पहले की तरह ही, पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ , भाग ३ ,भाग ४ , भाग ५ भाग ६ भाग ७ और भाग ८ को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ. (जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......) |
भाव कब किस वक्त किस रुप में आयेंगे, कोई नहीं जानता. बस, एक कवि या लेखक उन्हें शब्द रुप दे देता है और बाकी लोग उसे वैसे ही भूल जाते हैं, जैसे वो आते हैं.
कभी कोई घटना, कोई दृष्य, कोई मौसम, कुछ भी एक नये भाव को जन्म देता है. कभी उन्हें विल्स कार्ड पर उतार लिया करता था, फिर माँ के जाने के साथ सिगरेट छूटी तो किसी भी कागज के टुकड़े पर उतारने लगा. जब कभी भी चूका, वो विचार कभी लौट कर नहीं आता. उन्हें सहेजना होता है.
वैसे ही जैसे जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है..बस, जरा चूके और वो फिर नहीं लौटते. बच रहता है एक खोया खोया अहसास और कुछ चूक जाने का अपराध बोध.
सोचता हूँ कितना साम्य है मन में उठते भावों और इनमें. जीवन में सहेजने का कितना महत्व है. शायद सफल जीवन की यही कुँजी है.
जिन भावों को सहेजा, वो आज मेरी धरोहर हैं. खंगालता हूँ उन्हें और लौट पड़ता हूँ उस वक्त में. कभी एक मुस्कराहट उठती तो कभी आँसू. जो भी हो, एक सुखद अहसास देती हैं. बस, उन्हीं में कुछ:
-१-
कल रात
चाँद ने शरारत से
मुझे ताका...
और
मेरी उस लाल डायरी में
आ छिपा
बिल्कुल
तुम्हारी तरह...
फिर रात अँधेरी गुजरी.
-२-
रात काली
मावस की,
मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता...
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!
-३-
पाई है किताबों से
तालीम
चलाने की नौकरी...
और
बाहर उसके
सीख रहा हूँ रोज
कुछ नया
हर कदम
एक नई तालीम
जीवन से
जीवन चलाने की...
आधा अधूरा
यह पाठ
कब पूरा होगा??
-४-
याद है तुमको
जब बरसों पहले
सार्दियों में तुम मुझको
चली गई थी छोड़ कर
उस बरस
गिर गया था
आँगन वाला
आम का पेड़
और
बच रहा था
एक ठूंठ!!
देखता हूँ
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
-५-
पत्थर से पानी निकालने
की
जुगत में
उसने छैनी जमा
जैसे ही हथौड़ा चलाया
नौसिखाया था
पानी तो नहीं निकला..
अपने हाथ पर उसने
एक गहरा जख़्म पाया...
-६-
कड़े परिश्रम के बाद मिली
चिलचिलाती धूप में
माथे से बहती पसीने की धार..
कर्मों के प्रतिफल की आशा में
शुष्क कंठ के लिए
खारे पानी की बौछार...
-७- (बरसों बाद किसी कागज के टुकड़े पर उतरा)
चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर
मेरे घर के तहखाने में
एक पुराना
सितार रहता है..
गूंगा है,
कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
-समीर लाल ’समीर’
107 टिप्पणियां:
आने वाला पल,
जाने वाला है,
हो सके तो इसमें ज़िंदगी बिता दो,
पल ये जो जाने वाला है,
आने वाला पल,
जाने वाला है...
जय हिंद...
सहेजते सवारते रहिये इन बिखरे बेशकीमती मोतियों को -
मुझे इनकी चमक सुखद अहसास कराती रही है -जाने पहचाने बिम्ब
,सितार, माँ ..भुत खूब
सहेजने कि मह्त्ता तो विदित ही थी ....आज आपने इसे सिद्ध भी कर दिया! आपने जो सहेजा हमारे लिये भी मुल्यवान बना....आभार!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
Ab ghar me koi sur nahin sajte...
sajenge kaise?? jab sangeet ki devi hi nahin raheen..
har kshanika apne aap me ek sampoorna kavya sangrah hai...
Jai Hind... Jai Bundelkhand...
जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है..बस, जरा चूके और वो फिर नहीं लौटते. बच रहता है एक खोया खोया अहसास और कुछ चूक जाने का अपराध बोध.
.........एकदम सच्ची और दिल को छूने वाली बात लिखी है आपने.
........कागज के टुकड़ों पर उतारे गए हरपल के एहसास बेहद खूबसूरत हैं.
..देखता हूँ इतने बरसों बाद अबकी उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं.. क्या तुम आने को हो?....
...वाह!...आनंद आ गया.
समीर जी
जाने क्यूँ, कविता प्रेमी न होने के बावजूद भी आपकी कवितायें मुझे पसंद आती हैं. आपको बधाई.
"जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है..बस, जरा चूके और वो फिर नहीं लौटते. "
बिल्कुल ठीक कहा है आपने .
"याद है तुमको
जब बरसों पहले...."
यह अपने साथ की दूसरी सभी कविताओं कहीं अलग मुस्कुराती सी खड़ी दिखी. :-)
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं
" behd khubsurat prstuti, ye panktiyan barbas hi dil ko bha gyi"
regards
रात काली मावस की ...बरगद में उगी नन्ही पत्तियां ....माँ के बाद गूंगा सितार ...
ये क्षणिकायें मुझे बहुत पसंद आई ...!!
हमने सहेजा तिनका तनका मनका
लेकिन उन्होने तोल दिया भंगारी को
सहेजा हुआ बचा पाना भी एक कठिन काम है।
शुभकामनाएं
अब कोई तलाश बाकी नही------ समीर जी आदमी की तलाश तो कभी खत्म नही होती --- मगर रचनायें बहुत अच्छी लगी। विल कार्ड्स बेशकीमती हैं सहेजते रहिये। धन्यवाद्
सच में कभी कभी ऐसा लगता है हैं की जिस चीज़ को एक नज़रअंदाज कर देता है उसी घटना को एक कवि या लेखक कितनी सुंदर भावनात्मक अभिव्यक्ति बना देता है..पहले भी आपकी विल्स कार्ड की अभिव्यक्ति पढ़ चुका हूँ यादों का एक बेहतरीन संकलन है जिसमें सुंदर सुंदर भाव सिमटे हुए हैं...आपके भाव चीज़ों को देखने और परखने का नज़रिया सब सर आँखों पर यह चीज़ें आपको एक बढ़िया लेखक, बढ़िया कवि, बढ़िया ब्लॉगर्स और इन सबसे बढ़ कर एक बढ़िया नेक इंसान के रूप में प्रस्तुत करती है....अपने इस शिष्य का भी प्रणाम स्वीकार करें....
भाव कब किस वक्त किस रुप में आयेंगे, कोई नहीं जानता. बस, एक कवि या लेखक उन्हें शब्द रुप दे देता है और बाकी लोग उसे वैसे ही भूल जाते हैं, जैसे वो आते हैं.
हमेशा की तरह उतकृष्ट विल्स कार्ड निकला ये भी. पर आज के आलेख के साथ शुरु में दिया गया सुत्र परम सुत्र है. लेखन कर्म के लिये बेहतरीन सुत्र. जिज्ञासुओं को ध्यान देना चाहिये.
रामराम.
वैसे तो बहुत भावपूर्ण हैं सारे के सारे .. पर मुझे जो बहुत अच्छा लगा ये ...
याद है तुमको
जब बरसों पहले
सार्दियों में तुम मुझको
चली गई थी छोड़ कर
उस बरस
गिर गया था
आँगन वाला
आम का पेड़
और
बच रहा था
एक ठूंठ!!
देखता हूँ
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
रोमांचित करने वाली बेशकीमती यादें जो विल्स कार्ड पर उतर आई हैं. बेहतरीन प्रस्तुतिकरण शानदार कविताओं के रूप में
रात काली
मावस की,
मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता...
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!
वाह, अति सुन्दर समीर जी !
समीरजी, आपको जैसे-जैसे पढ़ रही हूँ वैसे-वैसे ही आपकी फैन बनती जा रही हूँ। आपकी पोस्ट दिखती नहीं कि माउस वहीं पर क्लिक कर देता है। बहुत ही संजीदा कविताएं। आपको ढेर सारी बधाइयां।
चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर
मेरे घर के तहखाने में
एक पुराना
सितार रहता है..
गूंगा है,
कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
Kya kuchh nahee kah dala aapne...
मेरा वाला ये है:-
"कल रात चाँद ने शरारत से मुझे ताका... और मेरी उस लाल डायरी में आ छिपा बिल्कुल तुम्हारी तरह... फिर रात अँधेरी गुजरी"
बहुत खूबसूरत पंक्तियां हैं सरकार- हर बार की तरह।
चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर मेरे घर के तहखाने में एक पुराना सितार रहता है..
गूंगा है, कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी तब बजाया करती थी...
अब घर में कोई सुर नहीं सजते!!
क्या बात कही लाल साहब आँखें नम हो गईं।
पहली वाली पसन्द आयी.
आपके लिखे यह विल्स कार्ड संजो के रखने लायक है इनके भाव ,लफ्ज़ बहुत देर तक दिल पर अपनी दस्तक देते रहते हैं आज वाले भाग में माँ ...माँ जिन्दा थी तब बजाया करती थी... अब घर में कोई सुर नहीं सजते!!क्या तुम आने को हो ...विशेष रूप से याद रहेंगे ..शुक्रिया
पत्थर से पानी निकालने
की
जुगत में
उसने छैनी जमा
जैसे ही हथौड़ा चलाया
नौसिखाया था
पानी तो नहीं निकला..
अपने हाथ पर उसने
एक गहरा जख़्म पाया...
हम्म्म्म... पत्थर से पानी की तलाश में अक्सर ही हो जाता है ऐसा....!!
आज चाहे हां कहिए चाहे ई तो आपको मानना ही पडेगा कि ई सब विल्स कार्ड का कवरवा सब दिखा के ही आप भौजी को सेंटी कर दिए होंगे ....बियाह के लिए ...ओह हम काहे नहीं पिए कभी विल्स ....गजब है ...ई अब का कहें कि कौन कौन जादे गज़ब है ...एकदम से समझिए कि सब ठो ...कमाल है
अजय कुमार झा
लगता है आजकल कनाडा में भी वसंत अपने शबाब पर है .........गजब !!!!!!!! समीर जी 'विल्स कार्ड ' की याद तो सचमुच अनोखी है ....इतने ओरिजनल मोती बहुत गहरे जाने पर ही मिलते हैं .
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
बहुत खुब बॉस
बहुत खुब एकदम बोले तो झक्कास काजल जी. पर लगता है कि कहीं कोई सपना तो नहीं देख लिया था जो वास्तविकता भांप गए।
This is typical YOU. NONE ELSE.... NO ONE ELSE.
कड़े परिश्रम के बाद मिली
चिलचिलाती धूप में
माथे से बहती पसीने की धार..
कर्मों के प्रतिफल की आशा में
शुष्क कंठ के लिए
खारे पानी की बौछार...
बहुत खूब...
कल रात चाँद ने शरारत से मुझे ताका...
और मेरी उस लाल डायरी में आ छिपा
बिल्कुल तुम्हारी तरह...
फिर रात अँधेरी गुजरी
वाह समीर भाई ... हमने भी देखा था ... कल चाँद आसमान पर नही था ... शायद आपकी डायरी के रस्ते भाभी के माथे पर साज रहा होगा ... लाजवाब लिखा है .... हर लम्हा अलग अंदाज़ लिए है ...
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
क्या बात है!!!!
कितना साम्य है मन में उठते भावों और इनमें. जीवन में सहेजने का कितना महत्व है.
मूल मन्त्र कह दिया समीर जी ...
बहुत खुबसूरत भाव सहेजे हैं ..४ और आखिरी कविता विशेष रूप से बहुत पसंद आई
समीरलाल जी, आदाब
॒चांद....आ छिपा...बिल्कुल तुम्हारी तरह..
॒हर कदम..एक नई तालीम...जीवन से..
॒आम का पेड़...कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं.. क्या तुम आने को हो?
॒अब घर में...कोई सुर नहीं सजते..
अनमोल....हर शब्द...हर भाव...दिल की गहराई में उतर जाने वाला.
आपको..आपके कलम और कलाम को
........................................सलाम...
अब मुझे डर है कि अच्छा लिखने के लिए मित्रगण विल्स नेवी कट ना पीने लग जायें !
जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता.....मन गए आपकी रचनात्मकता को...यूँ ही आप ब्लोगर्स के सरताज नहीं हैं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
प्रणाम
वाह! बहुत सुन्दर!
घुघूतीबासूती
WAAH....WAAH....WAAH...
चीजों को सहेजें तो बहुत दूर तक काम आती हैं, आपने सहेजने के साथ-साथ लोगों के साथ शेयर भी किया...सुन्दर प्रयास !!
"शब्द-शिखर" पर देखें- अंडमान में आम की बहार.
बस आप यू ही सहेजे हुए पल हमारे साथ बिखेरते रहिए ।
शायद जगजीत सिँह की ही कोई गजल थी..जिसकी ये दो पंक्तियाँ सुनी थी कि " याद है! कभी जो तुमने कागज पर एक पौधे का स्कैच बनाया था...आज बरसों बाद उसमें एक फूल आया है"...आज पता नहीं क्यूं बरबस ही ये पंक्तियाँ याद आ गई...हो सकता है कि शायद आपसे/आपकी इस पोस्ट से कोई ताल्लुक रखती हों......
देखता हूँ
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
-कितनी सुन्दर पंक्तियाँ.
चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर
मेरे घर के तहखाने में
एक पुराना
सितार रहता है..
गूंगा है,
कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
wah , wills card men to wakai khazane bhare hain.
jindagi ko ye salaam bahut sundar hai!
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!
बहुत ही सुन्दर है सारी क्षणिकाएं....बड़ी अच्छी आदत है आपकी...हमें भी सीखना होगा..जब जो विचार आए सहेज लिया और हमें नायाब पंक्तियाँ मिल गयीं
यही अन्तर है - आपने सहज सहेजा भावों को और हमने निरुद्देश्य गंवाया है सोचे को।
कभी कभी लगता है बहुत बरबाद कर लिया ईश्वर की दी गयी मेधा को!
behatareen
kaash ham bhee aisaa kar paate
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
जबरदस्त है ,बधाई
सुन्दर संस्मरण , विल्स कार्ड्स के माध्यम से।
सभी रचनाएँ दिल को छूती हुई।
सचमुच जीवन में और कुछ आये न आये सहेजना आना ही चाहिए...
फिर चाहे वो रिश्ते हो या यादें..
बहुत खूबसूरत हैं सबकुछ हुजूर....
'खटरागन' थो ढूंढें नहीं मिला हमको...:)
रात काली
मावस की,
मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता...
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!...
वाह,कमाल की लेखनी ...
चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर
मेरे घर के तहखाने में
एक पुराना
सितार रहता है..
गूंगा है,
कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
Sach kahaa hai aapane ----man ke bina ghar men koi sur naheen saja sakata----duniya men man hee to sab kuchh hai----.
Poonam
समीर भाई,
सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं. मगर निम्न पंक्तियों का कोई जवाब नहीं.
क्या तुम आने को हो?
और
अब घर में
कोई सुर नहीं सजते!!
ओह ! बहुत बढ़िया !
सुबह खोला था, लेकिन बंद कर दिया था, क्योंकि मैं उसको आधा अधूरा नहीं पढ़ना चाहता था। अच्छी चीजों को फुर्सत में पढ़ना चाहिए। मुझे लगता है, सब की सब अच्छी थी, लेकिन कुछ तो उम्दा से भी परे थी।
दिल के तारो को छू गई आप की यह रचना को शव्द धन्यवाद
समीर जी
जाने क्यूँ, कविता प्रेमी न होने के बावजूद भी आपकी कवितायें मुझे पसंद आती हैं. आपको बधाई.
एक से बढ़्कर एक सशक्त क्षणिकाएं.
हमारे मन को टटोलें
कहीं अन्दर तक छू जायें.
आपके विल्स कार्ड की मधुर याद दिलायें,
साथ ही कल्पना की एक अज़ब ऊंचाई तक ले जायें.
बधाई,
समीर भाई
SHUKRIA ,
AAPKI UDAN TASHTARI KI PAHUNCH KAHAN TAK HAI YE AAPKI SAATON RACHNAON NE SABIT KAR DIYA ,LIKED YOUR CARDS.
बिखरे मोती की तरह सहेजे विल्स कार्ड भी छपने चाहिये किताब के रूप मे . दिल के आस पास है यह पंक्तिया .
जवाब नहीं ......बहुत सुन्दर पंक्तियों से सजाया है अपने ये कविता .
Sameer Bhai,
Bahut hi khoob. Badhai!
पत्थर से पानी निकालने
की
जुगत में
उसने छैनी जमा
जैसे ही हथौड़ा चलाया
नौसिखाया था
पानी तो नहीं निकला..
अपने हाथ पर उसने
एक गहरा जख़्म पाया.
...तो अभी भी आप सिगरेट पीते हैं. सिगरेट पीना अच्छी बात नहीं है.
वाह...!
विल्स कार्ड पर क्षणिकाएँ!
बहुत सुन्दर है जी!
आपने इन स्मृतियों को
बहुत करीने से संजो कर रखा है!
हम न समझे थे बात इतनी सी खवाब शीशे के और दुनिया पत्थर की
काश जिन्दगी के पलों को सहेजने की कला आप से सीख पाता
लेकिन जब जिन्दगी सिखाती है तो अच्छा ही सिखाती है
छोटी छोटी रचनाओं में जीवन का आनंद सा घोल दिया है आपने।
--------
संवाद सम्मान 2009
जाकिर भाई को स्वाईन फ्लू हो गया?
मंत्रमुग्ध करती रचनाएं, एक-से-एक, सहेजने लायक।
मेरे दिवँगत बाबा स्व. श्री नागेश्वर प्रसाद कहा करते थे..
" सकल वस्तु सँग्रह करहिं, आवहिं एकु दिन काम
समय पड़े पर ना मिले माटिहूँ खरचे दाम "
भाई जी, आप तो सोना सहेज़ कर रखे हो, हम्लोगों पर लुटाते जा रहे हो । फिर..
ऎसा डिस्क्लेमर टाइप शीर्षक देने की आवश्यकता आपको क्यों लगी ?
वाह समीर जी, क्या खूब लिखा है. बहुत`सही भी लिखा है की दिल में भाव किस वक्त और किस रूप में आ जाये, पता ही नहीं चलता. लेखक और कवि तो उन्हें सही शब्द दे देता है. ऐसा ही कुछ हाल मेरा है. आज कल पता ही नहीं चलता कब, कहा से और कैसे-कैसे भाव मन उठने लगते है. ऐसा कुछ होते ही कंप्यूटर के आगे बैठ जाता हूँ की कुछ गुफ्तगू कर ली जाये. अच्छी पोस्ट और लेखन के लिए मेरी बधाई स्वीकार करे. मेरी गुफ्तगू में शामिल होने पर शुक्रिया. आशा है समय-समय पर आते रहा करोगे और गुफ्तगू में भी साथ देंगे.
www.gooftgu.blogspot.com
क्या-क्या लिख दिया है भैया? ऐसे-ऐसे खूबसूरत खयालात.
वाह!
74 vi tippani/kagaz ke tukade me nahi apni dairy me utaar liye he aapke shabd, hu ba hu/
...सुन्दर रचनाएं,सच कहा जाये "कुछ तो अनमोल" हैं !!!!
जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है....
biल्कुल सही कहा.....आपने....
कुछ बोलता नहीं.
माँ जिन्दा थी
तब बजाया करती थी...
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया....
मैं देरी से आने के लिए आपसे माफ़ी चाहता हूँ....
सादर
महफूज़...
विल्स कार्ड नाम से समझ नहीं पाई थी कि यहाँ जिंदगी के फलसफे का खजाना मिलेगा....
एक एक रचना बहुत सुन्दर और गहरे भाव लिए हुए....ठूंठ पर पत्ते आने की बात बहुत कोमल भावों को दर्शा रही है....
सुन्दर रचनाएँ पढवाने के लिए आभार
देखता हूँ
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
Ye chhoo gayi Sameer ji ......!!
याद है तुमको
जब बरसों पहले
सार्दियों में तुम मुझको
चली गई थी छोड़ कर
उस बरस
गिर गया था
आँगन वाला
आम का पेड़
और
बच रहा था
एक ठूंठ!!
देखता हूँ
इतने बरसों बाद
अबकी
उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?
हाँ, बिलकुल !
चौथे की खूबसूरती ने तो मुग्ध कर दिया !
लघु-रत्न हैं यह ! आभार इनकी प्रस्तुति के लिये ।
समीर जी आप जैसा प्रेरणास्रोत मिल पाना भगीरथ को गंगा मिल जाने जैसा है कितनी निश्छ्ल सौम्यता सहेजे हैं आपके शब्द,जी करता है उड़न तश्तरी से उतरूँ ही नहीं।
आप की कविताएँ अनमोल हैं
दिल में उतर जाती हैं और ,
एक कसक सी छोड़ जाती हैं !
फिर भी जिया जा सकता है !
भारत में अन्न जल का संकट पर
कविता लिखी है ,आपका ध्यान चाहूंगी !
जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है..बस, जरा चूके और वो फिर नहीं लौटते. बच रहता है एक खोया खोया अहसास और कुछ चूक जाने का अपराध बोध.
Bahut achhi prastuti ke liye dhanyavaad..
अभी बहुत से कार्ड ऐसे हैं जो लिखे जाने हैं /आपके लिये मिट्टी हो मेरे ये अनमोल खज़ाने हैं ।
एक से बढ़ कर एक दिल को छूती हुई.
रात काली
मावस की,
मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता...
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!
well said....shweta
कविता को बहुत सुन्दर पंक्तियों से सजाया है।शुक्रिया।
जबर्दस्त है यह शृंखला। अंतिम तीन से वंचित था, सो आज पढ़ डालीं। धुआं धुआं चिंतन और उसके बाद विल्सकार्ड पर काव्य रचना। बहुत खूबसूरत रचनाएं।
कविता वह जो सबको समझ आए....मुझे सभी अनुभूतियां पसंद आईं।
एक ये भी-
रात काली मावस की, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता... तुम्हारे बाद अब कोई तलाश बाकी नहीं!!
वाह बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! बिल्कुल सही कहा है आपने! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
पाई है किताबों से
तालीम
चलाने की नौकरी...
और
बाहर उसके
सीख रहा हूँ रोज
कुछ नया
हर कदम
एक नई तालीम
जीवन से
जीवन चलाने की...
आधा अधूरा
यह पाठ
कब पूरा होगा??
bahut sunder sameer
रात काली
मावस की,
मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता...
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं!!
great need not to read any blogs
इस तरह बीते पलों और भावनाभिव्यक्तियों को संजोना सबके बस का कहां! अभी और बहुत होगा पिटारे में...
बहुत हीं सुन्दर विचार प्रकट किया है आपने ।
@ समीर अंकल..सबसे अच्छे अंकल है न!!
अपने सिगरेट पीना छोड़ दिया, इसलिए आप सबसे अच्छे अंकल हुए...पक्का.
superb!!! samvedna......
हर कार्ड संभालने लायक.
लाल डायरी वाली भीतर चली गई. कभी कभी लिखी जाती हैं, ऐसी चीज़ें....
याद है तुमको
जब बरसों पहले
सार्दियों में तुम मुझको
चली गई थी छोड़ कर
उस बरस
गिर गया था
आँगन वाला
आम का पेड़
बहुत खूबसूरत रचना.
तुम्हारे बाद
अब कोई
तलाश बाकी नहीं
बेहद लाजवाब!
बहुत शानदार रचना, बधाई हो अंकल.
बहुद सुखद अहसास है सहेजना.
....सीख रहा हूँ रोज कुछ नया हर कदम एक नई तालीम जीवन से जीवन चलाने की...
मन भर आया.
अब विल्स कार्ड की कवितायें कब प्रकाशित होंगीं ?
अंतिम कविता ने मन को छू लिया --
स स्नेह,
- लावण्या
कविता कागज के टुकड़ों के साथ ही पलती है समीर जी... प्रेम कविताएँ दिल को छू गईं...
देखता हूँ इतने बरसों बाद
अबकी उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?....
लाजवाब समीर जी...! बहुत शुभकामनाएँ...!
कविता कागज के टुकड़ों के साथ ही पलती है समीर जी... प्रेम कविताएँ दिल को छू गईं...
देखता हूँ इतने बरसों बाद
अबकी उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..
क्या तुम आने को हो?....
लाजवाब समीर जी...! बहुत शुभकामनाएँ...!
क्या बात है, सर फिर से विल्स कार्ड की विस्मृत कर देने वाली पहेलीनुमा रचनाएं !
आदमी के मन को हिला के रख दिया ।
Hello Sameer Lal ji. mai nishamadhulika site ki ek reader hu aur aapka khane me interest dekh kar raha na gaya aur aapke bare me pata laga hi liya. you r a amazing person....!
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