुम बस चेहरे से भोले लगते हो, अंदर से कुछ और ही हो. बिल्ली तक को चकमा देकर निकल जाना तुम्हारे बायें हाथ का खेल है. तुम तो पूरे समाज के लिये घातक हो. दफ्तर की जरुरी जरुरी फाईलें तक कुतर डालते हो. न जाने कितने साक्ष्य मिटा डाले इस तरह तुमने, कुछ पता भी है.कई बार तो लगने लगता है कि तुम भ्रष्ट नौकरशाहों और क्रिमनल्स के लिये कमीशन पर काम करते हो. अरे, हमने तो यह तक देखा है कि जब माड लगा तिरंगा झंडा गणतंत्र दिवस पर फहरने के बाद स्वतंत्रता दिवस के लिये लपेट कर रखा गया, तब तुम उसे तक कुतर गये. राष्ट्र के सम्मान का जरा भी ख्याल नहीं. तुम देशद्रोही हो. तुम महामारी फैलाते हो. (शायद यह प्लेग की बात की है)!!!

चूहा तुम्हारी हर बात को गौर से सुन रहा है चुपचाप. जो चुप रहते हैं न! वो बहुत समझ कर और गौर से सुनते हैं. लो, अब वो चूहा कह रहा है:

वही तो!! फिर हम को ही क्यूँ. नेताओं को क्यूँ नहीं पकड़ते. उन पर क्यूँ नहीं करते यही परिक्षण और सफल होने के बाद उन्हें क्यूँ नहीं मार देते. तुमने जितने भी कारण गिनाये हैं, बताओ तो जरा, उनमें से कौन सा इन नेताओं में नहीं है? अरे! हम जो महामारी फैलाते हैं न प्लेग की. वो तो एक गाँव या ज्यादा ज्यादा एक शहर में सीमित होकर रह जाती है. और ये तुम्हारे नेता!! ये जो महामारी फैला रहे हैं-भ्रष्टाचार की, संप्रदायिकता की, धर्म के नाम पर बँटवारे की-वो तो पूरे राष्ट्र को संक्रमित कर रही है. कोई भी इस संक्रमण की चपेट से नहीं बच पा रहा है. न तो इसका कोई इलाज है, न दवा!!

अरे! हम जो महामारी फैलाते हैं न प्लेग की. वो तो एक गाँव या ज्यादा ज्यादा एक शहर में सीमित होकर रह जाती है. और ये तुम्हारे नेता!! ये जो महामारी फैला रहे हैं-भ्रष्टाचार की, संप्रदायिकता की, धर्म के नाम पर बँटवारे की-वो तो पूरे राष्ट्र को संक्रमित कर रही है. कोई भी इस संक्रमण की चपेट से नहीं बच पा रहा है. न तो इसका कोई इलाज है, न दवा!!


हर गली कूचे से लेकर, ब्लॉक से शहर तक, प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर तक हर जगह बहुतायत में हैं. पकड़ो न इन्हें!!! करो न परिक्षण!! मारो न इन्हें. हम लिख कर दे सकते हैं कि हमारी प्रजाति तो खत्म हो सकती है, मगर ये तुम्हें अपनी उपलब्धता की कमी का एहसास कभी न होने देंगे. हम छोटे से प्राणी, कितना अन्न खा जायेंगे, कितना बिगाड़ कर लेंगे.

अब तुम्हारे पास जबाब नहीं है. बहस तो शुरु कर ली, पूरा ज्ञान एक ही बारी में उलट कर रख दिया और अब खिसकने का रास्ता देख रहे हो!! खिसको..खिसको!! यही तुम्हारी फितरत है. जब जबाब न सूझे, तो खिसक लो!!

वाह रे इंसान! बहुत खूब. नमन करता हूँ तुम्हारी होशियारी को.

बुधवार, अप्रैल 18, 2007

बुढापा देख कर रोया...

पिछली पोस्ट की भूमिका देखकर एक मित्र ने विनोदवश प्रश्न उठाया कि क्या आपके साथ ऐसा कभी हुआ है कि किसी कविता की सिर्फ भूमिका ही पढ़ी गई और लोगों ने कविता पढ़ी ही नहीं क्योंकि भूमिका बहुत लंबी थी. अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं, मगर जब से उन्होंने इस तरफ नजर डलवा दी, लगने लगा है कि हो तो सकता है.

होने को तो कुछ भी हो सकता है!!

जब एक भ्रष्टाचारी मंत्री हो सकता है
और एक गुंडा संतरी हो सकता है.

तो यह क्यूँ नहीं हो सकता है?

जब जेलर को कैदी पीट सकते हैं
और बाहुबली चुनाव जीत सकते हैं

तो यह क्यूँ नहीं हो सकता है?

जब बंग्लादेश भारत को हरा सकता है
और निर्दलीय सरकार गिरा सकता है..

तो यह क्यूँ नहीं हो सकता है?

बिल्कुल हो सकता है..इसलिये हम इस कविता की कोई भूमिका नहीं लिखेंगे. डॉक्टर ने हमसे क्या कहा और यह कविता हमारी डॉक्टर की वार्तालाप का नतीजा है, इसके लिये भूमिका की क्या जरुरत है. वो तो आप पढ़कर खुद ही समझ सकते हैं और हमें तो यह तक बताने की आवश्यकता भी नहीं है कि यह रचना भी बाल महिमा, रक्तचाप पुराण, मोटापा व्यथा की श्रृंखला की ही कड़ी है.

वो भी आप पढ़ते पढ़ते खुद ही जान जायेंगे. क्या जरुरत है किसी भी भूमिका की, सीधे कविता ही शुरु कर देते हैं. क्यूँ बताया जाये कि यह रचना इस बात को बताने के लिये है कि एक जवां मर्द को कोई बुढ्ढा कह दे तो कैसा लगता है. क्या लोग पढ़कर नहीं समझ सकते. तो पढ़िये न!!.


बुढापा देख कर रोया……..

कोहरे में धुंधला दिखता है
इसमें कौन अजूबा है
लेकिन मेरी पत्नी का मुँह
इसी बात से सूजा है.

कहती है कि नज़र तुम्हारी
अब तुमसे नाराज़ हो गई
और चिपक लो कम्प्यूटर से
हालत कैसी आज हो गई.

डॉक्टर बाबू बतलाते हैं
चिंता की यह बात नहीं है
बुढ्ढों के संग हो जाता है
डरने वाली बात नहीं है.

हमने बोला, होता होगा
मगर हमारे साथ हुआ है,
बुढ्ढों की क्यूँ बातें करते
जवां मर्द के साथ हुआ है.

भरी जवानी नस नस में है
दिल भी मेरा नाच रहा
मेरी प्रेम भरी कवितायें
बच्चा बच्चा बांच रहा.

एक जवानी उम्र चढ़ाती
एक जवानी मन की है
जिसके मन पर छाई उदासी
उसकी चिंता तन की है.

मुझसे खाते रश्क हैं वो भी
जो अब तक कालेज में हैं
उनके क्या क्या प्रेम तरीके
सब मेरी नालेज में हैं.

आगे जब भी बात करो तुम
हमको बुढ्ढा मत कहना
तोड़ फोड़ मचवा दूँगा मैं
फिर मेरी हरकत सहना.

मैं तो बस कहने आया था
तुम अपना कुछ ध्यान करो
उम्र तुम्हारी गुजर रही है
युवकों का सम्मान करो.

-समीर लाल ‘समीर’

सोमवार, अप्रैल 16, 2007

गगन चढहिं रज पवन प्रसंगा

स्वामी समीरानन्द की प्रवचनमाला: ई X Factor क्या है. भाई!!

अभी कुछ दिन पहले पंकज ने मेक्सिम पत्रिका से मन्दिरा बेदी की तस्वीरें अपने ब्लाग पर छापी थी और कहा कि मन्दिरा जो कि अपने X-Factor के लिए हमेशा चर्चा में रही. इस बात पर उनके पाठकों ने X Factor के बारे में जानने की जिज्ञासा प्रकट की. पंकज इस X Factor को समझाने का जिम्मा उसी वक्त, वहीं टिप्पणी में, हमारे उपर टरका कर किनारे हो गये और रोज पूछते हैं कि क्या हुआ, कब लिखोगे. यह उनकी आदत है कि कहीं पर कुछ भी फैला लो और फिर किसी के सर पर भी टोपी रख दो कि जरा इसे साफ कर देना और उस पर से तुर्रा कि जरा जल्दी और ठीक से और शुरु तकादे की झड़ी. मगर फिर भी हम सब झेलते हैं और उनके आगे पीछे घूमते रहते हैं. दिखने में दुबले पतले, एक औसत और आम नागरिक, हर चीज में नार्मल टाईप मगर फिर भी न जाने क्या बात हैं उसमें कि सब उससे जुड़ना चाहते हैं. उससे बात करना चाहते हैं, मिलना चाहते है. यह वो भी नहीं जानता. कोई विशेष खासियत वाली बात नहीं मगर फिर भी एक अद्दश्य, अनजान कोई बात है बंदे में और वो ही तो X Factor कहलाता है. X Factor का धारक खुद नहीं जानता कि उसमें X Factor है. बस लोगों को आकर्षित करने की, सम्मोहित करने की एक आलोकिक और अदभूत इनबिल्ट शक्ति- यही X Factor है.

यह X Factor अधिकतर (अधिकतर शब्द पर गौर फरमाये अर्थात सबमें नहीं) सेलेब्रेटी म्यूजिक और फिल्म स्टार्स में बहुतायत में पाया जाता है. लोग पागलो की तरह टूट पड़ते हैं उनकी झलक पाने. अब यह टूटन कभी कभी Sex Appeal से भी प्रभावित होती है और यही X Factor की परिभाषा की समझ में द्वंद पैदा कर देता है. मगर मेरी समझ से X Factor और Sex Appeal के मायने आपस में एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं, यह मैं आपको उदाहरण देकर बाद में समझाता हूँ. अभी के लिये तो बस इतना जान लें कि यह एक नहीं हैं. मगर एक का दूसरे में सम्मिश्रण मिठास और बढ़ा देता है.


यूँ तो यह X Factor सेलेब्रेटी म्यूजिक और फिल्म स्टार्स की बपौती नहीं है, यह पंकज का X Factor साबित कर ही चुका हैं. पंकज तो पंकज, मैने तो X Factor की एक अच्छी खासी मात्रा लालू प्रसाद यादव तक में देखी है और भी कई नेताओं में है मगर सब नेताओं में हो, यह जरुरी नहीं. मुलायम सिंग और नितिश कुमार में नहीं है जबकि तीनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं. एक सी इमानदारी (यहाँ इमानदारी शब्द का वैसा ही प्रयोग है जैसे अंधेरे को अंधेरा न कह कर रोशनी का आभाव कहा जाये या फिर लॉस को निगेटिव प्राफिट), एक सी हरकतें, एक से पद, एक से राज्य, लगभग एक सी वेशभूषा मगर लालू में जो X Factor है, वो उनको इन दोनों से अलग करता है. लालू आपके शहर में आयें तो भीड़ जमा होती है, उनकी झलक पाने के लिये और नितिश और मुलायम के लिये भीड़ जमा करनी होती है, ताकि ये भीड़ की झलक पा लें तो कार्यकर्ताओं की रोजी रोटी चलती रहे. खैर, इन सबसे क्या लेना देना, हम लोग तो X Factor समझ रहे थे. किसी ने बताया है कि कुछ क्रिमिनल्स में भी X Factor होता है मसलन दाऊद में है मगर और न जाने कितनी जेलों में बंद क्रिमिनल्स में नहीं है.

एक सी इमानदारी (यहाँ इमानदारी शब्द का वैसा ही प्रयोग है जैसे अंधेरे को अंधेरा न कह कर रोशनी का आभाव कहा जाये या फिर लॉस को निगेटिव प्राफिट), एक सी हरकतें, एक से पद, एक से राज्य, लगभग एक सी वेशभूषा मगर लालू में जो X Factor है, वो उनको इन दोनों से अलग करता है.


तो X Factor का तो ऐसा है कि यह खरीदा नहीं जा सकता, यह पहना नहीं जा सकता, यह सीखा नहीं जा सकता बस उपर वाले की मेहरबानी है. है तो है नहीं है भूल जाओ. कुछ नहीं कर सकते इसकी प्राप्ति के लिये. आप अपनी जुगत भीड़त लगा कर मंत्री का पद ला सकते हैं, उपाधि ला सकते हैं, पुरुस्कार ला सकते हैं, मंचों पर उच्च स्थान पर विराजमान हो सकते हैं मगर X Factor नहीं ला सकते, यह तो कुछ लोगों के साथ उपर से पैक करके भेजा जाता है. पैकिंग उम्र के किस पड़ाव में खुलेगी, कोई नहीं जानता बस इतना पता है कि आपका X Factor आपके साथ ही विदा हो जायेगा.
मुझे तो लगता है कि हमारा हिन्दी चिट्ठाजगत भी इससे अछूता नहीं है. यहाँ भी लोग हैं X Factor के साथ.

याद आता है कभी सागर ने कहा था, अलविदा चिट्ठाजगत.ऐसा मनुहार मचा, ३० ३० कमेंट, रुक जा भईया, न जा. तेरे बिन हम नहीं रह पायेंगे और जाने क्या क्या, तब जा कर वो रुके. फिर देखता हूँ रचना जी को, वो तो सिर्फ नारद छोड़ने की बात कर रहीं थी, उस पर ३० लोग भीड़ लगा लिये कि अरे कहाँ जा रहीं हैं, हमारा क्या होगा. और एक हमें देखिये, चिट्ठाचर्चा छोड़ने का एलान किये, फिर इंतजार करते रहे कि लोग मनायेंगे कि न जाओ. कोई आया ही नहीं मनाने बल्कि शुभचिंतक पंकज ऐसे कि कहने लगे मैं स्वयं चाहता हुँ लालाजी कुछ समय के लिए चिट्ठाचर्चा से अवकाश लें...तो हम खुद ही लौट आये वरना तो समझो बाहर ही हो गये थे. आखिरकार तीनों ही तो चिट्ठाकार हैं. तीनों को ही अपने लेखों पर ठीकठाक टिप्पणियां मिल जाती हैं और तीनों को ही चिट्ठाजगत जानता है. फिर ऐसा क्या है कि लोग उन्हें रोकने के लिये बिछ बिछ गये और एकदम वैसी ही घटना में हमारे लिये बिछना तो दूर, सलाह मिलने लगी कि ठीक है अवकाश ले लिजिये. यह जो अनदेखा अंतर है न!! जो दिखता नहीं मगर है, वही X Factor है. यह लोगों को आपकी तरफ आकर्षित करता है अनायास ही. आप कुछ नहीं करते. न ही सजते हैं, न ही कोई खास अदा दिखाते हैं मगर यह फेक्टर लोगों को बरबस ही आपकी ओर आकर्षित करता है. किसी में कम, किसी में ज्यादा और किसी में बिल्कुल नहीं. स्त्री या पुरुष से कोई फर्क नहीं पड़ता. अब देखिये रचना जी में है तो सागर में भी है. हममे नहीं है. जाहिर है तभी तो कोई रोकता नहीं.

यह जो अनदेखा अंतर है न!! जो दिखता नहीं मगर है, वही X Factor है. यह लोगों को आपकी तरफ आकर्षित करता है अनायास ही. आप कुछ नहीं करते. न ही सजते हैं, न ही कोई खास अदा दिखाते हैं मगर यह फेक्टर लोगों को बरबस ही आपकी ओर आकर्षित करता है. किसी में कम, किसी में ज्यादा और किसी में बिल्कुल नहीं.


मैने कई लोगों को X Factor और Sex Appeal में कन्फ्यूज होते देखा है. अब पंकज और सागर के उदाहरण से तो आप समझ ही गये होंगे X Factor और Sex Appeal का आपस में कुछ लेना देना नहीं. कहाँ ये दोनों सीधे सादे बालक और कहाँ Sex Appeal .

चलते चलते बताता चलूँ कि यह X Factor कोई नया आईटम नहीं है या हम पहले नहीं जो इससे परेशान हो कर लिख रहे हैं. तुलसी दास जी के समय में भी जब X Factor के आभाव में उनका नाम नहीं हो पा रहा था और उनकी योग्यता के सामने नाकारे कवि, उनसे ज्यादा नाम कमा रहे थे सिर्फ X Factor के चलते, तब उन्होंने यह एक लाईन का शेर कहा था जिसमें उन्होंने X Factor को हवा बताया है और नाकारे कवियों को धूल ( तुलसीदास जी अक्सर प्रतीकों में बात कहते थे, सीधे नहीं (शायद विवादों से बचने को ऐसा करते रहे होंगे)):

गगन चढहिं रज पवन प्रसंगा ।
अर्थात हवा का साथ पाकर धूल आकाश पर चढ जाती है — गोस्वामी तुलसीदास

आशा है मित्रों की X Factor को लेकर जिज्ञासा कुछ हद तक शांत हुई होगी.

गुरुवार, अप्रैल 12, 2007

मोटापा बदनाम हो गया!!

अजीब दो गले लोग हैं. एक तरफ तो कहते हैं, प्रगति होना चाहिये- चहुंमुखी प्रगति एवं सर्वांगीण विकास. इंडिया उदय और न जाने क्या क्या नारे. अब जब विकास की राह पर हम इसका अक्षरशः पालन करने लगे तो कहते हैं कि मोटापा हानिकारक है. यार, हम क्या करें. हम तो मानो फँस कर रह गये. सुनो तो बुरे बनो, न सुनो तो बुरे. इससे अच्छा तो हम नेता होते तो ही ठीक था. सुन कर भी हर बात अनसुनी कर देते. देख कर अनदेखा कर देते.

अब तो हमारे अड़ोसी पड़ोसी भी हमको मोटा कहने में नहीं सकुचाते. ये वो ही लोग हैं, जो कभी हमें बचपन में अपनी गोद में लेकर हमारे गाल नोचते थे. मोटे हम तब भी थे. मगर तब सब हमें हैल्दी बेबी, क्यूट, गबदू बाबा और न जाने क्या क्या कह कह कर प्यार करते थे, आज वो ही बदल गये हैं. मोटा कहते हैं. जमाने की हवा के साथ बह गये हैं सब. हमको तो मोटापे का पैमाना बना कर रख दिया है. जब भी किसी मोटे की बात चलती है, कहते हैं, इनसे ज्यादा मोटा है कि कम. मानो कि हम हम नहीं, मोटापे के मानक हो गये..



वैसे इन्हीं लोगों को जब जरुरत पड़ती है, तो इन्हें ही हम महान नजर आने लगते हैं. उस दिन भाई जी और भाभी जी का ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं था, तो हमें ही ट्रेन में सीट घेरने भेजे थे. हम अकेले ही दो सीट घेर लिये थे. फिर यह लोग बड़े आराम से यात्रा करते निकल गये और चलते चलते हमें हिदायत दे गये कि वजन कुछ कम करो. अरे, अगर उनके जैसा वजन होता तो दो लोग लगते उन दोनों के लिये सीट घेरने के लिये और फिर भी शायद कोई वजनदार धमका कर खाली करा लेता. एक तो इनका काम अकेले दम करो और फिर नसीहत बोनस में सुनों. अजब बात है.

इन्हें मोटा होने के फायदों का अंदाज नहीं है. अज्ञानी!! मूर्खता की जिंदा नुमाईश! अरे, मोटा आदमी हंसमुख होता है. वो गुस्सा नहीं होता. आप ही बतायें, कौन बुढ़ा होना चाहता है इस जग में? मोटा आदमी बुढ्ढा नहीं होता (अगर शुरु से परफेक्ट मोटा हो तो बुढापे के पहले ही नमस्ते हो जाती है न!! राम नाम सत्य!!). वो बदमाश नहीं होता. बदमाशों को पिटने का अहसास होते ही भागना पड़ता है और मोटा आदमी तो भाग नहीं सकता, इसलिये कभी बदमाशी में पड़ता ही नहीं.

नादान हैं सब, मुझे उनसे क्या!! मैं तो देश की समृद्धि और उन्नति का चलता फिरता विज्ञापन हूँ और मुझे इस पर नाज है.

दुबला पतला सिकुड़ा सा आदमी, न सिर्फ अपनी बदनामी करता है बल्कि देश की भी. मैने ऐसे लोगों की पीठ पीछे लोगों को बात करते सुना है. कहते हैं, न जाने कहाँ से भूखे नंगे चले आते हैं. मुझसे से मेरी पीठ पीछे भी कोई ऐसा कहे, यह बरदाश्त नहीं. हम तो मोटे ही ठीक हैं. अरे, अपना नहीं तो कम से कम अपने देश की इज्जत का तो ख्याल करो.

जिस तरह से महानगरों के कुछ क्षेत्रों में विकास, मॉल, कॉल सेंटर आदि की जगमगाहट को राष्ट्र का विकास का नाम देकर भ्रमित किया जाता है. ठीक उसी तरह मोटापे से ताकतवर होने का भ्रम होता है, भले अंदुरीनी स्थितियाँ, राष्ट्र की तरह ही, कितनी भी जर्जर क्यूँ न हो. भ्रम में ही सही, एक बार को सामने वाला डरता तो है. दुबलों से तो भूलवश भी आदमी नहीं डरता और बिना डराये कौन सा काम हो पाता है.

जिस तरह से महानगरों के कुछ क्षेत्रों में विकास, मॉल, कॉल सेंटर आदि की जगमगाहट को राष्ट्र का विकास का नाम देकर भ्रमित किया जाता है. ठीक उसी तरह मोटापे से ताकतवर होने का भ्रम होता है, भले अंदुरीनी स्थितियाँ, राष्ट्र की तरह ही, कितनी भी जर्जर क्यूँ न हो. भ्रम में ही सही, एक बार को सामने वाला डरता तो है. दुबलों से तो भूलवश भी आदमी नहीं डरता और बिना डराये कौन सा काम हो पाता है.


मुझे मोटापे से कोई शिकायत नहीं है, मगर मोटापे को साजिशन बदनाम होता देखता हूँ तो दिल में एक टीस सी उठ जाती है और उसी वेदना को व्यक्त करती यह रचना पेश है:


मोटापा बदनाम हो गया

आज हमारे गिर पड़ने से
एक अजब सा काम हो गया.
सारी गल्ती उस गढ्डे की
मोटापा बदनाम हो गया.

बच्चे बुढ़े जो भी आते
जोर जोर से हँसते जाते
हड्डी लगता खिसक गई है
कमर हमारी सिसक रही है

मरहम पट्टी मालिश सबसे
थोड़ा सा आराम हो गया
सारी गल्ती उस गढ्डे की
मोटापा बदनाम हो गया.

बिस्तर पर हम पड़े हुये हैं
लकड़ी लेकर खड़े हुये हैं,
घर वाले सब तरस दिखाते
दुबलाने के गुर सिखलाते.

सुनते सुनते रोज नसीहत
पका हुआ सा कान हो गया.
सारी गल्ती उस गढ्डे की
मोटापा बदनाम हो गया.

खाने को मिलती हैं दालें
बिन तड़के और बंद मसाले
लौकी वाली सब्जी मिलती
मेरे मन की एक न चलती

मुझको बस दुबला करना ही
मानो सबका काम हो गया
सारी गल्ती उस गढ्डे की
मोटापा बदनाम हो गया.

--समीर लाल 'समीर'

नोट: यह मोटापा व्यथा मेरे द्वारा पूर्व रचीत "बाल महिमा" और "रक्तचाप पुराण" श्रृंखला की ही कड़ी है.

मंगलवार, अप्रैल 10, 2007

बिजली के खम्भे, गालियाँ और कुत्ते!!

बिजली विभाग और उसकी रहवासी कॉलिनियों से मेरा बड़ा करीब का साबका रहा है. पिता जी बिजली विभाग में थे और हम बचपन से ही उन्हीं कॉलिनियों में रहते आये.

मैने बहुत करीब से बिजली से खम्भों को लगते देखा है, एक से एक ऊँचे ऊँचे. उच्च दाब विद्युत वाले लंबे लंबे खम्भे और टॉवर भी, सब लगते देखें हैं.

जब बड़े टॉवर और खम्भे लगाये जाते थे साईट पर, तब खूब सारे मजदूर जमा होते थे. खम्भा उठाते और खड़ा करते वक्त सामूहिक ताकत एकत्रित करने के लिये वो नारे के तर्ज पर गंदी गंदी गालियाँ बका करते थे. गाली का पहला भाग उनका हेड मजदूर चिल्ला कर बोलता और बाकी के सारे मजदूर सुर में उसे पूरा करते हुये ताकत लगाते थे और खम्भा खड़ा कर देते.



जब भी कोई मंत्री निरीक्षण के लिये आते, तब उन मजदूरों को गाली न बकने के निर्देश दिये जाते. मैं आश्चर्य किया करता. अरे, खम्भा तो निर्जीव चीज है. इन गालियों के असली हकदार की उपस्थिती में ही उन पर पाबंदी! यह तो अजब बात हुई!! मगर यही तो होता है लोकतंत्र में. जो जिस चीज का असली हकदार होता है, वो ही उससे वंचित रहता है. सब कुछ उल्टा पुलटा. जिन लोगों को जेल में होना चाहिये वो संसद में होते हैं और जिनको संसद में होना चाहिये वो पड़े होते हैं गुमनामी में, बिल्कुल उदासीन और निर्जीव-बिना गड़े खम्भे के समान. उनसे बेहतर तो मुझे यह निर्जीव खम्भा ही लगता है. शायद कल को गड़ा दिया जाये तो खड़ा तो हो जायेगा. ये तो यूँ उदासीन ही पड़े पड़े व्यवस्था पर कुढते हुए इसी मिट्टी में मिल जायेंगे एक दिन.

जिन लोगों को जेल में होना चाहिये वो संसद में होते हैं और जिनको संसद में होना चाहिये वो पड़े होते हैं गुमनामी में, बिल्कुल उदासीन और निर्जीव-बिना गड़े खम्भे के समान. उनसे बेहतर तो मुझे यह निर्जीव खम्भा ही लगता है. शायद कल को गड़ा दिया जाये तो खड़ा तो हो जायेगा. ये तो यूँ उदासीन ही पड़े पड़े व्यवस्था पर कुढते हुए इसी मिट्टी में मिल जायेंगे एक दिन.

तो बात चल रही थी, मंत्री जी के निरीक्षण की. तब सब मजदूर ताकत इकट्ठा करने और दम लगाने के लिये दूसरे नारों का प्रयोग करते. सरदार कहता, "दम लगा के" पीछे पीछे सारे मजदूर ताकत लगाते हुए कहते, "हइस्सा" और बस खम्भा लग जाता. मंत्री जी के सामने तो यह महज एक शो की तरह होता. हल्के फुल्के खम्भे खड़े कर दिये जाते. फिर मंत्री जी का भाषण होता. वो चाय नाश्ता करते. कार्य की प्रगति पर साहब की पीठ ठोकी जाती और वो चले जाते. और फिर भारी और बड़े खम्भों की कवायद चालू...बड़ी बड़ी मशहूर हीरोइनों के नाम लिये जाते सरदार के द्वारा और बाकी मजदूर उन नारों वाली गालियों को पूरा करते हुए ताकत लगाते और खम्भे खड़े होते जाते.

मैं तब से ही गालियों के महत्व और इनके योगदान से परिचित हूँ. क्रोध निवारण के लिये इससे बेहतर कोई दवा नहीं. बहुत आत्म विश्वास और ताकत देती हैं यह गालियाँ. जितनी गंदी गाली, जितनी ज्यादा तर्रनुम में बकी जाये, उतनी ज्यादा ताकत दिलाये. काश इस बात का व्यापक प्रचार एवं प्रसार किया जाता, तो न तो च्यवनप्राश बिकता और न ही गुप्त रोग विशेषज्ञों की दुकान चलती. जड़ी बूटियों से ज्यादा ताकत तो इन गालियों में हैं, वरना वो मजदूर जड़ी बूटी ही खाते होते. गालियाँ तो बस गालियाँ होती हैं:

मुफ्त का उपाय सीधा-सादा,
भरपूर ताकत का पूरा वादा.

उम्र के साथ साथ बाद में इन गालियों के सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व के विषय में भी ज्ञानवर्धन होता रहा. (फुरसतिया: गालियों का सांस्कृतिक महत्व और फुरसतिया: गालियों का सामाजिक महत्व, इसी लेख का अंश याद आता है: )


गाली का सबसे बडा़ सामाजिक महत्व क्या है?

मेरे विचार में तो गाली अहिंसा को बढा़वा देती है। यह दो प्राणियों की कहासुनी तथा मारपीट के बीच फैला मैदान है। कहासुनी की गलियों से निकले प्राणी इसी मैदान में जूझते हुये इतने मगन हो जाते हैं कि मारपीट की सुधि ही बिसरा देते हैं। अगर किसी जोडे़ के इरादे बहुत मजबूत हुये और वह कहासुनी से शुरु करके मारपीट की मंजिले मकसूद तक अगर पहुंच भी जाता है तो भी उसकी मारपीट में वो तेजी नहीं रहती जो बिना गाली-गलौज के मारपीट करते जोडे़ में होती है। इसके अलावा गाली आम आदमी के प्रतिनिधित्व का प्रतीक है। आप देखिये ‘मानसून वेडिंग’ पिक्चर। उसमें वो जो दुबेजी हैं न ,जहां वो जहां मां-बहन की गालियां देते हैं पब्लिक बिना दिमाग लगाये समझ जाती है कि ‘ही बिलांग्स टु कामन मैन’।


तब हमारे पास एक कुत्ता होता था. हम चाहते तो उसका नाम कुत्ता ही रख देते. मगर फैशन के उस दौर की दौड़ में हाजिरी लागाते हुए हम ने उसका नाम रखा - टाईगर. बस नाम टाईगर था अन्यथा तो वो था कुत्ता ही. वो तो हम उसका नाम टाईगर की जगह बकरी भी रख देते तो भी वो रहता कुत्ता ही, न!! नाम से कोई अंतर नहीं पड़ता, चाहे छ्द्म या असली. भूरे भूरे रोयेदार बालों के साथ बड़ा गबरु दिखता था टाईगर. नस्ल तो मालूम नहीं. उसकी माँ को शायद विदेशियों से बहुत लगाव था, इसलिये वो जरमन सेपर्ड, लेबराडोर और शायद बुलडाग भी, की मिली जुली संतान था. कोई एक नस्ल नहीं, कोई एक धर्म नहीं, बिल्कुल धर्म निरपेक्ष. बस एक कुत्ता. सब घट एक समान में विश्वास रखने वाला प्यारा टाईगर.

जब भी टाईगर हमारे नौकर के साथ घूमने निकलता, तो उसकी एक अजब आदत थी. हर खम्भे के पास जाकर वो नाक लगाता मानो कोई मंत्र बुदबुदा रहा हो और फिर एक टांग उठा कर उसका मूत्राभिषेक करता. चाहे कितने भी खम्भे राह में पड़ें, वो यह क्रिया सबके साथ समभाव से निपटाता. खम्भों के अलावा वो सिर्फ नई स्कूटर और नई कार को पूजता था. अन्य किसी चीजों से उसे कोई मतलब नहीं होता था. भले ही आप उसके सामने नई से नई मंहगी पैन्ट पहन कर खम्भे की तरह खड़े हो जाये, वो आपको नहीं पूजेगा. आप उसकी नजरों में पूजनीय नहीं हैं तो नहीं हैं. पैसे की चमक दमक से आप अपने को पूजवा लेंगे, यह संभव नहीं था. इस मामले में वो आज की मानव सभ्यता से अछूता था. कुत्ता था न!!

भले ही आप उसके सामने नई से नई मंहगी पैन्ट पहन कर खम्भे की तरह खड़े हो जाये, वो आपको नहीं पूजेगा. आप उसकी नजरों में पूजनीय नहीं हैं तो नहीं हैं. पैसे की चमक दमक से आप अपने को पूजवा लेंगे, यह संभव नहीं था. इस मामले में वो आज की मानव सभ्यता से अछूता था.कुत्ता था न!!

बाद में हमारे घर के पिछवाड़े में मीलों तक फैले खुले मैदान में बिजली का सब-स्टेशन बना. खूब खम्भे गड़े. हमें, न जाने कितनी हीरोईनों के नाम मालूम चले और खूब तरह तरह की गालियाँ सीखीं. दिन भर खम्भे गड़ते और हम दिन भर गालियों का रसास्वादन करते और नई नई गालियाँ सीखते.

सब-स्टेशन लगभग तैयार हो गया था. हर तरफ खम्भे ही खम्भे. निर्माण कार्य अंतिम चरणों में था. टाईगर उसी तरफ घूमने जाने लगा. भाग भाग कर हर खम्भा कवर करता. अति उत्साह और अति आवेग में भूल गया कि " अति सर्वत्र वर्जयेत" . बस उसकी अपनी उमंग. इसी अति उत्साह में शायद विद्युत प्रवाहित खुले तार पर, जो कि किसी खम्भे से छू रहा था, मूत्राभिषेक कर गुजरा और भगवान को ऑन द स्पॉट प्यारा हो गया. नौकर उसके मृत शरीर को गोद में उठाकर लाया था. फिर वहीं उसी मैदान के एक कोने में उसे गड़ा दिया गया. टाईगर नहीं रहा, मगर खम्भे खड़े रहे.कई और छद्म और दूसरे नामों के टाईगर उन पर मंत्र फूकते रहते हैं और अभिषेक भी अनवरत जारी है. एक टाईगर के चले जाने से न तो अभिषेक रुक जाते हैं और न ही स्थापित खम्भे गिर जाते हैं.

मेरा मानना है, स्थापित खम्भे इन्सानियत में आस्था का प्रतीक होते हैं, स्थिर और अडिग. चन्द हैवानी हवाओं से बिल्कुल अविचलित - तटस्थ!!


मेरी पसंद में राकेश खंडेलवाल, वाशिंगटन का एक गीत:

नेता और कुत्ता

लूटता समान एक हिन्दू मुस्लिम सिख को है
दूसरे को एक जैसे बिजली के खंभे हैं
नाता नही कोई देखे फिर भी समान दिखें
देख देख सब लोग करते अचंभे हैं
दोनों ही हैं धर्म-निरपेक्षता के प्रतिनिधि
संसद की सड़क हो या पानी वाले बंबे हैं
नेता हो या श्वान, दोनो एक ही समान रहे
कहने को व्यस्त, किन्तु दोनों ही निकम्मे हैं.




नोट:

१. खम्भों के गिरने की अपनी वजह होती है. कभी जानने का दिल करे तो पढ़ियेगा बमार्फत फुरसतिया, हरी शंकर परसाई का लेख: उखड़े खम्भे
२.अभी रेडियो तरकश सुनता था, ब्रेकिंग न्यूज चलायी जा रही थी. तरकश स्तम्भ का नया स्तम्भ (खम्भा) : व्यंग्यकार रवि रतलामी . बहुत मेहनत और लगन से लगाये गये हैं, आईये स्वागत करें.

गुरुवार, अप्रैल 05, 2007

मान गये भाई कवि!!

मान गये भाई कवि जी आपको. बड़े अजू्बे जीव हो. रात को जब सारा जग सो जाता है, घोर अंधेरा छा जाता है तब जागते हो. जब सारा घर दिन भर कामकाज करके, दुनियावी झंझावतों से जूझकर, थक हार के सो जाता है तब तुम सोकर उठते हो. लाईट भी नहीं जला सकते. नाकारों की कमाने वालों के सामने कहाँ चल पाती है. लाईट जलाओ तो सबसे डांट खाओ. तो अंधेरे कमरे में ही भटकते रहते हो. ज्यादा से ज्यादा छत पर चले गये. अब जब लाईट ही नहीं जला सकते तो अंधेरे में उजाले की किरण, आशा की किरण खोजते हो. सन्नाटों की आवाजें सुनते हो. जुगनुओं की जल बुझ निहारते हो. चाँद को देखकर कृदन करते हो. तन्हाई का रोना रोते हो. अरे भाई, इतनी रात रात में तन्हाई नहीं तो क्या तुम्हारी माशूका तुम्हारे साथ बैठी रहे. तुम्हें तो कुछ करना नहीं है. सूरज उगने तक तो तुम सो जाओगे. फिर दिन भर पलंग तोडो़गे. उसे तो दफ्तर जाना है. घर चलाना है. कविता तो खा कर जिंदा नहीं रहा जा सकता. उसके लिये अनाज, सब्जी, दूध-घी सब लगता है और उसके लिये चाहिये पैसा. वो तो उसको कमाना है. तुम्हें तो बस कविता करना है तो तन्हाई, अंधेरा, जुगनु ही न साथ देंगे!!

कविता तो खा कर जिंदा नहीं रहा जा सकता. उसके लिये अनाज, सब्जी, दूध-घी सब लगता है और उसके लिये चाहिये पैसा. वो तो उसको कमाना है. तुम्हें तो बस कविता करना है तो तन्हाई, अंधेरा, जुगनु ही न साथ देंगे!!

न प्रेमिका से मिलना न जुलना. मिलोगे भी कैसे, जब वो जागती है, तब तुम सोते हो. अक्सर तो उसे यह तक नहीं पता चल पाता कि तुम उसे चाहते हो. तुम तो बस रात रात भर रोते रहो और आंसूओं की बरसात में भींग भींग कर गम के तराने रचो और सुबह होते ही उनका तकिया लगा कर सो जाओ. फिर उसकी शादी कहीं और हो जाये. तुम्हें बेवफाई के नये मैटर मिल जायें और तुम फिर शुरु हो जाओ इस पर लिखने को. क्या कमाल की चीज हो यार!!.

मकान है बड़के नाले के पास. शहर भर की बजबजाती गंदगी उसमें ठहरी हुई. दुर्गंध ही दुर्गंध. घर के पिछवाड़े मुहल्ले भर के कचरे का ढ़ेर और तुम रात में खिड़की पर बैठे, मन की उड़ान में बिना टिकिट सवारी करते, उपवन में टहलते हो. फूलों में महक खोजते हो. फिजाओं में उसके बदन की खुशबू तलाशते हो. अगर उसके बदन से केवड़े की खुशबू भी उठे न, तो भी हवाओं के संग तुम्हारे दर पर पहुँचने के लिये नाला पार करते करते सिवाय कचरे की सड़ांध के तुम्हारे नथूनों में कुछ नहीं पहुँचेगा. और तो और, दरवाजे पर आहट हो तो कहते हो शायद हवाओं ने खटखटाया होगा. अब इतनी रात गये और कौन खटखटायेगा? चोर तो खटखटा कर आता नहीं और आता भी होगा तो तुम्हारे यहाँ क्यूँ आयेगा. वो भी जानता है तुम कवि हो. फक्कड़ दीन के यहाँ कैसी चोरी. आज तक का पुलिस इतिहास उठा कर देख लो अगर किसी कवि के यहाँ चोरी हुई हो तो.

अब इतनी रात गये और कौन खटखटायेगा? चोर तो खटखटा कर आता नहीं और आता भी होगा तो तुम्हारे यहाँ क्यूँ आयेगा. वो भी जानता है तुम कवि हो. फक्कड़ दीन के यहाँ कैसी चोरी. आज तक का पुलिस इतिहास उठा कर देख लो अगर किसी कवि के यहाँ चोरी हुई हो तो.

और हाँ, अपना पहनावा और लुक वगैरह भी ठीक करो यार. कभी कदा जो देर शाम सामने ठेले तक चाय पीने निकलते भी हो तो वही खद्दरिया कुर्ता पैजामा, चट चट करती बाटा की स्लीपर, काले मोटे फ्रेम का चश्मा, रफ लुक दाढ़ी और उस पर से कँधे से झूलता वो कपड़े का झोला. चाय भी पिओगे तो काली- नींबू डालकर, उस पर से नम आँखें, बुझा चेहरा, जली सिगरेट- कौन देखेगा यार तुमको. उन्हें तो बेवफा कहलाने में ही फक्र होगा.

आज अपनी एक रचना देख कर लगा कि शायद ऐसे ही किसी माहौल में अटके हमने भी कभी यह कविता रची होगी, आप भी सुनें:

लिखता हूँ बस अब लिखने को
लिखने जैसी बात नहीं है
सोचा समय बिताऊँ कैसे
कटने वाली रात नहीं है

यादों का मेला भरता है
मैं तो फिर भी तन्हा हूँ
बेहोशी में सिमटा सिमटा
डर कर खुद से सहमा हूँ

हैं बेबस सब प्यार के मारे
सब के यह ज़ज्बात नहीं है
लिखता हूँ बस अब लिखने को
लिखने जैसी बात नहीं है

गिनता जाता हूँ मैं अपनी
आती जाती इन सांसों को
नहीं भूला पाता हूँ फिर भी
प्यार भरी उन बातों को

आँखों से गिरती जाती जो
थमती वो बरसात नहीं है
लिखता हूँ बस अब लिखने को
लिखने जैसी बात नहीं है.

--समीर लाल ‘समीर’

नोट: यह सिर्फ मौज-मस्ती के लिये है. कृप्या कोई आहत न हो!!

रविवार, अप्रैल 01, 2007

जूते की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा...

अभी दो रोज पहले गुगल पर फुरसतिया बनाम उड़न तश्तरी गोष्ठी का आयोजन हुआ. तमाम विचार विमर्श हुए. अंत में तय पाया गया कि हम अपनी पसंद का विषय उन्हें सौंपे जिस पर हम उनकी शैली में व्याख्यान सुनना चाहते हैं और वो इसी तर्ज पर हमें. हमने मौके की नजाकत का फायदा उठाते हुये पहले ही विषय दाग दिया-फटे जूते की वेदना पर आपसे सुनना चाहेंगे. वो भला क्यूँ रुकते. बोले, ठीक है आप सिले जूते की कहानी लिखें, वही तो फटेंगे न फिर. तो पहले आप लिखें. उसी श्रृंखला में हमारी प्रस्तुति:

यूँ तो हमारे महात्म का हम खुद क्या बखान करें. बड़ा शरमा सा जाते हैं. आप तो जानते ही हैं कि हम १४ साल तक अयोध्या के राज सिंहासन पर विराजमान रहे. हुआ यूँ कि जब राम चन्द्र जी को वनवास हो गया, तो उनके चक्कर मे हम जबरदस्ती लपिटिया गये और चले साथ साथ जंगल की तरफ.

वो तो भला हो भरत भाई का जो मौके से आ गये और अपने बड़े भईया राम चन्द्र जी से बोले कि आपको जाना हो तो जायें लेकिन अपनी पादुका मुझे दे जायें. पुराने जमाने के भाई थे और एक दूसरे की बात रखा करते थे. बिना पूछे कि तुम्हारे पास तो तुम्हारी पादुकायें हैं ही, फिर काहे हमारी माँगे ले रहे हो, बस हमें उतारे और भरत भाई को थमा दिये. हम भी खुशी खुशी भरत भाई के साथ ठुमकते हुये महल आ गये. हमने और भरत भाई ने रास्ते में मिल कर तुलसी दास का गीत गाया:



करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।

फिर तो क्या सम्मान दिया भरत भाई ने-वाह. हमें सिंहासन पर बैठालें और खुद नीचे बैठें. हर रोज हमें नमस्ते करने के बाद ही कोई काम शुरु करते थे. ऐसा आदर-सत्कार देखकर हमारी तो खुशी से आँख भर आई और गला ऐसा रौंधा कि आभार के दो शब्द भी न कह पाये. हम तो मन ही मन यही आशीष देते रहे कि भरत भईया, आप ही राजा बने रहो और मनाते रहे कि राम चन्द्र जी जंगल ही रहें. उन दिनों जूते की भाषा प्रचलन में नहीं थी, तो कोई हमारी बात समझ ही न पाया और एक दिन देखते हैं कि बड़के भईया लौट आये और हमें सिंहासन से उतार दिया गया.

फिर समय बदला, जमाना बदला और लोग बदले. यहाँ तक कि देखते देखते युग भी बदल गये. रामयुग से ढ़लकते ढ़लकते कलयुग में पहूँच गये. बाकि तो अधिकतर मान्यतायें और सामाजिक महत्व मटियामेट हो गये मगर हमारा महत्व आज भी काफी हद तक बरकरार है. अच्छे जेन्टलमैन की पहचान उसके सूटेड बूटेड होने से की जाती है. इसमें जो बूटेड वाली बात है, वो हमारी हो रही है. बड़ा अच्छा लगता है. लोग बाग व्यक्ति की संभ्रांतता का अंदाजा हमें देखकर लगाते हैं.


अच्छे जेन्टलमैन की पहचान उसके सूटेड बूटेड होने से की जाती है. इसमें जो बूटेड वाली बात है, वो हमारी हो रही है. बड़ा अच्छा लगता है. लोग बाग व्यक्ति की संभ्रांतता का अंदाजा हमें देखकर लगाते हैं.


कई होशियार तो हमें देखकर यहाँ तक पता कर लेते हैं कि हमारा धारक किसान है, गाँव से आ रहे है, बर्फिले इलाके का रहने वाला है या किसी पॉश लोकेलिटी का वासी है. जब कहीं पार्टी शार्टी में जाने की बात हो या शादी ब्याह में या फिर किसी मीटिंग में, तब तो हमारी बड़ी खातिर होती है. बढ़िया मेकअप पॉलिश होती है और सज सूज कर हम चलते हैं. आखिर प्रतिष्ठा का सवाल होता है जो हम से ही आँकी जाती है.

हालात तो यह हैं कि हमारे भाव आसमान छूने लगे हैं, देशी विदेशी कम्पनियां हमें बना बना कर पैसे कमाये जा रही हैं. बाटा से लेकर रिबोक, नाईकी, गुची और न जाने कौन कौन..सब हमारे मुरीद हैं. विदेशी उपक्रमों का बोलबाला एक जमाने से रहा है. हीरो इठला इठला कर गाता है..

मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
मेरा जूता...

वाह, क्या फक्र की बात है. हर रुप में प्रतिष्ठित-पैर में रहूँ तो धारक का सम्मान और सर पर बजा दिया जाऊँ तो उसका अपमान. अब तो बहुत से लोग हो गये हैं जो हमारी भाषा ही समझते हैं, दूसरी भाषा उनको समझ में ही नहीं आती. यह फर्क आ गया है जमाने में.

रामाआसरे जी, जो आरक्षित कोटे से इस शहर के कलेक्टर हैं. नये नये कलेक्टर हुये हैं. कुछ अरसे पहले हम शहर की सबसे बड़ी दुकान से खरीद कर उनके लिये लाये गये. यह अलग बात है कि हमारा दाम दारु के ठेकेदार ने भरा और रामाआसरे जी ने बस हमारे आने से खुश होकर उनका एक ठेका पास कर दिया. यह तो उनकी आपसी समझबूझ है, उससे हमें क्या. हम तो रामाआसरे, कलेक्टर की पैर की शोभा बढ़ाने आ गये. रामाआसरे जी हमें पहन कर बड़ी शानोशौकत से दफ्तर गये. हमारे कारण उनके चेहरे पर आत्म विश्वास था और आँखें चमक रही थीं. मातहतों की निगाहें हमें देख देख कर रश्क खाती थीं. दिन भर वो हमें पहनें कभी इस मीटिंग कभी उस मीटिंग. कभी यहाँ दौरे पर और कभी मंत्री जी के साथ गाँव की परिक्रमा. हमने उनके पग में भर सामर्थ सुविधायें बिछा दीं. हर कंकड़ की चुभन हमने झेली, हर धूल, कींचड़ को अपने शरीर पर ले लिया. धूप की जलन हमने झेली और रामाआसरे को महसूस भी नहीं होने दिया कि सड़क कितनी तप रही है. हर तकलीफ झेलते रहे ताकि रामाआसरे को कोई तकलीफ न हो और फिर शाम हो गई.

शाम को मंदिर में महाआरती में मंत्री जी को भाग लेना था सो रामाआसरे, कलेक्टर को साथ होना ही था और हम तो साथ थे ही. मगर यह क्या, जैसे ही मंदिर आया वो हमें बाहर ही छोड़ कर चल दिये. हम उनसे भी बड़े अछूत हो गये क्योंकि हम कलेक्टर नहीं. अरे, अगर अर्जुन सिंग न होते, अगर आरक्षण न होता तो अभी तो ये भी कहीं जूता ही सिल रहे होते. बहुत गुस्सा आया रामाआसरे पर. यही सब देखकर हमें लगता है कि यह हमारे लिये कितने गर्व की बात है-इन मानवों की संगत में लगातार रहते हुये भी हमने खुद को इनकी सभ्यता से बचा कर रखा. हमारे लिये तो क्या हिन्दु, क्या मुसलमान और क्या ईसाई, सब एक हैं. हम सबकी वैसे ही सेवा करते हैं और सबके साथ एक ही व्यवहार रखते हैं. आज तो रमाआसरे के बारे में खराब खराब विचार मन में आने लगे मगर क्या करते, वहीं पड़े रहे. फिर थोड़ी देर में रामाआसरे लौटे और हमें पहन कर फिर चल दिये. हमारा दिमाग तो सटका हुआ था ही, बस गुस्से मे काट खाये उनको. पूरे चव्वनी भर का छाला बनाया. घर पहूँच कर वो अपने नौकर पर गुस्साये. कहे कि कल हमें वापस दुकान ले जायें, जहाँ से हम लाये गये थे. हम तो डर ही गये.


मगर यह क्या, जैसे ही मंदिर आया वो हमें बाहर ही छोड़ कर चल दिये. हम उनसे भी बड़े अछूत हो गये क्योंकि हम कलेक्टर नहीं. अरे, अगर अर्जुन सिंग न होते, अगर आरक्षण न होता तो अभी तो ये भी कहीं जूता ही सिल रहे होते.


खैर, हम डब्बे में रख कर दूसरे दिन वापस दुकान पर ले जाये गये. नौकर ने बढ़ चढ़ कर हमारी शिकायत लगाई. चव्वनी को अठ्ठनी बताया गया. दुकानदार ने हमें गुस्से में अलटाया पलटाया और अंदर ले गया. लोहे के बत्ते पर चढ़ाया और दो हथौड़ी मरम्मत कर दी. हमारी तो चीख ही निकल गई. फिर मोम मलहम लगा कर वापस भेज दिये गये कि अब नहीं काटेगा. इतनी जबरदस्त पिटाई के बाद काट भी कौन सकता है, कम से कम हम तो नहीं. अभी आदमी होने के गुण हममें आना बाकि हैं.

हम वापस आ गये. अब मंदिर में बाहर छोड़ दिये जाने की जलालत झेलना हम सीख चुके थे. कौन फिर फिर अपनी मरम्मत कराये- जूते हैं कोई नेता तो हैं नहीं. दिन बीतते गये. हम बिना अपनी बढ़ती उम्र और क्षीण होती शक्ति की परवाह किये बगैर, हर पल हर क्षण रामाआसरे की रक्षा और सेवा करते रहे. एक दिन गुस्से और बदहवासी में उन्होंने एक पत्थर पर ऐसी ठोकर मारी कि दर्द से हमारा जो मुँह खुला तो खुला ही रह गया. वो घर लौट आये. उनके लिये नया जूता आ गया. हम पीछे के कमरे के स्टोर में डाल दिये गये. हम अपनी हालात पर रोते रहे और नौकर हमें देख लालायित होता रहा. फिर एक दिन कलेक्टराईन से पूछ कर वो हमें अपने घर ले आया. जूते के डॉक्टर कल्लू मोची से हमारा इलाज करा कर नया रंग रोगन करा, उसने हमें अपनी अलमारी में बड़ी इज्जत से सजा लिया. अब वो हमे अपने विशिष्ट समयों में पहन कर गौरवान्वित होता है. हमारी यही किस्मत है, बस यही सोच कर रुह काँप जाती है कि अब अगर मुँह फिर खुल गया तो आगे क्या होगा.

रामाआसरे से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरी तरह बल्कि मुझसे ज्यादा उसके लिये, अब बूढी हो चली उसकी माँ ने तकलीफें झेली थीं. बचपन में ही रामाआसरे के पिता गुजर गये थे. माँ ने मुहल्ले के कपड़े सी सी कर उसे पाला. हर तकलीफें खुद झेलीं मगर रामाआसरे को महसूस भी नहीं होने दिया. खुद भूखी रही, रामाआसरे को कभी अहसास नहीं होने दिया कि भूख क्या होती है. खुद लोगों के कपड़े सीती रही मगर रामाआसरे को नीचा न देखना पड़े इसलिये हमेशा अच्छे कपड़े पहनाये. अपनी तबियत की चिंता किये बिना, उसे पढ़ाया, लिखाया. कलेक्टर बनाया और आज वो माँ, उसी कलेक्टर के घ्रर में पीछे वाले कमरे में रहती है. बेटे की कमायाबी से खुश हो लेती है.बेटे के पास समय नहीं है, बस माँ पीछे के कमरे से उसे दफ्तर जाते और देर रात लौटते देखकर संतुष्ट हो लेती है. उसकी पत्नी कीटी पार्टियों और सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहती है. आज तो अखबार में कलेक्टराईन की वृद्धाश्रम में सेवा करते हुये तस्वीर भी छपी है.रामाआसरे के बच्चे अपनी दुनिया में ही खोये रहते हैं. दादी को प्यार और आदर देना है यह उनके माँ-बाप ने समयाभाव में कभी सिखाया ही नहीं और न ही उन्होंने सीखा. माता जी को बस नौकर कलेक्टर साहब की माँ होने की वजह से सम्मान देते हैं और वो उसी में संतुष्ट हैं. और करें भी क्या बेचारी. जीर्ण क्षीण काया लिये पड़ी रहती है. तब फिर हम तो सिर्फ जूता हैं, हम क्यूँ न संतुष्ट रहें इस नौकर द्वारा दिये सम्मान से.


आज वो माँ, उसी कलेक्टर के घ्रर में पीछे वाले कमरे में रहती है. बेटे की कमायाबी से खुश हो लेती है.बेटे के पास समय नहीं है, बस माँ पीछे के कमरे से उसे दफ्तर जाते और देर रात लौटते देखकर संतुष्ट हो लेती है. उसकी पत्नी कीटी पार्टियों और सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहती है. आज तो अखबार में कलेक्टराईन की वृद्धाश्रम में सेवा करते हुये तस्वीर भी छपी है.रामाआसरे के बच्चे अपनी दुनिया में ही खोये रहते हैं. दादी को प्यार और आदर देना है यह उनके माँ-बाप ने समयाभाव में कभी सिखाया ही नहीं और न ही उन्होंने सीखा.



अब जब मैं फिर फट जाउँगा, नौकर भी मुझसे मुँह मोड़ लेगा, तब मेरी कथा क्या होगी, यह सुनिये जल्द ही फुरसतिया जी से..फटे जूते की वेदना में. मुझे उम्मीद है कि फुरसतिया जी अपने पसंद का इससे मिलता जुलता टॉपिक आगे किसी को उसकी शैली में सुनाने को कहेंगे. टॉपिक तो लगातार बने रहेंगे-मोजा, पेन्ट, टाई, शर्ट,टोपी और यहाँ तक कि रुमाल, बनियान, धोती..बढ़ाओ भई आगे आगे...