रविवार, अप्रैल 01, 2007

जूते की सुनो, वो तुम्हारी सुनेगा...

अभी दो रोज पहले गुगल पर फुरसतिया बनाम उड़न तश्तरी गोष्ठी का आयोजन हुआ. तमाम विचार विमर्श हुए. अंत में तय पाया गया कि हम अपनी पसंद का विषय उन्हें सौंपे जिस पर हम उनकी शैली में व्याख्यान सुनना चाहते हैं और वो इसी तर्ज पर हमें. हमने मौके की नजाकत का फायदा उठाते हुये पहले ही विषय दाग दिया-फटे जूते की वेदना पर आपसे सुनना चाहेंगे. वो भला क्यूँ रुकते. बोले, ठीक है आप सिले जूते की कहानी लिखें, वही तो फटेंगे न फिर. तो पहले आप लिखें. उसी श्रृंखला में हमारी प्रस्तुति:

यूँ तो हमारे महात्म का हम खुद क्या बखान करें. बड़ा शरमा सा जाते हैं. आप तो जानते ही हैं कि हम १४ साल तक अयोध्या के राज सिंहासन पर विराजमान रहे. हुआ यूँ कि जब राम चन्द्र जी को वनवास हो गया, तो उनके चक्कर मे हम जबरदस्ती लपिटिया गये और चले साथ साथ जंगल की तरफ.

वो तो भला हो भरत भाई का जो मौके से आ गये और अपने बड़े भईया राम चन्द्र जी से बोले कि आपको जाना हो तो जायें लेकिन अपनी पादुका मुझे दे जायें. पुराने जमाने के भाई थे और एक दूसरे की बात रखा करते थे. बिना पूछे कि तुम्हारे पास तो तुम्हारी पादुकायें हैं ही, फिर काहे हमारी माँगे ले रहे हो, बस हमें उतारे और भरत भाई को थमा दिये. हम भी खुशी खुशी भरत भाई के साथ ठुमकते हुये महल आ गये. हमने और भरत भाई ने रास्ते में मिल कर तुलसी दास का गीत गाया:



करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी।।
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए।।

फिर तो क्या सम्मान दिया भरत भाई ने-वाह. हमें सिंहासन पर बैठालें और खुद नीचे बैठें. हर रोज हमें नमस्ते करने के बाद ही कोई काम शुरु करते थे. ऐसा आदर-सत्कार देखकर हमारी तो खुशी से आँख भर आई और गला ऐसा रौंधा कि आभार के दो शब्द भी न कह पाये. हम तो मन ही मन यही आशीष देते रहे कि भरत भईया, आप ही राजा बने रहो और मनाते रहे कि राम चन्द्र जी जंगल ही रहें. उन दिनों जूते की भाषा प्रचलन में नहीं थी, तो कोई हमारी बात समझ ही न पाया और एक दिन देखते हैं कि बड़के भईया लौट आये और हमें सिंहासन से उतार दिया गया.

फिर समय बदला, जमाना बदला और लोग बदले. यहाँ तक कि देखते देखते युग भी बदल गये. रामयुग से ढ़लकते ढ़लकते कलयुग में पहूँच गये. बाकि तो अधिकतर मान्यतायें और सामाजिक महत्व मटियामेट हो गये मगर हमारा महत्व आज भी काफी हद तक बरकरार है. अच्छे जेन्टलमैन की पहचान उसके सूटेड बूटेड होने से की जाती है. इसमें जो बूटेड वाली बात है, वो हमारी हो रही है. बड़ा अच्छा लगता है. लोग बाग व्यक्ति की संभ्रांतता का अंदाजा हमें देखकर लगाते हैं.


अच्छे जेन्टलमैन की पहचान उसके सूटेड बूटेड होने से की जाती है. इसमें जो बूटेड वाली बात है, वो हमारी हो रही है. बड़ा अच्छा लगता है. लोग बाग व्यक्ति की संभ्रांतता का अंदाजा हमें देखकर लगाते हैं.


कई होशियार तो हमें देखकर यहाँ तक पता कर लेते हैं कि हमारा धारक किसान है, गाँव से आ रहे है, बर्फिले इलाके का रहने वाला है या किसी पॉश लोकेलिटी का वासी है. जब कहीं पार्टी शार्टी में जाने की बात हो या शादी ब्याह में या फिर किसी मीटिंग में, तब तो हमारी बड़ी खातिर होती है. बढ़िया मेकअप पॉलिश होती है और सज सूज कर हम चलते हैं. आखिर प्रतिष्ठा का सवाल होता है जो हम से ही आँकी जाती है.

हालात तो यह हैं कि हमारे भाव आसमान छूने लगे हैं, देशी विदेशी कम्पनियां हमें बना बना कर पैसे कमाये जा रही हैं. बाटा से लेकर रिबोक, नाईकी, गुची और न जाने कौन कौन..सब हमारे मुरीद हैं. विदेशी उपक्रमों का बोलबाला एक जमाने से रहा है. हीरो इठला इठला कर गाता है..

मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंगलिस्तानी
सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
मेरा जूता...

वाह, क्या फक्र की बात है. हर रुप में प्रतिष्ठित-पैर में रहूँ तो धारक का सम्मान और सर पर बजा दिया जाऊँ तो उसका अपमान. अब तो बहुत से लोग हो गये हैं जो हमारी भाषा ही समझते हैं, दूसरी भाषा उनको समझ में ही नहीं आती. यह फर्क आ गया है जमाने में.

रामाआसरे जी, जो आरक्षित कोटे से इस शहर के कलेक्टर हैं. नये नये कलेक्टर हुये हैं. कुछ अरसे पहले हम शहर की सबसे बड़ी दुकान से खरीद कर उनके लिये लाये गये. यह अलग बात है कि हमारा दाम दारु के ठेकेदार ने भरा और रामाआसरे जी ने बस हमारे आने से खुश होकर उनका एक ठेका पास कर दिया. यह तो उनकी आपसी समझबूझ है, उससे हमें क्या. हम तो रामाआसरे, कलेक्टर की पैर की शोभा बढ़ाने आ गये. रामाआसरे जी हमें पहन कर बड़ी शानोशौकत से दफ्तर गये. हमारे कारण उनके चेहरे पर आत्म विश्वास था और आँखें चमक रही थीं. मातहतों की निगाहें हमें देख देख कर रश्क खाती थीं. दिन भर वो हमें पहनें कभी इस मीटिंग कभी उस मीटिंग. कभी यहाँ दौरे पर और कभी मंत्री जी के साथ गाँव की परिक्रमा. हमने उनके पग में भर सामर्थ सुविधायें बिछा दीं. हर कंकड़ की चुभन हमने झेली, हर धूल, कींचड़ को अपने शरीर पर ले लिया. धूप की जलन हमने झेली और रामाआसरे को महसूस भी नहीं होने दिया कि सड़क कितनी तप रही है. हर तकलीफ झेलते रहे ताकि रामाआसरे को कोई तकलीफ न हो और फिर शाम हो गई.

शाम को मंदिर में महाआरती में मंत्री जी को भाग लेना था सो रामाआसरे, कलेक्टर को साथ होना ही था और हम तो साथ थे ही. मगर यह क्या, जैसे ही मंदिर आया वो हमें बाहर ही छोड़ कर चल दिये. हम उनसे भी बड़े अछूत हो गये क्योंकि हम कलेक्टर नहीं. अरे, अगर अर्जुन सिंग न होते, अगर आरक्षण न होता तो अभी तो ये भी कहीं जूता ही सिल रहे होते. बहुत गुस्सा आया रामाआसरे पर. यही सब देखकर हमें लगता है कि यह हमारे लिये कितने गर्व की बात है-इन मानवों की संगत में लगातार रहते हुये भी हमने खुद को इनकी सभ्यता से बचा कर रखा. हमारे लिये तो क्या हिन्दु, क्या मुसलमान और क्या ईसाई, सब एक हैं. हम सबकी वैसे ही सेवा करते हैं और सबके साथ एक ही व्यवहार रखते हैं. आज तो रमाआसरे के बारे में खराब खराब विचार मन में आने लगे मगर क्या करते, वहीं पड़े रहे. फिर थोड़ी देर में रामाआसरे लौटे और हमें पहन कर फिर चल दिये. हमारा दिमाग तो सटका हुआ था ही, बस गुस्से मे काट खाये उनको. पूरे चव्वनी भर का छाला बनाया. घर पहूँच कर वो अपने नौकर पर गुस्साये. कहे कि कल हमें वापस दुकान ले जायें, जहाँ से हम लाये गये थे. हम तो डर ही गये.


मगर यह क्या, जैसे ही मंदिर आया वो हमें बाहर ही छोड़ कर चल दिये. हम उनसे भी बड़े अछूत हो गये क्योंकि हम कलेक्टर नहीं. अरे, अगर अर्जुन सिंग न होते, अगर आरक्षण न होता तो अभी तो ये भी कहीं जूता ही सिल रहे होते.


खैर, हम डब्बे में रख कर दूसरे दिन वापस दुकान पर ले जाये गये. नौकर ने बढ़ चढ़ कर हमारी शिकायत लगाई. चव्वनी को अठ्ठनी बताया गया. दुकानदार ने हमें गुस्से में अलटाया पलटाया और अंदर ले गया. लोहे के बत्ते पर चढ़ाया और दो हथौड़ी मरम्मत कर दी. हमारी तो चीख ही निकल गई. फिर मोम मलहम लगा कर वापस भेज दिये गये कि अब नहीं काटेगा. इतनी जबरदस्त पिटाई के बाद काट भी कौन सकता है, कम से कम हम तो नहीं. अभी आदमी होने के गुण हममें आना बाकि हैं.

हम वापस आ गये. अब मंदिर में बाहर छोड़ दिये जाने की जलालत झेलना हम सीख चुके थे. कौन फिर फिर अपनी मरम्मत कराये- जूते हैं कोई नेता तो हैं नहीं. दिन बीतते गये. हम बिना अपनी बढ़ती उम्र और क्षीण होती शक्ति की परवाह किये बगैर, हर पल हर क्षण रामाआसरे की रक्षा और सेवा करते रहे. एक दिन गुस्से और बदहवासी में उन्होंने एक पत्थर पर ऐसी ठोकर मारी कि दर्द से हमारा जो मुँह खुला तो खुला ही रह गया. वो घर लौट आये. उनके लिये नया जूता आ गया. हम पीछे के कमरे के स्टोर में डाल दिये गये. हम अपनी हालात पर रोते रहे और नौकर हमें देख लालायित होता रहा. फिर एक दिन कलेक्टराईन से पूछ कर वो हमें अपने घर ले आया. जूते के डॉक्टर कल्लू मोची से हमारा इलाज करा कर नया रंग रोगन करा, उसने हमें अपनी अलमारी में बड़ी इज्जत से सजा लिया. अब वो हमे अपने विशिष्ट समयों में पहन कर गौरवान्वित होता है. हमारी यही किस्मत है, बस यही सोच कर रुह काँप जाती है कि अब अगर मुँह फिर खुल गया तो आगे क्या होगा.

रामाआसरे से मुझे कोई शिकायत नहीं. मेरी तरह बल्कि मुझसे ज्यादा उसके लिये, अब बूढी हो चली उसकी माँ ने तकलीफें झेली थीं. बचपन में ही रामाआसरे के पिता गुजर गये थे. माँ ने मुहल्ले के कपड़े सी सी कर उसे पाला. हर तकलीफें खुद झेलीं मगर रामाआसरे को महसूस भी नहीं होने दिया. खुद भूखी रही, रामाआसरे को कभी अहसास नहीं होने दिया कि भूख क्या होती है. खुद लोगों के कपड़े सीती रही मगर रामाआसरे को नीचा न देखना पड़े इसलिये हमेशा अच्छे कपड़े पहनाये. अपनी तबियत की चिंता किये बिना, उसे पढ़ाया, लिखाया. कलेक्टर बनाया और आज वो माँ, उसी कलेक्टर के घ्रर में पीछे वाले कमरे में रहती है. बेटे की कमायाबी से खुश हो लेती है.बेटे के पास समय नहीं है, बस माँ पीछे के कमरे से उसे दफ्तर जाते और देर रात लौटते देखकर संतुष्ट हो लेती है. उसकी पत्नी कीटी पार्टियों और सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहती है. आज तो अखबार में कलेक्टराईन की वृद्धाश्रम में सेवा करते हुये तस्वीर भी छपी है.रामाआसरे के बच्चे अपनी दुनिया में ही खोये रहते हैं. दादी को प्यार और आदर देना है यह उनके माँ-बाप ने समयाभाव में कभी सिखाया ही नहीं और न ही उन्होंने सीखा. माता जी को बस नौकर कलेक्टर साहब की माँ होने की वजह से सम्मान देते हैं और वो उसी में संतुष्ट हैं. और करें भी क्या बेचारी. जीर्ण क्षीण काया लिये पड़ी रहती है. तब फिर हम तो सिर्फ जूता हैं, हम क्यूँ न संतुष्ट रहें इस नौकर द्वारा दिये सम्मान से.


आज वो माँ, उसी कलेक्टर के घ्रर में पीछे वाले कमरे में रहती है. बेटे की कमायाबी से खुश हो लेती है.बेटे के पास समय नहीं है, बस माँ पीछे के कमरे से उसे दफ्तर जाते और देर रात लौटते देखकर संतुष्ट हो लेती है. उसकी पत्नी कीटी पार्टियों और सामाजिक कार्यों में व्यस्त रहती है. आज तो अखबार में कलेक्टराईन की वृद्धाश्रम में सेवा करते हुये तस्वीर भी छपी है.रामाआसरे के बच्चे अपनी दुनिया में ही खोये रहते हैं. दादी को प्यार और आदर देना है यह उनके माँ-बाप ने समयाभाव में कभी सिखाया ही नहीं और न ही उन्होंने सीखा.



अब जब मैं फिर फट जाउँगा, नौकर भी मुझसे मुँह मोड़ लेगा, तब मेरी कथा क्या होगी, यह सुनिये जल्द ही फुरसतिया जी से..फटे जूते की वेदना में. मुझे उम्मीद है कि फुरसतिया जी अपने पसंद का इससे मिलता जुलता टॉपिक आगे किसी को उसकी शैली में सुनाने को कहेंगे. टॉपिक तो लगातार बने रहेंगे-मोजा, पेन्ट, टाई, शर्ट,टोपी और यहाँ तक कि रुमाल, बनियान, धोती..बढ़ाओ भई आगे आगे...

34 टिप्‍पणियां:

  1. जूते की वेदना बड़ी अच्छी तरह बयान की। इसे कहते विश्व बंधुत्व!

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  2. बेनामी4/01/2007 09:31:00 pm

    Jo Aadmi Jute par itani der baat kar sakta hai, vo kuch bhi kar sakta hai. Aapka loha maan gaye.

    -Khalid

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  3. बेनामी4/01/2007 10:32:00 pm

    बनना ही था तो सैंडिल बनते जरा सोचिये कौन कौन आपको सहेज कर रखता, चलिये कोई बात नही जूता ही सही अब इससे पहले कि फट जाये जल्दी से अपने लिये कोई प्यारी सी दुलारी सी सैंडिल ढूँढ लीजिये ;)

    जूते की रामायण अच्छी लगी

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  4. ये हुई न कुछ बात। परसाई आप से कुछ पहले पैदा हो गए, अब इस पर तो ना आपका बस ना उनका। वरना परसाई की जगह समीर पछांई पढ़े जाते
    :
    :
    :
    जूते पर अनुगूंज की जाती तो हम भी लिखते कुछ, अब हालीवुड उड तो अपने बस की बात नहीं।

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  5. जहाँ गाये थे खुशियों के तराने,
    मुकद्दर देखिये रोये वहीं पर ।
    हुये मंदिर से जूते गुम हमारे,
    जहाँ पाये थे खोये वहीं पर ।

    क्या जबरदस्त लिखे हैं, मन प्रसन्न हो गया ।

    साभार स्वीकार करें ।

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  6. पुराने जमाने के भाई थे और एक दूसरे की बात रखा करते थे. बिना पूछे कि तुम्हारे पास तो तुम्हारी पादुकायें हैं ही, फिर काहे हमारी माँगे ले रहे हो, बस हमें उतारे और भरत भाई को थमा दिये.

    हँस भी लिए...मुस्करा भी लिए...मज़ा आया...।

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  7. भैया पहले बेनाम लिखते हो फ़िर नाम लिखते हो -खालिद! दोनो मे झूठ क्या है?
    बेनाम हो या खालिद हो।

    वैसे हम बेनाम खालिद की बात का समर्ठन करते हैकि-जो आदमी जूते पर इतनी देर बात कर सकता है वहकुछ भी कर सकता है।

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  8. जूते की वेदना का वर्णन आपने अत्यन्त मार्मिक रूप से किया है परन्तु आरक्षण को अनावश्यक रूप से घसीट लिया.

    यदि हम किसी को दलित या अपने से नीचा मानते है‍ तो उन्हे‍ आरक्षण देने मे‍ हमे कोई आपत्ति नही होनी चाहिये और यदि हम सब को बराबर मानने है‍ तो उनकी बेटियो‍ को अपनी बहु और अपनी बेटियो‍ को उनकी बहु बनाने मे‍ कोई आपत्ति नही होनी चाहिये..
    जब तक इस प्रकार की समानता नही आयेगी..मेरे ख्याल से हमे‍ आरक्षण के खिलाफ़ हास्य व्य्ग्य मे‍ भी बोलने का अधिकार नही है

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  9. बेनामी4/02/2007 01:18:00 am

    वाह समीरजी आपको मान गाए, जूते पर बयां बहुत खूब रहा।

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  10. बेनामी4/02/2007 01:45:00 am

    पढ़ कर ऐसा लगा मानों जूतों और रामआसरे की माँ की वेदना एकाकार हो गई है। आपकी लेखन शैली का कमाल है।

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  11. यदि जूते कि ना सुने तो,...सिर पर पडेगा?
    क्या बात हैन बहुत हि सुन्दर रचना है,वाकई आदमी की असली पहचान जूते से ही होती है।
    सुनिता(शानू)

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  12. अरे हमने भी सुबह टिप्पणी की थी। कहा गई?
    खैर, कह यह था कि हम भी बेनाम की बात से सहमत है !

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  13. approval कहे नही देते जी आप

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  14. आज की बात होती तो भरत राम के जूते नहीं ले जाते बल्कि कहते भाई पॉवर ऑफ एटार्नी दे दो। राज मैं चला लूंगा लेकिन वकील से बात हुई है तो उसने कहा है कि कोर्ट में पॉवर ऑफ एटार्नी देनी ही पड़ेगी। भले ही बाद में भरत बाजीगर फिल्‍म की तरह सब कुछ हड़प लेता और राम को लौटने पर कह देता, मजाक मत करो अब सब मेरा है। अच्‍छी रचना लगी उड़न तश्‍तरी जी।

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  15. आज की बात होती तो भरत राम के जूते नहीं ले जाते बल्कि कहते भाई पॉवर ऑफ एटार्नी दे दो। राज मैं चला लूंगा लेकिन वकील से बात हुई है तो उसने कहा है कि कोर्ट में पॉवर ऑफ एटार्नी देनी ही पड़ेगी। भले ही बाद में भरत बाजीगर फिल्‍म की तरह सब कुछ हड़प लेता और राम को लौटने पर कह देता, मजाक मत करो अब सब मेरा है। अच्‍छी रचना लगी उड़न तश्‍तरी जी।

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  16. जूते जैसा धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक समरसधारी कोई नही. सबका बोझ ढोता है, सबको आराम देता है, पर खुद कांटे झेलता है.

    इंसान से तो जूता ही अच्छा लालाजी, ये जापानी हो या इंग्लीस्तानी या हिन्दुस्तानी जात तो इसकी वही रहेगी.

    नये जूते के अनुभव आपने बखूबी और अपनी खाश शैली मे बयान किए, अब फटे जूते की करामात देखनी है, उम्मीद है फुरसती चाचु हमेशा की तरह खरा न्याय करेंगे! :)


    कभी कोई कहता था...

    तिलक, तराजू और तलवार.

    इनको मारो जूते चार..

    हम तो लालायित थे कि कोई मार ही दे... नए जूते मारे तो और भी अच्छा.. :) काम आए...

    अब पता नही क्यो स्लोगन ही बदल दिया..


    नेता है ना! काश जूते ही होते!!

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  17. तनिक न होति कबहु हैरानी
    सकल पादुकामय जग जानी
    अंगुलि नाहिं अब पादुक पकड़ै
    तबहुं सब सीढ़ी चढ़ जानी

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  18. बेनामी4/02/2007 11:16:00 am

    फूरसतीयाजी की संगत छोड़ दे, क्या लम्म्म्म्बा लिखा है. :)

    बाकि एकदम चकाचका मस्त लेख है.

    इसी लेख पर एक और विस्तृत टिप्पणी दी जाएगी, अतः अपना जुता हाथ से छोड़ पेर में डाल लें :)

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  19. बेनामी4/02/2007 12:50:00 pm

    "कई राज खोलता है!
    जूता जब भी बोलता है!"
    लेख पसँद आया..

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  20. ऊपर इतने लोगों के पैरों से रौंदने के बाद जूते के बारे में क्या कहें! तरुण का कहना ठीक है कि सैंडिल बनते तो ज्यादा अच्छा रहता। किसी लड़की को छेड़ते हुए दिल-फैंक आशिक के सिर पर पड़ता तो सारी पब्लिक एक ही स्वर में अश अश कर कह उठतीः
    'वाह! क्या ग़ज़ब का सैंडिल है!'

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  21. जवाब नहीं आपका। रामायण, शरलॉक होम्स से लेकर रामाअसरे तक आपकी कल्पना की उड़ान, पूरे लेख में बांधे रखा।

    ये "बुनो कहानी" का नया वर्जन आया है क्या?

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  22. जूते की दाँस्ता बहुत अच्छी रही समीर जी!!

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  23. मस्त जूता पुराण लिखा है भाया !

    जवाब देंहटाएं
  24. अनूप भाई

    हौसला अफजाई के लिये धन्यवाद.

    खालिद भाई

    यह आपका बड़प्पन है, बस, अब आप अपना ब्लाग भी शुरु कर ही लें.

    तरुण

    यार, यह तो ख्याल ही नहीं आया. आगे कभी बन जायेंगे अब. पसंद करने का धन्यवाद.

    मसिजिवी जी

    अरे भईया, काहे चढ़ा रहे हो इतना ऊँचा. परसाई जी का १% भी लिख लें तो जीवन धन्य हो जाये. वैसे सच में, कुछ अनुगूंज का आयोजन किया जायेगा इस तरह के टॉपिक पर. सुझाव बढ़िया हैं. शुक्रिया.

    नीरज

    साभार स्विकार कर लिया. :)
    पसंद करने का बहुत आभार.
    चार लाईना गजब की सुनाये हो, बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  25. बेजी जी

    अरे वाह, आप हंसी, मुस्कराई और आपको मजा आया. हम धन्य हो गये, हमारा लिखना सफल हो गया, शुक्रिया.

    नोटपेड जी

    आपकी टिप्पणी के प्रकाशन में विलम्ब के लिये क्षमापार्थी हूँ. दरअसल, रात में थोड़ा जरा सो जाता हूँ, इसी से चूक हो गई. :)

    आपने अनुमोदन किया खालिद का और रचना भी शायद पसंद की, बहुत आभार और धन्यवाद. आते जाते रहें.

    मोहिन्दर भाई

    पसंद करने को धन्यवाद. होसला बढ़ता है. अगर कहीं भी मेरी किसी बात से किसी को ठेस पहुँची हो, तो क्षमाप्रार्थी हूँ, मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं थी. मुझे भी आरक्षण से सीधे कोई आपत्ति नहीं है मगर मैने ऐसा कहा भी कहां. शायद मै अपनी बात ठीक से कह नहीं पाया. आईंदा और सतर्कता बरती जायेगी और आपको शिकायत का मौका नहीं दिया जायेगा. :)

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  26. शुएब

    बहुत शुक्रिया, आज आपने मान ही लिया. वाह, हम खुश हो गये. :)

    अतुल भाई

    हौसला बढ़ाने के लिये बहुत आभार. आप लोग पढ़ लेते हैं, मेरा लिखना सार्थक हो जाता है.

    सुनिता जी

    रचना आपको सुंदर लगी, बहुत धन्यवाद. आती रहें, हौसला बना रहेगा लिखने का.

    कमल जी

    यह पॉवर ऑफ एटार्नी वाली बात भी खूब रही. आपकी कल्पनाशीलता का जबाब नहीं. मजा आ गया. रचना पसंद करने के लिये धन्यवाद. आते रहें.

    पंकज
    तुम भी एक लेख लिख ही मारो जूते पर..बहुत सही विवरण किये हो. इंतजार रहेगा-बंदर और जूते टाईप कुछ. :)
    शुक्रिया ध्यान से पढ़ने और टिपियाने के लिये. :)

    जवाब देंहटाएं
  27. राकेश भाई

    आप तो पढ़ लेते हैं तो ही लिखना सार्थक हो जाता है, फिर टिप्पणी का आशीष तो हमारी धरोहर हो जाता है. बहुत आभार. बस स्नेह बनाये रखें हमेशा की तरह.

    संजय भाई
    गुरु की संगत कैसे छोड़ें भईया. उन्हीं से तो सीख रहे हैं. :)
    लेख पसंद करने का आभार और विस्तृत टिप्पणी?? क्या फुरसतिया जी के लेखों का असर टिप्पणी में दिखायेंगे, काफी तो लिख दिये हो... हा हा!!

    रचना जी
    क्या बात है:
    "कई राज खोलता है!
    जूता जब भी बोलता है!"
    यह तो लेख से भी २० बात हो गई. :)
    लेख पसंद करने का आभार और धन्यवाद.

    महावीर जी
    आप आये, मेरा सम्मान बढ़ा. बस आशीष बनाये रखें. आप साथ हैं तो एक संबल है लिखने का. बहुत आभार. :)

    श्रीश भाई
    बहुत धन्यवाद और आभार कि मास्साब ने शाबासी दी.
    बुनो कहानी का ओपन सोर्स वर्जन है, जो भी बढ़ाना चाहे बढ़ाये. हा हा!!

    भावना जी
    आपने पसंद किया, लिखना सफल हो गया. ऐसे ही हौसला अफजाई करते रहें.

    मनीष भाई
    वाह मनीष भाई, आपको अच्छी लगी, बहुत धन्यवाद.

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  28. बेनामी4/05/2007 02:16:00 pm

    I just read both the posts. It is difficult to say which one is better. both are superb. But I think it difficult to write on "phatta joota" than just "joota"

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  29. रत्ना जी

    आप पधारी, बहुत आभार और धन्यवाद. आप बिल्कुल सही कह रही हैं कि फटे जूते पर लिखना बहुत मुश्किल कार्य है, इसीलिये तो महारथी के पाले में पड़ा था इस पर लिखना, उन्होंने इसे बखूबी निभाया. हमारे बस का तो नहीं था इस पर लिख पाना. आप आती रहें, और हौसला बढ़ाती रहें, यही कामना है.

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  30. अनूपजी के चिट्ठे पर भी टिप्पणी की और अब आपके चिट्ठे पर-
    आपकी पहली पोस्ट है जिसे पढ़कर मजा नहीं आया, इस टाईप की रचनायें आपके लेखन के स्तर की नहीं लगी।

    जवाब देंहटाएं
  31. सागर भाई

    प्रयास तो किया था मजे के लिये ही, अब आपको नहीं आ पाया, बड़ा खेद हुआ. आगे और प्रयास किया जायेगा. यह 'मजा' भी बड़ा नटखट है, कब आ जाये, कब न आये, बड़ा मुश्किल है जान पाना. ;(

    मगर इसके कारण हमको यह मजा जरुर आ गया कि बहुत दिन बाद आप आ ही गये यहाँ. :)

    स्तर उठाने का प्रयास किया जायेगा. पूरी ताकत लगाई जायेगी. :)

    आपकी बेबाक टिप्पणी के लिये आपको साधुवाद, धन्यवाद और आभार.

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  32. जूता पुराण बढिया लगा , अब आगे की कडी का इंतजार रहेगा। वैसे समीर जी , आप इतना कैसे लिख लेते हैं, और जब इतना लिखते हैं तो क्या इतना बोलते भी हैं।

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  33. डॉक्टर साहब

    पुराण आपको पसंद आई, बहुत धन्यवाद.

    बोलता इससे थोड़ा कम हूँ. :)

    जल्द ही और कुछ लिखा जायेगा. :) आप आते रहें.

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  34. भाई वाह! अत्यन्त प्रेरणादायक है आपकी आत्मकथा. कोई और ले न ले, पर मैं तो इससे प्रेरणा लूँगा.

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आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.