अगर
आपको यह लगता है कि बुद्धिजीवी बुद्धिमान होता है तो यह आपकी गलतफहमी हैं. बुद्धिजीवी और बुद्धिमानी का वो ही रिश्ता होता
है जैसा कि जगमग रोशन ईमारतों का अपनी घुप्प अंधेरी नींव से होता है. बड़ी बड़ी बेवकूफियों की आधारशीला पर इन ऊँचे
बुद्धिजीवियों के गुंबद खड़े है.
मूलतः
बुद्धिमान व्यक्ति कभी चर्चा में नहीं रहता जैसे कि ईमानदार व्यक्ति. उसके पास कहानी गढ़ने को कुछ नहीं होता. वो बहुत बोरिंग किस्म का इन्सान होता है और
उसका बुढ़ापा बड़ी तकलीफ में गुजरता है. उसे
कोई सुनना नहीं चाहता. वो एकाकी रह जाता है.
इसके
ठीक उलट बुद्धिजीवी के पास एक चिल्लाहट होती है खोखले चने वाली जिसे कहावत में कहा
जाता है कि थोथा चना, बाजे घणा!! छद्म ज्ञान के तौर पर उसके पास तीन से चार रेफरेन्स होते हैं जिसमें
पोलेण्ड की एक कवियत्री, शेक्सपियर का एक नाटक, राबर्ट फ्रास्ट की दो कवितायें, एक आयरलेण्ड के लेखक का नाम और मुंशी
प्रेमचन्द्र की कहानी ’भाभी’. यह भी तय है कि इसे पढ़ते ही आधे लोग मुंशी प्रेमचन्द्र की कहानी ’भाभी’
गुगल करने लगेंगे और उसे न पाकर गुगल को गलत मान बुद्धिजीवी की चरण वन्दना करने
लगेंगे. यही वह अखंड सत्य है जो बुद्धिजीवी को
बुद्धिजीवी बनाता है. वरना तो बुद्धुओं की जमात में भी वो कोई
दर्जा न प्राप्त कर पायें.
बुद्धिमान
व्यक्ति शांत स्वभाव का होता है और किसी बहस में नहीं पड़ता. वो इमानदार व्यक्ति की तरह सौम्य होता है. बेईमान व्यक्ति के पास कई किस्से
होते हैं. वो भ्रष्टाचार कर के बैंकाक, मलाया, पताया
घूमता है. डांस बार में जाता है. नेपाल और वेगस में जुँआ खेलता है. वो बुढ़ापे में जब अपने जवानी के किस्से सुनाता
है तो उसमें रस होता है. लोगों को मजा आता है. वो महफिल लूट लेता है अपने किस्सों को सुना कर के. सो ही बुद्धिजीवी का हाल है. एकदम भ्रष्टाचारी से एकरसता और तारतम्य बनाता
हुआ.
अगर
सही मायने में बुद्धिजीवी की परिभाषा तलाशेंगे और गहराई में उतरेंगे तो आप पायेंगे
कि असल बुद्धिजीवी आतंकवादी होता है. वो
बोद्धिक आंतक फैलाता है. वो अपने सीमित ज्ञान को एक मीनी वैन
में भरकर इतना बड़ा धमाका करता है कि बुद्धिमान व्यक्ति भी दहल जाता है. वो भरी महफिल में सबसे पूछ बैठता है कि जैगलोस्की को तो आप सबने पढ़ा ही होगा?अब जो हाँ बोले वो मरे और जो न बोले वो मरे. हाँ बोल दो तो पूछे जाने का डर कि आप सुनाईये
उनकी फलानी रचना और न बोलो तो मूरख ठहराये जाने का डर. इसमें एक ही राज मार्ग है बच
निकलने का और अपनी अस्मिता बचाये रखने का कि चुप रह जाओ. बुद्धिजीवी इसे समझता है और ये ही पैतरा बुद्धिजीवी को बुद्धिजीवी
बनाता है क्यूँकि सुना तो उसने भी नहीं है? अतः
वो मात्र इतना कह कर अपनी बात की इति श्री कर लेता है कि कभी पढ़ियेगा उनको, तब आप जानेगे कि आप कितने अल्प ज्ञानी हैं!! और आपने जिन्दगी में अब तक क्या हासिल नहीं
किया है?
यही
सिद्ध तरीका है अपने आपको बुद्धिजीवी कहलवाने का. इस सिद्ध प्रक्रिया में कभी कोई भूलवश आपसे कोई प्रश्न कर बैठे पलट
कर तो बस इतना ही करना है कि नाराज हो जाओ उसके ऊपर. वो भी इस कदर कि पूछने वाला ही घबरा जाये कि कितनी बड़ी गल्ती कर दी बुद्धिजीवी
जी से प्रश्न करके?
पूछने
वाले को गालियाँ बको कि एक तो तुम ज्ञान शून्य हो और उस पर से मुझसे बहस करते हो? मुझसे सवाल करते हो? उससे ऐसे संबंध विच्छेद कर लो कि उसे फिर कभी मौका ही न लगे कि वो आपसे
जबाब मांग पाये और बस!! आत्म मगन रहे आओ कि मैं बुद्धिजीवी हूँ. ऐसे लोगों के लिए आत्ममुग्धता अभिशाप नहीं..खुश रहने के लिए प्रसाद है.
यही
तरीका तो है, जिसका पालन. सभी बुद्धिजीवी कर रहे हैं. बुद्धिमान
हाशिये पर हैं. उनमें बहस करने का माददा नहीं है. उन्हें यह साबित करने की लालसा भी नहीं है कि
वे बुद्धिमान हैं. वो जानते हैं कि
हाथ कंगन को आरसी क्या,
पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या..
वैसे आप बतायें कि आप बुद्धिजीवी हैं या बुद्धिमान!
समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे के रविवार जून २,२०१९ के अंक में
प्रकाशित
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2 टिप्पणियां:
बुद्धिमान और बद्धिजीवी की सुंदर व्याख्या और विश्लेशण !!! अप्रतीम....
बखूबी विश्लेशण
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