सोमवार, अगस्त 22, 2011

एडिनबर्ग नहीं एडनबरा, स्कॉटलैण्ड: एक ऐतिहासिक नगरी की सैर

पिछले दिनों एक पोस्ट लिखी...दूरियाँ जो घंटों में नापी गई...फिर एडिनबरा, स्कॉटलैण्ड की यात्रा का वृतांत राजस्थान पत्रिका के इंदौर संस्करण से 9 अगस्त, 2011 में प्रकाशित हुआ....मगर थे दोनों इसी आलेख के भाग...हर जगह पूरा छपना संभव नहीं होता..अतः टुकड़े टुकड़े दिये गये...पूरा और अधिक विस्तार से अब पढ़ें:

विचार बना कि जब यॉर्क, यू.के. तक आ ही गये हैं तो दो दिनों के लिए ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड भी हो आया जाया. इच्छा जाहिर करने पर सबसे पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे आटवा बुलाते हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि यॉर्क से ४ घंटे दूर है.
दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं. वैसे है १६१ मील याने लगभग २५९ किमी.
खैर,  कार में सवार हो एडनबरा पहुँच ही गये. ऑनलाईन बुक करते समय दो गेस्टहाऊस इस लिए रिजेक्ट कर दिये थे कि वो दूसरी मंजिल पर थे और तीस सीढ़ियाँ चढ़कर जाना (वहाँ गेस्टहाऊसेस घरों को बदल कर बनाये गये हैं अतः लिफ्ट नहीं होती) हमारी जैसी काया के संग अगर टाला जा सके तो ही बेहतर. जो गेस्ट हाऊस बुक किया था, वो था तो ग्राउन्ड फ्लोर से ही मगर उसमें बाहर से न हो कर अंदर से तीस सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरे मंजिल पर कमरे थे. ग्राउन्ड फ्लोर पर रेस्त्रां और रिसेप्शन और प्रथम तल पर मालिक का घर. ले दे कर किसी तरफ हाँफते फुफकारते चढ़ ही गये तो शाम हो चली थी, अतः फिर उतरे नहीं कि अब कल सब घूमा जायेगा. खाना तो साथ था ही, वो ही पूड़ी, करेले की सब्जी और पुलाव. सच्चे भारतीय, फ्री की चाय कमरे में ही बना कर दो बार पी ली और भोजन कर के सो गये.
अर्थशास्त्र के पितामह कहे जाने वाले एडम स्मिथ का शहर, फोन के अविष्कारक ग्राहम बेल का शहर..सुबह नींद खुली तो मौसम कुछ ज्ञानी ज्ञानी सा होने का अहसास देता रहा. हवा का असर होगा. याद आई हरिद्वार की सुबह, अक्सर बहुत धार्मिकता का अहसास करा जाती थी.
खिड़की के बाहर दिखता ऊँचा टीलानुमा पहाड़ और उस पर ट्रेकिंग करते लोग. मुश्किल से ७ बजा होगा और कुछ लोग तो लगभग टीले की चोटी पर पहुँचने ही वाले थे. पता किया तो ज्ञात हुआ कि लगभग ३.३० घंटे लगते हैं ट्रेकिंग में मतलब जो टीले के उपर पहुँचने वाले हैं वो ३.३० बजे रात से लगे होंगे इस कार्य को अंजाम देने में. अब ये तो अपने अपने शौक और शरीर हैं, हमारा तो ऐसे शौकों और इनको पालने वाले प्राणियों को दूर से नमन. हमारी तरफ से दुआएँ है कि आप कभी भारत पधार कर माऊन्ट एवरेस्ट चढ़े, हमारा क्या ले लोगे. ट्रेकिंग का जायजा खिड़की से लेकर स्नान ध्यान से फुरसत हो नीचे रेस्त्रां में नाश्ता किया गया, कमरे के किराये में शामिल था सुबह का कान्टिनेन्टल नाश्ता, तो दबा कर के कर लिया ताकि लंच की जरुरत ही न पड़े (आपको पहले ही बता दिया था न कि सच्चा भारतीय हूँ)

गेस्ट हाऊस के सामने से ही बस चल रही थीं. पता करके डे पास ले लिया. अब जितनी बार दिन भर में मन करे, बस पकड़ो, बदलो और घूमो. बस ने एडनबरा के किले के नीचे वेवरली (Waverley) पुल पर लाकर उतार दिया. गजब का जमघट. लगातार आती जाती बसों का रेला. मात्र ५ लाख की आबादी वाला शहर, देखकर लगा मानो वो सारे ५ लाख तो इसी एरिया में घूम रहे हैं, घास पर जोड़ा बना बना कर लेटे, बैठे, आलिंगनबद्ध और तरह तरह की भाव भंगिमाओं मे सभी यहीं चले आयें है कि समीर लाल आ रहे हैं, एक झलक मिल जायेगी. पता चला कि जितनी आबादी है, उतने ही टूरिस्ट भी हर वक्त यहाँ इस शहर में मौजूद रहते हैं और इस शहर को विश्वपटल पर सैलानियों के बीच अपने उपन्यास से इतना प्रचलित करने वाला, जिनके १८१४ में लिखे एतिहासिक उपन्यास वेवरली के नाम पर इस पुल का नाम वेवरली रखा गया और उससे सटा हुआ एक बहुत बड़ा स्मारक और पार्क उन्हीं के नाम उनकी ऊँची मूर्ति के साथ बना हुआ है, सर वाल्टर स्कॉट. हालात यह कि उसके बाद उनके लिखे कई उपन्यास वेवरली सिरीज़ के नाम से जाने जाते रहे और उनके प्रचार के लिए हर उपन्यास पर लिखा जाता रहा कि ’बाई द ऑथर ऑफ वेवरली’. इस उपन्यास के चलते प्रिन्स रिजेन्ट जार्ज ने १८१५ में सर स्कॉट को अपने महल में भोज पर आमंत्रित किया क्यूँकि वो वेवरली के उपन्यासकार से मिलना चाहते थे. आज भी सारी टूरिस्ट बसों में गाईड भगवान का दर्जा देते हुए उनका नाम उदघोषित करते हैं कि टूरिस्ट के बीच इसे प्रचलित कर हमें रोजी रोटी मुहैया कराने वाला सर वाल्टर स्कॉट. मन में विचार आया कि उपन्यास का नाम वेवरली क्यूँ रखा तो पता चला कि जिस पैन से उन्होंने उपन्यास लिखी थी, वह स्कॉटलैण्ड की पैन बनाने वाली कम्पनी वेवरली के द्वारा निर्मित थी.

कभी सोचता हूँ कि काश!! देश की तो छोड़ो, मोहल्ले में भी अपने साथ ऐसा हो जाये और पुल की जगह पुलिया का ही नामकरण हो ले तो उसका नाम पड़ेगा ’देख लूँ तो चलूँ’ , हा हा!! नाम तो बुरा नहीं है और हो भी तो क्या, हमारा तो पहला उपन्यास यही है.  वैसे वेवरली को आधार माना जाये तो मेरा उपन्यास तो पैन से लिखा ही नहीं गया, सीधे डेल कम्प्यूटर की बोर्ड से निकला तो उसका नाम पड़ता ’डेल’ और फिर सोचो, पुलिया का नाम ’डेल पुलिया’ कैसा लगता भला? और रही भोज आमंत्रण की बात, तो वो तो हमें ही इस काम को अंजाम तक पहुँचाने के लिए न जाने कितने लोगों को देना पड़ेगा.

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सर वाल्टर स्कॉट के दर्शन कर के भीड़ भाड़ से कटते बचते चल पड़े किले की ओर. सामने ही दिख रहा था. सामने लेकिन उपर..पता चला कि २०० तो सीढ़ियाँ चढ़नी है और फिर पहाड़ के बीच से चढ़ाईदार सड़कों पर करीब ३ किलोमीटर चल कर. रास्ता सुनते सुनते ही गला सूख आया. विकल्प पता किये गये और एक टूरिस्ट पैकेज खरीद कर उसकी खुली छत वाली बस में सवार हो लिए. बड़ा आराम मिला और जानकारी तो इतनी सारी गाईड ने दी कि सब घुलमिल गई. हर बिल्डिंग का एक इतिहास, हर सड़क से लेकर पत्थर, नाले,  पेड़, पौधे, पक्षी तक ऐतिहासिक. नेता के सारे साथी नेता. संगत की बात है. बस ने घुमाते फिराते रॉयल कैसल के मिख्य द्वार पर उतारा. थोड़ा ही चलना पड़ा मगर वो भी काफी था. किले की दीवार से बाद में झाँक कर वो जगह भी देखी, जहाँ से हम पैदल आने वाले थे. कलेजा मूँह में आ गया कि अगर पैदल उपर आने का निर्णय ले लिया होता तो शायद आधे रास्ते से ही बिल्कुल उपर निकल गये होते. सलाह है कि टूरिस्ट बस के पैसे खर्च करो, मजे से घूमो. जानकारी भी गाईड से मिलेगी, घूमेंगे भी ज्यादा और आराम भी रहेगा. कोई खास मंहगा भी नहीं है. कहीं भी उतरो, घूमो और आने वाली अगली टूरिस्ट बस पकड़ो. सुबह जो पास लिया था वो सिटी बस का होता है सिर्फ शहर घूमने को. टूरिस्ट स्पॉट की बस अलग होती है.

वैसे एडनबरा अपने सालाना ४ सप्ताह के उत्सव के लिए विख्यात है जो अगस्त के पहले सप्ताह से शुरु होता है. उस समय सैलानियों का हुजूम उमड़ पड़ता है. उमड़ा तो खैर हर वक्त रहता है, उस वक्त शायद और ज्यादा हो जाता हो. सालाना उत्सव कई सरकारी और गैर सरकारी उत्सवों को मिलाकर आयोजित किया जाता है जिसमें विशाल पर्फोर्मिंग आर्ट उत्सव, बुक फेस्टीवल, अंतर्राष्ट्रीय उत्सव, मिलेटरी टेटू उत्सव आदि शामिल रहते हैं. स्कॉटलैण्ड की पारम्परिक वेशभूषा में बैगपाईपर बजाते हुए खड़े लोग और उनके साथ सैलानी अपनी तस्वीर खिंचवाते हर जगह दिख जायेंगे.

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किले के द्वार पर ही मिलेटरी टेटू उत्सव के लिए स्टेडियम की तैयारी चल रही थी. किले ऊँचाई पर बने होने के सिवाय कोई खास आकर्षित नहीं करता. जिसने भी भारत में राजस्थान, मैसूर, आगरा आदि के किले देखें हैं, उनके लिए यह किला खिलौना ही नजर आयेगा. इंगलैण्ड, स्कॉटलैण्ड आदि में तो खैर जो हो रॉयल ही होगा. खाना तक तो रॉयल डिनर करके खाते हैं, तो रॉयल के नाम पर इस किले को देखना और उस पर से वो रॉयल बेन्केट हॉल, जिसमें रॉयल डिनर आयोजित किये जाते थे, वो किसी वाय एम सी ए के डिनर हाल से ज्यादा न निकला. नाम है, तो घूमे, इतिहास सुना, किले के अंदर चैपल भी देखी जिसमें पहले रानी साहिबा रहती थी. आजकल आप उसे बुक करके उसमें अपनी शादी करवा सकते हैं. फायदा ये है कि एक तो रॉयल चैपल में ब्याहे जाने की प्रमाणपत्र मिलेगा और गेस्ट लिस्ट छोटी सी रहेगी क्यूँकि उसमें कुल जमा २० मेहमानों की ही जगह है तो उससे ज्यादा क्या बुलवा लोगे.

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वहाँ से थक कर निकले, तो सामने ही स्कॉच टेस्टिंग का सेंटर था. एक दो छोटे छोटे शॉट टेस्ट किये और एक बोतल खरीद भी ली. स्कॉच के लिए स्कॉटलैण्ड यूँ भी विख्यात है और इसके स्कॉच टेस्टिंग सेन्टर सैलानियों के लिए आकर्षण का केन्द्र हैं. फिर बस पकड़ी और जो सारा शहर घुमाते, बताते, रॉयल पैलेस, म्यूजियम, लायब्रेरी, यूनिवर्सिटी, जानवरों का बाजार, अर्थशास्त्री एडम स्मिथ के नाम का हॉल, शरलॉक होम्स वाले सर आर्थर कोनन डोयल के बारे में बताते, बाजार होते हुए शाम तक वापस ले आई वेवरली पुल पर. बाजू में ही बेस्ट होटल ऑफ द वर्ल्ड ’द बलमोरल है. यूँ तो सस्ते से सस्ता कमरा भी वहाँ पर ३५० यूरो का है मगर देखने के क्या पैसे. देखना जरुर चाहिये. ठहरे तो गेस्ट हाऊस में हैं ही, सोना ही तो है. कोई लोरी तो सुनाने से रहा ’द बलमोरल’ में.

एक खासियत और हम भारतीयों की, जिस दूसरे देश के शहर में जायेंगे, खाने के लिए भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने भागें मगर देश से निकलते ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी खोज लिया ’ताजमहल रेस्त्रां’. भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस, वो सुबह वाले पास से बस पकड़ कर.

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अगली सुबह पुनः वही कान्टिनेन्टल स्टाईल फ्री का नाश्ते भरपेट किया और चैक आऊट कर निकल पड़े अपनी कार से कुछ बाजार करने और उसके बाद रॉयल यॉच (The Royal Yacht) देखते हुए, जो अब एडनबरा के समुन्द्र में खड़ा है किन्तु कभी महारानी का जल निवास हुआ करता था. उसके आस पास बहुत सुन्दर मॉल भी है लेकिन बाजार चूँकि पहले ही कर चुके थे, अतः उसमें जाकर समय गंवाने का कोई फायदा नहीं था. यूँ भी यूरोप में खरीददारी कुछ जरुरत से ज्यादा ही मंहगी है.

शाम घिरने से पहले निकल पड़े यॉर्क के लिए वापस लेकिन इस बार समुन्द्र के किनारे किनारे चलने वाले मार्ग से. सुन्दर प्राकृतिक सौदर्य निहारते, फोटो खींचते खिंचाते !!!

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बुधवार, अगस्त 17, 2011

मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए..

शाम को थके हारे लौटे और ईमेल खोला.

पहला ईमेल लॉटरी वाला था ५ मिलियन की फिर खुल गई. यह जानते हुए भी कि यह झूठ है, अच्छा लगता है. इन नेताओं के चलते झूठ बातों से अच्छा लगने का सिलसिला हर भारतीयों के खून में रच बस गया है. दशकों से झूठ बोल बोल कर बहला रहे हैं और हम सब आदतन बहल रहे हैं. कभी पंच वर्षीय योजना से बहल कर खुश हो लेते हैं तो कभी भारत विकास की राह पर है, सुन कर तो कभी १५ अगस्त से भ्रष्ट्राचार की समाप्ति की बात सुन कर, तो कभी कुछ और. रोज देखता हूँ अपने ईमेल में ऐसे कई ईमेल. कोई कोकाकोला से, तो कोई याहू से ५ मिलियन जितवा कर प्रसन्न किये हुए हैं. हर बार डिलिट करने के पहले नमन करता हूँ और फिर डिलिट. डिलिट करने का कतई दुख नहीं होता, मालूम है कल दूसरे तीन आयेंगे जितवाने. सोचता हूँ इस बाबत आये ईमेलों को दफ्तर से प्रिन्ट कर कर के ला ला कर रखा होता तो अब तक ५०० रुपये तो रद्दी बेचने के मिल ही गये होते.

इनको मिटाता हूँ और फिर उसके आगे की श्रृंखला में किसी की दर्द भरी ईमेल देख आँख नम हो जाती है. यह भी नित होता है. मैं फलाने राष्ट्र के फलाने सुपर डुपर की इकलौती संतान हूँ. सत्ता पलट में मेरे पिता जी को राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला कर मार डाला गया है. उनके खाते में १८ मिलियन यू एस डॉलर रखे हैं जो मैं आपको स्थांतरित करवाना चाहती हूँ. इस मदद की एवज में आधा आप रख लेना और आधा मुझे दे देना. आपके बारे में पता चला कि आप बहुत भले आदमी हैं और लोगों की मदद करते हैं. मेरी भी करिये, यह अनाथ यह एहसान कभी नहीं भूलेगी. पहले तो सोचता हूँ कि एकदम सरासर झूठ बोल रही है चोट्टी कहिंकी. फिर लगता है कि सरासर तो नहीं, बेचारी ने जब इतना सच सच लिखा है कि आप बहुत भले आदमी हैं और लोगों की मदद करते हैं. तो शायद बाकी बातें भी सच हों. कौन जाने, दुखियारी किस हाल में हो?

नम आँखें पोंछ सोचता हूँ कि चलो, रात में एक दो पैग पीने के बाद, जब भावुकता चरम पर होगी तब विचार करके जबाब देंगे जैसा कि अक्सर देखा है कि नितीगत निर्णय सरकार देर रात ही लेती है और फिर चल पड़ा अगली ईमेल पर, वो किसी बैंक अधिकारी की है जिनके पास एक खाते में २० मिलियन यू एस डॉलर हैं, जिस खाते का असली मालिक एक हवाई दुर्घटना में मारा गया है और खाते पर उसका कोई वारिस नहीं है. ये अधिकारी मेरे डिटेल्स, मेरे खाते का विवरण, शपथपत्र मँगवा कर उसे खाते में नथ्थी कर देंगे और फिर २० मिलियन ये मेरे खाते में डलवा कर मेरी इस घोर मेहनत के लिए आधी रकम याने १० मिलियन मुझे दे देंगे और आधी खुद लेंगे. इस कार्य के लिए मुझे चुनने का कारण मेरी विश्वश्नियता और शराफत बताया गया है. यहाँ भी लगा कि बंदा यह वाली विश्वश्नियता और शराफत की बात तो सही ही कह रहा है. खुद की कमीज के छेद भला आज तक किसी को दिखे हैं क्या जो मुझे दिखें.

तीसरा ईमेल भी ऐसा ही, फिर २० मिलियन मगर इस बार किसी की इन्श्योरेन्स का पैसा. फिर कोई नामित नहीं.

ओह!! अब समझ आया कि सभी आधा आधा बाँट रहे हैं. ये तो अपने खद्दरधारियों जैसे निकले. चेहरे अलग अलग, स्टेटमेन्ट अलग अलग और कर्म सबके एक. शायद भ्रमित हो गये हों कि ये बंदा कनाडा में रहता है तो केनेडियन होगा गोरा वाला, शायद जानते न हों कि मैं भारत से हूँ. सब समझता हूँ ऐसी चालबाजियों को. दरअसल, बचपन से सीखते समझते हालात तो ऐसे हुए हैं कि अब सिर्फ चालबाजियाँ ही समझता हूँ. आदत भी ऐसी पड़ गई है कि कोई सच में कुछ सच सच बताये तो उसमें भी चालबाजी खोजने लगता हूँ. अतः अनुभव के आधार पर इन तीनों को भी डिलिट कर देता हूँ. मालूम है कि कल फिर तीन दुख के मारे, वक्त के सताये मुझे १० -१० मिलियन देने आकर खड़े हो जायेंगे. कोई कमी थोड़ी है हमारी भलमनसाहत,  विश्वश्नियता और शराफत पर विश्वास रखने वालों की. भारत से भले कोई न करे मगर हमारा ऐसा स्तुति गान करने वाले, इंग्लैण्ड, हाँगकाँग, नाईजिरिया, सूडान और भी जाने कहाँ कहाँ फैले हैं, कई देशों के नाम तो उनसे मिली ईमेल से ही पहली बार सुनकर नक्शे में खोजता रहता हूँ. धन तो खैर हाथ का मैल है आना जाना लगा रहेगा मगर सामान्य ज्ञान और भूगोल ज्ञान में हुआ इजाफा काबिले तारीफ रहा इन ईमेलों के माध्यम से. इनका साधुवाद इस हेतु.

फिर इनसे निपट अगले तीन ईमेल देखता हूँ. लिखती है कि आपकी तस्वीर नेट पर देखी. यू लुक हैण्डसम. स्टेटमेन्ट में सच्चाई है अतः आगे पढ़ता हूँ. लिखा है कि मुझसे दोस्ती करोगे? मैं बहुत अकेली हूँ और आपसे फन के लिए दोस्ती करना चाहती हूँ. अपनी और तस्वीरें फलाना ईमेल पर भेजो फिर मैं भी तुमको अपनी वैसी वाली तस्वीरों का वेब लिंक भेजूँगी. ओके बाय, अब स्कूल जा रही हूँ, लौट कर ईमेल चैक करुँगी.

अब बताओं, उम्र के इस पड़ाव पर पोता खिलायें कि इनको तस्वीर भेज कर इनकी वैसी वाली तस्वीरें मंगा कर इनके साथ फन के लिए दोस्ती करें. ठीक है जी कि कवि हृदय है, कोमल होता है. आपके एकाकीपन की व्यथा देख भावुक भी हुए मगर कुछ तो ख्याल करो. हमारा नहीं तो कम से कम हमारे पोते का ही कर लो. कुछ साल ठहर जाओ फिर उसे ईमेल कर देना, वो भेज देगा अपनी तस्वीरें. उसकी उम्र के हिसाब से उसे सुहायेगी भी.

क्या करते सो भारी मन से इन्हें भी डिलिट किया और यह क्या? आज एक ईमेल चाईनिज में लिखा आया है. हो सकता है कोरियन में हो या जपानी में हो मगर हम हिन्दी के सैनिकों के लिए तो उस दिशा की सारी गोली बोली एक सी हैं कम से कम दिखने में तो. अगर सच में भाषा जान भी जायें कि कौन सी है तो पढ़ सकने से तो रहे. पुलिस वालों का सा हाल है कि जिस भी हत्यारे को न पकड़ पाओ, आतंकवादी घोषित कर दो. फुरसत! अब पड़ोसी देश सफाई देता रहे कि हमारे यहाँ का नहीं है.

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तो खैर मैं उसे चायनीज़ में लिखा मान कर चल रहा हूँ. डिलिट करने की इच्छा होते हुए डर रहा हूँ या यूँ कहें कि संकोच कर रहा हूँ कि कहीं चाईना में कोई सम्मान समारोह में सम्मानित करने के लिए तो नहीं बुलाया गया है और मैं डिलिट करके बैठ जाऊँ. बाद में पछताने के सिवाय क्या हाथ लगेगा? हो सकता है हिन्दी के प्रचार प्रसार का हमारा जज्बा देखकर वो चाईनीज़ के प्रसार प्रसार के लिए मुझे प्रेरणा पुँज मानते हों और बुलाकर सम्मान करना चाहते हों, कौन जाने!!! वैसे भी सम्मान समारोह में, मुद्दा आपका काम नहीं, मुद्दा उनके द्वारा सम्मान देने का है. दृढ़ इच्छा शाक्ति सम्मान के प्रायोजकों की मायने रखती है, फिर एक बार उन्होंने यह तय मान लिया कि आपका सम्मान करना है तो सम्मानित करने की कोई न कोई वजह तो हर व्यक्ति में निकाली जा सकती है.

बहुत संभव है कि शायद मुझे बुला कर सम्मान में चाईना रत्न या चाईना का साहित्य भूषण देना चाहते हों. हो सकता है कि चाईना रत्न बिना जुगाड़ के सच में सराहनीय कार्य करने के लिए दिया जाता हो या चाईना साहित्य भूषण वाकई साहित्यिक प्रतिभा को आधार मान कर देते हों. भारतीय होने की वजह से यह किचिंत आश्चर्यजनक बात लग सकती है किन्तु हर देश के अपने अपने रिवाज और नितियाँ होती हैं. हो सकता है चाईना में ऐसा होता हो.

और जब बात सम्मान की है तो यूँ भी हिन्दी वालों को सम्मान के सिवाय और उम्मीद भी कौन बात की रहती है. नगद या बुकर प्राईज़ तो मिलने से रहा!! जो भी नगद राशि सम्मान प्रशस्ति पत्र के साथ नथ्थी कर दो, सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं. वरना तो शाल और नारियल में भी हर्षित रहते हैं.

समारोहों के नाम पर सम्मान समारोह ही एक ऐसा समारोह है जिसमें जब भी किसी ने बुलाया है, आज तक चीटिंग नहीं हुई. हमेशा सम्मानित किये गये. भले ही हड़बड़ी में पचास सम्मानितों की भीड़ में भागते दौड़ते सम्मानित हो गये हों -भूलवश किसी और का सम्मान पत्र हाथ में थामें मंच से उतरे हों मगर सम्मानित हुए जरुर. इसलिए इसे तो किसी से पढ़वा कर, समझ कर ही डिलिट करेंगे. आपमें से कोई चायनीज़ जानता हो तो मदद करो इस दुखियारे की. कहीं सम्मान से वंचित न रह जाऊँ. हो सकता है चाईना रत्न ही हो.

जब इसे छोड़ बाकी ईमेल डिलिट कर रहा हूँ तब ऐसे में..मैं पल दो पल का शायर हूँ - गीत की पंक्तियाँ नया रुप धर कान में गुँजने लगती हैं:

कल और आएंगे नगदी की थैली तुमको देने वाले,
मुझसे बेहतर ऑफर वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले ।
कल कोई मुझ को डिलिट करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे॥

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, अगस्त 10, 2011

डायरी के पीले पड़ चुके कुछ आवारा उखड़ते पन्ने

-१-
मैं बार बार वापस आने को उठता हूँ क्यूँकि मुझे पता है तुम रोक लोगी मुझे...मेरा हाथ थाम कर बिना कुछ कहे उन नम आँखों से मुझे ताकते...तुम्हारी आँखों से बात करने की अदा...और वो नाजुक छुअन का अहसास...बार बार वापस आने के लिए उठने का मन करता है.....

-२-
आज ढलती शाम फिर तुम कुछ उदास, बुझी बुझी सी छत पर मुझसे मिलने आई..आज फिर दूर बगीचे से उस काले और नारंगी डैने वाली चिड़िया ने एक मधुर गीत गुनगुनाया...शायद वो जान गई थी कि तुम कुछ उदास हो...मैं और तुम आसमान में न जाने क्या ताकते उस चिड़िया का गीत सुनते रहे...फिर तुमने मेरी तरफ देखा मेरी नजरों में अपनी नजरें डाल कर...और मुस्करा उठी...खो गये हम एक दूसरे की आँखों में. चिड़िया शायद तब निश्चिंत होकर सो गई...रात ने अपनी पहली अंगड़ाई ली है अभी...चाँद उल्लास में आसमान पर सितारे टांक रहा है हौले हौले...कि तुम्हारे मुस्कराने का उत्सव जो मनाना है अभी.....

-३-
वो मुझसे कहती है कि " तुम पान खाना छोड़ क्यूँ नहीं देते...जानते हो मैं जबाब नहीं दे पाती, जब अम्मा पूछती हैं मेरे ओठों की लाली का सबब.."
मैं सोच में हूँ कि अपने गुलाबी गालों और चमकीली आँखों के लिए क्या जबाब देती होगी वो अम्मा को?

और कुछ पन्ने उसके जाने के बाद:

-४-
कुछ सँवार कर लिखने की आदत ऐसी रही कि हमेशा ही दो कलम लिए घूमता रहा..एक लाल और एक काली...नीली रोशनाई आँख में चुभन देती थी सो कभी न भाई. वर्तमान लिखता तो काली स्याही की कलम से और अतीत की चुभन को लाल स्याही से उकेरता....तन्हा रातों में गुजरता उन पन्नों से ...शब्द शब्द चींटिंयों से रेंगते नज़र आते हैं..काली और लाल चीटियों की कतारें..रेंगती मेरे शरीर पर ..काली एक सिहरन पैदा करती और लाल अपने डंक गड़ाती-काटती..एक खामोश चीख उठती ..जाग जाता हूँ मैं..खिड़की से आती ठंड़ी हवा की छुअन..राहत देती है पसीने से भीगे बैचेन तन को और सोचता हूँ मैं कि आज के लिखे काले हर्फ भी अगर कल लिखूँ तो लाल हो जायेंगे...चुभन है कि मुई जाती नहीं इस जिन्दगी से..बेवजह काले हर्फों को सजाकर खुश हुआ जाता हूँ मैं..न जाने क्या सोचकर बिखरा देता हूँ काली स्याही की दवात डायरी के एक कोरे पन्ने पर...यही तो है मेरी डायरी के उस काले पन्ने का सबब और मेरी लाल कलम की कहानी...तुम आ जाओ तो फिर लिखूँ एक ऐसी नई कहानी-आसमानी रोशनाई से...कि भरमा के चाँद उतर आयेगा पाने पर मेरे...  

-५-
कैसे भूलूँ तुम्हारा मेरे सीने पर कान लगा कर घंटो मेरी धड़कने सुनना...कुछ पूछता तो तुम होठों पर ऊँगली रखकर धीरे से चुप रहने का इशारा करती और आँखें बंद किये ही मुस्करा देती...बाद में कहतीं कि कितनी सुन्दर धुन है तुम्हारी धड़कनों की...जी ही नहीं भरता सुनने से...मैं कहता कि मेरी धड़कन कहाँ जो मेरी सीने में धड़कती है..ये तो तुम्हारी अमानत है और मुस्करा देता..तुम शरमा जाती..गाल खिल उठते सुर्ख लाल गुलाब के मानिंद..

-६-
याद करो उस रोज बगिया में ऐसे ही क्षणों में एक भौरें ने तुम्हें गाल पर डंक मार दिया था..और तुम..दर्द की तड़प में ऐसा झपटी उसपर कि बेचारा जान गवाँ बैठा...शायद तुम्हारे गाल को गुलाब समझने की भूल...वो तो मैं अक्सर ही करता हूँ..बस यह कि भौंरा नहीं हूँ..वरना....बस!! तुमने मेरे होठों पर हाथ रख दिया और तुम्हारी आँखों से वो आँसू..कहती कि कभी ऐसी बात जुबां पर मत लाना.....

-७-
रेत पर लेटे बदलते मौसम में तुम अपनी नजरों से उन भागते बादलों संग न जाने कितनी देर खेला करती. फिर एकाएक तुमने मुझे दिखाया था वह विचित्र आकृति वाला बादल- कछुआ बादल कह कर तुम हंस पड़ी थी और न जाने क्या सोच संजीदा हो उठी..कहा था तुमने कि काश!! हमारी जिन्दगी भी कछुआ बादल हो जाये. वक्त है कि थमता नहीं..और बदल जाता है मौसम शनैः शनैः...तुम भी पास नही...दिखता है मुझे भी अब अक्सर एक बादल- आठ पांव वाला..क्या कहूँ उसे-ऑक्टोपस बादल..एक जकड़न का अहसास होता है मुझे और कोशिश कहीं दूर भाग जाने की...

-८-
तरसती रात की खामोशी घेरकर आगोश में तुमको करेगी जिस वक्त मजबूर इतना कि तुम बेबस और निढाल हो, कर बैठो आत्म समर्पण..और भूल जाओ मुझे.... याद रखना ठीक उस वक्त कोई दीवाना फना होगा झुलसते सूरज की तपिश में सात समुन्दर पार यहाँ...

diary pages

वक्त की गुल्लक में
यादों के कुछ हसीन लम्हें
जमा किये थे तुम्हारे साथ के..
आज बरसों बाद जब
तुम मिलने आने को हो
तब उसमें से
एक मुस्कान निकाल लाया हूँ..
तुम्हारी अमानत..
तुम पर खर्च करने को..
न जाने फिर इस जनम में,
मुलाकात हो न हो!!!

-समीर लाल ’समीर’

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गुरुवार, अगस्त 04, 2011

दूरियाँ जो नापी गईं घंटो में....पिछले दिनों...

यॉर्क यू के की यात्रा के दौरान ऐतिहासिक नगरी एडनबर्ग, स्कॉटलैंड जाने का मन हो आया. जब बेटे से इच्छा जाहिर की तो सबसे पहले यह बताया गया कि इस शहर को लिखते एडनबर्ग हैं मगर कहते एडनबरा है. मान गये और सीख लिया एडनबरा बोलना, ठीक वैसे ही जैसे बचपन से स्कूल में मास्साब सिखाते रहे कि कनाडा की राजधानी ओटावा और कनाडा पहुँच कर पता चला कि उसे आटवा बुलाते हैं. अच्छा है कि हमारा नाम लिखते भी समीर लाल हैं और बुलाते भी समीर लाल है, नहीं तो एक समझाईश का काम और सर पर आ टपकता. बताया गया कि यॉर्क से ४ घंटे दूर है.

दंग हूँ इस नये फैशन पर जिसमें दूरियाँ घंटों में नापी जाने लगी हैं. कोई आश्चर्य की न होगा अगर अपने इसी जीवन में कभी सुन जाऊँ कि जबलपुर से भोपाल ६०० लीटर दूर है या भोपाल से इन्दौर की दूरी २० टन है. पूरा अमेरीका, कनाडा आज घंटो में दूरियाँ बताते नहीं थक रहा. टोरंटो से मान्ट्रियाल ५.३० घंटे की ड्राईव, टोरंटो से आटवा ४ घंटे की ड्राईव, वेन्कूअर ५ घंटे की फ्लाईट. हद है भई, सोचो जरा, ट्रेफिक मिल जाये, गाड़ी खराब हो जाये- तब? जरा हमारे जबलपुर में कह कर तो देखो कि जबलपुर से कटनी १ घंटे की ड्राईव है क्यूँकि ९० किमी है..तो लोग हंसते हंसते पागल हो जायेंगे..और बतायेंगे आपको पागल.अरे एक घंटे तो ड्राईवर को चाय पान पी कर चलने की तैयारी के लिए लग जायें आखिर बाहर गाँव जाना है, कोई मजाक तो नहीं है. फिर पेट्रोल डलाना...गाड़ी पे कपड़ा मारना..सारा काम निपटाते, गढ्ढे कुदाते, साईकिल और गाय बचाते, रिक्शे से टकराते जबलपुर शहर भी अगर दो घंटे में पार कर लें तो उपलब्धि ही जानिये. जबलपुर से भोपाल मात्र ३१२ किमी और आज तक मैं कभी भी ड्राईव करके ९ घंटे से कम में नहीं पहुँच पाया और वो भी इतना थका हुआ कि ८ घंटे जब तक सो न लूँ, किसी से एक लाईन बात कर सकने की हालत में नहीं आ सकता.

समयकाल, जगह, गाड़ी की रफ्तार, भीड़, सड़कों की हालत, ट्रेफिक..इन सब को परे रखते हुए इतने विश्वास के साथ ये लोग २ घंटे/४ घंटे बोलते हैं कि दाँतो तले ऊँगली दबा लेने को जी चाहता है. ये निराले, इनके काम निराले, इनके व्यक्तव्य निराले.

कोई इनको समझाये कि आज जब ४५ पार के ८०% लोग मधुमेह से जूझ रहे हैं, तब आपकी गाड़ी में ५ सवारों में से, जिसमें माँ बाप भी शामिल हों, कम से कम एक की तो मधुमेह की बनती ही है- जस्ट फॉर बेलेन्स बनाये रखने के लिए. अब कोई मधुमेह पीड़ित आपकी गाड़ी में हो तो हर एक घंटे बाद वाशरुम खोजिये. भारत तो है नहीं कि हाई वे पर सड़क के किनारे रोकी और ठंडी हवा में निवृत हो लिए. एक बार वाशरुम मतलब १५ मिनट तो मान ही लो क्यूँकि यह ऐसी छूत की बीमारी है कि जिसे जाना है वो तो जायेगा ही, उसको देखा देखी बाकी लोग भी लगे हाथ हो ही लेते हैं. गणित अगर ठीक ठाक हो तो ४ घंटे में चार बार तो यहीं कार्यक्रम होता रहे मतलब ५ घंटे की ड्राईव तो अपने आप हो गई.

उस पर अगर हमारे जैसे भारतीय रथ यात्रा पर निकले हों तो क्या कहने. हर थोड़ी दूर पर कभी नदी के किनारे, कभी स्कॉटलैण्ड आपका स्वागत करता है, के बोर्ड से सट कर, फिर उसकी तरफ ऊँगली से ईशारा करते हुए, फिर पत्नी के साथ वही दोनों पोज़, फिर पत्नी का अकेले में उसमें से एक पोज़, कभी पीले सरसों के खेत के सामने, कि यहीं डी डी एल जे की शूटिंग की होगी तो कभी किन्हीं गोरों को कहीं फोटो खिंचवाता देखकर, कि जरुर कोई इम्पोर्टेन्ट जगह होगी, चूक न जाये, तो खुद भी खड़े हो कर फोटो खिंचवाते ऐसे चलेंगे जैसे एक एक फोटो भारत जाकर मित्रों को चमकाने के लिए खिंचवा रहे हों. माना कि भारतीय होने के कारण रेस्त्रां जाकर खाने का समय बचा लोगे और घर से लाई पूड़ी और आलू की सब्जी पूंगी बना बना कर कार चलाते हुए ही खा लोगे मगर कितना?  गारंटी से ४ घंटे की बताई यात्रा को ७ घंटे की यात्रा तो मान ही लो.

वैसे भी जल्दी किस बात की है...कल के काम के लिए आज निकल पड़ना तो बचपन से करते आये हैं, भले ही ट्रेन से जाना हो. क्या पता कल लेट हो जाये तब..और यूँ भी आज यहाँ खाली ही तो हैं, निकल पड़ो. भारतीय रेल का रिकार्ड तो ज्ञात है ही.

drive

इस दौरान ऐसे ही बदलाव तो देश में भी देख रहा हूँ फिर भी न जाने क्यूँ दंग हुआ जाता हूँ. आजकल देश में भ्रष्ट्राचार के नापने के मानक किस तरह बदल लिये हैं..फलाने ने कितना काला धन कमा लिया- कम से कम एक बटा दस कलमाड़ी तो दबा ही लिया होगा. उसके यहाँ छापा पड़ा- २ प्रतिशत पवार निकला. वो राजा के ३ परसेन्ट से कम नहीं है किसी भी हालत में...जब ऐसी बातें होने लगे तो इस घंटे की दूरी को स्वीकार करने में भी क्या बुराई है.

आश्चर्य में मत पड़ना यदि कभी कोई आपको मेरा वज़न लीटर में बताये या कहे कि फलानी जगह तक पहुँचने में ४ दर्जन पेट्रोल लगेगा. भारत में दो नम्बरी बाजार में तो रुपयों के मानक को बदलते आप देख ही चुके हैं- १००० रुपये याने १ गाँधी, १ लाख रुपये याने एक पेटी और १ करोड़ याने १ खोखा.

हाँ, इसके चलते मन मान गया मगर यात्रा में एक और बात कौंधी कि हम भारतीय जब देश के बाहर हो तो एक बात के लिए यह खासियत और दिखा जाते हैं कि जब किसी दूसरे देश के शहर में जायेंगे, तो खाने के लिए सबसे पहले भारतीय रेस्त्रां तलाशने लगते हैं. भले ही भारत में इटालियन पिज़्ज़ा, बर्गर, चाईनीज़, ग्रीक खाने के पीछे भागें और मित्रों के बीच अपना स्टेन्डर्ड जमाये जायें मगर देश के बाहर निकलते ही भारतीय रेस्त्रां की तलाश शुरु. सो हमने भी एडनबरा में खोज लिया ’ताजमहल रेस्त्रां’. आर्डर में पीली दाल तड़का और नानवेज में कड़ाही चिकन का ऑर्डर कर दिया वरना काहे के भारतीय... भारतीय खाना खाकर लौट आये गेस्ट हाऊस.

सुबह ११ बजे चैक आऊट करके वापस यॉर्क के लिए जिस दिन निकलना था तो चूँकि ब्रेकफास्ट कमरे के किराये में शामिल था, इसलिये पहले दिन की ही तरह इतना सारा खा लिया कि लंच की जरुरत ही न पड़े और चले आये यॉर्क तक मुस्कराते बिना भूख लगे. भारतीय होना काम ही आता है आड़े वक्त पर वरना रास्ते में कहाँ खोजते भारतीय रेस्त्रां और मिल भी जाता तो बेवजह खरचा तो था ही.

घर से दूर
जब निकल
जाता हूँ मैं...
न जाने क्यूँ
कितना सारा
तब बदल
जाता हूँ मैं..

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, अगस्त 01, 2011

तुम धड़कन पढ़ना जानती हो....

अक्सर अकेले में डायरी के पीले पड़ गये सफहों से गुजरने का भी मन कर आता है. गांव के पीले सूखे खेत में अक्सर ही घूमता रहा  हूँ मैं. नंगे पैर. चलने में करीचियों की चुभन और  दर्द का मीठा सा अहसास. आदत में शुमार बातों की कोई खास वजह नहीं होती, बस यूँ ही...वो गीत सुनते:

यूँ ही दिल ने चाहा था, रोना रुलाना...
तेरी याद तो बन गई एक बहाना...

रुकता है सफहों को पलटने का सिलसिला-ठीक उस कोरे पन्ने पर आकर, जो किसी भी भरे पन्ने से भी ज्यादा भरा सा लगता है..अलिखित इबारतों की एक लड़ी शरीर पर रेंगती लाल डंक वाली चीटियों की सिहरन लिए..पन्ने के .बीचों-बीच एक हल्की सफेदी थामे गोलाकार निशान...याद आता है वो लम्हा, जब कैद कर लिया था इस पन्ने ने, तुम्हारी आंसू की उस बूँद को- जो टपकी थी उस वक्त  जब मेरी डायरी पर झुकी तुम मुझसे नजरे चुराती कह रही थी..अलविदा. अब शायद अगले जनम में मुलाकात हो. कहा था तुमने  कि हम वादा करें कि अब कभी नहीं मिलेंगे इस जनम में..... याद है? 
उस रात एक तारा टूटा था छत पर उत्तर की दिशा में, और हम निहारते रहे थे उसे ओझल.होने तक .बिना कुछ मांगे. अपने हिस्से के आगे कुछ भी छीन लेना तुम्हें कब पसंद था भला. सो छूट गये वो दो हाथ भी थमने के पहले...ढहा सपनो का ताजमहल बनने के पहले...बस्स!! इतना ही!! 

शायद, शब्दों  ने जो गुंजाईश दी, बस उन्हीं बैसाखियों पर टंगे निकल पड़ा मै , निपट अकेला तन्हाईयों के जंगल में..कहाँ रह पाई तुम भी अपने आपको अपने वादे पर अटल....रोज तो चली आती हो याद बनके मेरे सपने में...नींद से जागने का मन नहीं होता..... दुनिया सोने नहीं देती. मैं जाग  नहीं पाता तो लोग अक्सर ही दीवाना नाम दिये जाते हैं..मुझे बुरा नहीं लगता ये नाम भी.

कभी तो मन करता है  कि लिखूँ उसी पन्ने पर एक कविता...तुम्हारे तुम होने की या तुम्हारे गुम होने की.....

शिव कुमार बटालवी याद आने लगते हैं:

एक कुड़ी जेदा नाम मोहब्बत...
गुम है...गुम है...गुम्म है!!!!.......

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वो तुम्हारी बातों की वसीयत..जिसे थामें चला आया हूँ, उन बैसाखियों पर टंगा इतनी दूर, उम्र के इस पड़ाव पर..जहाँ से अब बस धुँधलका ही नज़र आता है..आगे भी और मुड़ कर देखूँ तो पीछे भी - यादों की गहरी वादियों में.. रोक देती है मुझे- भरे पन्ने को फिर से भरने को. चाहूँ तो भर दूँ...एक नया जाम....पर खुमार...उन यादों का..उस रात से चढ़ा,,,.रोक देता है. तब ऐसे में टपका देता हूँ एक बूँद और अपने आँसू की उस पन्ने के कोने पर...और इन्तजार करता हूँ कि कब वो मिल जाये उस निशान से, जिसे छोड़ गई थी तुम और कैद कर लिया था मेरी डायरी के  कोरे पन्ने ने.

कभी तो मिलन होगा...हमारा न सही..इन बूँदों का ही सही. एक तसल्ली काफी है..मधुर मिलन की...बैसाखियों को किनारे रख- चिर निद्रा में सुकून से लीन होने के पहले!! लब पर मुस्कान लिए...
एक विचार उठता है फिर उसी कोने से..कहता है- पगले, हर कविता लिखी जाये ये जरुरी तो नहीं...भाव यूँ भी अपना सफर तय करना जानते है..उनकी अपनी तरंगे हैं. छोड़ मोह कि- कुछ लिख डाल और बहने दे उन भावों को..उनके अपने प्रवाह में..हट जा किनारे और देख साक्षी भाव से उन्हें प्रवाहित होता..एक महा मिलन का उत्साह लिए..सागर में जा समाहित होने की उमंग....छल रहित....छल छल कल कल की धुन बजाता....जोड़ कान उस धुन से...नाच कि एक उत्सव है आज!! एक महोत्सव..महा मिलन की आस का....सावन में झूलती गोरी की मद मस्त पैंगें...और वो सखियों के संग नाचते हुए उठती कज़री की धुन!!

बदरा....गरज बरस तू आज.....

झकझोरते ख्यालात ...थमीं सी कलम....एक और बूँद उस आँसू की-- जो प्रवाहित कर गई सारे भाव बिना लिखे तुम्हारे पढ़ने को...बांच लोगी तुम...मुझे पता है...सुन तो सब लेते है लेकिन तुम धड़कन पढ़ना जानती हो!!! एक अनजान मोड़ पर थमी कहानी...जिसका कोई सारांश नहीं..इन्तजार करती है तुम्हारी उन नीली पनीली आँखों से तकती नज़रों का..

मिलोगी जब
इस बार
घूमेंगे हम
हरियाली के आगोश में
हाथ मे हाथ थामें
भीगेंगे उस
दूध झरने के
नीचे 
और थक कर चूर
बैठ किसी भरे पेड़ के नीचे
तने से पीठ टिकाये मैं
और मुझ से टिकी तुम...
बँद आँख
सपनों की दुनिया का 
वो पूरा चाँद देखते .....
मत करना उम्मीद मुझसे कि
कुछ गुनगुनाऊँगा मैं...
याद है तुमने कहा था उस रात 
मुझसे दूर जाते
कितना बेसुरा हूँ मैं...
-मैं फिर तुम्हें खोना नहीं चाहता...

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, जुलाई 24, 2011

चलती सांसो का सिलसिला....

अपनी लम्बी यॉर्क, यू के की यात्रा को दौरान जब अपनी नई उपन्यास पर काम कर रहा था तो अक्सर ही घर के सामने बालकनी में कभी चाय का आनन्द लेने तो कभी देर शाम स्कॉच के कुछ घूँट भरने आ बैठता और साथ ही मैं घर के सामने वाले मकान की बालकनी में रोज बैठा देखता था उस बुजुर्ग को.

उसके चेहरे पर उभर आई झुर्रियाँ उसकी ८० पार की उम्र का अंदाजा बखूबी देती. कुर्सी के बाजू में उसे चलने को सहारा देने पूर्ण सजगता से तैनात तीन पाँव वाली छड़ी मगर उसे इन्तजार रहता दो पाँव से चल कर दूर हो चुके उस सहारे का जिसे उसने अपने बुढ़ापे का सहारा जान बड़े जतन से पाल पोस कर बड़ा किया था. जैसे ही वह इस काबिल हुआ कि उसके दो पैर उसका संपूर्ण भार वहन कर सकें, तब से वो ऐसा निकला कि इस बुजुर्ग के हिस्से में बच रहा बस एक इन्तजार. शायद कभी न खत्म होने वाला इन्तजार.

बालकनी में बैठे उसकी नजर हर वक्त उसके घर की तरफ आती सड़क पर ही होती. साथ उसकी पत्नी, शायद उसी की उम्र की, भी रहती है उसी घर में. वो ही सारा कुछ काम संभालते दिखती. कुछ कुछ घंटों में चाय बना कर ले आती, कभी सैण्डविच तो कभी कुछ और. दोनों आजू बाजू में बैठकर चाय पीते, खाना खाते लेकिन आपस मे बात बहुत थोड़ी सी ही करते. शायद दोनों को ही चुप रहने की आदत हो गई थी या इतने साल के साथ के बाद अकेले में एक दूसरे से कहने सुनने के लिए कुछ बचा ही न हो. कुछ नया तो होता नहीं था. वही सुबह उठना, दिन भर बालकनी में बिताना और ज्यादा से ज्यादा फोन पर ग्रासरी वाले को सामान पहुँचाने के लिए कह देना. पत्नी बीच बीच में उठकर गमलों में पानी डाल देती. उनमें भी जिसमें अब कोई पौधा नहीं बचा था. जाने क्या सोच कर वो उसमें पानी डालती थी. शायद वैसे ही, जैसे जानते हुए भी कि अब बेटा अपनी दुनिया में मगन है, वो कभी नहीं आयेगा- फिर भी निगाह घर की ओर आने वाली सड़क पर उसकी राह तकती.

उनके घर से थोड़ा दूर सड़क पार उसकी पत्नी की कोई सहेली भी रहती थी. नितांत अकेली. कई महिनों में दो या तीन बार इसको उसके यहाँ जाते देखा और शायद एक बार उसे इनके घर आते. जिस रोज वो उसके यहाँ जाती या वो इनके यहाँ आती, उस शाम पति पत्नी आपस में काफी बात करते दिखते. शायद कुछ नया कहने को होता.

अक्सर मेरी नजर अपनी बालकनी से उस बुजुर्ग से टकरा जाती. बस, एक दूसरे को देख हाथ हिला देते. शायद उसने मेरे बारे में अपनी पत्नी को बता दिया था. अब वो भी जब बालकनी में होती तो हाथ हिला देती. हमारे बीच एक नजरों का रिश्ता सा स्थापित हो गया था. बिना शब्दों के कहे सुने एक जान पहचान. मैं अक्सर ही उन दोनों के बारे में सोचा करता. सोचता कि ये बालकनी में बैठे क्या सोचते होंगे?  क्या सोच कर रात सोने जाते होंगे और क्या सोच कर नया दिन शुरु करते होंगे?

मुझे यह सब अपनी समझ के परे लगता. कभी सहम भी जाता, जब ख्याल आता कि यदि इस महिला को इस बुजुर्ग के पहले दुनिया से जाना पड़ा तो इस बुजुर्ग का क्या होगा? मैने तो उसे सिर्फ छड़ी टेककर बाथरुम जाते और रात को अपने बिस्तर तक जाने के सिवाय कुछ भी करते नहीं देखा. यहाँ तक की ग्रासरी लाने का फोन भी वही महिला करती. तरह तरह के ख्याल आते. मैं सहमता, घबराता और फिर कुछ पलों में भूल कर सहज हो जाता हूँ.

मैं भरी दुपहरी अपने बंद अँधेरे कमरे में ए सी को अपनी पूरी क्षमता पर चलाये चार्ल्स डी ब्रोवर की पुस्तक ’फिफ्टी ईयर्स बिलो ज़ीरो’ को पढ़ता आर्कटिक अलास्का की ठंड की ठिठुरन अहसासता भूल ही जाता हूँ कि बाहर सूरज अपनी तपिश के तांडव से न जाने कितने राहगीरों को हालाकान किये हुए है. कितना छोटा आसमान बना लिया है हमने अपना. कितनी क्षणभंगुर हो चली है हमारी संवेदनशीलता भी. बहुत ठहरी तो एक आँसूं के ढुलकने तक.

समय के पंख ऐसे कि कतरना भी अपने बस में नहीं तो उड़ चला. कनाडा वापसी को दो तीन दिन बचे. उस शाम बहाना भी अच्छा था कि अब तो वापस जाना है और कुछ मौसम भी ऐसा कि वहीं बालकनी में बैठे बैठे नियमित से एक ज्यादा ही पैग हो गया स्कॉच का. शराब पीकर यूँ भी आदमी ज्यादा संवेदनशील हो जाता है और उस पर से एक्स्ट्रा पी कर तो अल्ट्रा संवेदनशील. कुछ शराब का असर और कुछ कवि होने की वजह से परमानेन्ट भावुकता का कैरियर मैं एकाएक उन बुजुर्गों की हालत पर अपने दिल को भर बैठा याने दिल भर आया उनके हालातों पर. सोचा, आज जा कर मिल ही लूँ और इसी बहाने बता भी आऊँगा कि दो दिन में वापस कनाडा जा रहा हूँ. एक बार को थोड़ा सा अनजान घर जाते असहजता महसूस हुई किन्तु शराब ने मदद की और मैं अपनी सीढ़ी से उतर कर उनकी सीढ़ी चढ़ते हुए उनकी बालकनी में जा पहुँचा.

वो मुझे देखकर जर्मन में हैलो बोले. जर्मन मुझे आती नहीं, मैने अंग्रेजी में हैलो कहा. हिन्दी में भी कहता तो शायद उनके लिए वही बात होती क्यूँकि अंग्रेजी उस बुजुर्ग को आती नहीं थी. इशारे से वो समझे और इशारे से ही मैं समझा. फिर उनका इशारा पा कर उनके बाजू वाली कुर्सी पर मैं बैठ गया. उनकी गहरी ऑखों में झांका. एकदम सुनसान, वीरान. मैने उनके हाथ पर अपना हाथ रखा. भावों ने भावों से बात की. शायद एक लम्बे अन्तराल के बाद किसी तीसरे व्यक्ति का स्पर्श पा दबे भावों का सब्र का बॉध टूटने की कागर पर आ गया हो. उनकी आँखें नम हो आईं. मैं तो यूँ भी अल्ट्रा संवेदनशील अवस्था में था. अति संवेदनशीलता में शराब आँख से आँसू बनकर टप टप टपकने लगी. बुजुर्ग भी रो दिये और मेरा जब पूरा एक्स्ट्रा पैग टपक गया, तो मैं उठा. उन्हें हाथ पर थपकी दे ढाढस बँधाई और उन्हें नमस्ते कर बिना उनकी तरफ देखे सीढ़ी उतर कर लौट आया.

सुबह उठकर जब उनकी बालकनी पर नजर पड़ी तो वह बुजुर्ग हाथ हिलाते नजर आये. एक बार फिर मेरी आँख नम हुई यह सोचकर कि कल से यह मेरा भी इन्तजार करेंगे हाथ हिलाने को. आँख में आई नमी ने अहसास करा दिया कि कल जो बहा था वो शराब नहीं थी. दिल की किसी कोने से कोई टीस उठी थी उस एकाकीपन और नीरसता को देख, जो आज न जाने उस जैसे कितने बुजुर्गों की साथी है....

Old-Man

सुबह जागते
चलती सांसो का सिलसिला
दिलाता है याद मुझे..
फिर एक दिन
फिर एक शाम
और
फिर एक रात
बाकी है अभी...

-समीर लाल ’समीर’

<<इस बीच यू के यात्रा की व्यस्तता में पोस्ट डालने का क्रम कम होकर भी जारी तो रहा ही किन्तु मुझे याद ही न रहा कि कब मेरी ५०० पोस्ट पूरी भी हो गईं और आज यह पोस्ट ५०५ वीं है>>

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गुरुवार, जुलाई 21, 2011

बड़ी दूर से आये हैं….ब्लॉगर मिलने!!!

उत्साहित तो थे ही लन्दन जाकर मित्रों से मिलने को और साथ ही सुबह ७:५० की बस जानी थी यॉर्क बस अड्डे से. ५ बजे ही उठ गये. सूरज महाराज पहले से ही तैनात थे खिड़की के रास्ते. जाने कब सोते हैं और कब उठते हैं यहाँ गर्मियों में. रात १० बजे तक तो आसमान में टहलते नजर आते हैं और सुबह ४ बजे से फिर आवरगी. पावर के नशे में नींद नहीं आती होगी शायद. विचित्र नशा होता है यह भी.
खैर, दो दिन का सामान, लैपटॉप, एक किताब बाँध कर निकल पड़े घर से ७.१५ बजे बस अड्डे के लिए और ठीक ७.५० पर बस चल पड़ी लन्दन ले जाने को. दीपक मशाल से पहले ही भारत से बात हो गई थी कि वह शाम ६ बजे तक भारत से लन्दन पहुँच जायेंगे. होटल बुक कर लिया था, वहीं हम दोनों का रुकना तय हुआ. दिन इतवार था अतः तय पाया कि शाम होटल में बिताई जायेगी इतने दिनों की ढेरों बात करते और फिर अगले दिन सुबह शिखा वार्ष्णेय जी के घर धावा बोला जायेगा. वहीं डॉ कविता वाचक्नवी जी भी आ जायेंगी. नाश्ता, लंच, शाम का नाश्ता, रात रास्ते के लिए पैक करवा कर एक बार में ही पूरा हिसाब किताब तय कर शाम को अपने अपने घरों के लिए वापसी, मैं यॉर्क, दीपक नार्थ आयरलैण्ड और कविता जी अपने घर लन्दन में ही लौट जायेंगे. इस तरह एक अन्तर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की योजना बनी जिसमें लन्दन, कनाडा और आयरलैण्ड का ब्लॉगर मिलन होना तय पाया था.
रास्ता आरामदायक, दर्शनीय और ’दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ फिल्म के सरसों के खेत की याद दिलाता मजेदार था. ७.५० को बस चली और बादलों ने सूरज को आ घेरा. बरसे नहीं, बस घेर कर बैठ गये. शायद सूरज से पूर्व में समझौता करके आये थे कि बस, कुछ देर घेर कर बैठे रहेंगे और फिर निकल जायेंगे. बरसे बरसायेंगे नहीं सिर्फ जनता को बरसात का मनोरम सपना दिखायेंगे. मगर दो घंटे बीत गये. बस रास्ते में एक शहर मिडलैण्ड भी पहुँच गई, जहाँ से लन्दन के यात्री ट्रेन में बैठा दिये जाते हैं उसी टिकट पर लन्दन जाने को मगर बादल थे कि हटने का नाम ही न लें. ट्रेन भी १२.३० बजे लन्दन किंग क्रास इन्टरनेशनल स्टेशन पहुंच गई और बादल अपना घेराव जारी रखे हुए थे अनशन पर डटे से नजर आये.
इस बीच मैने मेन से लोकल स्टेशन बदला. मकड़ी के रंग बिरंगे जालेनुमा उलझा उलझा नक्शा देख समझ कर लन्दन ट्यूब ट्रेन (शहर के भीतर चलने वाली ट्रेन) पकड़ी और निकल पड़ा उस जगह जाने को जहाँ होटल मौजूद था और वो था शिखा जी के घर से मात्र १० मिनट की दूरी पर. एक स्टेशन पर ट्यूब बदलकर फिर जिस स्टेशन पर उतरा, वही स्टेशन शिखा जी के घर जाने के लिए उतरने का उचित स्थान है मगर वहाँ से होटल पैदल जाने के लिए जरा ज्यादा दूर और टैक्सी पकड़ने के लिए जरा ज्यादा नजदीक था सो बीच का रास्ता संभालते हुए सामने से उस दिशा में जाती बस पर चढ़ लिए. १० मिनट में होटल पहुँच गये.
दोपहर का तीन बजने को था. कमरे में चाय बना कर पी गई और लैपटॉप कनेक्ट करके बैठ गये. दीपक का इन्तजार शुरु हुआ. इस बीच जाने कहाँ से ख्याल उड़ते आये और विदेश का धन- भगवान पद्मनाभम वाला आलेख भी लिख गया और पब्लिश करने हेतु शेड्यूल भी कर दिया. खिड़की के बाहर नजर पड़ी तो देखा बादल सूरज द्वारा खदेड़े जा रहे हैं. लगा कि पूर्व समझौते के अनुसार समय पर न हट कर जनता याने मेरी पसंद देखते हुए उनके अनशन पर डटे रहने से खफा सूरज ने लाठी चार्ज करवा दिया हो. कोई बादल कहीं भागा, कोई कहीं कूदा, कोई कहीं काले से सफेद बादल का वेश बदल कर भागा. बादल भी न!! समझते नहीं हैं- उनका क्या है- आज है, कल नहीं होंगे. सूरज को तो हमेशा रहना है. रामलीला मैदान और बाबा रामदेव की याद हो आई बिल्कुल से.
इन्हीं सब में दो घंटे बीत गये. आम जन की भाँति इस अफरा तफरी भरे मौसम का मैने भी आनन्द उठाया. तब तक दीपक का फोन भी आ गया कि एयरपोर्ट पहुँच गया है. १ घंटे में होटल पहुँच जायेगा. भारत से आया था इतने दिन रह कर और वो भी शादी करके तो मैने स्वतः उसके अनुमान को ठीक करते हुए उसके कहे १ घंटे को २ घंटे मानते हुए सोच लिया कि ७.३० से ८ के बीच आयेगा और मैं आसपास के इलाके में घूमने निकल पड़ा.
इल्फोर्ड नामक इलाका- पूरा पाकिस्तान, बंगलादेशी और पिण्ड के सरदारों से भरा पड़ा. सब नौजवान सरदार लेटेस्ट मॉडल के बर्बाद से बर्बाद हेयर स्टाईल, कान में बाली, लगभग घुटने तक झूलती जिन्स, गैन्ग टाईप बनाकर घूमते, लड़कियाँ छेड़ते, गालियाँ बक बक कर बात करते, संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त से नजर आते बड़ा असहज सा वातावरण निर्मित कर रहे थे. जगह जगह देशी दुकानें, रेस्टारेन्ट, पान की दुकानें, साड़ी, ज्वेलरी, सलवार सूट, ग्रासरी से लेकर हर देशी सामान का बाजार. थोड़ा सा परेशान करता माहौल. कुछ देर उस भीड़ भरे माहौल में टहलकर मैं कमरे में वापस आ गया. अनुमान से ज्यादा भारत से अपना आना साबित करते दीपक महाराज ९.३० बजे अवतरित हुए. फिर शुरु हुआ कुछ जामों का दौर, लम्बी चर्चायें, कविताबाजी, खाने का आर्डर और देखते देखते, बतियाते बतियाते, पीते पीते रात दो बजे हालात ऐसे कि बिना गुड नाईट कहे अपने अपने बिस्तर में कब सो गये, पता ही नहीं चला.
सुबह ८ बजे उठकर होटल में ही ब्रेकफास्ट कर लिया और ११ बजे चैक आऊट कर शिखा जी के घर पहुँच गये.
स्वागत की पूरी तैयारी बेहतरीन नाश्ते के साथ. तैयारी देखकर यह बताने की हिम्मत ही नहीं हुई कि नाश्ता करके आये हैं बल्कि अफसोस ही हुआ कि क्यूँ करके आ गये. खैर, एक दिन की बात थी तो फिर से काजू, बदाम से लेकर तले हुए प्रान्स खाये गये. कविता जी लन्च टाईम तक पहुँचने वाली थी. अतः शिखा जी द्वारा बनाई मनपसंद चाय के साथ बातों का सिलसिला प्रारंभ हुआ. किताबें दी गईं. संगीता स्वरुप जी कविता की किताब प्राप्त की गई. शिखा जी से उनकी आने वाली किताब, हाल के हिन्दी सम्मेलन और जावेद अख्तर, शबाना आज़मी और प्रसून जोशी से मुलाकात का ब्यौरा और नेहरु सेन्टर की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली गई. तब तक कविता जी आ गई.

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लन्च हुआ. एक से एक लज़ीज़ पकवान बनाये थे शिखा जी ने. कुछ ज्यादा ही खा लिए. फिर चाय का दौर.
कविता जी के आ जाने से पुनः ढ़ेर वार्तालाप. उनकी रचना यात्रा, ब्लॉगिंग पर चिन्तन. फेसबुक पर पलायन करती ब्लॉगरों की भीड़. इस व्यवहार पर अपने अपने मत. एग्रीगेटर्स की भूमिका और आवश्यक्ता. कमेंटस की महत्ता आदि पर विमर्श किया गया.
इस बीच दीपक को मौसम की बदलाव की मार पड़ती रही और उनकी नाक धीरे धीरे दिल्ली के पीक ट्रेफिक की स्थिति को प्राप्त होते हुए लगभग बन्द हो गई. दवाई खाकर वो इस लायक हुए कि अब चुपचाप सो जाये. अतः वह उपर सोने चले गये. तभी शिखा जी के प्यारे प्यारे बेटा और बेटी भी स्कूल से आ गये. दोनों ने मिलकर हम लोगों की तस्वीरें खींची.
घंटा भर सो लेने के बाद दीपक इस लायक हुए कि फोटो खिंचवा कर ट्रेन पकड़ी जाये और वो एयरपोर्ट जायें और मैं यॉर्क के लिए ट्रेन लेने किंग क्रास स्टेशन. कविता जी, मैं और दीपक एक साथ ही ट्यूब ट्रेन से शिखा जी की मेहमान नवाजी का लुत्फ उठा कर गदगद हो निकले. रास्ते में पहले कविता जी उतरी. फिर चन्द स्टेशन बाद दीपक और आखिर में मैं. रात ११ बजे जब ट्रेन से यॉर्क घर वापस पहुँचा, तो दीपक का फोन आ चुका था कि वो आयरलैण्ड पहुँच चुके हैं और घर जाने के लिए एयरपोर्ट से बस ले रहे हैं.
इन दो दिनों में दीपक जितना हमारे साथ थे, उससे दुगना भारत में थे. एक माह भी पूरा नहीं हुआ है अभी विवाह को. उनकी पत्नी का भारत से लगातार फोन पर उनके मूमेन्टस का लिया जाना और दीपक का बार बार किनारे जाकर बात करना मजा दे रहा था. दीपक इस मिलन और अपनी भारत यात्रा पर दो दिन पूर्व लिख ही चुके हैं. शायद शिखा जी और कविता जी की कलम भी चले.
एक यादगार यात्रा, ढेरों वार्तालाप, मधुर कभी न भूल सकने वाली मुलाकात साथ में सहेज लाये हैं. लगा ही नहीं कि सबसे पहली बार मिले हैं.

कुछ चित्र देखें इस मिलन के.

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रविवार, जुलाई 17, 2011

स्पेस- एक तलाश!!!!

यू के का यॉर्क शहर - सालों साल धूप और बादलों के बीच चलती ठिठोली. कभी धूप जीत जाती तो कभी बादल जीत कर रिमझिम बरस जाते हैं. एक सिलसिला सा है जो कभी नहीं रुकता. शहर के भीतर पैदल चलने का शौक या पतली एकल मार्गी सड़को पर गाड़ी न ले जा पाने की मजबूरी- सड़को के किनारे या किले की दीवार पर पैदल चलते लोगों का हुजूम. उसी भीड़ का पिछले २० दिनों से नित हिस्सा बनता मैं, उद्देश्य शहर देखना और उसकी धड़कनों को समझना. लेकिन यह बाकी भीड़ कहाँ जाती होगी? कुछ ठीक ठीक कहना मुश्किल ही लगता है. सुबह एक निश्चित समय तक तो काम पर जाते लोग समझे जा सकते हैं मगर दिन भर वही रफ्तार. पर्यटकों की चाल की रफ्तार तो इतनी नहीं होती.

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किले की दीवार

ज्यादा वाशिंदे अपना रिटायरमेन्ट गुजारते ही नजर आते हैं. मकानों के बाहर से गुजरते उन मकानों के भीतर बसते सन्नाटे की चीख जहाँ तहाँ सुनाई दे ही जाती है. किसी खिड़की से कुर्सी पर बैठी आसमान ताकती दो बूढ़ी आँखे- बहुत समय तक यादों में आपका पीछा करती हैं. कौन थकता है, नहीं मालूम मगर मुश्किल से ओझल होती हैं स्मृति पटल से.
इस बीच अपनी यॉर्क यात्रा के दौरान मेनचेस्टर, लीडस, नॉरिच, लन्दन और स्कॉटलैण्ड की ऐतिहासिक नगरी एडिनबर्ग (कहा जाता है एडिनब्रा) की यात्रा पर भी निकल जाता हूँ. हर शहर की अपनी तरंग, अपना स्पंदन, अपनी गति, अपना स्वरुप और अपनी एक अलग खुशबू. बोली के भाषाई स्तर पर जहाँ इंगलैण्ड के लोग बोलते वक्त गोली चलाते महसूस होते हैं वहीं स्कॉटलैण्ड के लोग कोई लयबद्ध गीत गाते हुए.
यॉर्क वापस आकर पाता हूँ कि प्रकृति और मानव आर्किटेक्चर लन्दन से इतना करीब है कि यॉर्क की लायब्रेरी के सामने मैदान की बैंच पर पीली धूप सेंकते अक्सर नज़रें निर्मल वर्मा की ग्रेता को तलाशने लगती हैं कि शायद कहीं इन फूल वाली घासों के मैदान के बीचों बीच खड़े तीन एवर ग्रीन पेड़ों के साथ वाले मोटे तने वाले ओक के पेड़ के पीछे से कोई प्यारी सी आवाज उठेगी- आप पकड़े गये....अब आप नहीं जा सकते हैं बिना इन पेड़ों को खाना खिलाये. लेकिन न तो ग्रेता दिखी और न वो आवाज उठी. शायद इसलिए कि निर्मल वर्मा की कहानी ’दूसरी दुनिया’ में जिक्र लन्दन शहर का है. जाने क्यूँ मैं फिर भी कुछ मुरझाये फूल और बिखरे सूखे पत्तों को बटोर कर उन पेड़ों की जड़ों के पास रख देता हूँ, यह सोच कि शायद भूखे होंगे. इन शहरों की यात्राओं पर विस्तार से कभी अलग से जिक्र करने का मन है. 
यॉर्क शहर में मुख्य मार्ग से कुछ दूरी पर शहर के बीचों बीच से बहती, अपने दोनों बाजूओं के विस्तार को मानवों द्वारा अपने कांक्रीटी टहल मार्ग द्वारा बाँधी हुई दो दो नदियाँ, ऊज़ एवं फॉस, के किनारे किनारे लगभग लगातार टहलने वालों का तांता/ तो कुछ कुछ दूरी पर चंद कुर्सियों टेबलों को लगाकर किसी पब या बार की बैठक और बीयर सुटकते लोग. चाय के शौकीनों के लिए टी हाऊस, वह भी जगह जगह हर थोड़ी दूर पर. भारतीय पकवानों की रेस्टारेन्टों की बहुलता मगर अधिकतर के मालिक पाकिस्तान या बंगला देश से आये हुए/ गोरों की एक बड़ी भीड़ को रोज आकर्षित करते.
घर से मुख्य मार्ग पर आने के बाद गाड़ी जब तक ठीक ठीक एकरस रफ्तार पकड़े, तब तक आप अपने आपको शहर से बाहर पाते हैं - ऐतिहासिक धरोहरों/ पुराने किले और अनुपयोगी एबेन्डन्ड भवनों से पटा पड़ा शहर/ भारत के किसी गाँव की अधकच्ची दीवारों पर चिपके पुरानी फिल्मों के उधड़े हुए इश्तेहारी पोस्टरों के तरह कुछ खुले अधखुले औद्योगिक प्रतिष्ठान एवं सेल्फ स्टोरेज हाऊस/ देखने के लिए किले की दीवालें/ एक अदद रेल्वे का म्यूजियम और उनके बीच से मूँह निकाल कर झाँकता विशालकाय यॉर्क मिनिस्टर -एक केथेड्रल- भगवान के निवास का एक भव्य भवन एवं साथ ही नई आबादी के लिए बनते दड़बेनुमा मकान/ एक दूसरे से टकराते सटे सटे फ्लैट.

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यॉर्क मिनिस्टर

बेतरतीब पुरातन विरासतों को जतनपूर्वक सहेजता आर्किटेक्चर. सरकारी इमारतों को मुहैय्या की गई ढेर सारी जगह. बीच बाजार में नट नटनियों के बरसों से दोहराये जा रहे करतबों को देखने घंटों तक लगा जमावड़ा. छोटे छोटे से पब और बारों में बीयर की कड़वाहट को सिगरेट के धुँए में उड़ाते प्राचीन भव्यता की सुधि लेने जाने कहाँ कहाँ से आए नाउम्मीद अहसासों के पालक भिन्न भिन्न परिवेशों के सेलानी. पतली पतली गलियों नुमा सड़कें/उस पर से गलियों की असीमित ख्वाहिश, दो भवनों के बीच झीरी में तब्दील होती/ जिन गलियों में घुस कर घूम लेने की गुँजाईश दिखी, उनकी ईंट जड़ित जमीन मुझे एहसास कराती कि मैं बनारस की गलियों में घूम रहा हूँ- गलियों में आती हवा में घोड़े की लीद की गंध और दीवारों से उठती सीलन मेरी इस सोच को और पुख्ता करती लेकिन शीघ्र ही अपनी विशिष्ट गंध से आकर्षित करती पान, जलेबी और दूध की दुकानों का आभाव और पंडों का न दिखना मुझे वापस यॉर्क के धरातल पर ला पटकता.
दिमाग को घुमा देने वाले हर ओर से आये मार्गों को जोड़ते गोल चक्कर/ हर प्रश्न के जबाब में स्पेस की कमी का रोना - ये शहर अखबारों और पत्रिकाओं का नव लिख्खाड़ों के साथ किए जा रहे व्यवहार की नुमाईश लगता है मुझे. इनकी नजरों और सोच में जो कुछ कालजयी रचा जाना था, रचा जा चुका. अब स्पेस नहीं है इन तथाकथित बेशउर नवलेखकों के लिए और इनसे भला कालजयी रचे जाने की उम्मीद भी कहाँ है!! जो भी स्पेस दे दो, वो अहसान ही है!!

किले की दीवार नाखून से खरोच कर देखता हूँ. पक्के पुराने पत्थर. नाखून चोटिल हो जाते हैं, पत्थर पर कोई निशान नहीं उभरता.

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रविवार, जुलाई 10, 2011

विदेश का धन!!!

आज वो दिन आ ही गया जब आप सबके सामने में बरसों से छिपाया राज खोल दूँ.

राज की खूबी ही यही होती है कि उसे एक न एक दिन खुल ही जाना होता है. खुला खुलाया कभी राज नहीं हो सकता. राज को राज होने के लिए राज को कुछ समय बंद रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना की राज को राज होने के लिए उसका खुलना.

यह बात तो सर्वविदित है कि सभी प्राणियों के हृदय में ईश्वर का वास होता है. करोड़ों भगवान हैं. किसी के हृदय में राम रहते होंगे, किसी में श्री कृष्ण. जो राज मैं खोलने जा रहा हूँ वो यह है कि मेरे हृदय में भगवान श्री पद्मनाभम रहते हैं.

जब मनुष्य एक विशिष्ट अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो सर झुका कर अपने ही हृदय में ईश्वर के दर्शन कर सकता है और उससे वार्तालाप करने हेतु सक्षम हो जाता है. फिर वह उसी के बताये मार्ग का अनुसरण करता है जैसा कि मैं पिछले दो हफ्ते से भगवान पद्मनाभम के बताये मार्ग पर चल निकला हूँ.

तो हे ऑडनेरी प्राणियों (क्यूँकि मैं जानता हूँ आपको मेरी बात मजाक लग रही होगी...मात्र इस वजह से क्यूँकि आपने अभी उस अवस्था को न तो प्राप्त किया है और न ही इस विषय में आपको कोई ज्ञान है- मुझ जैसे बिरले ही हैं जो मृत्यु पूर्व इस अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं वरना तो..आप जैसे सांस के आने जाने को जीवन मान लेने वालों से दुनिया पटी पड़ी है..आप अपवाद नहीं हैं, दरअसल अपवाद मैं हूँ) कल जब पुनः मैं ध्यान की गहराई में उतरा तो मेरी भगवान पद्मनाभम से मेरी चर्चा हुई. काफी चिन्तित थे. कहने लगे कि विदेशों से पैसा वापस लाने के मामले में मैं रामदेव के साथ हूँ. इस बात पर उन्होंने तीन बार जोर दिया कि भारत का पैसा वापस भारत में आना ही चाहिये.

मैं उनके विचार सुन, देश भक्ति देख भावविभोर हुआ जा रहा था कि एकाएक वो मेरी तरफ मुखातिब हुए और कहने लगे कि तुम तो अब कनाडा में आकर बस गये हो. यहाँ की नागरिकता भी ले ली है. घर द्वार भी बना लिया है. तुम्हारे हृदय में मेरा निवास है, अतः मैं भी अब कैनेडियन नागरिक कहलाया और भारत मेरे लिए विदेश हुआ. अतः हे मेरे प्रिय मकान मालिक, मैं आपको पॉवर ऑफ अटार्नी देता हूँ कि विदेश में रखा मेरा धन आप यहाँ ले आईये और आज जिस विषय को लेकर पूरा भारत चिन्तित है, उस विषय में प्रथम कदम आप उठाकर एक मानक स्थापित कर दिजिये ताकि भारत के नेताओं की भी आँख खुले और वो भी अपना धन विदेशों से वापस लेते आवें. किसी का धन हो, विदेश में शोभा नहीं देता. और तुम तो जानते हो कि मैं भगवान हूँ. सबके लिए एक सरीखे नियम बनाता हूँ. वो तो इन्सान तोड़ मरोड़ कर अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें अपना लेते हैं-सुवर्णों के लिए अलग, दलितों के लिए अलग, रईस के लिए कुछ और, गरीब के लिए ठेंगा. यहाँ तक कि जेल तक अपराधी अपराधी में फरक-तिहाड़ के भीतर तक राजा के लिए कुछ और, प्रजा के लिए कुछ और, कलमाड़ी के लिए कुछ और, कलमूंही के लिए कुछ और. हद दर्जे का  मैन्युपुलेशन है भई इन्सानों की नगरी में.

फिर भगवान श्री पद्मनाभम ने अपनी सुरीली आवाज को आदेशात्मक पुट देते हुए आगे कहा कि इस मामले में कोई ना-नुकुर नहीं सुनना चाहता हूँ. ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही या अभी हाई सीज़न में टिकट मँहगी पड़ रही है आदि बहाने मेरे सामने लाने की जरुरत नहीं है. आप तुरंत सामान पैक करिये. भारत जाईये और जितने कन्टेनर लोड बने, पूरा एक बार में लाईये. जैसे पांच सुरंगे खुलीं वैसे ही छठवी भी खुलवा कर लोड करवा लिजिये.

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मैने चेताया कि भगवन, वहाँ छठवें चैंबर के दरवाजे पर साँप बना है और राजवंश वाले बता रहे हैं कि उसे खोलना अपशकुन होगा.

भगवान मुस्कराये और बोले, दरवाजे पर जो सांप बना है, उसकी चिन्ता मत करो. वो अपशकुन नहीं है. वो मेरी १५० साल पहले की दूरदृष्टि है. मैने उसी वक्त जान लिया था कि जब इस मुखौटे के लोग देश पर राज करने लगेंगे, तब जरुरत हो आयेगी कि सारा धन वहाँ से हटा लिया जाये. बस, इसीलिए मैने उनकी आकृति आखिरी सुरंग पर काढ़ दी थी ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये. तुम तो जानते ही हो कि मुझे चित्रकारी का शुरु से शौक रहा है. अपने मंदिरों में भी खूब नक्काशी कराया करता था.

अब तक मैं उनकी बात सुनता रहा किन्तु मन में बस एक ही प्रश्न था कि कहीं भारत सरकार तो इसे कनाडा लाने में अडंगा नहीं डालेगी. मैने अपनी जिज्ञासा भगवान श्री पद्मनाभम के श्री चरणों में रखी याने कि अपने हृदय के निचले हिस्से में.

वे मुस्कराये और कहने लगे कि ये रामदेव किस दिन काम आयेंगे. उनको फिर बैठाल देंगे रामलीला मैदान में. अबकी बार नये नारे के साथ: विदेश में रखा देश का धन वापस लाओ और देश में रखा विदेश का धन वापस भेजो. इस बार मंच भी डबल साईज का बनवा देंगे क्यूँकि मुद्दा भी डबल साईज़ का है.  सरकार समझाने से तो समझती नहीं है मगर कन्फ्यूज कर दो तो तुरंत मान जाती है. लोकपाल बिल के लिए कन्फ्यूजन में मान ही लिया था. वो तो बाद में समझ आया कि जिस डाली पर बैठे हैं, उसी पर कुल्हाड़ी के वार करने का वादा कर बैठे तो अब इधर उधर भाग रहे हैं.

तो मित्रों, मैं भगवान पद्मनाभम जी आदेश कैसे टालूँ? आना ही पड़ेगा उनकी संपदा लेने. कुछ बांटना भी पड़ा तो भगवान की तो आदत ही है प्रसाद देते रहने की. प्रसाद समझ कर बांट देंगे (मैक्स ३०% तक की तो परमिशन भी ले ली है भगवान जी से- वो भी समझते हैं कि इसके बिना कहाँ गुजारा..). लेकिन भगवान के आदेश का पालन करने के लिए जी जान लड़ा देंगे.

देशवासियों, मेरा साथ दो. एक नई क्रांति का बिगुल बजाओ: विदेश का धन वापस भेजो!!!!

मुझे यह भी जानकारी है कि अभी बहुत से लोग आपको गुमराह करने आयेंगे. कुछ व्यंग्यकार कहेंगे कि असल हकदार वो हैं, फिर नेता तो लगभग सभी फिराक में रहेंगे कि असली हकदार वो हैं मगर मित्रों, आप सत्य का साथ दिजिये. मेरे साथ आईये और नारा बुलंद करिये: विदेश का धन वापस भेजो!!!!

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कनाडा आ बसा
मन करता
तुम्हारी तरह
छ्त पर लेट
निहारुँ चाँद तारों को
रचूँ उन पर कोई कविता....

मकानों की बनावट ऐसी
न छत पर चढ़ना नसीब
न लेट चाँद तारों को निहारना..

समझा लेता हूँ खुद को
यह कह कर कि
मन का क्या है
वो तो भारत जाकर भी मचलता है
नेताओं की ईमानदारी पर
कोई कविता रच डालने को.....

-मन कितना पागल होता है!!!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, जून 29, 2011

माई.......

एक चार लाईन की कथा कहीं पढ़ता था, उसी से प्रेरित हो इस गीत का मुखड़ा उभरा और फिर ढल गया एक पूरे गीत में:

sunami

माँ को उसकी निगल गया था, सुनामी का ज्वार उबल कर
खड़ा किनारे वो दरिया के, लहरें छूती उछल उछल कर
कहता वो नादान सा बच्चा, कितना भी तुम पाँव को छू लो
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.

माँ मर कर भी जिंदा रहती, हर बच्चे के अहसासों मे
खुशबू बन कर महका करती, आती जाती हर सांसों में.
जीवन के इस कठिन सफर मे, यूँ चलना आसान नहीं है
माँ रहती है साया बन कर, मर कर भी आराम नहीं है...

हर बच्चे का सारा बचपन, उसके संग ही जाये फिसल कर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.

हर मौसम माँ से होता था, माँ गर्मी की रातें थीं
माँ सर्दी की धूप सुनहरी, माँ रिमझिम बरसातें थीं
होली और दीवाली भी तो, माँ के संग आबाद रही
बच्चे की सारी खुशियाँ भी, उसके संग में साथ बही..

कोमल मन है कोमल तन है, क्या बीती है उसके दिल पर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर

माँ थी सुबह, माँ ही दुपहरी, माँ ही उसकी शामें थीं
अँधियारी रातों मे रोशन, माँ की ही मुस्कानें थी
सन्नाटा घर में पसरा है, माँ जब से उस पार गई
बाबू जी की हालत भी अब, बेबस और लाचार हुई

बच्चा एक उम्मीद को थामें, नित आता है दूर से चल कर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.


-समीर लाल ’समीर’

इसे सुनना चाहें, तो यहाँ सुनें:



विडिओ यहाँ देखें:

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रविवार, जून 26, 2011

बचपन के दिन भुला न देना....

ठीक ठीक तो याद नहीं किन्तु शायद दूसरी या तीसरी कक्षा में रहा हूँगा. सरकारी कॉलोनी का माहोल. सब अड़ोस पड़ोस के घर एक दूसरे के जानने वाले.

हमारे एकदम पड़ोस के घर में एक मेरी ही हमउम्र लड़की रहती थी. नाम था डॉली. सभी दोस्त दिन भर साथ खेलते, वो भी हमारे साथ खेलती थी. एकदम गोरी थी और सुन्दर भी. मुझे डॉली बहुत भाती थी. मैं उसके साथ अकेले में भी बहुत बात करता और खेलता.

उसकी तरफ मेरा खास रुझान और आकर्षण देख कर सब बड़े भी मेरा खूब मजाक बनाते.

सब बड़े पूछते कि तुम बड़े होकर किससे शादी करोगे और मैं नन्हा बालक सहज ही कहता कि डॉली से.

बड़ो का क्या है- बिना बालमन पर हो रहे आघात को विचारे वो कहते कि डॉली तो इतनी गोरी है, वो क्यूँ तुझ जैसे कल्लू राम से शादी करेगी?

मुझे बड़ा बुरा लगता और मैं परेशान हो उठता कि मेरा रंग काला क्यूँ हुआ. बच्चों की सोच ही कितनी होती है आखिर. दिन दिन भर इसी उधेड़ बून में रहता.

इसी सोच और परेशानी में एक दिन मैने डॉली से पूछ ही लिया कि वो आखिर इतनी गोरी कैसे है? क्या करती है अपने आपको इतना गोरा बनाने के लिए?

डॉली के घर का माहौल थोड़ा हाई स्टेन्डर्ड का था. उस जमाने में भी उसके घर में लोग चम्मच से चावल दाल खाते थे. वो खुद भी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ती थी और घर में भी अंग्रेजों का सा माहौल था. उसके घर में जब सब सोने जाते थे तो एक दूसरे को गुड नाईट कहते थे और सुबह उठकर गुड मार्निंग. अपनी मम्मी से बाय करके डॉली स्कूल निकलती थी. यह सब बातें उस जमाने के मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक अजूबा सी थी.

मेरे प्रश्न पर उसने बताया कि वो रोज क्रीम खाती है, इसलिए गोरी है.

हम सरकारी स्कूल के हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले नादान बालक. अपनी बुद्धि भर का समझ कर अपने घर लौट आये और शाम को ड्रेसिंग टेबल से उठाकर एक चम्मच अफगान स्नो क्रीम (उस जमाने में चेहरे पर लगाने के लिए यही क्रीम चला करती थी) गोरा होने की फिराक में खा गये. फिर तो बेहिसाब उल्टियाँ हुई. दीदी ने पूछा कि क्या हुआ? कैसे हुआ? तो उसको पूरा किस्सा बताया.

वो हँस हँस कर पागल हो गई और उसने घर भर में सबको बता दिया. इधर हम उल्टी पर उल्टी किये जा रहे थे और घर वाले सब हँसते रहे. गरम दूध वगैरह पिलाया गया, तो तबीयत संभली और फिर दीदी ने बताया कि डॉली क्रीम खाती है का मतलब मलाई खाती है, ऐसा कहा होगा उसने और तुम अफगान स्नो खा गये.

किसी बडे के द्वारा अनजाने में भी  की गई मजाक कोमल मन पर कितना गहरा असर कर सकती है और आहत बालमन अपने भोलेपन में क्या से क्या कर बैठता है. बच्चों से बात करते समय बड़े और समझदार इतना सा ख्याल रखें....काश!!!

खैर, बचपन बीता, कौन जाने वो कहाँ गई? पिता जी की ट्रांसफर वाली नौकरी थी. शहर बदलते गये, दोस्त बदलते गये.

मगर मेरे बहुत बड़े हो जाने तक याने यहाँ तक कि मेरी शादी हो गई, उसके बाद तक भी गाहे बगाहे यह बात निकाल कर कि ये गोरा होने के लिए एक बार अफगान स्नो खा गया था, खूब हँसी उड़ाई जाती रही और हम अपना सा मूँह लिये आजतक उसी रंग के हैं, जिससे भला कौन डॉली शादी करती. 

बालमन कहाँ जानता था कि पूछ सीरत की होती है, सूरत की नहीं. बीबी तो हमको भी गोरी ही मिली और सुन्दर भी.

डॉली की रीसेन्ट तस्वीर तो है नहीं सो अपनी सांट दे रहे हैं. यू के में हैं और तस्वीर भी यॉर्क मे ही कल खींची - अपनी पत्नी के साथ.

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मंगलवार, जून 21, 2011

न्यू अन्ना कन्सलटेन्सी सर्विसेस

पिछले दिनों भारत में प्रकाशित डॉ प्रेम जन्मजेय की पत्रिका ’व्यंग्य यात्रा’ का जनवरी-जून, २०११ अंक प्रकाशित हुआ इस अंक में मेरा यह व्यंग्य भी प्रकाशित हुआ, सम्मानित महसूस कर रहा हूँ.

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-न्य़ू अन्ना कन्सलटेन्सी सर्विसेस-

आज के बाद जब भी कोई अनशन होगा तो अन्ना को याद किया जायेगा. एक विशाल अनशन के साथ यह बात स्थापित हो चुकी है. ध्यान दिजिये स्थापित हुई है, अमर नहीं. आगे बदल भी सकती है मगर निकट भविष्य में संभावनाएँ अति क्षीण हैं. अन्ना की स्टाईल कॉपी की जा रही है.

अन्ना अब मात्र अन्ना न होकर बिगुल हो गये हैं. कहते हैं क्रान्ति का बिगुल. जब भी किसी अनशन की बात उठती है, अन्ना का नाम बज उठता है. अन्ना इन अनशनों को देख सकते हैं, मुस्करा सकते हैं मगर कर कुछ नहीं सकते. स्टाईल पर कॉपी राईट नहीं होता. क्षेत्रिय, शहर स्तरीय, प्रदेश स्तरीय नये नये अन्ना तेजी से ऊग रहे हैं, ऊगते ही लहलहा रहे हैं. जबलपुरिया अन्ना, मध्य प्रदेशी अन्ना, फेस बुकिया अन्ना सब आंदोलन के आकार, व्यापकता और भूमिका के आधार पर अपने आप तय होता जा रहा है.

जल्द समय आयेगा जब किंग जार्ज वन, किंग जार्ज टू आदि की तर्ज पर जबलपुरिया अन्ना प्रथम, जबलपुरिया अन्ना द्वितीय, जबलपुरिया अन्ना जूनियर, जबलपुरिया अन्ना सीनियर का प्रचलन शुरु हो जायेगा.  मेन वाले अन्ना अपना अस्तित्व तलाशते नजर आयेंगे और ये डुप्लिकेट अन्ना नानकराम हलवाई की तरह अपने नाम के साथ जबलपुरिया अन्ना असली वाले, असली जबलपुरिया अन्ना प्रथम, न्यू जबलपुरिया अन्ना, ऑथेन्टिक साऊथ वाला जबलपुरिया अन्ना आदि आदि लिखते नजर आयेंगे.

ऐसे लेटेस्ट ट्रेन्ड अनशनकारी माहौल में यदि आपको शहर में जगह जगह निम्नलिखीत होर्डिंग नजर आने लगें तो आश्चर्य मत करियेगा:

  1. मात्र ६ माह में बनें: सर्टिफाईड अनशनकारी- अन्ना सर की क्लासेस- १ माह की इन्टर्नशिप की नेशनल लेवल अनशन में व्यवस्था ऑन लाईव प्रोजेक्ट.
  2. असली अन्ना इवेन्ट मैनेजमेन्ट कार्पोरेशन- हमारे यहाँ सस्ती दरों पर पूरे अनशन का इवेन्ट मैनेजमेन्ट किया जाता है. पैकेज डील में मीडिया का अरेन्जमेन्ट हमारी गारंन्टी है. (मिनिमम दो चैनल) (प्रति एक्स्ट्रा चैनेल अलग से चार्ज लिया जायेगा). ’१५ अगस्त तक विशेष: डायमन्ड डील में एक ए केटेगरी के फिल्म अभिनेता को अनशन स्थल तक १५ मिनट के लिए समर्थन जाहिर करने हेतु लाया जायेगा.’
  3. अनशन के लिए खादी के कुर्ते पायजामे, गाँधी टोपी एवं गद्दे तकिया किराये पर उपलब्ध हैं. फ्रेम जड़ित चरखा चलाते गाँधी जी की तस्वीर भी किराये पर दी जाती है. ’साऊथ वाले अन्ना टेन्ट हाऊस’
  4. नई दिल्ली स्टेशन, निजामुद्दीन, चाँदनी चौक आदि प्रमुख स्थलों से अनशन स्थल के लिए शटल बस सुविधा- ग्रुप बुकिंग के लिए संपर्क करें. जबलपुरिया अन्ना प्रथम ट्रेवेल्स- ’हमारे यहाँ 2X 2 वातानुकुलित विडियो कोच की व्यवस्था है’
  5. जबलपुरिया अन्ना रचित ’२१ दिन में सफल अनशनकारी कैसे बनें’ -हार्ड बाऊन्ड. मात्र १५० रुपये में. स्टेप बाई स्टेप २१ चेप्टर में विभाजित. एक्स्ट्रा बोल्ड फॉन्ट.
  6. न्यू अन्ना फ्रेश फ्रूट ज्यूस कार्नर- अनशन तुड़वाने के लिए ठंडा एवं फ्रेश संतरे का रस सस्ते दामों पर- असली नागपुरी संतरे का. अनशन स्थल तक पहुँचाने की व्यवस्था.

और भी न जाने क्या क्या!! सोचो तो कितनी बड़ी अर्थ व्यवस्था, रोजगार के अवसर और कितनी बातें जुड़ी है इस अनशन दर्शन के साथ.

ऐसे में जब पिछले दिनों एक व्यंग्यकार ने अनशनकारियों के लिए कुछ नायाब उपाय सुझाये तो लगा कि बड़ा स्कोप है इस फील्ड में कन्सलटेन्सी का. भारतीय हैं तो सलाहकारी तो खून में है यानि कि अपना तो खूनी पेशा की कहलाया. इसी उद्देश्य को मद्देनजर रख कुछ उपाय अनशनकारियों के सफल अनशन के लिए ताकि मीडिया कवरेज मिले और अनशन सफल भवे!!! प्रस्तुत कर रहा हूँ. बाकी विस्तृत विवरण के लिए समय एवं रुपया लेकर मिलें. 

१. अपना अनशन स्थल बोरवेल में कम से कम ५० फीट उतर कर बनायें. मीडिया की चिन्ता न करें, उन्हें वहाँ तक माईक पहुँचाने की पुरानी प्रेक्टिस है. आप वहीं से बैठे मीडिया द्वारा प्रद्दत माईक से अपनी मांगे उठा सकते हैं. मीडिया के लिए यह सर्वाधिक प्रिय स्थल है.

२. यदि आप हिन्दु हैं तो मस्जिद की छत पर और मुसलमान हैं तो मंदिर के कंगूरे पर चढ़कर अनशन पर बैठ जायें. अपनी मांगों के साथ यह धमकी देना कतई न भूलें कि यदि आपने मांग न माने जाने पर कूद कर आत्म हत्या कर ली तो इसकी सारी जिम्मेदारी सरकार के साथ साथ उस कौम की भी होगी, जिसकी पावन स्थली के उपर से आप छलांग लगाने वाले हैं. अनशन का मजहबी रंग मीडिया के घोर आकर्षण का कारण बनेगा, आप निश्चिंत रहें.

३. अनशन की सफलता पर अनशनकारियों के समक्ष मॉडल पूनम पाण्डे के निर्वस्त्र होकर दर्शनार्थ उपलब्ध होने की घोषणा करवा दें. मीडिया कवरेज के साथ साथ अनशनकारियों की उमड़ती भीड़ अन्ना वाले अनशन का रिकार्ड ब्रेक करती नजर आयेगी, इस बात की गारंटी है. भीड़ मीडिया को बुलाने और सरकार को डराने के लिए काफी है.

४. अनशन स्थल पर प्रत्येक बीस नारों के बाद चीयर बालाओं के डांस का इन्तजाम किया जाये जैसे कि धोनी ने छक्का मारा हो. इससे एक तरफ अनशनकारियों में नये उत्साह और स्फूर्ति का संचार होगा, वहीं दूसरी ओर मीडिया को भड़कीला शो भी मिल जायेगा.

५. अनशन शुरु करने के पहले कुछ सपेरों को सेट किया जाये ताकि वो एकाएक अनशन मंच पर सांपों के निकल कर नाचने का प्रबंध कर सकें. ऐसे घटनाक्रम मीडिया को बेहद लुभाते हैं. और फिर जैसे ही मीडिया की कृपा बरपेगी, जनता को मीडिया सुना लेगी और सरकार को तो सुनना ही पड़ेगा.

६. चका जाम, रेल रोको आदि अब पुराने पड़ चुके तरीके हैं. अनशन को नया रंग देने के लिए एयरपोर्ट की हवाई पट्टी पर अपना आसन जमायें और हवाई जहाज रोको की घोषणा के साथ अनशन पर बैठ जायें. रेल रोकने से नेताओं को  कोई फरक नहीं पड़ता. न तो उनको, न उनके परिवार के किसी को रेल से चलना है मगर हवाई जहाज रुकते ही सारे नेता सकते में आ जायेंगे और मीडिया खुद दौड़ती भागती आयेगी.

७.यदि अनशन लम्बा चलाना है तो पानी का जहाज रोको आंदोलन बीच समुन्द्र में डेरा डाल कर चलायें. सालों साल अनशन चलता रहेगा और कोई सुनने वाला भी नहीं मिलेगा. वैसे हवाई जहाज रोको की तरह ही यह मौलिक तरीका शायद मीडिया का ध्यान आकर्षित कर जाये और आपका काम बन जाये.

अंत में अनशन की सफलता का पूरा राज न तो मुद्दे में है. न इस बात पर कि अनशन पर कौन और कैसे बैठा है, यदि आप मीडिया को आकर्षित नहीं कर पाये तो लाख सर पटक लें या आकाश गंगा में चारपाई लगाकर अनशन पर बैठ हवाई मार्ग अवरुद्ध कर लें, कोई नहीं सुनेगा.

 

नोट: जब यह आलेख छपेगा तो मैं टोरंटो से लन्दन के मार्ग में हूँगा. अतः मोडरेशन में हुए विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी.

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शुक्रवार, जून 17, 2011

दो शब्द चित्र

-१-

दमन की मुखालफत
और
सहानुभूति की दरकार ने
बाँट दिया
हजारों
महिला, माता, बहनों, बच्चों, बूढ़ों
और स्वयं सेवकों में!!!!
वरना
लाख से ज्यादा आंदोलनकारी
खड़े थे एकजुट!!!

rdblog

-२-

पुश्त दर पुश्त
देखते सहते
हो गई आदत...
बन गई
एक जीवन शैली..

स्वीकार्य
मानिंद
प्रारब्द्ध अपना..

नई पीढ़ी
खुद बदली..
जुनून में
एक ब एक
सब कुछ
बदल देने की चाहत...

इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!

नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!

-समीर लाल ’समीर’

नोट: अब अगली पोस्ट लंदन पहुँच कर २२ तारीख को.

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रविवार, जून 12, 2011

झैन कथाओं की चपेट में....

इधर कुछ झैन कथायें पढ़ने का संयोग बना. तीन लाईन की कहानी, २५ लाईन के विचार देती. जो पढ़े, वो पढ़े कम, समझे ज्यादा और फिर अलग अलग मतलब लगाये अपनी बुद्धि के अनुरुप और खुश रहे. भीषण दर्शन. बस, मन किया कि कुछ उसी स्टाइल में कोशिश की जाये. देखें और अगर अपने हिसाब से व्याख्या करने का मन करे तो टिप्पणी में दर्ज करें. यदि आपको पसंद आयेगी, तो और कोशिश की जायेगी आगे:

अर्धरात्रि के बाद का उनिंदा हाईवे.
पीछे बायें बाजू की लेन में हाईवे पर अधिकतम गति सीमा १०० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलती एक और कार.
एक ही रफ्तार होने की वजह से सम दूरी बनी हुई है दोनों के बीच.
एकाएक कुछ आलस्य, कुछ मन का भटकाव, कुछ निद्रा का भाव. मेरी रफ्तार कुछ कम होती है...और
बाजू वाली कार पूर्ववत रफ्तार में मुझसे आगे निकल जाती है.
(इति)

 

running-race

ये 
आलस/ भटकन/उदासीनता
ये
उमंग/ लगन/ अनुशासन
ये
हार/नाकामी/विफलता
ये
जीत/कामयाबी/सफलता

उफ्फ़ !!!
-ये जीवन!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, जून 08, 2011

द सर्टीफाइड साहित्यकार- (हि)!!!

बचपन से नुक्कड़ वाले तिवारी साहब के घर के बाहर टंगी नेम प्लेट आकर्षित करती रही:

सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए.,एल एल बी(इला.)

आकर्षण का कारण उनका नाम 'सुन्दर' होना नहीं था बल्कि साथ में नाम के बाद लगी हुई डिग्रियाँ थी.

बी.ए., एल एल बी डिग्रियाँ होती हैं, जो पढ़कर मिलती हैं, यह तो मैं समझदार होते ही जान गया था किन्तु एल एल बी के साथ (इला.) क्या होता है, यह मैं जब कुछ और ज्यादा समझदार होने के बाद भी नहीं समझ सका तो अपनी मूर्खता प्रदर्शित हो जाने की शर्म एवं हिचक को दरकिनार करते हुए एक दिन मेरे मित्र याने उनके बेटे से पूछ ही लिया. आश्चर्यजनक रुप से उसे भी ज्ञात न था. अन्तर बस इतना था कि इसका अर्थ जानने की उसमें कभी जिज्ञासा भी नहीं जागी. अपना अपना स्वभाव होता है. कुछ जिज्ञासु तो जो नहीं लिखा होता, उसके प्रति भी सुनी सुनाई बात के आधार पर जिज्ञासा पाल लेते हैं.

वैसे उसमें जिज्ञासा न जागने का कारण मात्र इतना ही था कि उसकी अज्ञानता को लेकर उसकी घर पर साप्ताहिक पिटाई शुरु से होती रही थी, इस वजह से अपनी अज्ञानता स्व-जाहिर कर वो पिटाई का एक और मौका देने का जोखिम उठाने की ताकत खो बैठा था. न जाने कितनी जिज्ञासायें और विषय उसके बालमन में जन्म लेने के पहले ही इस पिटाई के डर से दम तोड़ देते थे. खैर, पहले तो यह घर घर की कहानी थी. वो तो भला हो कि जमाना बदला तो बच्चों की मार कुटाई रुकी. बालमन अब अनुभवीमन से बात करने की हिम्मत रखता है, समझने समझाने की कोशिश करता है. उसे हिचक नहीं होती. यह एक सकारात्मक परिवर्तन है. बच्चों को हर बात पर मारना बुरी बात है, इस बात को तो जैसे हमारे समय के माँ बाप ने सीखा ही नहीं था.

हालात ये थे कि कई बार तो सुबह सुबह पिता जी पीट चुके होते और अम्मा पूछती कि क्यूँ मारा उसे? उसने तो कुछ किया ही नहीं था. पिता जी बोलते कि नहीं किया तो क्या हुआ.दिन में तो कुछ न कुछ करेगा ही.

फिर सोचता हूँ कि मार कुटाई बुरी बात तो थी लेकिन बुरी बात समझ बहुत जल्द आ जाती है और याद भी लम्बे समय तक रहती है. कोई गाली बकने के लिए आधा शब्द भी बोले तो तुरंत समझ आ जाता है.  लिख कर गाली बकने के लिए अब तो ....@#%%&#@.......आदि प्रयोग होने लगा है समझदार तो समझ ही लेते है और फिर कूद पड़ते हैं कि गाली बक रहा है. वहीं अच्छी बात में कोई यदि एक साहित्यिक पंक्ति कह जाये तो दस लोग दस तरह का मतलब लगाते रहते हैं घंटो और वो भी सही नहीं निकलता....

खैर, एक दिन उस मित्र ने जब भाँप लिया कि आज घर में कुटाई होना तय है तो उसने यह अज्ञानता भी प्रदर्शित कर ही दी. पिटना तो उतना ही था. पिटाई के बावजूद भी यह सुनते हुए कि इतना भी नहीं जानते, वो मेरे प्रश्न का जबाब ले ही आया. पता चला कि एल एल बी (इला) का मतलब एल एल बी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किये हैं. इतना भी नहीं जानते???फ़ैशन है ये-इस तरह लिखना... अव्वल तो मैं इला लिखने का उद्देश्य ही नहीं समझ पाया कि जरुरत क्या थी. एल एल बी तो एल एल बी है, चाहे इलाहाबाद से करो या जबलपुर से, काम तो ज्ञान और सेटिंग ही आना है. और फिर अगर बताने का इतना ही शौक हो आया था तो पूरा लिखने को किसने मना किया. कम से कम सब समझ तो जाते.

जाने कैसा फैशन है? मगर फैशन तो फैशन होता है इसमें जाने कैसा कब किसने माना है. वरना कौन लड़का कमर से ६ इंच नीचे खिसकी जिन्स पहनता या कौन लड़की कमर से ६ इंच उपर खिसकी टॉप पहनती. बस, फैशन है तो है!!!

फिर एक रोज एक और नेम प्लेट पर श्याम प्रसाद त्रिपाठी, बी. कॉम. (आ) देख कर मैं खुद ही समझ गया कि हो न हो, बंदे ने बी. कॉम. आजमगढ़ से किया होगा. मेरा यही ज्ञान मैने अपने उस दोस्त को भी दिया और उसने अपना ज्ञान घर में बघारा और पिता श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से फिर एक बार मरम्म्त करवा आया. ज्ञात हुआ कि (आ) मतलब आजमगढ़ नहीं आनर्स होता है. न जाने क्यूँ सब एक सा फैशन क्यूँ नहीं करते? जिसकी जो मर्जी हो, फैशन का नाम दिये करे जा रहा है. कोई सर मुड़ा लेता है, तो कोई जैल लगा कर बाल खड़े कर लेता है तो कोई पोनी बाँध कर मटकता है- शोभा देता है क्या भला यह सब, हें? मगर फैशन है तो है!!!

इसी आकर्षंण के चलते मैं बचपन से ही अपने जीवन के हर माइल स्टोन को नोट करता आया और ५ वीं पास के बाद अपनी कॉपी पर लिखता रहा: समीर लाल, ५वीं पास. फिर समीर लाल, ८वीं पास, फिर समीर लाल, ११वीं पास(ग)- यहाँ ग= गणित. फैशन समझा करो, मियाँ. हम तो शुरु से ही फैशनेबल रहे हैं. कोई यह नया चस्का नहीं है.

फिर समीर लाल, बी.कॉम. (जब) याने जबलपुर और कालान्तर में समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. पर आकर यह सिलसिला थम सा गया. तब तो विजिटिंग कार्ड भी बनने लगे और नेम प्लेट भी. समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. लिखा देख कर मन ही मन प्रसन्न होता रहा.

समय को बीतना था सो बीता. कनाडा चले आये. फिर नेम प्लेट तो गायब हो गई मगर कार्ड छपते रहे बदल बदल कर हर नई उपलब्धि के साथ. बी. कॉम, ने अपना रंग खो दिया. फिर हुए समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.) यहाँ इं=इंडिया और यू एस तो खैर अमरीका है ही, वो तो क्या बतलाना-नहीं समझोगे तो भुगतोगे. फिर बदला समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस). फिर देखते देखते समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) अब यह क=कनाडा.  खैर, यह सब जोड़ घटाव चलता रहेगा, यही सोच कर निश्चिंत बैठा था.

वक्त भी क्या क्या गुल खिलाता है- कहानी, कविता लिखने लग गये. तो इससे जुड़े लोगों से संपर्क बनना शुरु हुआ. लोग ईमेल भेजा करते हैं. मंचो पर जाना शुरु हुआ तो लोग कार्ड दिया करते हैं हमारे कार्ड में तो वही: समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) मगर उनके कार्ड पर जाने क्या क्या? जिस कार्ड ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था:

आचार्य फलाना फलाना, बी.ए.(हि), लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार. अब इतना तो समझने ही लगे हैं कि हि मतलब हिसार नहीं, हिन्दी ही होगा मगर नाम के पहले आचार्य और बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार, यह कहाँ से और कैसे मिलेगा? वही पुरानी जिज्ञासु प्रवृति-अंगड़ाई ले उठ खड़ी हुई.

पता किया गया तो पता चला कि आचार्य के लिए कोई संस्कृत का लंबा चौड़ा कोर्स करना पड़ता है. और फिर संस्कृत, इसका तो दो पन्ने का भी कोर्स हो तो फेल हो जायें, तो बड़े बेमन से आचार्य लगाने की बात दिल से निकाल दी मगर बाकी लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार -इसका मोह बना रहा. बस, पता चल जाये किसी तरह कि इसको कैसे अपने नाम के साथ लिख सकते हैं. सबूत रहे, तो आत्म विश्वास बना रहता है. चमड़ी अभी उतनी मोटी नहीं हो पाई है वरना बहुत से मंचीय कवियों और दीगर लेखकों के संपर्क में रहा हूँ जिन्होंने नाम के आगे डॉक्टर सगर्व लगा रखा है और पीछे पी एच डी. न कोई पूछने वाला, न वो बताने को खाली हैं. पी एच डी की हो तो बतायें न!! असल पी एच डी जिसने की होती है, उससे पूछना नहीं पड़ता, वो तो खुद ही किसी न किसी बहाने बताने की फिराक में रहता है कि मैने फलाने टॉपिक पर शोध किया है. पी एच डी करते हुए वो इतनी योग्यता तो हासिल कर ही लेता कि बहाना खोज पाये अपने टॉपिक को बताने का. इसके सिवाय उस बेचारे के पास अपनी जवानी का बेरहमी से कत्ल करने की और कोई दास्तान भी तो नहीं होती.

अब तो वो मेरा प्यारा दोस्त भी जाने कहाँ गुम हो गया है वरना वो बेचारा एक कुटाई और झेल मेरे लिए अपने पिता जी श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से पूछ कर बता ही देता.

आपमें से कोई जानता है क्या कि यह नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी ताकि कोई इन योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह न लगा पाये. कोई पूछे तो प्रमाण पत्र दिखा सकूँ वरना लिखी किताब की तो जिसकी मर्जी होती है, वो ही धज्जी उड़ा जाता है. अपनी और कईयों की पिछली छीछालेदर देखकर, किताब छपने के आधार पर नाम के बाद कवि या लेखक लिखने की ताकत मुझमें बची नहीं है. किसी के लेखन की छीछालेदर करने के लिए तो किसी प्रमाण पत्र की भी आवश्यक्ता नहीं, वो तो कोई भी कर सकता है. उसमें छीछालेदरकर्ता की योग्यता पर कोई प्रश्न नहीं करता. किसी की छीछालेदर हो, तो मजा तो आता ही है, इसमें योग्यता पर प्रश्न क्या करना?

पढ़ने से मैं नहीं डरता, यह तो आप मेरा कार्ड देख कर समझ ही गये होंगे. मगर पढ़ूँ क्या? ताकि अपने नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखकर अपना जीवन धन्य करुँ. काश, कोई बता देता.

आप तो जानते होगे, बता दो, प्लीज़!!!

 

writer

कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....

मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...

वो बेवजह
दाद पाता रहा
और
मैं
जुगनुओं की टिमटिमाहट से
अँधेरा
भगाता रहा!!

मैं
अज्ञानी!!!
कितनी
छोटी छोटी
तरकीबें हैं
वो भी न जानी!!

-समीर लाल ’समीर’

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रविवार, जून 05, 2011

निर्लज्ज संगीत..और...

-१-

उस रात

गहरी तनहाई

में

शहनाईयों के शोर से

टूट

ऐसे

बेसुध पड़ा रहा

बिस्तर पर मैं...

जैसे

MRI मशीन में जाता

मौत से जूझता

एक निशक्त शरीर

अहसासता हो

गहन शांति को भंग करती

निर्लज्ज संगीत की

धुन!!

 

moon1

-२-

उम्र के इस पड़ाव पर आ
निकलता हूँ जिस शाम
मैं घर से अपने
सात समुन्दर पार आने को,

देखता हूँ रेलगाड़ी के डिब्बे की
खिड़की से झाँक
घर लौटते
सूरज को
साईकिल पर सवार
कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
धूल में सने
दिन भर खेल कर
लौटते गांव के बच्चे

और फिर नज़र आता है
खिड़की के उस किनारे से
आसमान में आता
चाँद...

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!

कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!

-समीर लाल ’समीर’

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बुधवार, जून 01, 2011

एक कविता, बताना कैसी लगी???? और एक आशीष

 

paper-bowl 

जमा किये हैं
थाली भर शब्द
छाँट बीन कर
करीने से लगा
चढ़ा देता हूँ
विरह की मंदी आँच पर भूनने
मिला के दो चुटकी
मन के भाव....
आधा कप
सम सामायिक समस्या के
छोटे छोटे बारीक कटे टुकड़े....
एक कटोरी
पुरानी गांव की यादें...
कुछ बूँद ताजा निचोड़ा
प्रेम रस...
एक चम्मच सामाजिक सारोकार...
और फिर
साहित्यिकता का
तड़का लगाकर...

एक लज़ीज
कविता
परोसता हूँ...
सजाकर
कागज के कटोरे में
आपको......

बताना कैसी लगी????

-समीर लाल ’समीर’

 

अब एक आशीर्वाद

पुस्तक- देख लूँ तो चलूँ; लेखक: समीर लाल ’समीर’ प्र.संस्करण-२०११

श्री समीर लाल ’समीर’ ने इस पुस्तक में जबलपुर-भारत से कनाडा तक की यात्रा पाठकों को तो करवा दी प्रारम्भ से अन्त तक उनकी आत्मा भारत में ही रची बसी दिखाई देती रही. भारत की माटी की सुगन्ध से वे सुवासित हैं और देश की संस्कृति तथा परम्परा से पूर्ण रुप से जुड़े हुए. भारत और कनाडा की समस्याओं को बड़े ही व्यंग्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में सम्मलित होने के लिए अकेले कार में निकलते हैं और रास्ते भर विचार श्रृंखला में कनाडा और भारत घूमते रहते हैं. देश छोड़ने की व्यथा, अमरीकी नीतियाँ, चाइल्ड लेबर, समलैंगिगकता, पश्चिमी प्रेम-प्रदरन चुम्बन प्रक्रिया, भारतीय माता पिता का कनाडा में सदुपयोग और मृत्यु तथा जीवन की दार्शनिकता के चित्र, उसके मन-मस्तिष्क में घूमते रहते हैं.

प्रवासी भारतीय गृहप्रवेश की पूजा भारत की तरह ही करते हैं. ’विदेश में घर खरीदा है तो क्या हुआ, हैं तो भारतीय ही. भगवान की तस्वीरों से लेकर, समस्त पूजन सामग्री इकट्ठी की जाती है, आरती होती है, हवन भी होता है, उसमें बस रुपये की जगह डालर डाले जाते हैं जिसे पंडित जी उसी उत्साह के साथ कलटी कर ले जाते हैं जैसे कि भारत में.’ (पृष्ठ १५)

चाइल्ड लेबर को लेकर बड़ा तीखा व्यंग्य समीर जी ने किया है. ’टिम हार्टिन्स’ और ’मैक डोनल्डस’ में ८ वीं ९ वीं के बच्चे स्कूल के बाद पार्ट टाइम काम करते हैं. बरतन धोने, काफी बनाने, टोस्ट बनाने के लिए उन्हें ६ से ७ डालर प्रति घन्टा मिल जाता है. भारत में जब बच्चे काम करते है तो ’यही मुल्क उसे एक्सप्लोइटेशन का नाम देते हैं. बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात करते हैं.’ अमरीकी नीतियाँ केवल दूसरे देशों को शिक्षा देती हैं.’ शान्ति स्थापना के लिए बमबारी कर रहे हैं, तेल के कुओं पर कब्जा कर रहे हैं और पैसा कमा कमा कर भरे जा रहे हैं.’ (पृष्ठ ३४) प्रवासी भारतीय सब कुछ देख कर भी कुछ भी कर सकने में असमर्थ, असहाय महसूस करते हैं क्योंकि अमरीका में रहकर अमरीका से पंगा लेना न समझी होगी. लेखक को लगता है कि ’अमरीका को देश की बजाय कन्सलटेन्ट होना चाहिये. खुद की व्यवस्था हो या अर्थव्यवस्था, वो तो संभलती नहीं परन्तु दूसरों की व्यवस्था या अर्थव्यवस्था सम्भालने तुरन्त निकल पड़ते हैं. खुद के यहाँ तेल बह गया, वो समेटा नहीं जा रहा और चल पड़े दूर खाड़ी देशों में तेल समेटने" (पृष्ठ ३४)

जीवन तो जीवन,  अमरीका में मृत्यु भी उपहास का विषय बन चुकी है. भारत में ’मुंडा सिर’ शोक का संदेश देता है और अमरीका में ’ग्रेट कूल ड्यूड’ कहलाता है. अंतिम संस्कार का बीमा ५००० या ६००० डालर, अगर स्टेण्डर्ड का करना हो तो १०००० डालर तक का अमरीका में खर्चा आता है जिसमें मन पसंद ताबूत, ड्रेस, मेकअप, प्लाट, उसकी खुदाई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड, ले जाने के लिए ब्लैक लिमोज़ीन और धर्म के अनुसार फूलों का चुनाव भी आप जीवित रहकर ही कर सकते हैं. जैसी पसंद वैसा बीमा. बाल बच्चों को न कुछ खर्च करना न परेशानी. लेखक का व्यंग्य बड़ा सटीक है-’ भाई अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह बात भी है तो जरा हट के.’

प्रिय समीर जी, आपकी यह पुस्तक एक छोटा उपन्यास या एक लम्बी कहानी है पर जरा औरों से हट के. पुनः बधाई स्वीकार करें.

प्रेषिका
डॉक्टर मंजुलता सिंह

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रविवार, मई 29, 2011

अभी कुछ और..बाकी है!!!

मित्र प्रवीण पाण्डेय जी का एक बहुत लोकप्रिय ब्लॉग है : न दैन्यं न पलायनम्  उस ब्लॉग पर अपने आस पास की नितचर्या के माध्यम से इतना बेहतरीन जीवन दर्शन का पाठ मिलता है कि हमेशा इन्तजार रहता है कि कब नया आलेख आये और उससे कुछ लाभ मिले. कुछ दिनों पहले वहीं एक आलेख ’जीवन दिग्भ्रम’ पढ़ा था. जाने कैसे पढ़ते पढ़्ते भाव उभरे उस आलेख पर कि एकाएक दिल कह उठा:

इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है

बस, यही शेर दर्ज कर दिया वहाँ टिप्पणी में. टिप्पणी किये पाँच मिनट भी न बीते होंगे कि मित्र नवीन चतुर्वेदी  का ईमेल आ धमका; मस्त मस्त शेर सर जी!!!!!!!!!!!!!!!!! आप का ही है न?

तब हमें समझ आया कि अरे, हम तो शायद कोई शेर कह गये. :)

मेरी स्वीकारोत्ति पाकर उन्होंने इतना अच्छा शेर पीछे छोड़ आने के बतौर जुर्माना आदेश पारित किया कि अब इस पर आप पूरी गज़ल लिखें, तभी बात होगी.

हीरे को पारखी ने पहचान लिया वरना हम तो कोयला समझ छोड़ आये थे वहीं. (आजकल खुद की पीठ ठोंकने में महारत हासिल कर रहा हूँ, नये जमाने का यही चलन है) :) नवीन जी से छंद ज्ञान ले रहे हैं और साथ ही अपनापन सदा से रहा है, तो भला उनका आदेश कैसे टालता, हामी भर दी. लगे जोड़ा जाड़ी करने. रदीफ, काफिया मिलाने. जोड़ जाड़ कर किसी तरह चार दिन भट्टी पर चढ़ाये पकाते रहे, सुबह शाम फेर बदल करते रहे और फिर प्राण शर्मा भाई साहब  का आशीर्वाद लिया अपने लिखे पर और ये देखो, चले आये आपके सामने गज़ल लेकर.

अब आप पढ़े और बतायें:

infinite

इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है


हमेशा ज़ख़्मी दिल को दोस्तो ये खौफ रहता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है


दिखा मैं साथ जो तेरे तो दिल ये हंस के कहता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


ये शायद सोच कर आँसू मेरी आँखों से गिरता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


यही कह कर वो रातों में सभी तारों को गिनता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


हज़ारों ग्रन्थ पढ़ डाले मगर क्यों नित ये लगता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाकी  है


दिलों के बैर को कोई कुछ ऐसे साफ़ करता  है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है


अजब इन्सान का चेहरा हमेशा यूँ ही दिखता है
अभी कुछ और,अभी कुछ और,अभी कुछ और बाक़ी है

-समीर लाल ’समीर’

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