मैने पाया है कि श्री ज्ञानदत्त पाण्डे जी की मानसिक हलचल उनके लिए मानस में चाहे जो भी हलचल मचाती हो मगर उसका एक रुप दूसरे के मन में हलचल मचाने का हमेशा रहता ही है. कभी मुझे लगता है कि अगर वो ब्लॉग और रेल नौकरी की बजाय राजनीति में हाथ आजमाते तो आज लालू उनके सामने पानी भर रहे होते. वो गेंद दूसरे के पाले में फेंक कर मुस्कराते हुए सामने वाले से शुद्ध हिन्दी में कहते हैं कि अब गेंद आपके पाले में है, नाऊ इट इज़ योर चांस. इज़ में ज के नीचे नुक्ता लगाना भी कभी नहीं भूलते. :) देवनागरी में उर्दु का सम्मिश्रण कर अंग्रजी शब्दों से नये हिन्द का निर्माण का यह प्रारुप, हिन्दी के सशक्तिकरण का बोझा उठाये उनके कांधे के बोझ को गद्दीदार बना भाषाविद लोगों की लाठी सहने की क्षमता प्रदान करता होगा और वो सुगमता से रीडर्स डाईजेस्ट के हिन्दी संस्करण सर्वोत्तम के बंद होने का दोष हिन्द समाज को दे निकल जाते हैं बिना व्यवसायिक कारण का आंकलन किए, आखिर राजनित में कब किसने अपनी शुचिता और सुभिता के बाहर और उपर देख कुछ भी बोला है वरना क्या मजाल कि एक मंत्री कह जाये कि वह भविष्यवक्ता नहीं शक्कर के भाव बताने को और दूसरा कि मेरे पास जादू की छड़ी नहीं कि घुमाऊँ और मंहगाई खत्म?, बस वैसे ही इतना ही कि गेंद इज़ इन कोर्ट अगेन, खेलो!! फिर क्या है, कोई मुद्दा पकड़ने गेंद के पीछे भाग रहा होता है तो कोई ज़ में नुक्ता देख ही मुदित हुआ बैठा होता है. मैं तो खैर संपूर्ण प्रक्रिया पर मोहित हूँ ही. ऐसी ही एक गैंद उन्होंने टिप्पणी द्वार बंद कर ’पगली’ पोस्ट पर उछाली कि अगर आप कुछ सोचते हैं तो अपने ब्लॉग से कहें. वो कहते हैं कि: ’शायद यह पोस्ट मात्र देखने-पढ़ने की चीज है। यह पोस्ट आपकी सोच को प्रोवोक कर आपके ब्लॉग पर कुछ लिखवा सके तो उसकी सार्थकता होगी। अन्यथा पगली तो अपने रास्ते जायेगी। वह रास्ता क्या होगा, किसे मालूम!’ उस पगली की हालात देख कुछ मन में न घुमड़े, ऐसा कैसे हो सकता है लेकिन वहाँ तो टिप्पणी बंद है तो यहाँ से एक पूरी कथा. देखें और बतायें, यहाँ तो टिप्पणी चालू है. |
पगलिया!! |
रेल्वे पटरी के पार उस बजबजाते नाले के किनारे कचरे के ढेर के पीछे पड़ी रहती है वह. वही उसका घर है. धरती बिछौना है तो आसमान छत. उम्र यही कोई २८ या २९ बरस की होगी. पन्नियाँ बिन कर एक छतरी सी तान ली है उसने बारिश से बचने के लिए. बस्स!
जोर जोर की आवाज में बहुत लय में गाना गाती है;
परदेशवा न जहिहा पिया, सावन में...
सावन में पिया, सावन में...
बादल गरजे हाय, बिजूरी चमके
पिया बिन जिया मोरा धक धक धड़के
धूँधटा न खोलूं पिया....
सावन में...
परदेशवा न जहिहा पिया, सावन में...
सावन में पिया, सावन में...
जाने कितने दर्द उतार देती है वह अपनी आवाज में इसे गाते. आँखें बहती रहती हैं और कंठ गाते रहते हैं..जैसे वो एक दूसरे से परिचित ही न हों!!
पता नहीं कौन सा दर्द समेटे है. जाने कैसे और किस आधात से पागल और विक्षिप्त हो भटकती यहाँ चली आई है. कोई नहीं समझ पाता है उसकी पीड़ा..बस, सब उसे पगलिया कहते हैं और हँसते हैं.
किसी भी इन्सान को नाले के पास आता देखती है, तो अजब अजब तरह की आवाजें निकालती, चिल्लाती और पत्थर फैकती है. दिन में एक दो बार स्टेशन के पास तक आती है. स्टेशन के करीब के ठेले वाले उसे जानने लगे हैं. लोगों का छोड़ा खाना उसे उठाने देते हैं. कुछ भी बचा खुचा फैंका हुआ खाकर वह फिर उसी नाले के किनारे चली जाती है और अपनी गंदी कुचेली जगह जगह से फटी साड़ी में लिपटी पड़ी रहती है. बिखरे बाल, मैल से भरा शरीर और चेहरा, पीले दांत. लोग बताते हैं कि पगली है.
आस पास खेलते छोटे बच्चों का झुंड जब उसे पगलिया पगलिया कह कर चिढ़ाता है तो वो उन पर ढेला फैकती है. सारे बच्चे हो हो कर हँस कर भागते हैं. उन बच्चों के लिए यह भी एक खेल ही है. बच्चों को समझ ही क्या?
कोई नहीं जानता है कि वो कौन है, कहाँ से आई है और कहाँ की रहने वाली है. गाने की भाषा से बस अंदाज ही लगता है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहीं की रहने वाली है.
रोज ही देखता हूँ उसे स्टेशन के आस पास. कभी गाना गाते, कभी बच्चों को ढेला लेकर दौड़ाते, कभी खाना बीनते. मन में अनायास ही ख्याल आता है कि जाने कौन है? शायद वो भी मुझे रोज रोज देख पहचानने लगी है.
आज शाम जब स्टेशन के पास से गुजर रहा था तब वह हाथ में एक दोना लिए नाली की तरफ जाते जाते एकाएक मेरे स्कूटर से टकराते बची. मैने जोरों से ब्रेक मारा और अनायास ही वह बोल उठी, ’माफ करियेगा’.
मैं आवाक उस मैली कुचैली काया को देखता रह गया और वो दौड़ कर नाले के किनारे चली गई और जोर जोर से जाने क्या क्या बड़बड़ाने लगी.
घर लौटा मगर उसकी वह आवाज मेरा पीछा करती रही, ’माफ करियेगा’.
मन यह मानने को तैयार ही नहीं है कि वह कोई पगलिया है. रात बड़ी देर तक सोने की कोशिश करता रहा लेकिन नींद जाने कोसो दूर चली गई.
बार बार मन में एक ही ख्याल कौंधता रहा कि आखिर वो कौन है और क्या है उसकी मजबूरी?
खिड़की से देखता हूँ आकाश में सूरज निकलने की तैयारी में है और रात सूरज के तेज में तार तार हो अपना अस्तित्व खोती जा रही है.
ख्याल उठता है उस पगलिया का. कहीं इस वहशी दुनिया से अपने अस्तित्व और आबरु की रक्षा के लिए तो यह रुप नहीं धर लिया उस वक्त की मारी ने?
पागलों की दुनिया की पागल नजरों से बिध कर पागल हो जाने से बेहतर पागल बने रहना ही पगलिया को बेहतर विकल्प नजर आया होगा, इसे पागलपन की बजाय समझदारी कहना भी कहाँ तक गलत होगा.
कौन जाने!!
इस वहशी दुनिया की, नजरों से बचने को
कितनी मजबूर है वो, ऐसे स्वांग रचने को
-लोग उस अबला को, पगलिया कहते हैं?
-समीर लाल ’समीर’
74 टिप्पणियां:
मैने पाया है कि श्री ज्ञानदत्त पाण्डे जी की मानसिक हलचल उनके लिए मानस में चाहे जो भी हलचल मचाती हो मगर उसका एक रुप दूसरे के मन में हलचल मचाने का हमेशा रहता ही है.
मैंने भी ऐसा ही मह्सूस किया है।
अद्भुत विवरण!अशक्त, असहाय लोगों पर लिखी यह रचना काफी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है। ये करूणा के स्वर नहीं है। ऐसी निरीह, विवश, और अवश अवस्था में भी उनके संघर्षरत छवि को आपने सामने रखा है। यह प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।
अपनी ही धुन की एक खिड़की है,
मैं नहीं सब बोलें पगली लड़की है...
एक हवा के झोंके सा बह जाए,
जितने हैं पल भर में खिंचे जांए,
कभी अकेले खुद से वह झगड़ती है,
मैं नहीं सब बोलें पगली लड़की है...
कभी चॉद को देख, दिखाए ठेंगा,
कहीं दर्द देख बिन सोचे लिपट जाए,
कभी शांत लगती तो कभी अकड़ती है,
मैं नहीं सब बोलें पगली लड़की है...
कभी परियों सी लगती, कभी डराए,
कभी गज़ल लगती, नई बंदिशें सुनाए,
कभी घटा सावनी, बिजली बन कड़कती है,
मैं नहीं सब बोलें पगली लड़की है,
एक धूप सी पर्वत ऊँचे चढ़ती है,
मैं नहीं सब बोलें पगली लड़की है...
-धीरेन्द्र सिंह
जय हिंद...
लोग उस अबला को, पगलिया कहते हैं.
यह शीर्षक होना था न ....मन दुखी हुआ आज फिर ! एक बार ज्ञान जी ने किया और आज आप !
मगर इस दुखान्तिका का कोई अंत भी है समीर जी .....
bade bade log badi badi baaten
सुबह सुबह गुदगुदा गए, हँसा गए, रुला गए, भिगा गए और सोचवा गए।
आप के चरण कहाँ हैं महाप्रभु !
नुक़्ते से ध्यान आया है कि आप से एकाध वर्तनीगत दोषों को दूर करने को कहूँ :)
क्या पागलपन है ? :)
aap ka likhna................kamaal...........har vishay ko sanjida aur rochak bana dete hain. wah.
हमारे गांव में एक ऐसी ही पगली घूमा करती थी .. कभी बाढ तो कभी पानी .. कभी बाबा तो कभी मां चिल्लाया करती थी .. अजब गजब हरकत किया करती थी .. फिर भी पेट की भूख मिटाने की किसी न किसी कोशिश में लगी हुई .. आपकी कल्पना और चित्रण से बचपन की वो यादें ताजी हो गयी !!
जिसने बनाया है अबला को पगलिया
वे तो उसे पगलिया ही कहेंगे
पर हम आप कब तक यूं ही सहेंगे
।
गहन पोस्ट.
बढिया पोस्ट्। आभार
बहुत द्रवित करती है आपकी रचना.
रामराम.
ऐसी पगलियां हर गली मोहल्ले में मिल जायेंगी. कोई यकीनन होती है कोई बनी हुई होती है. और हम भी उनको देखने के आदी हो जाते हैं.
अगर मैं यह कहुं कि उनके प्रति हमारी संवेदनाएं भी मर जाती है. ऐसी पगलियां कब तक आपके मानस को झकझोरती रह सकती हैं वो?
क्या एक पोस्ट निकालने तक? या उससे अधिक देर तक?
समीर जी,
अत्यंत मार्मिक शब्द-चित्र उकेरा है आपने....मन भर सा गया...जीवन में ऐसी कितनी पगलिया होंगी...जाने क्या क्या मजबूरियाँ होंगी...
आप भी न समीर जी...मानसिक हलचल ..अगर मानसिक हलचल न करे तो ऐसे नाम से क्या फायदा...ज्ञान दत्त जी ने कुछ सोच कर ही तो यह नाम रखा ह ना..
अब रही बात पगलिया कि...तो हम में से भी ना जाने कितनों ने 'ब्लाग्गर' रूप धरा होगा किसी और मुसीबत से बचने के लिए या फिर किसी को मुसीबत डालने के लिए...:):)
बढ़िया रहा आलेख आपका.....हमेशा कि तरह..!!
Manviy-samvedna ko jhakjhorti post !!
एक बार फिर आपने विभोर का दिया ..........
मेरा भारत महान
ज्ञान जी की पगली की कहानी को आपकी पगलिया ने नया ट्विस्ट दिया है...ये ही तो आपके लेखन की खूबी है...सबसे अलग...जरा हट के...कमाल.
नीरज
आजकल टिप्पणी करते भी भय लगा रहता है, पता नहीं क्या अर्थ निकाले और एक पोस्ट दे मारे...अतः इतना ही कहेंगे, पढ़ लिया है, हाजरी लगा लें. :)
समीरलाल जी, आदाब
भाओ विभोर कर रहे हैं आप
लगातार तीन पोस्ट से....
आज ही 'चीनी कम' का सुझाव भी आया है
और ऊपर से ये 'पगली' के शब्द...
माफ कीजिये.....
क्या करें हम??????
बहुत मार्मिक .... पगलिया के दर्द का एहसास दिल से किया है ........... बहुत वेदना है आपकी लेखनी में ...... सलाम समीर भाई ........
बहुत ही सजीव और मार्मिक शब्द चित्र ! आपको बधाई समीरजी |
बहुत सुन्दर व मार्मिक पोस्ट लिखी है।आप और ज्ञानदत्त पाण्डे जी ब्लोग जगत के ऐसे ब्लोगर हैं जो अपनी हर पोस्ट मे कुछ ना कुछ सोचने को मजबूर कर देते हैं।
sahi kaha.......kabhi kabhi asliyat ko chupane ke liye pagalpan ka chola bhi odhna padta hai nhi to ye duniya kahan jeene deti hai............behad marmik.
मैं अक्सर कहानी इसलिये नहीं पढ़ता कि ये अन्दर तक हलचल मचा देती हैं और फिर नपुंसकता का अहसास भी करा देती हैं.
पगली के वेश में भी कहाँ बच पाती हैं ....
अमृता जी के "पिंजर" की पगली आँखों के सामने घूम गयी
समीर जी, आपकी लेखनी का कायल था लेकिन इन दिनों में आपने जो लेख लिखे है वो बहुत ही मार्मिक है. अगर यह कहूँ की अब मै आपके विषयों का भी कायल हो गया हूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. दिल को छुने वाले विषय और अच्छी पोस्ट लिखने के लिए बधाई. कभी समय मिले तो गुफ्तगू में भी शामिल हो कर मार्गदर्शन दें.
www.gooftgu.blogspot.com
:) bahut khoob
nayab kalam ki nayab prastuti.. :)
बादल गरजे हाय, बिजूरी चमके
पिया बिन जिया मोरा धक धक धड़के
धूँधटा न खोलूं पिया....
सावन में...
....कहाँ से कहाँ की बात. इन पंक्तियों ने पूरी मानसिक हलचल मचा कर रख दी.
ज्ञान जी के लेखन में विविधता है और उनकी पोस्टे प्राय समाज की व्यवस्थाओ को इंगित करती हैं . बहुत ही सरल और सहज भाव में लिखते हैं . बिंदास प्रस्तुति आभार
पगलिया वास्तव में बेहद मार्मिक कहानी है........हमें ऐसे परिस्थितियों से रोज़ दो चार होना पड़ता है....
मन विभोर कर गई। कुछ महिलाएं ऐसा सच में करती हैं, दुनियावी अत्याचारों से बचने के लिए। मैंने तो उदहारण तक देखा है। जी।
pagli se pagaliya tak.....sab majbur hein....wo pagli bhi aur hum sab bhi....
िस कहानी को पहले भी वहाँ पढा था मन भीग सा गया था। आज फिर से आपने आँखें नम कर दी पता नहीं अगर इस कहानी को सोचने बैठो तो कितनी कहानियां इस औरत के अन्दर से निकल आयेंगी ग्यानदत्त जी ने गहरी बात कही है और आपने बहुत अच्छे तरीके से उसे सब के सामने रखा है धन्यवाद
मार्मिक कथा.
रचना का भाव अत्यंत मार्मिक है।
लेकिन यथार्थ कुछ और ही होता है।
कोई किसी को ऐसा नहीं बनाता।
मैली कुचैली , झूठन खाने वाली , ज़ाहिर है , मानसिक रूप से विकृत तो है।
लेकिन इलाज़ के अभाव में हालात ऐसे बन जाते हैं। दूसरे इस तरह के मरीज़ से घर वाले भी तंग आकर किनारा कर लेते हैं। मैंने अपने अस्पताल में कैंसर के मरीजों को घर वालों को लावारिस छोड़ भागते हुए देखा है।
सब किस्मत का खेल है भाई। यहाँ सहानुभूति नहीं , हॉस्पिटल में भर्ती कराने की ज़रुरत है।
लेकिन यहीं हमारा सिस्टम फेल हो जाता है।
पोस्ट ने अपनी भूमिका सही ढंग से निभाई है!
आपका कोई सानी नही है!
bahut khoob
waah !
संवेदनशील पोस्ट।
ज्ञान जी कि मार्मिक रचना अपना गहरा असर कराती है.बधाई.
बहुत सी ऐसी दास्तान है जो मनुष्य को सोचने पर विवश कर देती है..आज की दुनिया,समाज और उसमें बसे लोगो कितने अलग अलग प्रवृत्ति के हैं.....एक मार्मिक पोस्ट.....पढ़ना सार्थक रहा...इस लाज़वाब प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार समीर जी
SAMEER BHAI SAHAB...आप के चरण कहाँ हैं महाप्रभु ! ..BAHUT HIRDYGRAHI RCHNA..
एक संयुक्त ब्लॉग बना लीजिये आप भी. उनकी पोस्ट के बाद आपके पुछल्ले :)
काश
उस पगलिया के पिया
लौट आते तो ...
या,
कोइ नारी मुक्ति संगठन ही...
उसका जीवन संवारने में कोइ पहल...
खैर ...
विषय भारी है,
परंतु आपका लिखा
सदा की भांति,
मर्मस्पर्शी और सटीक -
स स्नेह,
- लावण्या
main aisi ek aurat ko roj dekhti hun ....budhhi hai ...par roj dekhti hun ...mujhe man bhi hota hai uske paas jaakar baat karne ka ...par pata nahin ek hichak hoti hai ...bas ek baar jaroor use puchhana hai ...javab naa de to bhi use kuchh khana dena hai ....
pata nahin kis dard ki dastan khamosh bankar yun ghumti hai samaj ko tamacha marte hue ...!!!!
bahut bahut badhaai kisi ki khamoshi ko padhne ke liye aur blog par likhne ke liye ...
ज्ञान जी को मैंने बहुत कम पढ़ा है. पर जितना भी पढ़ा है, वे एक अलख जगाये रखने वालें योद्धा की तरह खड़े दिखे.
aap ka likhna................kamaal...........har vishay ko sanjida aur rochak bana dete hain. wah.
Appki rachna ka jivant roop aksar dekhne ko mul jata hai..bdhai.
बहुत ही बढ़िया और मार्मिक प्रस्तुती ! आपका हर एक पोस्ट इतना सुन्दर है कि जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है!
इस पगलिया को समझने के लिए ,उस पगली से मिलकर आना पड़ा....यहाँ से वहां तक,सबने मिलकर यही कहने पर मजबूर किया की जिस दिन मन में यह आये की मैं बहुत दुखी हूँ,इनकी स्थिति का स्मरण कर लेना होगा....
कहते हैं जब कोई जीवन के किसी भी रस यथा हर्ष, विषाद, काम, लोभ को सीमांत ढंग से अनुभव कर लेता है, तो उसके व्यवहार में सामाजिकता का अंश कम होने लगता है..
क्या घटती असामाजिकता के कुछ उदाहरणों को विक्षिप्त करार देने की सामाजिक मान्यता सही है..???
नज़र तो सभी की जाती है लेकिन कोई बिरला ही इस तर्ह सोच पाता है ।
हां पता नहीं कितनी पगलियां इसी प्रकर अभिशप्त जीवन जी रही हैं.
आप कमाल का लिखते है
सम्वेदनशील रचना ...!!!!
HALCHAL....
PAGALI ...halchal..
अद्भुत.
उत्तम कहूं? और शब्द नहीं..
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.....
नोट: लखनऊ से बाहर होने की वजह से .... काफी दिनों तक नहीं आ पाया ....माफ़ी चाहता हूँ....
Bahut achchhee post----abhar.
Poonam
दिल को छू गयी आपकी पगलिया । समीर जी अब तो यही कहने को दिल करता है :
बहुत ही अच्छा है जी, दिल तो बच्चा है जी ।
समीर भाई कितना मार्मिक लिखते हैं आप
काश, इस पगलिया को कोई राह भी मिलती।
--------
घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।
पागलों की दुनिया की पागल नजरों से बिध कर पागल हो जाने से बेहतर पागल बने रहना ही पगलिया को बेहतर विकल्प नजर आया होगा, इसे पागलपन की बजाय समझदारी कहना भी कहाँ तक गलत होगा. कौन जाने!!
बहुत मार्मिक चित्रण. कलम भी यानिकी कीबोर्ड भी धारा प्रवाह चला है हमेशा की तरह
aap jaise diggaj jab bhi mera utsahvardhan karte hai to yahi lagta hai ki meri kalam ko samman mil raha hai...is samman aur hoslaafjai ke liye shbd nahi mere pas.......
अत्यंत मार्मिक और अद्भुत !! आभार
अप्रतिम लेखन!
यह उपेक्षित जीव सभ्य समाज द्वारा बहुत सताये गये हैं, जा रहे हैं।
काश हमारी धारणायें बदल सकें!
vakai aapka likha kamal ka hai
पगलिया की कहानी ने भावुक कर दिया.
आपके हौसलाअफ़जाई का बहुत-बहुत धन्यवाद...
इस टाईप के लेख पढ़कर हम मोहित हो जाते हैं और फिर हमसे टिप्पणी करते नहीं बनती।
कौन टाईप के हो यार, आप ?
ज्ञान जी की पोस्ट के लिए टिप्पणी इधर घणी लंबी चौड़ी लिख गए! पर लगी मस्त हमेशा की ही भांति!! ;)
कभी कभी ये दुनिया ही पागल बनने को मजबूर कर करती है...बहुत मार्मिक ..मन को छू गई.. समीर जी ...
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