बूंद बूंद पानी को तरसते ऐसे इन्सान को भी मैने देखा है जो समुन्द्र की यात्रा पर निकला तो ’सी सिकनेस’ का मरीज हो गया. पानी ही पानी देख उसे उबकाई आने लगी, जी मचलता था. भाग कर वापस जमीन पर चले जाने का मन करता था. शुद्ध मायने में शायद यह अतिशयता का परिणाम था और शुद्ध भाषा में शायद इसी को अघाना कहते होंगे.
याद है मुझे, कुछ बरस पहले डायरी के पन्ने दर पन्ने काले करना. न कोई पढ़ने वाला और न कोई सुनने वाला. बहुत खोजने पर अगर कोई सुनने वाला मिल भी जाये तो यकीन जानिये कि वो बेवजह नहीं सुन रहा होगा. निश्चित ही या तो उसे आपसे कुछ काम होगा या वो भी अपने खीसे में डायरी दबाये सुनाने का लोभ पाले सुन रहा होगा.
नियमित लिखना, टाईप करना और फिर उसे सहेज कर लिफाफे में बंद कर संपादक को सविनय नम्र निवेदन के साथ भेजना. कुछ संपादक संस्कारी और अच्छे होते थे जो सखेद रचना वापस भेज देते थे वरना तो पता ही नहीं चलता था कि रचना कहाँ गई.
कभी किस्मत बहुत अच्छी निकली और किसी पहचान के माध्यम से यदि निःशुल्क छप भी गई तो संपादक की कैंची से गुजरने के बाद खुद की रचना को खुद पहचानना मुश्किल हो जाता था. शब्द ही नहीं, भाव भी बदले नजर आते थे.
समय परिवर्नशील है.
इन्टरनेट प्रचलन में आ गया, ब्लॉग खुल गये. अब आप ही लेखक और आप ही संपादक. जो जी में आये, छापो. ब्लॉग, छ्पास कब्जियत का रामबाण इसबगोल. औकात आपकी-मरजी आपकी, चाहो तो दूध से फांक लो या पानी से. कब्जियत निवारण की गारण्टी. आज सुनाने के लिए लोगों को खोजना नहीं होता, ये दीगर बात है कि हिन्दी ब्लॉगिंग में अभी भी सुनने वाले उसी टाइप के हैं जैसे पहले थे याने अपने खीसे में अपनी डायरी दबाये सुनाने का लोभ पाले सुनने वाले. थोड़े ही हैं जो इससे अलग हैं कि शौकिया सुनने चले आये.
इस प्रक्रिया में चूँकि सभी सुनाने वाले ही आपको पढ़ रहे हैं तो स्वभाविक तौर पर आप उनको, कम से कम, लेखन से जानने लगते हैं. तब अगर उन्हें आपका लिखा पसंद न आये या वो आपसे आपके लेखन को लेकर नाराज हो जाये तो कैसे बताये?
सीधे सीधे कह देने में आपके भी नाराज होकर बदला लेने का खतरा है या वो अपने नाम से इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता कि वो सीधे आपसे कह दें कि क्या बकवास लिखा है. तब वह सुरक्षा बाबत या आत्मविश्वास बूस्टर हेतु बेनामी का कवच धारण कर आप पर वार करते हैं. आप चाहें तो उसका किया वार सबको दिखा दें और न चाहें तो उसके वार को डिलिट कर मिटा दें. इसमें साहस कैसा और कायरता एवं अकायरता कैसी?
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.
सब आपके हाथ में ही तो है, फिर इससे घबराना कैसा? इससे किसलिये नाराज होना? यहाँ ब्लॉगजगत के यही कायदे हैं-इन्हीं के साथ जीना होगा...याद करो सम्पादक का मौन या खेद सहित रचना की वापसी भी मौन धरे ऐसा ही कुछ कहती थी. तब तो आप कुछ नहीं कह पाये फिर अब? तब भी आपकी इच्छा थी कि चाहें तो दोस्तों को बतायें कि रचना वापस लौट आई है या चुप्पी मार जायें. अधिकतर तो चुप्पी ही मार जाया करते थे, क्यूँ?
कहीं छपास पीड़ा के निवारण की इतनी सारी स्पेस देख और इतने सारे सुनने वाले एक जगह इक्कठा देख अघा तो नहीं गये? वही ’सी सिकनेस’??
ऐसे में एक ही रास्ता है मित्र कि जहाज किनारे लगा लो, उतर जाओ जमीन पर. मगर ध्यान रहे- यह वही जमीन है जहाँ से भाग निकले थे बूँद बूँद पानी की तरसन लिए.
चैन तो कहीं नहीं..
ब्लॉग
मुझे
सुविधा देता है..
मैं मन में उठते भाव
जस का तस
लिख देता हूँ..
फिर
पाठकों की अदालत में
पेश कर
सो जाता हूँ..
रात गये
अंधेरे में
विचारता हूँ..
ये क्या लिख दिया मैने..
अपनी ऊँगलियाँ तोड़ देना चाहता हूँ..
तोड़ देना चाहता हूँ..
उस की-बोर्ड को
जिन पर इन ऊँगलियों की मदद से
टंकित किया था...
सुबह उठता हूँ..
देखता हूँ
पाठक कह रहे हैं
वाह!! वाह!!
बहुत सुंदर..!!!.
और
मैं मुस्कराते हुए
अपनी उजबक सोच
को सर झटक कर
अलग कर देता हूँ
और
मार देता हूँ
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..
’कौवा महन्ती’ के
अपने कायदे हैं!!
-समीर लाल ’समीर’
95 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा आपने . छपास कब्जियत का ईसब्गोल - ब्लाग लेखन
मार देता हूँ
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..
बेनामी को नाम देने की आपकी यह कोशिश, कोई तो मिला जो बेनामी के दर्द को यथारूप समझने की कोशिश किया पर उन बेनामियो का क्या जो माँ -- बहन -- तक की टिप्पणियाँ करके अंतर्ध्यान हो जाते हैं --
’सी सिकनेस’ का मरीज भी जब इलाज करवा लेता है तो फिर 'सी' की ओर ही भागता है.
असंदर्भित सी लगती है वह रचना, जो हमने स्कूल के दिनों में पढ़ी समझी
वही: कौआ और कम पानी वाले घड़े में कंकड़ डाल कर प्यास बुझाने वाली
आजकल की आधुनिक-संशोधित रचना में, कौए को सीधे घड़े में चोंच मार-फोड़ कर पानी पी लेना बताया जाता है
बी एस पाबला
भौतिक शास्त्र का एक नियम पढ़ा था...
कौवा पानी से भरे किंतु ऊपर से बंद घड़े के साइड में जितनी नीचे चोंच मारेगा, पानी की धार उतनी ही दूर जाएगी...
गुरुदेव, आज न जाने क्यों अटल बिहारी वाजपेयी याद आ गए...
जय हिंद...
हम्म, बात तो समीर जी आप सही कै रिये हो। अपने बारे में तो यही कह सकते हैं कि इतनी अकल थी कि किसी संपादक को कभी कुछ लिख के नहीं भेजा, पता था कि छपना-वपना है नहीं खामखा किसी भले आदमी का टैम खोटी करो उसका क्या फायदा। बस जब से यहाँ खुद ही छपास पिपासा मिटाने का जुगाड़ आया तब ही से पिले हुए हैं, का करें कंट्रोल ही नहीं होता!! ;)
’कौवा महन्ती’
:)
प्यास समंदर से भी गहरी है, पुरा समंदर पीने से भी नही बुझती-सीकनेस तो अवश्य संभावी है। अब का कीजै-कौंवा महंती ही सही, सुंदर पोस्ट के लिए आभार
@ मार देता हूँ
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..
’कौवा महन्ती’ के
अपने कायदे हैं!!
_____________________
ये तो अपनी बात हो गई. कायरों के लिए भी जगह है.
फैन बना लिया आप ने तो.
कैसी जबरदस्त सोच है. आपके दिमाग में तो कील ठोंक दें तो स्क्रू बन कर निकले. गजब का लिखते हो.
"""सब आपके हाथ में ही तो है, फिर इससे घबराना कैसा? इससे किसलिये नाराज होना? यहाँ ब्लॉगजगत के यही कायदे हैं-इन्हीं के साथ जीना होगा...याद करो सम्पादक का मौन या खेद सहित रचना की वापसी भी मौन धरे ऐसा ही कुछ कहती थी. तब तो आप कुछ नहीं कह पाये फिर अब? तब भी आपकी इच्छा थी कि चाहें तो दोस्तों को बतायें कि रचना वापस लौट आई है या चुप्पी मार जायें. अधिकतर तो चुप्पी ही मार जाया करते थे, क्यूँ?
कहीं छपास पीड़ा के निवारण की इतनी सारी स्पेस देख और इतने सारे सुनने वाले एक जगह इक्कठा देख अघा तो नहीं गये? वही ’सी सिकनेस’??
ऐसे में एक ही रास्ता है मित्र कि जहाज किनारे लगा लो, उतर जाओ जमीन पर. मगर ध्यान रहे- यह वही जमीन है जहाँ से भाग निकले थे बूँद बूँद पानी की तरसन लिए."""
सही बात. निराला जी को भी झेलना पड़ा था---लौटी है रचना निराश , ताकता हुआ मैं दिशा-काश .....
जहाँ भी अतिवाद होगा ऊबन तो होगी ही.
बहुत सही!
देख रहा हूं और समझ भी रहा हूं , खुशी इस बात की है कि नया साल कम से कम इस बात से शुरू हुआ है कि ब्लोग मंथन हो रहा है ,विष या अमॄत ये तो वक्त तय करेगा । आप सबके लिए संबल हैं और मार्गदर्शक भी ...सो ..
अजय कुमार झा
बढता नाविक
क्षितिज के पार
समुद्र की लहरें विशाल
कलम जिसकी ताकत
मानस की प्रतिबद्धता
है उसकी ढाल.
ये अंगुली बचाकर रखना,
कभी जुल्फों में तो
कभी कीबोर्ड पर सजाकर रखना
गुस्सा आए भी
तो रात के अंधेरे में
इनको दिल से लगाकर रखना।
सुविधा देता है..
मैं मन में उठते भाव
जस का तस
लिख देता हूँ..
" ब्लाग का सुन्दर खाका खींचा है आपने, सत्य है यही तो है और यही हो रहा......."
regards
क्या सच लिखा है.....
अच्छी लगी आपकी ये पंक्तियां .....
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.
सब आपके हाथ में ही तो है, फिर इससे घबराना कैसा? इससे किसलिये नाराज होना?
इंटरनेट पर ब्लॉग लेखन के कारण मिलनेवाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से तो इंकार किया ही नहीं जा सकता .. विविधता से भरी इस दुनिया में भिन्न भिन्न चरित्र के व्यक्ति के होने से इंकार नहीं किया जा सकता .. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा कोई एक तो उठाएंगे नहीं .. इस तरह ब्लॉग जगत की यह दुनिया भी तो विविधता से भरी होगी !!
बहुत खूब !!
ये भी सही ही है।
----सुबह उठता हूँ..
देखता हूँ
पाठक कह रहे हैं
वाह!! वाह!!
बहुत सुंदर..!!!.
और
मैं मुस्कराते हुए
अपनी उजबक सोच
को सर झटक कर
अलग कर देता हूँ
और
मार देता हूँ
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..___सब कुछ तो लिख ही दिया आपनें,अब बचा ही क्या.
बेजोड़ -बेहतरीन.
लाजवाब लिखा है आपने हमेशा की तरह ।
'सी सिकनेस'
बढ़िया प्रतीक है !
इस समय ऐसे ही लेख की जरूरत थी । बहुत ही सामयिक और सार्थक , साधुवाद
ज़्यादती [बहुलता] सभी चीज़ों की बुरी होती है........
हो सके गर तो मदद [AID] करना किसी की लेकिन,
भूल कर भी कभी इमदाद [AIDS??] न करना यारों,
ख़ुद के हाथो ही हलक़ पर ये छुरी होती है.
-मंसूर अली हाशमी
अंतर्राष्ट्रीय छपास मंच जिंदाबाद
ब्लॉग बिना चैन कहाँ रे
टीन के ऊपर पत्थर फेंको , रात के सन्नाटे में आवाज दूर तक जायेगी
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.
पर वो सियार क्या करे? जिसे शेर ढेले मारता हो? और जंगल मे रह कर भी खुद को शहर का अभिजात्य बाशिंदा समझता हो?
रामराम.
कुछ मिलने की आभासी उम्मीद एक रेगिस्तान से उठाकर दूसरे रेगिस्तान यानि समुद्र में धकेल तो देती है लेकिन जिस पानी की उम्मीद करके यहां आते हैं वह पानी ही नहीं मिलता। इसलिए अघाने से अधिक पानी की अनुपस्थिति वाली बात हो सकती है। यह निष्कर्ष भी मैं आपकी पोस्ट पढ़कर ही निकाल रहा हूं कि जो मछलियां हैं उन्हें समस्या नहीं होगी लेकिन जो रेगिस्तान में मीठा पानी पीने के लिए तरसते हैं उनकी प्यास समुद्र में भी बुझती।
ऐसे में सूखते गले से निकलती चीखों को एनॉनिमस की राग कह सकते हैं।
जो भी हो हैप्पी ब्लॉगिंग... :)
कितना भी लिखो, बारबार लिखो. यह सवाल तो फिर भी पूछा जाता रहेगा. ब्लॉगिंग काहे करते हैं?
असहमत बिन्दु :
कायरता और अकायरता पर..
इसे डिनॉयल मोड क्यों न माना जाये ?
एक प्रकार से सेल्फ़-ऍप्रूवल फ़ॉर डिनाइँग दॉउसेल्फ़, एक आम पाठक के पास दिमाग कहाँ ?
छपास की कब्ज़ियत.... अशोक चक्रधर, चेतन भगत, Jon McGregor, Claire Fogg इत्यादि कहाँ ठहरते हैं ?
यदि इस पोस्ट को मैं विकृत परिप्रेक्ष्य में न देख रहा हूँ तो, और भी बहुत कुछ.. पर खीसनिपोर श्रोताओं का लिहाज़ भी तो करना है !
आपने बिल्कुल सत्य लिखा है । ब्लॉग जगत में ईमानदार और निष्पक्ष समालोचना के लिये शायद स्थान नहीं है । टिप्पणी मन माफिक हो तो लेखक की स्वीकृति के बाद छप जायेगी अन्यथा नहीं । यदि यह विकल्प लेखक के पास न हो तो अनेक खुराफ़ाती टिप्पणीकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी कर सकते हैं । फूलों के साथ काँटों की चुभन को तो झेलना ही होगा । विचार मंथन के लिये बहुत ही सार्थक रचना ।
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं
हा..हा..हा.. समीरजी बात तो बिलकुल आपने १०००% सही लिखी है सी सिकनेस की स्थिति ही हो ली सब की !!! सच है सबके मन में यही उठता है !! पर इस तरह शब्दों में पिरोकर कोई रखे कैसे !!!
आज समझ में आय गवा की आखिर हिन्दी ब्लागिंग है कौन see शै ?
ये मेरा आलेख अपने कहाँ से लिफ्ट किया है हा हा
वाह!
घुघूती बासूती
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.
sach kaha hai apne! aaj kal apni baat kahan kitana aasan kar diya hai net ne par hume sochna hoga ki kya hum sahi use kar rahe hai iska!
कौवा-महंथी = काली महंथी (?) , :)
क्या कहें आप ने
तो हर ब्लोगर की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. ये तो वो हैं की जो ब्लोगर ब्लोगर खेलते भी हैं और ये भी चाहते हैं की उनकी हर बात सबको पसंद आये. अगर आपकी टिप्पणी उनकी पसंद के दायरे से बाहर हो तो उसमें भी काट छांट कर फिर लगा देंगे और आपने उनकी पोस्ट से मिलती जुलती अपनी कोई पुरानी पोस्ट उन्हें जवाब मैं भेज दी तो समझो की टिप्पणी प्रकाशित ही नहीं होगी .समझ में ये नहीं आता है की बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी ये आपकी एक बहुत बेहतरीन पोस्ट है.चलो कुछ मजा तो आया
कल मरे थे लोग कितने ,रो रही थी ये जमी
महफिले सजने लगेगीं देख लेना शाम से
आपकी ही पंक्तियाँ हैं, मुझे लगा इस पोस्ट के लिए यही सार्थक हैं
लिखते रहिये, बहुत अच्छा लग रहा हैं आपको पढ़कर
समीर भाई का परम्परागत है "सुन्दर लेखन" !!!
अपनी रचना पर बेनामी जैसी सोच ......... पर हर बेनामी ग़लत आलोचना ही तो नही करता ...........
भाई जब लेखक हम, संपादक हम तो फिर अच्छा ही लिखा है ....... खराब तो हो नही सकता ...... अगर खराब लगे तो एक पल का मन का विकार मान कर भूल जाना ही अच्छा है .....
बहुत ही सही लिखा है, समीर जी आपने...ब्लॉग जगत के सिवा कौन सुनता था,अपना लिखा?वो भी इतने शौक से?....किसी को अपना लिखा दो भी पढने, तो हिचकते हुए....और पत्रिकाओं की तो बात भी अब पुरानी हो गयी...हिंदी की पत्रिकाएं अब इतनी हैं ही नहीं...जो नए लिखने वाले,रचनाएं भेजने की हिम्मत जुटा पायें.ब्लॉग जगत ने सबकी लिखने की चाह पूरी कर दी है...
और ये आप पर है कि आप टिप्पणियों को किस तरह लेते हैं...असली दुनिया में क्या सब कुछ अपने मन लायक होता है...फिर यहाँ कैसे उम्मीद रखें??
bahut sahi vichaaron ko likha hai, par aapko aisa nahi lagna chahiye.......aapki kalam anubhawi hai
समीर जी सच कहूँ तो कई बार मुझे भी ऐसा लगा कि ये नज़्म अच्छी नहीं बन पड़ी ....पर इसे पाठकों का स्नेह कहूँ....उनका सम्मान कहूँ या कौवा महन्ती....कि वो हर बार तारीफ कर जाते हैं ......क्या सच कहने के लिए बेनामी बनना पड़ेगा ....??
सर और विल्स कार्ड प्रस्तुत करे
'सी सिकनेस 'और ब्लॉग्गिंग की दुनिया'...
Sangeeta जी की बात से सहमत-'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा कोई एक तो उठाएंगे नहीं .. इस तरह ब्लॉग जगत की यह दुनिया भी तो विविधता से भरी होगी !!'
sachmuch insan ko kisi bhee dasa me chain nahin hai. wah har pal baichain hai.narayan narayan
पाठक कह रहे हैं
वाह!! वाह!!
बहुत सुंदर..!!!.
-----------
हम भी कहते हैं यह। और लोग भी कहते हैं हमारे लिये।
पर एक भय बना रहता है कि कोई बच्चा न कह दे - अरे राजा तो निर्वस्त्र है!
(एच.सी. एण्डरसन की कहानी के पात्र)।
सच ही है..
पर अभी तक हमें किसी सम्पादक तक पहुँचने का अवसर नहीं मिला.. तो उस अनुभव को व्यक्त भी नहीं कर सकता :)
ab to ese nishthur sampadak bahutaayat me he jo aai hui koi si bhi rachna ka lifafa tak dekhna pasand nahi karte aour seedhe NET se bani banai khichadi MAAR lete he..vo bhi apane naam se.../// me shayad yah jyada behatar jaanta hu. kher../ rachna hamesha ki tarah kuchh samajhaati hui. vecharik aour pathaneey
lagbhag sabhi likkhadon ke dil ki baat kah di aapne...
Shabdsah sahmat !!!!
Achchha likha hai. dhanyavad.
रात गये
अंधेरे में
विचारता हूँ..
ये क्या लिख दिया मैने..
अपनी ऊँगलियाँ तोड़ देना चाहता हूँ..
तोड़ देना चाहता हूँ..
उस की-बोर्ड को
जिन पर इन ऊँगलियों की मदद से
टंकित किया था...
aap sada hi sateek likhte hai aur bahut hi sahaj tareeke se apni baat ko keh jate hai ...aapne jo kaha wo satya hai ..magar kavyatmak bhi hai yeh ....ap ye sab likhte na to aashaye jagate hai na hi niarash kerte hai v na hi ulahna dete hai ...jisa hai waisa batla ker ek soch dete hai ..yeh baat mujhe kavita ke paksh mein lagti hai ..dhanyawad
sarvpriya aur sarvshesth dono samman jald i aap ki jholi mae hogaey phir naa kehna pehlae sae batyaa nahin varna party daeta
मेरे दिल की बात को आवाज़ देदी आपने...!!!
जाएँ तो जाएँ कहाँ...समझेगा कौन यहाँ...दर्द भरे दिल की जुबाँ...
नीरज
आज आपकी इस पोस्ट पर एक लम्बी चौडी गम्भीर सी लगने वाली टिप्पणी करने का मन कर रहा था...लेकिन जब राजेश स्वार्थी जी की टिप्पणी पढी तो ऎसी हँसी छूटी कि तुरन्त ही विचार बदल गया :)
लाख पैमानों को देखा, तो न टूटी तौबा
तौबा टूटी भी तो, टूटे हुए पैमाने से.....?
O My GOD ! अक्षरक्ष: सत्य वचन.....क्या पॉइंट दर पॉइंट पाते की बात की है आपने..
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
परेशान न होइएगा, आपकी इस पोस्ट से इतनी ख़ुशी मिली कि संभाले नहीं संभल रही इस कारण ऊपर वाली लाईन बार बार, कई बार
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
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इसी तरह को देख का कहा गया होगा "वो मारा पापड़ वाले को"
हा..हा..हा..
हा..हा..हा..
हा..हा..हा..
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और
मैं मुस्कराते हुए
अपनी उजबक सोच
को सर झटक कर
अलग कर देता हूँ
और
मार देता हूँ
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..
’कौवा महन्ती’ के
अपने कायदे हैं!!
आदरणीय समीर जी,
सीधा सा सवाल है कि आखिर क्यों मार देते हैं आप या कई और ब्लॉगर उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को ? क्या यह सही है ? ब्लॉग जैसे माध्यम में टिप्पणी मॉडरेशन! ना बाबा ना....
बहुत ही सार्थक, सटीक और सामयिक है:
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा?
सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.
शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.
उस अकेले बेनामी पाठक की सोच को
जिसकी सोच अक्षरशः
मेरी सोच से मिलती थी..
(पिछली पोस्ट में मेरा लिंक देने के लिए धन्यवाद. आज 'अदा' जी
की आवाज़ सुन कर धन्य होगया. साधुवाद.)
ब्लोगिंग का समबन्ध सीधा सायकोलोजी से है।
जिस तरह यह मस्तिष्क एक बहुत ही ज़टिल अंग है शरीर का। उसी तरह ब्लोगिंग ह्युमन सायकोलोजी का एक ज़टिल पहलू है। अभी सब इसे समझने में ही लगे हैं। कुछ समय बाद काट छांट कर कुछ तो निकलेगा काम का।
ब्लॉग, छ्पास कब्जियत का रामबाण इसबगोल!!!
हा ! हा ! हा ! मज़ा आ गया भाई.
शानदार!
समीर लाल जी...!
नमस्कार.
"हिंदी ब्लॉगिंग-कौवा महंती" में आप ने बहुत ही कडवी सचाई को बहुत ही मधुर और सीधे साधे शब्दों में प्रस्तुत किया है....! इस हकीकत को पढ़ कर जो लोग सकारात्मक ढंग से सोचने लगेंगे वे अपने साथ साथ दूसरों का भी भला करेंगे....हां एक और वर्ग की बात भी करना चाहता हूँ जिसे ब्लॉग सिस्टम ने नया अवसर प्रदान किया...वह वर्ग है डेस्क पर काम करने वाले लोगों का....इतनी मेहनत.....इतना काम...तौबा तौबा और वह भी सब अपने मन की बात कहने के लिए नहीं बल्कि उन मालिक लोगों की बात कहने और करने के लिए...जिनकी अख़बार या चैनल में उन्हें काम करना पड़ता...उनका अपना निशाना बस रोज़ी रोटी तक सिमट कर रह जाता...खबर लगवाने या रचना छपवाने वाले तो उन्हें बहुत बड़ा समझते हैं पर अंदर से वे ही जानते हैं कि वे खुद को क्या समझते हैं.....जिनको कुछ शर्तों पर अगर कुछ कहने की छूट मिल भी जाती है तो उनके मन में भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो वे नहीं कह पाते...जो लोग डेस्क पर नहीं हैं फील्ड में काम करते हैं वे भी जानते हैं की उन पर बिजनेस इक्कठा करने के लिए कितना दबाव होता है...कुल मिला कर यह तकनीक सब के लिए भली है..इस लिए इसे साफ सुथरा रखना और मज़बूत बनाना सब के लिए एक नैतिक कर्त्तव्य भी है....फिर ऊपर से सोने पर सुहागा यह कि आप जैसे लोग कदम कदम पर मार्गदर्शन, सहयोग और सब से बढ़ कर उत्साह बनाये रखते हैं......इस सिलसिले को जारी रखें...इस सुंदर रचना के लिए आपका आभारी भी हूँ.....हार्दिक बधाई स्वीकार करें....!
आपका अपना ही;
रेक्टर कथूरिया
http://www.punjabscreen.blogspot.com/
वाह सर जी..क्या प्रवाह रहा आज की बात मे..’सी-सिकनेस’ की नयी व्याख्या हो गयी यह तो..और ’शहर मे ढ़ेला मारने’ वाली बात तो हमे सूझी ही नही..अब कौन होगा जो आपकी बात से असहमत होने की जुर्रत करे :-)
..हाँ ’कौवा-महंती’ का मतलब पल्ले नही पड़ा जरा...
सत्य वचन
बहुत सटीक बात कही आप ने, आप से सहमत है
समीर लाल जी, आदाब
कितनी बेबाकी से आप अपनी बात कह गये हैं
सच है, ब्लाग के जहान में एक बड़ी महफिल सजी है
जहां वाह वाह करना जैसे अनिवार्य हो चुका है
सभी की अपेक्षा यही है..
आलोचना तो दूर
अगर कोई सलाह भी दे, तो कोई मानने को तैयार नहीं है
हां, नाराज़गी ज़रूर पैदा हो जाती है.
बस यही 'नियम' है,
'हमने कहा, वो सर्वश्रेष्ठ है'
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
आपकी सफलताओं के लिए , हमारी दुआएं भी शामिल कर लीजिये
नव वर्ष मंगल मय हो
आपके ब्लॉग पर आकर, आपकी सुलझी हुई बातों को पढना
एक अच्छे मित्र से बतियाने जैसा लगता है
स स्नेह
- लावण्या
हिन्दी ब्लॉगिंग- कौवा महन्ती!
एक ओर कुआँ, दूसरी ओर खन्ती!
बेटों की तू-तू,मैं-मैं से
परेशान है कुन्ती
हमेशा की तरह ही हलके फुलके अन्दाज़ में गम्भीर बात। बधाई।
वत्स समीर
बात निकली है तो दूर तलक जावेगी
आपके विचारों से सहमत हूं। अपने लिए एक आचारसंहिता बना रखी है। बस उसे ही फॉलो करने का प्रयास करता हूं।
वर्षों पहले आइएनएस विराट पर की अपनी यात्रा याद हो आयी इस सी-शिकनेस के नाम पर।...और फिर इसे प्रतिक बना कर क्या तीर चलाया है सरकार आपने..वाह!
रचनाओं की खेद सहित वापसी का दुख...ऊह-आह-आउच...
चैन तो मरने के बाद ही मिलता है। पर पता नहीं, वहां भी मिलता है या नहीं?
--------
अपना ब्लॉग सबसे बढ़िया, बाकी चूल्हे-भाड़ में।
ब्लॉगिंग की ताकत को Science Reporter ने भी स्वीकारा।
lajawab
जंगल के वासी हो तो फिर क्या शेर, क्या सियार और क्या चूहा? सब मिलेंगे और सबसे डील करना होगा अपने अपने तरीके से.शहर जा नहीं सकते, वहाँ लोग ढेला मारते हैं.
सब आपके हाथ में ही तो है, फिर इससे घबराना कैसा? इससे किसलिये नाराज होना?
बहुत अच्छा लगा.....लेकिन एक बात और सी- सीकनेस मत रखिए। न जाने कितने ब्लॉगरों के हौसला हैं आप।।।।
Sameer Bhai,
kahna hi padega bahut khoob.
आजकल के असली आधुनिक कौवे
न तो कंकड़ भरते हैं
न मटकी को फोड़ते हैं
उनकी पहुंच में हैं
बोतलें सभी
छोटी या बड़ी
जिन पर लिखा
रहता है बिसलरी।
डायरी के पन्ने दर पन्ने काले करना अर्थात कौआ महंती... नई परिभाषा जानने मिली ...
सही लिखा है, मजा आया जब आपने बेनामी लोगों पर व्यंग किया, ये छपास बीमारी सभी लोगों में है नेताओं में तो खासकर तीसरे स्टेज की होती है लाइलाज
baat to solah aane sacchi hai.......ye bloging ek rangmanch hai....jahaan retake nahi milta ek baar post kar diye to fir janta hi malik hai...lekin kabhi-kabhi jab alochnaon ki aas hoti hai...tab bhi prashansa ko gale lagana padta hai...main to aapke blog ke madhyam se yahi kahna chahti hoon ki,har waqt prashansa acchhi nahi....kabhi-kabhi kadvi aalochnayen bhi kadvi davaon ki tarah kaam karti hain...hamare lekhan ki sehat durust karne ke liye....to meri or se aap sabhi ki aalochnayon ka sadar aamantran sweekar karen.........
bahut khoob likha hai wah
इसीलिए कहते हैं अति वर्जयेत सर्वत्र!!!
दोनो माध्यमों पर यह अच्छा विमर्श है ।
आप की बाते बहुत से मायने में सही है | आज भी हिन्दी ब्लोगिंग परिपक्वता की और नहीं बढ़ रही है | टिप्पणी पाने का जो लोभ पहले था वो आज भी है | हिन्दी ब्लोगिंग में सबसे ज्यादा संख्या कविता या समसामयिक विषयों पर लिखने वालो की है | लेकिन उनसे क्या सभी क्षेत्रों के ज्ञान की पूर्ती हो जाती है ? नहीं इसके लिए तो अंग्रेजी की शरण में जाना ही पड़ता है | आज भी बहुत से ऐसे विषय है जिन पर हिन्दी में लिखा जाना जरूरी है | जैसे मोटर मैकेनिक , विज्ञान ,कृषि ,गृह उपयोग की वस्तुएं , बिजली, एलोपैथी आदि |
"छपास कब्जियत का ईसब्गोल" , "कौवा महंती" ... ऐसे ऐसे शब्द आप लाते कहाँ से हैं :)
’कौवा महन्ती’
!!!!
आप की बात तो कभी-कभी मैं भी सोचता हूँ....
बहुत ही सुन्दर और मनोहारी रचना....
सहमत हूँ । मानव प्रवृत्ति है कि सहजता से उपलब्ध सुविधा के महत्व को वह नहीं पहचान पाता । सहज को अकसर हल्का समझने की भूल की जाती है ।
इसे बेहतर तरीके से पेश किया है आपने ।
यद्यपि कौवा महन्ती का अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं हुआ ।
वैसे यह 'कौवा महन्ती' क्या होता है?
Mansoorali Hashmi
to me
show details 10:03 PM (1 minute ago)
@ Mrs.Bhawna K Pandey ’कौवा महन्ती’ !!!!
@ साधवी : वैसे यह 'कौवा महन्ती' क्या होता है?
मैं कुछ यूं समझा हूँ:-
''कौवा बहुत ''मेहनती'' होता है, पानी [comments] न प्राप्त होने तक घड़े में पत्थर डालता रहता है....छ्प्पास!
-मंसूर अली हाशमी
सोच को साकार कर दिया आपने - बहुत खूब. आभार
महंती एक पद या रुतबा है और कौवा एक चरित्र
मैं इतनी देर से पढ़ रहा हूँ । अजीब-सा हो गया हूँ अपनी नेट की अनुपलब्धता के बारे में सोचकर । कस्बाई दिक्कतों का पतन कब होगा ? भगवान !
या शायद यही संघर्ष सौन्दर्य देता हो, मुझमें चाव भरता हो !
प्रविष्टि देखकर मुग्ध होता हूँ । यह ताब रह पायेगी हममें भी देर तक ?
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