अभी लम्हा पहले, जैसे ही अपने थके शरीर को कुछ आराम
देने की एक ख्वाहिश लिए उसने पलंग पर लेट आँख मूँदी ही थी कि उसे लगा कि मानो कई
सारी रेलगाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई उसके मकान के नीचे से गुजरी हों...आँख खोली तो देखा
पूरा मकान और उसकी हर दीवार उस धड़धड़ाहट से जैसे काँप उठी हो...न कभी सोचा होगा और
न कभी अहसासा होगा इस धड़धड़ाहट को तो दहल कर काँप जाना ऐसे में एकदम लाज़मी सा है.
उसने महसूस किया अपने सीने पर आ गिरी छत की उस बीम का वजन कि इंच भर
मौत से दूर...सांसे दफन होने की कगार पर..और खिड़की से आती कोहराम की आवाजें..हृदय
विदारक क्रंदन के बीच...पदचापों की भागती चित्कार...जाने कौन कहाँ कैसे दफन
होगा..कौन से अरमान...कौन से सपने...क्या कोई सोचता होगा इस मंजर के बीच...एक
जिन्दगी की भीख मांगती मौत से फरियाद करती जुबां...चुप चुप सी घुँटी हुई आवाज...
अखबार बोल रहा है रूस का बर्ताव यूक्रेन के साथ. महामारी का बर्ताव मानवता के साथ और उन सब के
ऊपर हमारे सर पर बिना बोले चढ़ा मजहब का बुखार – महामारी से घातक – रूस, महामारी और
यह मजहबी महामारी – सब सियासत को सुहाती है- उनके सत्ता मे बने रहने की साजिश की कड़ी का एक हिस्सा. कोशिश ही तो है एक भरम में जीने
की मानो एक हिटलरी प्रयास यहूदियों का नामों निशान मिटा डालने का -क्या हासिल आया?
अंत हिटलरी की खुदकुशी के साथ और यहूदी कौम विश्व की आर्थिक सत्ता पर अपना वर्चस्व
कायम कर बैठी.
मोहब्बत और सत्ता की जंग की
मधान्तता में सब कुछ जायज है.
घातक है मगर नियम तो यही है -सहना
भी होगा। आजतक सहा ही है. अब तक तो सर्कस के हाथी की तरह लाचारी में जीने की आदत
भी पड़ ही गई होगी – क्या बंधन छुड़ाना?
चलते चलते एक विचार...कि इस जीवन से..जाने क्या किसने पाया होगा और
जाने क्या किसने खोया होगा, कौन किस अपराध बोध तले क्या महसूस करता
होगा की सोच से आगे ...आज सोच मजबूर हुई होगी...इस जीवन से...मात्र जी लेने की एक
ऐसी तमन्ना लिए..और आती एक साँस...
और वो भी एक और इन्तजार में कि कैसे ले लूँ एक सांस और....
त्रासदी से गुजरती मानसिकता कभी सुकूं नहीं तलाशती...
उसकी सोच के परे की बात है सुकूँ और शांति जैसी शब्दावलि....
उसे तलाश होती है तो बस इतनी कि त्रासदी का असर कुछ कम हो जाये...
दुर्गति की गति को थोड़ा विराम मिल जाये..और वो जी सके एक और पल..चाहे
जैसा भी पल..
एक अगला पल..जिसका उसे न अंदाज है और न ही कोई अरमान कि कैसा गुजरेगा
वो पल..
मगर वो पल आये बस इतनी सी चाह...चाह कहें कि एक मात्र बचा विकल्प..
सुकूँ और शांति से भरे बेहतर पलों को जीने की चाह सिर्फ बेहतर पलों
में जीते लोगों का शगल है ..
वरना तो किसी तरह जी पायें..बस इतना सा है सारा आसमान..कहने को मुठ्ठी
भर आसमान...
मगर सोचें तो चिड़िया की चोंच में सिमटा सारा जहां..न जाने कितनों
का..
उस जहां में जहाँ अब इन्सानों के नाम बदले है नम्बरों में..मृतक
क्रमांक ७७८... मृतक क्रमांक ९७१ ..मजहब ..न मालूम..और सरकारी इन्तजाम...सब एक साथ
जले और राख हो गये!!
सड़कों पर सबके लिए एक सा कैंडिल लाईट विज़ल..एक से फूल..एक से
आँसूं..और एक सी राजनीति..
कुछ गहरे उतर कर सोचो तो...
एक दौड़ क्यूँ..
अगर ठौर ये..
फिर कहर क्यूँ?
-रुको, सोचो...
कुछ पल को जी लो जरा!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार मई 1, 2022 के
अंक में:
https://www.readwhere.com/read/c/67763546
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
#Hindi_Blogging
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें