जनता के बिना किसी नेता की कल्पना करना भी संभव नहीं. नेता होने के
लिए जनता का होना जरुरी है. भक्त न भी हों तो भी चलेगा. भक्त नेतागिरी में नया
कान्सेप्ट है. इससे पहले इनके बदले पिछ्लग्गु एवं चमचे हुआ करते थे. भक्त भगवान के
होते थे. अब पिछ्लग्गु ही भक्त कहलाते हैं या नेता भगवान हो लिए हैं, यह तो ज्ञात
नहीं मगर युग बदला जरुर है. वैसे नेता की कल्पना कुर्सी, माईक, भाषण, मंच के बिना
करना भी कहाँ संभव है. भाषण भले वक्त के हिसाब से बदलता रहे मगर रहेगा लोक लुभावन
और जुमलेबाजी से भरपूर ही. बेहतरीन वादों, अपवादों, आक्षेपों से भरापूरा भाषण सड़क
से संसंद तक का मार्ग प्रशस्त करता है.
खैर, छोड़िये इन नेताओं की. सोच कर देखें बिना बहते पानी की नदी? नहीं
सोच सकते न? अब वो दिल्ली की यमुना को मत बीच में लाईये. वो अब नदी नहीं, राजनीति
का माध्यम है जैसे कश्मीर एक राज्य न होकर...और कर्नाटक में कावेरी का जल पानी न
होकर.. और हाँ, भारतीय हैं तो चुप तो रह
नहीं सकते..सीधे बात मान जायें तो नाक न कट जायेगी..इसलिए बोलेंगे जरुर कि आग का
भी दरिया होता है..सुना नहीं है क्या?
ये इश्क नहीं आसां, इतना तो समझ लीजिये
एक आग का दरिया है ,और डूब के जाना है..
अब आपको क्या बतायें..यह वाला दरिया शायरों की
उड़ान है, उनका क्या वो तो महबूबा के बदन पर आसमान से चाँद और सितारें लाकर टांक दें.
शायर फेंकने पर आ जाये तो उनके सामने तो नेता के जुमले भी मंच छोड़ कर भाग खड़े हों.
५६ इंच का सीना क्या टिकेगा भला उस सीने के सामने जिस सीने में बंदे ने जमाने भर
का दर्द छिपा रखा है अपनी दिलरुबा को खुश देखने के लिए..
ऐसी ही क्या कभी बिना शीर्षक के कुछ लिखा जा
सकता है? लेखक को हर वक्त एक विषय की तलाश रहती है और उस विषय की ओर ध्यान आकर्षित
करने के लिए एक जानदार शीर्षक की. बिना शीर्षक आप ५०० शब्दों का भी अगर कुछ लिख कर
छाप दो, तो कोई क्यूँ पढ़ना शुरु करेगा? उसे मालूम तो पड़ना चाहिये कि क्या पढ़ रहा
है!!
इसलिए आज चूँकि हमारे पास शीर्षक नहीं है..
याने की शीर्षक विहिन हैं..अतः सोच रहे हैं कि कुछ न लिखें..कौन पढ़ेगा ऐसे में?
मगर ये क्या, आपने तो फिर भी पढ़ ही लिया..आप
जैसे प्रबुद्ध पाठक होते ही कितने है इस जहां में..
-समीर लाल ’समीर’
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
5 टिप्पणियां:
Waah !
वाह बिना ही शीषक ही पढवा दिये, यही तो असली व्यंगकार की पहचान है, शुभकामनाएं.
रामराम
बहुत ही शानदार पोस्ट पब्लिश की है आपने। आपको मैं लंबें समय से ब्लॉगिंग करते हुए देखता चला आ रहा हूं। हिंदी ब्लागिंग के क्षेत्र में आपका बहुत नाम है।
विहीन है पर है तो ....
ग़ज़ब है आपकी किताब तो :) लेकिन "दिनचर्या" की बात ही निराली है. ग़ज़ब चस्का लगाती है दिनचर्या. और आप हैं कि भाव खाये हुए हैं समीर दादा :)
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