कल शाम ५ बजे बेटे के घर से अपने घर जाने के लिए निकलने के पहले खिड़की
से झांक कर देखा तो हर तरफ एकदम अँधेरा एवं सड़कों पर सन्नाटा
दिखा. सर्दियों
की शाम वो भी शनिवार को..यही माहौल होता है यहाँ कनाडा में. अपनी कार घर के पास के स्टेशन पर छोड़ आया
था अतः बेटे ने बस स्टेशन तक पहुँचा दिया. बाकी का सफर बस एवं ट्रेन से करना
था.
मैं जब घर से निकला था तो टीवी पर कोने में तापमान
दिखा रहा था -१२ डिग्री सेन्सियस. उस हिसाब
से एक मोटा जैकेट पहन कर निकल लिया था. कार गरम थी पता न चला मगर बस स्टेशन पर
सामने से आती बस का ३ मिनट का इन्तजार भी ऐसा लगा कि मानो बरफ की सिल्ली पर लेटे
हों. लगा कि वाकई अगर डेथ बाडी की डेथ न हो गई होती तो वो बरफ पर
लिटाने के लिए पूरे घर वालों की ऐसी तैसी कर डालता. हमें तो दया सी
आने लगी डेथ बाडियों पर कि कैसे लेटती होंगी? शायद यह सोच कर झेल
जाती होंगी कि इकलौता बेटा आ रहा है अमरीका से. आकर चिता पर आराम से लिटा कर आग
लगायेगा तो ठंड से निजात पा जावेंगे. बेटा कितना ख्याल रखता है सोच कर उसकी आँखे
भर आती होंगी बरफ पर लेटे लेटे. वो तो भला हो बरफ का कि उसकी चुअन में आंसू छिप गये
वरना लोग कित्ता कमजोर समझते उसे. उसे तो अंदाज भी न होगा कि ठंड से निजात दिलाने
के बाद बेटा
तुरंत ही जमीन जायजाद से भी निजात दिला कर वापस अमरीका लौट लेगा
फिर कभी न आने के लिए.
मैं ठंड से कुड़कुड़ाते हुए बस में बैठा तो देखा
कि बस में
मात्र ड्राईवर साहब हैं, जिनकी सीट पर लिखा था पायलट और दूसरा
मैं, ५०
सीटों वाली बस में अकेला यात्री, मेरी सीट पर लिखा था पैसेन्जर. न लिखते तो
चेहरा और रुप रंग देख कर कोई अनुमान लगा सकता था कि शायद मैं कन्डक्टर हूँ और फिर उसकी निगाह
ड्राईवर साहब की सीट की पायलट लिखी पट्टी पर पड़ती तो मुझे एयर होस्टेस मानने को तो
कतई तैयार न होता. लिखे का बहुत अंतर पड़ता है वरना कभी वीवीजआईपी सीटों पर बैठे
लोगों को सिर्फ चेहरे के आधार पर आंकना हो तो पन्डाल में दरी पर बैठने का भी
मुश्किल से नम्बर आये. सब झांकी कैसे सजाई और दिखाई गई पर निर्भर
करता है. वरना तो क्या पंत प्रधान, क्या पी एम, क्या प्रधान सेवक – सब एक ही बात
है. प्रस्तुतिकरण का अंदाज बदल बदल कर एक नया तमाशा दिखाना
होता है. जनता के हाथ तो हर हाल में सिफर ही आना है.
तकरीबन १०० किमी की इस यात्रा में मेरे जैसा सहृदयी व्यक्ति अगर साथ न
देता तो बस में अकेला ड्राईवर चला जा रहा होता. उसकी तो खैर नौकरी है. मगर देश का
तो नुकसान होता ही, इतनी लम्बी यात्रा और कोई आया ही नहीं साथ निभाने. राष्ट्र की
विकास यात्रा में भी अगर लोग साथ नहीं देंगे तो बस वो
भी एक नुकसान
का कारण ही बन कर रह जायेगी. सब को साथ देना चाहिये इस विकास
यात्रा में जितना बन सके. तभी उन्होंने बोला होगा कि सब का साथ, सबका
विकास. वे जानते हैं बिना सबके साथ के कुछ होगा नहीं भले ही यूँ अह्म
ब्रह्म का जयकारा भरते हों.
बस गरम थी सो राहत तुरंत मिल गई. फोन पर समाचार सुनने लगा. समाचारवाचक
बोला कि अभी का
तापमान -१२ डिग्री है याने मैने ठीक देखा था और उसी
के हिसाब से तो तैयार भी हुआ था, फिर क्यूँ ठंड बर्दाश्त न हुई? समाचरवाचक
जारी था- किन्तु हवा के साथ साथ यह तापमान -२५ डिग्री महसूस होगा. ओह!! यह मैं देखने
से चूक गया था. मन में आया कि टीवी वाले को फोन करके गरियाये कि महाराज, -१२ भले हो
उससे मुझे क्या करना? जब मुझे ठंड -२५ की लगना है तो वो ही बताओ न!!
उसी हिसाब से तैयार होता.
जुमलेबाजी का ऐसा फैशन चला है कि किसी फील्ड को न छोड़ा. जीडीपी के
आंकड़े भले गिर गये हों, जीएसटी से व्यापारी की कमर टूट गई हो, गल्ले में कैश के
नाम पर बस दिवाली पर चढ़ाये १०१ रुपये ही पड़े हों मगर भाषणों से आपको महसूस होगा
कि व्यापार बहुत बढ़ा है और व्यापारी वर्ग चहुं ओर खुशियाँ मना रहा है. नोटबंदी
एकदम सक्सेसफुल रही. सारा काला धन बेकार चला गया. काला धनधारी आज भीख मांग रहे
हैं भले ही आरबीआई कह रही हो कि सारे पुराने नोट वापस आ गये.
सब महसूस क्या हो रहा है, महसूस क्या कराया जा रहा है उसका खेल है.
आंकड़े क्या बोल रहे हैं वो मत देखो, वो महज एक नम्बर है. आंकड़ा कह रहा है कि
-१२ डिग्री तापमान है तो इससे क्या? आप महसूस तो -२५
कर रहे हैं न!! उससे मतलब रखना चाहिये.
कल एक मोटिवेशनल स्पीकर का ज्ञान बटुव्वल सुन रहा था. सुबह उठ कर
तैयार हो कर घर से निकलने के पहले एक बार शीशे के सामने खड़े होकर खुद को कहो कि यू
लुक गुड मैन!! फिर देखिये कि लोग भी आपको देखकर मन ही मन कहेंगे कि ही लुक गुड मैन. अब
उस स्पीकर ने शायद मुझे न देखा होगा. वरना ईश्वर की ऐसी कृपा रही कि न तो
रंग पे दया बरती, न तन पे और न ही कद पे. किस मूँह
से कहूँ कि यू लुक गुड मैन!! मैं तो बिना शीशा देखे
निकल लूँ तो ही ऐसा भ्रम पाल सकता हूँ बमुश्किल. शीशा देख कर इत्ता बड़ा झूठ अव्वल तो बोल ही न पाऊँगा और बोल भी गया तो इस आत्म ग्लानी
को दिन भर ढो तो बिल्कुल भी न पाऊँगा. वह आगे बोले कि फिर दफ्तर के रास्ते में
ट्रेन की खिड़की के बाहर देखो और कहो कि व्हाट अ ब्यूटीफुल डे. कितना सुन्दर दिन
निकला है, मन प्रफुल्लित हो गया. फिर आप पायेंगे कि मन सारा दिन कितना प्रफुल्लित
रहता है. अब उसे कौन समझाये कि दिल्ली में बैठ कर ज्ञान बांटना सरल है, ग्राऊन्ड
पर निकल कर देखो तब समझ में आयेगा. यहाँ एक एक फुट बरफ में पैर धंसा धंसा कर
कुड़कुड़ाते हुए ट्रेन में दुबके बैठे हैं कि कुछ देर में गरमी आये और ये समझा रहे
हैं खिड़की के बाहर देखकर कहो कि व्हाट ए ब्यूटीफुल डे. मन प्रफुल्लित हो गया. आकर
बोल कर दिखाओ तब जाने.
फील गुड फेक्टर हर जगह काम नहीं आता. ये तुम्हारे खेत में गेहूँ के
दाने नहीं, सोने के दाने हैं. हीरे मोती हैं. ऐसा सब गाने में तो ठीक कि मेरे देश
की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती...मगर उस किसान से पूछो जो कर्ज में दबा है. जो
आत्महत्या कर रहा है. जो दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहा है, वो बतायेगा कि क्या
सोना क्या हीरे मोती? सब तुम रख लो और उसके बदले हमें दो टाईम के खाने का जुगाड़
करवा दो और कर्जा माफ करा दो.
आलू से सोना निकालने वाली मशीन का झांसा एकाध बार चुनाव तो जितवा सकता
है मगर किसान के घर चूल्हा नही जलवा सकता. उसका कर्जा नहीं माफ करवा सकता.
शास्त्रों में भी कहा गया है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
अर्थात यहाँ भी इसी बात पर जोर है कि अहसासने की बात है और उसे उस रुप में ग्रहण
करने के लिए तैयारी की बात है. अगर -२५ महसूस कर
रहे हो तो वैसे गरम कपड़े पहनों. -१२ महज आंकडा है उस पर न जाओ.
लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि मन के जीते जीत का इतना स्ट्रांग असर है
कि आप वोट किसी को डालो, जीतेंगे वो ही. काहे से कि उन्होंने मन के जीते जीत का
मंत्र जगा लिया है. बताते हैं कि मंत्र जगाने के लिए बहुत जुगत करना होती है जो कि सबके
बस की बात नहीं.
एक फिल्म में बड़ा फेमस डायलाग हुआ कि अगर पूरी शिद्दत से किसी को चाहो
तो पूरी कायनात आपको उससे मिलाने में जुट जाती है. चाह का क्या है
अहसास ही तो है. शिद्दत से चाह लिया कि इस राज्य की सरकार हमको हासिल हो फिर तो पूरी
कायनात, क्या सिस्टम, क्या एवीएम, क्या वजीर क्या नजीर..सब जुट जाते हैं
और सत्ता से मिलवा ही देते हैं. मने कि बात चली है तो एक उदाहरण दिया.
महसूस होने और करने के तो अनेकानेक उदाहरण आसपास छितरे पड़े हैं.
मानो तो मैं गंगा माँ हूँ न मानो तो बहता पानी..इसके चलते गंगा का
बेटा अपनी नैय्या खेवा गया. अब माँ खोज रही है कि बेटा आया था. साफ सफाई करवाने
वाला था फिर न जाने कहाँ चला गया? अंततः गंगा माँ को भी स्वयं ही महसूस
करना पड़ेगा कि वह स्वच्छ हो गई हैं वरना तो कुछ होने जाने वाला नहीं. अच्छे दिन भी
अहसास की बात है, महसूस करो तो हैं वरना तो क्या? बाबा जी तो हमेशा से कहते आये
हैं कि करने से होता है? करो करो..महसूस करो!!
खैर, देर रात बस से ट्रेन, ट्रेन से कार, कार से घर पहुँचा तो हीटिंग से
गरमागरम घर में आराम से बिस्तर पर सो गया. सुबह जागा, खिड़की से
झांका..बेहतरीन धूप खिली थी..बासाख्ता बोल पड़ा- व्हाट अ ब्यूटीफुल डे! कल की सारी तकलीफें
भूल गया और धूप देखकर यह भी याद न रहा कि बरफबारी के बाद जब धूप निकलती है तब
तापमान और गिर जाता है. सब नेता यह स्वभाव जानते हैं कि जनता एक नये
चमकदार वादे में पुरानी सारी तकलीफें भुला कर खुश हो जाती है.
फिलहाल तो धूप देखकर अच्छा लगा. घंटे भर में जब दफ्तर के लिए निकलूँगा तब की परेशानियाँ
तब देखी जायेंगी. यह तो सिलसिला है. अच्छा बुरा लगा रहेगा.
ये जीवन के
अंग है. जब मौका आये तो
अच्छा जरुर महसूस कर लो. देखो, कितनी अच्छी धूप खिली है और मन कितना
प्रफुल्लित है...मगर यह भी तय है मै शीशे के सामने जा कर खुद से अब
भी यह नहीं
कहने वाला कि यू लुक गुड मैन!! इत्ता बड़ा झूठ..यह मैं नेताओं के लिए छोड़ देता हूँ.
हम आमजन यूँ ही ठीक!!
-समीर लाल ’समीर’
मासिक पत्रिका ’गर्भनाल’ के जनवरी, २०१८ के अंक में प्रकाशित
5 टिप्पणियां:
Bahut khoob !
आपकी सभी रचनाएं पढ़ती हूँ एक एक शब्द। अच्छा लिखते हैं या नही लिखते हैं ,यह तो सबकी अपनी अपनी पसंद वाली बात है। मुझे आपकी रचनाओं में आपका बिंदासपन,बेबाकी ईमानदारी अच्छी लगती है। तंज मारना सभी जानते हैं,ऐसा मारते हैं कि बरसों की दोस्ती,प्रेम,रिश्ते,अपनत्त्व की चिंता करे बिना मारते हैं।व्यंग्य के नाम पर अपनों को लहूलुहान करते रहते हैं। पर... दिल गुर्दे चाहिए अपने पर वार करने के लिए, खुद पर हंसने के लिए। अपने रंग,अपने कद अपने वजन पर आप हँसना, कुछ नही छुपाना जो है सबके सामने। वाह!
मैं दिल से सम्मान देती हूँ, प्यार करती हूँ निश्छल निष्कपट और ईमानदार लोगों को।
एक अलग दुनिया हो ऐसे लोगों की-आप जैसे लोगों की दादा!
मेरा दादा सबसे सुंदर है,हैंडसम है बेशक एक अच्छा इंसान भी होगा ही।यह जो दूसरों से छल न करना है ना वो हर किसी के बस में नही...बिरले ही होते हैं।लव यू
Too good
कल की सारी तकलीफें भूल गया और धूप देखकर यह भी याद न रहा कि बरफबारी के बाद जब धूप निकलती है तब तापमान और गिर जाता है. सब नेता यह स्वभाव जानते हैं कि जनता एक नये चमकदार वादे में पुरानी सारी तकलीफें भुला कर खुश हो जाती है ................... एकदम सही कहा बेचारी जनता करे तो क्या करें
बहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति
हार्दिक बधाई
बहुत उम्दा
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