अक्सर जब तक कोई विशेष मजबूरी नहीं होती, मैं उस गली से गुजरने से रोकता हूँ खुद को. जानता हूँ, उस गली को छोड़ कर दूसरा रास्ता लेने में मुझे लगभग दोगुनी दूरी तय करनी पड़ती है फिर भी.
कुछ विशेष वजह भी नहीं. कुछ सड़क छाप आवारा कुत्ते हैं, वो दिन भर उस गली को छेके रहते हैं. हर आने जाने वाले पर भौंका करते हैं. पीछे पीछे आते हैं. छतरी दिखाओ तो डर कर दुम दबा कर भाग जाते हैं मगर भौंकते हैं. एक बार तिवारी जी को दौड़ाया भी था मगर काटा नहीं. तिवारी जी ने ही बताया था.
तमाशबीन बने गली में रहने वाले न जाने क्यूँ इस बात पर मुस्कराते हैं मानो चिढ़ा रहे हों. क्या मालूम मुस्कराते भी है या उनका मूँह ही वैसा है. मैने हमेशा, जब कभी मजबूरी में उस गली से गुजरना पड़ा, उनका मूँह वैसा ही देखा है मानो मुस्करा रहे हों.
वो भी तो निकलते होंगे उसी गली में. उनकी तो मजबूरी है है कि वो रहते ही उस गली में है. कुत्तों का क्या है वो तो आवारा हैं, वो तब भी भौंकते होगे. बाकी रहवासी भी शायद तब भी चिढ़ाने को मुस्कराते हों. उनका तो मूँह ही वैसा है. क्या पता!
मेरे घर से दक्षिण में कुछ मकान छोड़ कर एक बरगद का पेड़ है. रात अंधेरे उस तरफ देखो तो बड़ा अजीब सा दिखता है, भयावह. जाने कौन शाम को उसके चबूतरे पर दिया जला कर रख जाता है. टिमटिमाता दिया देर रात तक जलता रहता है. दूर से देखने पर जान पड़ता है को कोई जानवर बैठा है और उसकी आँख टिमटिमा रही है. जानवर भी कैसा-एक आँख वाला. कोशिश तो करता हूँ कि रात गये उस तरफ न जाऊँ मगर कभी मजबूरी में जाना भी पड़ा तो मेरी नजर उस पेड़ को बचा कर निकलती है हमेशा.
जैसे जैसे पेड़ पास आता जाता है, मेरी धड़कने असहज होने लगती हैं. पेड़ भौंकता तो नहीं मगर कभी अजीब सी आवाजें करता है तो कभी डरावना सन्नाटा खींच लेता है. मुझे दोनों हालतों में उसके पास से गुजरने में परेशानी होती है. अक्सर देर रात लौटने में उस गली को छोड़ता, दक्षिण की बजाय और थोड़ा ज्यादा लम्बा रास्ता लेकर उत्तर की तरफ से घूम कर घर जाता हूँ.
आज तक वैसे न तो उन कुत्तों ने काटा और न ही पेड़ ने परेशान किया मगर वो शायद इसलिए कि मैं उनसे बच कर निकलता हूँ या फिर शायद यह सब मेरे भीतर का एक वहम बस हो लेकिन है तो.
ऐसे ही कितने वहम, कितने पूर्वाग्रह और कितने डर पाले मैने अपनी मंजिल को कितना दूर और अपने रास्ते को कितना लम्बा बना लिया है. थकान होने लग जाती है कभी कभी.
एक इच्छा है कि कभी सहज और सरल जीवन जी पाऊँ मगर लगता तो नहीं.
ये डर, ये पूर्वाग्रह और ये वहम-जाने किसने, कब और किन बातों से मेरे भीतर तक उतार दिये हैं. ठीक वैसे ही जैसे की मेरे संस्कार.
शायद कभी न बदलें.
चलते चलते:
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
-समीर लाल 'समीर'
माँ बाप की बचपन की समझाईश ऐसे ही तो संस्कार बन जाती है, किसी के भी व्यक्तित्व का हिस्सा.
कहने को बस यूँ ही: माँ बाप बच्चों को शैतानी से रोकने की लिए अक्सर कह देते हैं कि साधु बाबा ले जायेगा, या पुलिस पकड़ लेगी या वहाँ भूत रहता है. आपको क्षणिक आराम मिल सकता है मगर प्लीज, एक डरा हुआ मैं और न बनायें. जरा सोचे. और भी तो तरीके हैं बच्चों की शैतानियाँ रोकने के. उन्हें अपनाईये!!
88 टिप्पणियां:
ये शब्द चित्र कहाँ के हैं -क्या भारत क्या कनाडा ,मानसिक संसार एक ही जैसा है न समीर जी .....मगर ये बूढा बरगद कौन है और कौन है ये शरीफ(या कमीने -इट डिपेंड्स !) कुत्ते !
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
शायद हर मा यही सिखाती है लेकिन हम इतने बडे हो जाते है कि मां की बाते बचकानी लगने लगती है
गुरुदेव,
यहां टीवी पर एक एड आता है...
झूठ कहते हैं वो...जो कहते हैं कि उन्हें डर नहीं लगता...
डर सबको लगता है...
लेकिन डर से मत डरो...क्योंकि डर के आगे ही जीत है...
जय हिंद...
एक कड़वा सच है यह जो कि कोई मानना ही नहीं चाहता है कि "मैं" डरता हूँ जो कि सहज ही आपने अपनी लेखनी से उकेर दिया है, ऐसे ही ये "कुत्ते" भी भौंककर डराते रहते हैं, और पता नहीं कि पेड़ के नीचे दिया जला रहता है या वाकई कोई जानवर, और केवल धर्मस्थल ही क्या कहीं कहीं तो कुछ भी नहीं होता वहाँ पर भी सर झुक जाता है, ये सब संस्कार ही तो हैं। पर संस्कार डराकर नहीं प्यार के कोई दूसरे तरीके से भी दे सकते हैं।
पीपल के पास जलता दीपक , गालियों में आवारा कुत्ते ...ये तो हमारा भारत ही हो सकता है ...
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा ...सर झुकता ही है ...
और उनके सामने भी जिनके लिए श्रद्धा हो ..!!
डर तो लगता है। क्योंकि डर नामक वस्तु का वास्ता हमारे साथ बचपन से है। माँ कहती है सो जा माऊं बिल्ली आ जाएगी। जब हम बिल्ली से डरकर सो जाते हैं तो आवारा कुत्तों और रात के अंधेरे में चमक रहे पेड़ को देखकर तो डर आना बनता है।
वैसे डर के आगे जीत है।
ऐसे ही कितने वहम, कितने पूर्वाग्रह और कितने डर पाले मैने अपनी मंजिल को कितना दूर और अपने रास्ते को कितना लम्बा बना लिया है. थकान होने लग जाती है कभी कभी.
सॉलिड बात कही है आपने !!
एक बार तिवारी जी दौड़ाया भी था मगर काटा नहीं. तिवारी जी ने ही बताया था.
"को"
आज आपकी लेखनी की अलग ही बानगी देखने को मिली है । बहुत सुन्दर शब्द चित्र है । ना जाने कितने पेड़ों के नीचे जलते दिये और गलियों में राहगीरों को भौंक भौंक कर दौड़ाते कुत्ते निग़ाहों में घूम गये । खुद एक डरी हुई माँ क्या बच्चे को डराएगी ! बच्चे को अनुशासित करने की उसकी यह बचकानी कोशिश उसके अपने मन के डर को ही उद्घाटित करती है । माँ हमेशा अच्छे संस्कार ही देती है ।
Achhi lekhni hai. Aapka blog mujhe kuchh sikhayega. kahir aapka subah-subah comment padhkar hansi aa gyee. office mein aate hi hansaane ke liye dhanywaad.....
आवारा कुतों का पोषण भी मुहल्लेवाले करते हैं, फ़िर बैठने के लिए बरगद छांव जो मिल जाती है। दौड़ाएंगे ही।
काटे चाटे स्वान के......
बचने की कोशिस करनी चाहिए,
जब ना माने तो ईलाज करना चाहिए
पथ बदलने की बजाए
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
माँ सच में बहुत ही अच्छा सिखाती है न.......काश हम हर कदम इन्ही संस्कारो पर चलते रहे....
regards
भई कमाल है इधर आप सड़क बदलने पर उतारू हैं उधर डॉ. अरविन्द मिश्र मन ट्रांसप्लांट की जुगत में हैं ! समीर भाई जब हम हैं तो कुत्तों को क्यों नहीं होना चाहिए ? आखिर प्रेम -घृणा , आस - नैराश्य ,शब्द -अपशब्द वगैरह वगैरह का सहअस्तित्व अपरिहार्य है तो फिर जीवन में काटे जाने और ना काटे जाने की आशंकाओं को भी सहज स्वीकार करना होगा ! ...और हाँ माँ केवल शीश झुकाने के ही संस्कार नहीं देती वो तो खुद भी विषम परिस्थतियों में जूझती / पकती / तपती हुई खालिस सोने सी दमकती है ! तो फिर हम क्यों ना सारी की सारी असहजताओं को सहज भाव से पी जायें ?
चलते चलते एक बात और उन आवारा कुत्तों को कुछ टुकड़ा मुहब्बत की दरकार है यकीन जानिए मुहब्बत अच्छे अच्छों के होश उड़ा देती है !
its always better to react then remorse
माँ बाप की बचपन की समझाईश ऐसे ही तो संस्कार बन जाती है, किसी के भी व्यक्तित्व का हिस्सा.
सही है जी ....बिलकुल सही ! छह कर भी पीछे नहीं हो सकते !
चलते चलते:
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
संस्कार !!!
बेहतरीन !
बहुत वाजिब लेख। जब आप अपने आप में वापस आ जाते हो लाल साहब तो हमेशा प्यारे से लगते हो। माँ सही बतलाती है। सर मेरा झुक जाता है।
बरगद के विराट में आपका स्वरूप झलक रहा है।
kuchh kutte paida hi isliye hote hain ki bhonk sake........
bechaare apni karni hi karte hain ..inse darna nahin chaahiye !
achhi post !
अनजाने डर अंतस में समाए रहते है, वास्तिकता से उनका कोई लेना-देना नहीं होता.
माँ ने तो सही ही सीखाया है, मगर बेरहम जमाने ने दूसरी ही सच्चाई दिखाई है.
ek kahaani yaad aayi meri post par padhen
बहुत सुंदर शब्द चित्र उकेरा है आपनें ,बहुत ही सुंदर .
सम्मान लेना -देना संस्कारों से ही आता है .
वैसे आज के पोस्ट का इशारा किस और है,समझने की कोशिश कर रही हूँ?
तनु
ये डर, ये पूर्वाग्रह और ये वहम-जाने किसने, कब और किन बातों से मेरे भीतर तक उतार दिये हैं. ठीक वैसे ही जैसे की मेरे संस्कार.
अब इन बातों को कब तक मन में बिथाये रहेंगे? कुत्तों के लिये एक मोटा सा डंडा हाथ मे रखिये. खमखा लंबा रास्ता चलकर शरीर को भी थकाते हैं और समय भी खराब करते हैं.
आजकल के कुकुर डंडे खाये बिना मानते ही नही हैं.
रामराम.
समीर जी आपने बिलकुल सही संदेश दिया, बच्चों के दिलों में पहले से ही डर बैठा दिया जाता है,कभी बाबा वैरागी, का तो कभी किसी जानवर, वैसे आजकल बच्चों का डर विज्ञापनों में उतर आया है तो उसका डर कम हुआ है. वोडाफोन के जूजू के देख लीजिये, पहले बच्चों को डराने माध्यम था अब वो बच्चो का पसंदीदा हो गया है, एक वहम वाल डर है जो हमें कई चीजे करने से रोकता है नहीं तो भारत कहां से कहां होता
भारत मे भूत कह कर डराते4 हैं तो विदेश मे बैडमान अब तो बच्चे माँ बाप को डराने लगे हैं कल ही मेरी नातिन कह रही थी बैडमान नानी को ले जाओ शायद उन्होंने डर पर काबू पा लिया है। बहुत अच्छा आलेख शुभकामनायें।
बहुत अच्छे , कुछ हँसाती , कुछ समझाती हुई पोस्ट , धन्यवाद
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.....
इन लाइनों नें नतमस्तक कर दिया.
बाकी पूरी पोस्ट पर कोई कमेन्ट न करेंगे?
सर इस बात से सहमत हूँ की राह चलते कुत्ते तो भौकते है पर राहगीर अपनी राह नहीं बदलता है .. जीवन ही चलती का नाम गाड़ी है .... समय समय पर ऐसे कुत्तो को हिड़कना ही पड़ता है क्योकि आगे जो जाना है .. बहुत कुछ छुपा है इस पोस्ट में .... आभार
"एक डरा हुआ मैं और न बनायें. जरा सोचे. और भी तो तरीके हैं बच्चों की शैतानियाँ रोकने के"
कभी-कभी तो लगता है कि ये बात मेरे ही बारे में कही गई है।
मैं भी बडा डरपोक (भीरू) प्रवृति का हूं।
आपका सन्देश सिर-माथे
प्रणाम स्वीकार करें
भयभीत मन की छाया से निकलना जीवन भर सम्भव नहीं हो पाता। बच्चों को किसी तरह की हिंसा से भयभीत करने वालों को इस पर ध्यान देना चाहिए।
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
ये पीपल बरगद और आवारा कुत्ते सब अपने पन की गवाही दे रहे हैं इनसे अब क्या डरना और माँ वो तो बेमिसाल होती ही है
बहुत सारे डर तो बड़े होते होते ही निकल जाते हैं....कम से कम पुलिस का तो निकल ही जाता है! ये तो कह ही सकती हूँ....अपराधों का बढ़ता ग्राफ देखकर! :)
कनाडा में भी लोग बरगद के नीचे दिया रखते हैं......क्यों भला?
उम्दा सोच मां की दी हुई. नमन ऐसी मां को और ऐसी संस्कृति को जो हमे सर्व धर्म सम भाव सिखाती है.
बेहद सुंदर ख्याल, अच्छी प्रस्तुति
आपने बिल्कुल सही कहा है . बच्चों को डराकर शैतानी रोकना ठीक नहीं होता .
माँ की सिखाई बातें सबको कहाँ याद रह पाती है !
aapke vichaar bahut kuch kah jate hain.......
सही लिखा है समीर भाई ......... बचपन की सिखाई हुई बाते ही संस्कार बन कर सामने आती हैं ........... बहुत गहरी दृष्टि रखते हो भाई .......
लगता है बिदेस में भी वो घर वो गली याद आ रहे हैं :)
bahut hi khoobsurat post...
आदरनीय समीर सा,
कनाडा की आर्थिक मंदी से यह हाल हो गया जान कर मैं चिंतित हूँ. ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ आप ठीक होंगे.आपकी कनाडा की तस्वीर बिलकुल हमारे देश की किसी गली सी है.मन ही मन खुश और गौरवान्वित हुआ कि हमारा देश अब कनाडा के समकक्ष आ रहा है.भले ही कनाडा हमारे समकक्ष आये एक ही बात है.हम आपके परिवार के सदस्य है इसलिए चिंता होती है.क्या पता आपको धोती कुरते भी पर्याप्त रूप से उपलब्ध है कि नहीं..ठण्ड ज्यादा पड़ रही है...सरकार ने कम्बल वितरण का प्रोग्राम रखा होगा...तो वहां से कम्बल जरूर लेलें .अगर इलेक्शन में समय है तो जुलाई में कम्बल जरूर मिल जाएंगे.
कालू,टीपू और गुनिया(फोटो में दिखाए तीनो श्वान)को ढेर सा प्यार.
आपका ही
प्रकाश
बहुत अच्छा लेख। समीर जी, बरगद का एक विशालकाय पेड़ मैंने जन्म से ही घर पर देखा। सच कहूँ तो तो न बरगद, न कुत्ते, न साँप, न शेर, सबसे अधिक भयंकर तो मानव ही पाया है मैंने। डरना है तो उन्हीं से डरिए।
घुघूती बासूती
हर आदमी किसी एक चीज़ से डरता है।
कोई कुत्तों से, तो कोई चूहे से।
कोई अँधेरे से तो कोई भीड़ भाड़ से।
कोई तिलचिट्टे से भी डरता है।
यदि इन सब से नहीं डरता तो कम से कम अवश्य अपनी बीवी से डरता होगा।
कभी कभी डर अच्छा होता है।
हम जब किसी को God fearing कह्ते हैं तो क्या वह अच्छी बात नहीं?
जी विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु
अच्छा लगा पढ़ कर ..और चित्र देख पहुँच गए अपने देश...
डर एक ऐसा भाव है जो हर किसी के पास है...बस अलग अलग बातों का डर है..
ओबामा का डर अम्बानी का डर मेरा डर और आपका डर....कारण अलग हो सकते हैं लेकिन भाव एक..
और आपका लम्बा रास्ता लेकर जाना...सावधानी कहलायेगा...
और यह बहुत अच्छी बात है...दुर्घटना से बेहतर है सावधान हो जाएँ...
डर का दर्शनशास्त्र , बहुत अच्छे . किसी ने कहा है पता नहीं कितना सही है, संसार में जब तक भय है तब तक मच्छर हैं .
बहुत गहरी बात कही है माँ बाप बच्चों की शैतानी रोकें के लिए या उन्हें किसी मुश्किल से बचाने के लिए कई सारे वहम भर देते हैं
और वो कुछ इस तरह गहरे बैठ जाते हैं कि जिंदगी भर बाहर नहीं निकलते
कुत्ता नहीं काटता लेकिन अगर माँ बाप को कुत्ते नहीं पसंद हो तो कुत्ते से दर भर दिया जाता है
हालाँकि ये भी देखा गया है कि बच्चे विपरीत पसंद वाले भी निकलते हैं
खैर ये डर जो आपको है वो हममें भी है सबमें है
अँधेरे से डर , भूत से डर
इसीलिए तो कहा है घर पहला विद्यालय है जो सीख लिया वो कभी नहीं मिटता
kain baar manushy ka bhay hi usko isaan bane rehne ko majboor karta hai..itna to jaruri bhi hai..
kitne sahaj aur saral shbdon mein keh jate hai aap sab kuch...
कभी कभी आपको पढने के बाद आंख बंद किए सिर्फ़ सोचने का मन करता है और आज भी कुछ वैसा सा ही है
बहुत खूब समीर जी, दार्शनिकता के साथ-साथ आपके आलेखों में मनोविज्ञान का भी मिश्रण हो रहा है.
आज आपको पढ़ कर ये कह पाया हूँ:-
क्या खूब टटोला है मन को,
गहराई से समझा जीवन को.
आशा, आकांक्षा फिर शंका?
देती है बढ़ावा उलझन को.
सन्नाटा, अन्धेरा, भय मन का,
ढूँढे भी तो कैसे दुश्मन को!
कुत्तो की फजीहत भी देखी,
पत्थर भी उठाया अर्पण को.
संस्कार की निर्मल बातो से,
चमका लिया मन के दर्पण को.
-मंसूर अली हाशमी.
आज मैं सोच रहा था कि सबसे बड़ी भीरुता क्या है। तो पाया कि धर्मभीरुता सबसे बड़ी भीरुता है।
वह धर्म जो भीरु बनाये, चिरकुट धर्म है।
समीर जी बचपन की यादें आ गई। जब मैं पढा करता था तो टयूशन के लिए घर से काफी दूर जाना पडता था। और एक ही गली थी जिससे होकर गुजरना ही होता था। और कोई रास्ता भी नही था। उस गली में दो कुत्ते थे काफी बडे। बल्कि एक कुत्ते के तो दाढी थी। जितने दिन भी गए बस दिल ही जानता है क्या बीतती थी हम पर। हर बार की तरह अच्छी पोस्ट।
आदरणीय समीर जी,
आपने जो लिखा है.... दिल के कितने करीब है..आखिर मैं भी तो डरता हूँ !!!
लेकिन आज आपको पढ़कर मन ने एक संकल्प लिया कि जहाँ तक होगा नहीं डरूंगा, और डरूँ भी क्यूँ जब आपका हाथ सर पर है..
बहुत अच्छा आलेख, सचमुच यह आलेख पढ़ कर मनन करने के लायक है...
सादर
महफूज़....
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
बहुत सुंदर, हमे अपने बच्चो मै भी यह आदत डालनी चाहिये, वेसे डर पर हावी हो जाओ, डर कभी नही लगेगा....
बहुत सुंदर
डर बहुरूपिया होता है, किसी न किसी रूप में, किसी न किसी गली में झुप कर डराता रहता है. और तमाशबीन, वो खुद भी डरते हैं पर जब किसी और को डरते देखते हैं तो मुस्कराते हैं.
समीर जी,
बहुत सुंदर शब्द चित्र ---बहुत कुछ कह दिया आपने. बचपन में डाले गए संस्कार उम्र भर साथ रहते हैं...
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
आप के ब्लाग पर आ कर बहुत अच्छा लगता है..सरल, सादी भाषा में आप बहुत कुछ कह जाते हैं....
बहुत कुछ बताती..समझाती और सिखलाती पोस्ट...मंदिर ,मस्जिद गुरुद्वारे ही क्यूँ....बुजुर्गों के सामने भी ऐसे ही सर झुक जाता है...माँ ने जो सिखलाया था..
कभी कभी. एक इच्छा है कि कभी सहज और सरल जीवन जी पाऊँ मगर लगता तो नहीं.
आपकी तडपन समझ में आती है।
लेकिन क्या करें जिंदगी की यही विडंबना है।
सादर अभिवादन! सदा की तरह आज का भी अंक बहुत अच्छा लगा।
एक सार्थक बात जो दिल तक पहुँची..और करोड़ों लोगो तक पहुँचे बस यही कामना है आज भी ना जाने कितने लोगो अपने बच्चों को ऐसे ही मनगढ़ंत बातें बताते रहते है जो उनके अंदर घर कर जाता है और बस यही बन जाता है एक डर जिसे वा जीवनपर्यंत दूर नही कर पाते...धन्यवाद समीर जी .
samir ji aapke comments ke liye shukriya
ye aur likhne ke liye prerit karte hai
आपकी लेखन शैली और संदेश देने का अनोखा अंदाज चमत्कृत करता है. नमन.
अब तक पर्याप्त सुझाव मिल चुके हैं । वैसे आप सहज हैं ही । और ज्यादा सहज होने की कोशिश में आदमी जरूर असहज हो जाता है ।
यह कमेंट लेख के अभिधार्थ पर आधारित है ।
एकही जोत से सब उपजाया ,,,
........ सुन्दर पोस्ट ! ......... आभार ,,,
इस प्रकार के दर को दूर करने का कोइ उपाय हो तो सुझाये |
आप सभी को नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये ।
इस वर्ष अपनी समृद्धि और विकास साथ ही देश के विकास और समृद्धि के लिए एक पौधा अवश्य लगाये !!
बहूत सुन्दर शब्द चित्र |बहूत कुछ कह गया ,सीख दे गया यह आलेख |
sameerji,
sach kahu mujhe bhi bahut dar lagtaa he, roz hi jab raat ke 1 yaa 2 baje apni bike lekar ghar ki aour nikaltaa hu to sadk par kutto ka jamaghat bahut doudata he. kabhi kabhi to raastaa badalna padataa he aour vo hota he lambaa, baavjood vnhaa bhi kutto ki mahfil milati he.../
kher.., kahte he dar ke aage jeet hoti he,me roz jeetataa hu magar..esi bhi kyaa jeet jo kutto se milati he.../ bahut umda post he yah..
-aour ek baat-
kuchh yaade jo taazaa ho gai, bachpan me maa le jaati thi mandir, mandir ke beech maszid aour gurudvara jab bhi raaste me padte..kahti thi, inhe bhi (DHOK)pranaam karna chahiye..kyoki ynhaa bhi bhagvaan basate he.////
माँ बाप की बचपन की समझाईश ऐसे ही तो संस्कार बन जाती है, किसी के भी व्यक्तित्व का हिस्सा.
bahut hi achi line lagi.
कुछ बाते हम ता उम्र नहीं भूल पाते हैं ...जो संस्कारों में मिला वो कहाँ जायेगा ...बहुत पसंद आई आपकी यह पोस्ट समीर जी ....शुक्रिया
माँ की सिखाई बातें सबको कहाँ याद रह पाती है !
nek salah.aabhaar.
Meri Duty 12 Baje off Hoti Hai, Lekin Main Bhi Kutton Ke Dar Se 2 Baje Tak Office Rukta Hun. Uske Baad Saath Hota Hai... :)
Khair Yahi Zindagi Hai Aur Aapki Post Me Esse Ittar Kaafi Gahan Bahut-Kuch Hai...
हल्के फुल्के अंदाज में बात शुरू करी आपने और एक गंभीर सामाजिक मानवीय समस्या से जोड़ दी ..
जब तक हम बच्चों को बिना भय दिखाए, बिना अंध विश्वास का संस्कार दिए, नहीं पालेंगे तब तक यह समस्या बनी रहेगी. इसके लिए जरूरी है कि पहले हम अपने-अपने अंधविश्वास भगाएं.. तभी बच्चों को इस रोग से बचा सकते हैं.
कहने का मतलब यह भाई साहब की अब आप हिम्मत करके सीधे रास्ते से चलना शुरू कर दें अन्यथा आपका अनुकरण करने वाले ब्लागर भी अंधविश्वास को बढ़ावा देना शुरू कर देंगे...
मनमोहक गद्य
sameer ji achchhe tareeke se apne apni baat samjha di. par hum jo hote hai woh asal me humari soch ka ek roop hota ha. humko humesha apni soch ko khula aur sahasi banane ka prayatna karna chahiye.yahi zindagi hai aur yahi jeene ka tariqa bhi hai. bahut sundar vichar hai apke.
आपको और आपके परिवार को नए साल की हार्दिक शुभकामनायें!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
डर एक प्राकृतिक भाव है या नही शायाद नही क्यूंकि बच्चे को किसी चीज़ से डर नही लगता यह वह अनुभवों से सीखता है । पर फिर ढरने भी लगता है । ेक बात है कि अगर आप कुत्ते से डरते हैं तो कुत्ते के पास आते ही आपकी चाल तेज़ हो जाती है और पिर कुत्ता आपके पीछे... बरगद के पेड की तरफ ्नतचाहे ही नजर उठ जाती है और कलेजा मुंह को आ जाता है, पर माँ ने यह भी कहा होगा कि राम का नाम ले तो डर भाग जाता है ।
बहुत ही सहजता से कही गयी हर बात है...
एक फ्लो में ही पढ़ गया.. अच्छा लगा..
पर ऐसा तो हर इंसान के साथ है..एक वहम..एक डर..
आभार
प्रतीक
सही बात कही आपने,धन्यवाद।
" एक इच्छा है कि कभी सहज और सरल जीवन जी पाऊँ मगर लगता तो नहीं??
ये डर, ये पूर्वाग्रह और ये वहम-जाने किसने, कब और किन बातों से मेरे भीतर तक उतार दिये हैं. ठीक वैसे ही जैसे की मेरे संस्कार. "
वहम ही डर है और डर ही वहम!!ये सब संस्कार ही हैं.मेरे लाल साहब !!
अतिश्रेष्ठ लेखन ! दिन ब दिन निखर आ रहा है .
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
सब माँ एक सी होती हैं.
Yatharth ko parilakshit karti post....sundar bhav-chitra.
मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा
सर मेरा झुक ही जाता है.
माँ ने ये सिखाया था मुझे.
माँ की सीख और आशीर्वाद से ही तो हम खुली हवा में साँस ले रहे हैं।
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गाद् अपि गरीयसी"
हमारी जिंदगी का तमाम हिस्सा इन कई मिनट-मिनट भर के डरों को जोड़ कर ही बना है..जो बचपन से बुढ़ापे तक हमारा पीछा करते हैं अपनी शक्ले बदल-बदल के...मगर एक थ्रिल भी आता है इन कुत्तों जैसे डरों से ढ़ेला फेंक कर मुकाबला करने मे भी..मुझे भी याद आ गये अपने डर.
kutton se daroge to daraayegaa!! achchaa hai unko hi daraa do jai shambhu!!!
और ये पूर्वाग्रह, डर आदि जिंदगी भर हमारा पीछा नहीं छोड़ते। किसी ना किसी रूप में हमारे बढ़ते कदमों में कपकपी डाल ही देते हैं। बेहतर और रोचक अंदाज में सीख देने के लिए धन्यवाद----
मैं भी डरता हूँ, इस पोस्ट के संदेश का विश्लेषण करने से
बी एस पाबला
ये पोस्ट पता नहीं कैसे छूट गयी थी। अरविंद जी की टिप्पणी पढ़कर मैं भी सोच में पड़ गया वैसे कि कहां के बरगद और किस गली की चर्चा है ये..
bachapan ki kai choti-choti baten vyakti ke vyaktitva par gahri chaap chod jaati hai, jo umr bhar saath nahi chodti; kash parents samjh paate to hum aur ubhar kar nikhar kar khilte:(
Sameer ji yeh post na jaane kaise miss kar gayi?
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