अरे, ये मैने कब लिखा?
हर पैकेट के खत्म होने पर एक अलग मूड होता था और वही मूड उस पर अंकित हो जाता शब्दों के माध्यम से. सिगरेट के धूँऐं सी अलग अलग आकार लेकर धीरे से विलुप्त होती बातें शब्दों का रुप ले लेती.
कोई कविता नहीं होती थी वो..बस, यूँ ही कुछ जुड़ते-उड़ते हुए विचारों का शब्दांकन.
उसी में से इस भारत यात्रा के दौरान कुछ हाथ लगा था और आज कहीं किसी संदर्भ में बात चलने लगीं तो याद आया:
(१)
आँसू
अमृत की बूंदें
इन्हें मैं रोकता नहीं...
तुम भी मत रोकना.
सींचना इनसे
अपने दुखों की बगिया को..
जानती हो..
कांटों पर ही
खिलते हैं...
गुलाब !!
कितने सुन्दर होते हैं न...
गुलाब!!!
(२)
पत्थर!!
न हँसते हैं
न रोते हैं...
मौन
बस!!
मौन रहकर
सारी ठोकरें
और अपमान
सहते हैं...
इसीलिये शायद!!
सजाकर उन्हें
हम
भगवान
कहते हैं!!
(३)
मैरीन ड्राईव,
बम्बई...
समुन्द्र के किनारे
दीवार पर बैठे
उस लहर को
आते देखता हूँ..
आती है
टकराती है..
लौट जाती है...
हार नहीं मानती...
फिर से
एक नई उमंग,
एक नये उत्साह के साथ
आती है..
टकराती है..
लौट जाती है...
बरसों से यह
सिलसिला
अनवरत जारी है!!
-समीर लाल ’समीर’
बस यूँ ही:
१.कुछ विल्स कार्डों पर देखा: मैने अभिव्यक्ति के बाद अपना नाम समीर लाल ’प्रेमी’ लिखा था उस जमाने में. शायद जवानी की हिलोर रही होगी या फिर बम्बई का असर. नहीं पता... :)
२. बात कुछ जंचती नजर आ रही हो तो और ढ़ूंढ़े जायें विल्स कार्ड वरना तो समय के साथ बारिश और दीमक तो चमत्कार कर ही लेंगे अपना.
विल्स कार्ड पर उतरी बातें
यादों में बसती हैं यादें...
जो मोती बन न रुक पाई..
भिगो गई उनको बरसातें.
-काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता.
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जिंदगी को जीता , सफ़र का एक खूबसूरत टुकडा : अजय कुमार झा
बहता समीर : प्रवीण पाण्डेय
समीर लाल का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं: विवेक रंजन श्रीवास्तव
जिंदगी की डगर पर एक सफ़र, समीर लाल जी के साथ : डॉ टी एस दराल
एक प्रवाह है समीर लाल "समीर" के लेखन में जो आपको दूर तक बहा ले जाता है : रवीन्द्र प्रभात
"देख लूँ तो चलूँ"-समीर लाल "समीर" : डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक"
समीर-सागर के मोती.. : खुशदीप
समीर जी की किताब- इतना पहले कभी नहीं हंसा.. : खुशदीप
विमोचित पुस्तक ' देख लूँ तो चलूँ ' महज यात्रा वृत्तांत न होकर उड़न तश्तरी समीर लाल समीर के अन्दर की उथल-पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का सबूत है : विजय तिवारी ' किसलय'
ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है : आचार्य डॉ हरि शंकर दुबे
मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं : श्री ज्ञानरंजन जी
ज्ञानरंजन जी करेंगे समीर लाल की कृति ’ देख लूं तो चलूँ’ का अंतरिम विमोचन: गिरीष बिल्लोरे”मुकुल”
देख लूं तो चलूं का विमोचन समारोह: नुक्कड़
देह नाचती रहे - आँखे देखती रहें : ललित शर्मा
अपील
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
----------
77 टिप्पणियां:
आहा..आज पता चला कि मैं अकेला नहीं...अभी हाल ही तक मैं सिगरेट की डिब्बियों के ऊपर लिखा करता था..पर कवितायें नही..बुलेटिन बोर्ड की तरह..
दूसरी बात...मेरा ख्याल है कि आपको कार्ड ढूंढ ही लेने चाहिए. :-)
lal sahab, kavitayen bahut achchi lagin, aur wills card khojen , unmen to khazana bhara hai. bahut khoobsurti se saara vivran prastut kiya. dhanyawaad.
इसीलिये कहा गया है सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। पहले दिल जलाती है फ़िर कागज भिगाती है।
अनूप भाई
सिगरेट छूटे तो ४ साल से ज्यादा हो गये अब!!
:)
समझ आ गया था कि हानिकारक है!!
सिगरेट के भीतरी कागज पर भी कवितायें । कवि की पहुँच का तो पता था, पर सोचिये कविता भी कहाँ-कहाँ पहुँच जाती है ?
ढूँढिये जरूर कुछ विल्स कार्ड ।
बहुत सुन्दर। काश हमारे पास भी विल्स या कोई अन्य कार्ड होते। दशकों से विचार यूंही आये और बारिश में धुलने का इन्तजार किये बिना चले गये।
यह पोस्ट आपके ब्लॉग की वैल्यू में इजाफा करती है।
बहुत संवेदनशील निकले ये कार्ड इतने अर्से के बाद भी....Wah.. पर प्रेमी जी समीर लाल 'समीर' ज्यादा ठीक है..
अापकी जानकारी के लिये बता दूं कि मेरे शहर सीहोर में बहुत पहले एक कवि हुए जनार्दन शर्मा लगभग तीस साल पहले एक रात उन्होंने अग्नि स्नान करके अपने का समाप्त कर लिया । वे बहुत ही बगावती और विद्रोह से भरी कविता लिखते थे । उनका एक शेर है 'हम नहीं डरते किसी से मौत हो या जिंदगी, सर उठाते ही रहेंगें जब तलक भी जान है ' । उनका कोई परिवार नहीं था सीहोर में अकेले रहते थे तथा किसी को पता भी नहीं था कि उनका कोई परिवार है भी या नहीं । उनकी मौत के बाद जब उनका संग्रह निकालने की बारी आई तो कहीं कुछ भी संकलित नहीं था । जानते हैं उनकी कविताओं का संग्रह कैसे बना । उनके कमरे में मिले सिगरेट के पैकेट के पीछे लिखी कविताओं से । वे वहीं लिखते थे और लापरवाही से उसे कमरे में फेंक देते थे । कुछ मिली कुछ नहीं मिलीं और इस प्रकार संग्रह बना । सीहोर में उनकी याद में पिछले तीस सालों से एक कायक्रम उनकी पुण्यतिथि पर होता है 19 जनवरी को । हर साल एक युवा कवि को जिला स्तरीय तथा वरिष्ठ कवि को प्रदेश स्तरीय सम्मान प्रदान किया जाता है । सीहोर के लिये अब 19 जनवरी का मतलब है पंडित जनार्दन शर्मा स्मृति कार्यक्रम । मेरे पास भी उनकी कुछ सिगरेट के पैकेट स्कैन किये हुए हैं । उनकी एक कविता 'जला डालूंगा इस जर्जर व्यवस्था को ' मुझे बेहद पसंद हैं । तो ये पूरा किस्सा इसलिये कि साहित्य को इससे फर्क नहीं पड़ता कि वो कहां लिखा गया है, फर्क इससे पड़ता है कि क्या लिखा गया है । सिगरेट के पैकेट पर लिखी होने से कविता का मूल्य कम नहीं हो जाता है । विचार जब आते हैं तो ये नहीं देखते कि आपके पास काग़ज है या नहीं । ग्राहक, मौत, और कविता कब आ जाये कोई भरोसा नहीं ।
.......सजाकर उन्हें
हम
भगवान
कहते हैं!!
वाह सिगरेट के पन्नो पर उकेरा गया यथार्थ .अद्भुत . .
कैसी जानकारी दी है और क्या बात कह गए हैं पंकज सुबीर !
गजब की लाईनें -मेरे ही साथ समुद्र ने क्यों पक्षपात किया -जब दो वर्षों के लिए मैं मुम्बई में था पहरों समुद्र को निहरता रहता था पर क्या मजाल कोई कविता मन में आ तिरी हो कभी ! ये समुद्र वमुद्र नहीं बस समीर लाल के दिमाग की खुराफाते हैं जो कालक्रम में इधर उधर उखमज करती दिखायी दे रही हैं अब ..अभी तो न जाने क्या क्या निकलना बाकी है -एक सुशुप्त ज्वालामुखी से सबको होशियार हो जाना चाहिए !
काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता.
ठीक तो हैं न समीर? इतने इमोशनल???
पहली वाली कविता बहुत सुंदर है...
बहुत कीमती साबित होंगे ये विल्स काड..अविलंब ढूंढ कर इन्हे प्रकाशित किया जाना चाहिये. बहुत उम्दा रचनाएं उतरी होंगी इन पर.
रामराम.
दादा बहुत अच्छी हैं दोनों ही रचनाऎं. संवेदन की तीव्रता से भरपूर. इन्हें अलग से संकलित करिये. "विल्स कार्ड पर उतरी बातें" शीर्षक भी अच्छा है. अग्रिम शुभकामनाएं.......... आपपका संजीव्
वैसे समीर लाल प्रेमी भी बुरा नहीं है।
कह सकते हैं आप पर सटीक बैठता है। :)
कार्ड नंबर २ में लिखी इबारतें कितनी ऊंची बात कह रही हैं. आभार.
GURU DEV NE SAHI KAHAA HAI KE GRAHAK MAUT AUR KAVITA KAB AAJAAYE KISI KO PATA NAHI.....AAPKI SIGRATE KI BAAT AUR USKE PACKET PE LIKHI KAVITAON KA KHUB LUTF LIYAA MAINE... ..
KASH KE AASUNON SE BACHANE KE LIYE KOI CHHTA HOTA.....
ARSH
वाह आम के आम और गुठलिओं के दाम..
विल्स कार्ड का इससे बेहतर इस्लेमाल और क्या हो सकता है?
"पत्थर!!
न हँसते हैं
न रोते हैं...
मौन
बस!!
मौन रहकर
सारी ठोकरें
और अपमान
सहते हैं...
इसीलिये शायद!!
सजाकर उन्हें
हम
भगवान
कहते हैं!!"
बेहररीन...
वाह!! विल्स वालों से पूछ लीजिये, शायद कुछ विज्ञापन मिल जायें।
दिल की बातें थी..सोचकर लिखने पर आप कल्पना ज्यादा करते है, लेकिन दिल से निकली बातें बिल्कुल स्टीक और कल्पना से परे होती हैं...
ये उस समय हमारी आंखों से सामने उभरी कोई तस्वीर का सार होती हैं..भगवान करें मिलते रहें वेल्स के और पुराने कार्ड
आँसू
अमृत की बूंदें
इन्हें मैं रोकता नहीं...
तुम भी मत रोकना.
सींचना इनसे
अपने दुखों की बगिया को..
जानती हो..
कांटों पर ही
खिलते हैं...
गुलाब !!
कितने सुन्दर होते हैं न...
गुलाब!!!
ये फर्क होता है एक जीनियस और एक अनाड़ी में...जीनियस सिगरेट के पैकट पर अद्भुत कवितायेँ रचता है और अनाड़ी उसे फेंक देता है...इस बात से सिद्ध होता है की आप बचपन से ही जीनियस थे...याने पूत के पाँव पालने में नज़र आने लगे होंगे...
विल्स हमने भी पी लेकिन छुप कर क्यूँ की डे-स्कोलर थे, हास्टल में जब मित्रों के साथ बैठते तो गंवार न लगें इस लिए एक आध कश खींच लिया करते थे...पापा को सिगरेट का शौक था सो कभी कभार उनके पैकेट से भी सिगरेट मार ली जाती थी...क्या दिन थे वो भी...
आप खोजिये उन पैकेट्स को और सुनाईये गुज़रे ज़माने की दास्ताँ... बहुत आनंद आएगा अतीत की गलियों का चक्कर काट कर...
नीरज
इसे कहते है पक्का देशी आदमी..
अब पुराने कार्ड्स की खोज खबर ले ही जाए.. उसी नाम के साथ समीर लाल 'प्रेमी'
छोड़ तो हम भी चुके, लेकिन बहुत पहले हम गोल्ड फ़्लेक पीते थे, उसमें से सुनहरी पन्नी निकलती थी, जिसे विभिन्न आकार देकर (खासकर छोटे से रॉकेट का) उड़ाते थे… मजा आया पोस्ट पढ़कर…
समीर लाल प्रेमी तो आप आज भी है.हजूरे वाला ,विल्स नहीं रही तो क्या ....
समीर जी यह भी सिगरेट पीने वालो का एक अनोखा शौक होता है . फुरसतिया समय में सिगरेट पीते हुए आदमी के सोचने का ढंग अलग ही होता है और कुछ विचार दिमाग में आते है और जिसे जो उपलब्ध होता है वह अपने शब्दों को जल्दबाजी में उसी में उकेर देता है .. आज आपका यह शौक भी पोस्ट के माध्यम से जाना. रचना भी उम्दा लगी. धन्यवाद.
आज तो आपने निशब्द कर दिया फिर से...
इतनी सुंदर रचनाएँ हैं ये जिनका कोई मोल नहीं है.. और सबसे बड़ी बात तो यह है की यह वो रचनाएँ हैं जो इश्वर ने आपसे स्वयं ही लिखवाई हैं...
आभार...
मीत
आदरणीय उड़न तश्तरी जी,
सर्वप्रथम तो आपको ३०१ वें आलेख पर बधाई. इस टिप्पणी को एक तरह से मेरी तरफ से शगुन समझ लीजिये. सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, अतः यह जानकार बहुत ख़ुशी हुई कि आपने ४ साल पहले सिगरेट छोड़ दी है. बहरहाल कायल हो गया हूँ आपकी सृजनशीलता का जो आपने सिगरेट के बेकार खाली डिब्बों को भी यादगार बना डाला. हमारी ज़िन्दगी में ऐसी छोटी-छोटी बातें और यादें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं ऐसा मेरा मानना है. ये "विल्स कार्ड" तब के ज़माने में शायद आपके लिए उतने अहम नहीं रहे होंगे जितना आज बन चुके हैं. क्यूँ ठीक कह रहा हूँ ना?? कारण है इनके पीछे छिपी यादें जो इन्हें बहुत ख़ास बना देती हैं. इंसान यादों के प्रति कुछ ज्यादा ही संवेदनशील होता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव है. और हाँ वो आंसुओं की बारिश से बचाने वाले छाते की फिक्र आप मत कीजिये. कोई वैज्ञानिक या साइंस ब्लॉगर असोसिएशन का सदस्य आपका आलेख पढ़कर शायद बना ही डाले ऐसा छाता ख़ास आपके लिए....हा हा. आपके चाहने वालों की कमी थोड़े है. पुराने ज़माने में प्रचलित भोज-पत्र, ताम्र-पत्र इत्यादि का नया अवतार "विल्स कार्ड"/"सिगरेट-पत्र". जय हो!!!
सदैव आपके आशीर्वाद की कामना में.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
अनुभूतियां हमेशा आकार खोजती है
कोई कलम पकड़ लेता है
और कोई बंदूक
शुक्र है कि आपकी कलम हमेशा आपके साथ रही
अच्छा तो आप भी फूंकते थे
दिल की बातें धुंएं मे उडाते थे
बहुत अच्छा किया जो आपने सिगरेट छोडदिया।
अपनी सहत का ख़याल रखें और हमारी सहत केलिए दुआ करें।
आज पता चला इस सुन्दर लेखनी के पाछे का राज । ये कामाल तो धुये का है ।
Bahut utta vichaar hain. Teeno rachnaaon me positive thinking saaf najar aa rahi hai.
bhut hi acchi rachnay hai aap ki
badi badi baat asani se kah jate hai aap
तो ऐसे कहो न कि कवि बनने की प्रक्रिया विल्स कार्ड से शुरू होती है. खूब राज खोला. अभी एक पैकेट ले आते है. फिर आपको अपनी रचना फोन पर सुनाएंगे... :)
विल्स सिगरेट वालों को पता लगेगा तो विज्ञापन में इस्तेमाल किया जा सकता है।
kvita to hai hi khubsurat
usko pesh krne ka andaz usse bhi khubsurat.
आपकी सिगरेट के पन्ने तो भोजपत्र की तरह हैं :-) बहुमूल्य ! खुदाई करा के और भी निकालें जाए !
hum tu hamsha aapki tarif karte rahate hae..lakin aap hae ki hum puchte hi nahi sameer bhai. aaj ki post main bhi humnae tu aapka jikar kiya hae.
Irshad
-काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता.
समीर भाई...........विल्स के पैकेट और आपकी ये बात...........खुश चेहरे के भीतर बैठा कोमल मन........कोई मुश्किल नहीं है ढूँढना.........जानती हो...........कांटो पर ही खिलता है गुलाब.............गज़ब का लिखा है......शब्द शंड जैसे कोई कहानी बोल रहे हैं.........
बहुत दिन हो गयी कभी ओं लाइन हो तो बात करें......................
एक हंसोड़ व्यक्ति के गंभीर और संवेदनशील व्यक्तित्व को ऐसी रचनाओं के माध्यम से देखना बड़ा ही सुखकर लगता है.
बहुत बहुत सुन्दर रचनाएँ और अंतिम वाक्य की तो क्या कहूँ....बस !!!
बहुत फ़र्क़ तो आया नहीं दिखता है,
तब के समीर लाल ’ प्रेमी ’ आज के समीर लाल ’ प्रेमी जीव ’ में तब्दील हो चुके हैं ।
और, यह बात भी सवासौ फ़ीसदी सही है कि, आँसू बेसबब तो नहीं ही हैं ।
छाते की फ़िक्र क्यों करते हो, हजार जोड़े हाथ तो हैं, तुम्हें ढाँपने को ..
रचना में लीन रहो, बहुत बड़ा मरहम है यह !
नमस्कार
इस विल्स काड..वाले खजाने को अविलंब ढूंढ कर प्रकाशित करें.
नहीं तो हम सब आपके बहुत कुछ से बंचित हो जायेंगे.
sir, apke reply se laga chalo jo cheez apne pehle nahi sochi thi, us par apko sochne ka mouka or waqt dono mil gaya, thanks for ur support, anyways apka blog bhi pada bahut badiya likha hai apne,,,akpo or apke likhawat dono ko pehchan liya hai, aage bhi apke vichar hum tak aate rahe yahi umeed hai, thanks
बहुत साल पहले भी आप लिखने की बिमारी से ग्रसित थे जान कर अच्छा लगा .
पत्थर वाली लघु कविता बेहद पसंद आई। सुबीर जी कप ढ़न्यवाद जनार्दन जी के बारे में बताने के लिए।
अगर अब विल्स कम्पनी को इस बारे में पता चल जाए तो समझिए आपका ब्रांड अंबैसडर बनना तय है.
कवि और काव्य से तो अपना दूर दूर का नाता नहीं.... पर सिगरेट की डिब्बी और उसके अन्दर की पन्नी से विभिन्न आकृति बनाने का शौक अब भी है. (वैसे मैंने कभी सिगरेट पीने का शौक नहीं पाला :))......
बेहतरीन पंक्तियाँ....
वैसे सबका आईडिया बिलकुल सही है.... पुरानी रचनाओं को, चाहे वो कहीं भी लिखी हुई हो, ढूंढ कर प्रकाशित जरूर करवाएं.
ओह ! तो ये राज़ है ....l
उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता.
देखो समीरभाई
विल्स कार्ड जो आपने सहेज के रखे थे जो वर्षो से बेचारे गुमशुम से बक्से मे दम घुटा रहे थे।
पुरानी दराज़ों अटेचियों और बक्सों मे पडे-पडे अपनी किस्मत को धकिया रहे थे। आज लालाजी ने उन्हे (विल्स कार्ड ) विश्वपट्टल चमका दिया। विल्स कार्डो को आज जो आपने प्रसिद्धी दिलावाई अचानक वर्षो बाद अपने किस्मत के दरवाजे खुला देखा
विल्स कार्ड हर्षित दिख रहे है। लालाजी कि जय हो। भाग्यविदाता कि जय हो ।
ye ada bhi bahut bha gayi,wo pathar ko bhagwan banake pujnewali kavita waah,aason se bachne ka chata,mil jaaye hame bhi bata dena,bewaqt,logon kesamnechalak aate hai.aur card dhundh le aur wahi purani kuch rachanaye padhwa de,sunder post.
सिगरेट के कागज पर अंकित कविता, में सद्य स्फूर्त भावों की सघनता उतनीं ही जीवंत है जितनी की शायद किसी सुन्दर ड़ायरी में होती। सुंदर।
सही है जी, गाँधी बाबा की राह पर चलते थे कि काग़ज़ आदि का कोई टुकड़ा व्यर्थ न जाए! लेकिन उनके ज़माने में रीसाइकलिंग नहीं ना होती थी!! ;)
सिगरेट के धुएँ से बनते आकार... आकार पाते शब्द और उन्हें रूप मिलता विल्स कार्द की सफेद सतह पर...फिर कविता बन सबके मन भाता...
समुन्दर की लहरेँ, मन से उठते भाव और आज वील्स के टुकडोँ से आज़ाद होतीँ कविता - सच है, जीवन के हर क्षण का अँतर्द्वँद्व ही गहनता के नये नये सोपान रचता है यही ज़िँदगी है समीर भाई ..
- लावण्या
Adarneeya Sameer ji,
apkee ye kavitayen man ko chhoo gayeen.aur yah bhee pata chala ki rachnayen karne ke liye kisi vishesh kagaj kee jaroorat naheen hotee ...man men bhav ..vichaar aa jaye, to inhen aap kaheen bhee abhivyakti de sakte hain.
Shubhkamnaon ke sath.
Poonam
जवाब हैं कई, पर आपका जवाब नहीं
तो कहिये क्यूं ना कहें ? आप लाजवाब नहीं
ज़रा सोच कर तो देखिये कि ये विल्स की सिगरेट ना होती तो आप कहाँ होते....और एक बात बताऊँ....इस समय आपने लिखा भी बहुत ही अच्छा है....बहुत ही भावपूर्ण....मगर हमें कोफ्त इस बात पर हो रही है कि हाय हम भी सिगरेट क्यूँ नहीं पीते.....दारू भी पीते तो उसकी बोतल पर कुछ पंक्तियाँ लिख ही मारते.....!!
"-काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता."
बचने के बारे में क्यों सोच रहे हैं, समीरलाल "प्रेमी" का "विल्स कार्ड" तो खुद ही कह रहा है कि...
आँसू
अमृत की बूंदें
इन्हें मैं रोकता नहीं...
तुम भी मत रोकना.
सींचना इनसे
अपने दुखों की बगिया को..
जानती हो..
कांटों पर ही
खिलते हैं...
गुलाब !!
कितने सुन्दर होते हैं न...
गुलाब!!!
अनूप शुक्ल जी ने अपनी टिप्पणी में कहा कि
"इसीलिये कहा गया है सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। पहले दिल जलाती है फ़िर कागज भिगाती है।"
इसे मैं यूँ कहूँगा कि
सिगरेट पहले ललचाती है,
स्टाइल का बोध करती है,
हर कश में हर मंजर दिखलाती है
धीरे-धीरे आदत डलवाती है,
फिर मचलवाती है,
अपने विना जीना दूभर बनाती है,
डाक्टर के पास ले जाती है
डाक्टर सिगरेट पीने को पाबन्द करता है
डाक्टर को ये दुश्मन वन समझाता है.
और एक दिन ..................
जैसे इसे सुलगाया था
वैसे ही असमय कोई हमें भी सुलगा रहा होगा.......
तब न बारिश काम आयेगी,
न विल्स कार्ड .
खैर ये सन्देश आपके लिए नहीं क्योंकि आपने ज्ञान प्राप्त कर इसका परित्याग कर दिया. अब जब आपने सिगरेट का परीत्याग कर ही दिया तो विल्स कार्ड के पत्ते खलने में कोई ऐतराज़ नहीं क्योंकि जहाँ ये वधानिक चेतावनी "सिगरेट स्वाथ्य के लिए हानिकारक है " का बोध करायेगी वहीं आपके गुजरे ज़माने की सोंच के दर्शन भी करायेगी, तभी तो हमें पता चलेगा कि "प्रेमी" और "उड़न तश्तरी' में क्या अंतर है, वैसे जो थोडा बहुत किताबी ज्ञान कहता है वह यह कि प्रेमी चिपकू और उड़नतश्तरी बहता पानी जो कहीं एक जगह ठहरता ही नहीं...............
टिप्पणी ज्यादा लम्बी हो गई सो अब रुकता हूँ .
चन्द्र मोहन गुप्त
likhne ki aadat aur khyaali sigreti duniya
ka kahna hi kya
अक्सर कवियों के साथ ऐसा होता है। लेकिन अगर डॉट पेन रखते, तो ये परेशानी न होती।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
agar ham likhe is post ko to uska Title hoga "Gold Flake Card par utri baaten".. :)
इसे कहते हैं, असली 'विल्स पॉवर.'
भैया, वे सारे विल्स कार्ड छापिये, जिनपर लेखा/कविता के लेखक का नाम समीर लाल 'प्रेमी' है......:-)
बहुत बढ़िया पोस्ट लगी.
"आँसू
अमृत की बूंदें
इन्हें मैं रोकता नहीं...
तुम भी मत रोकना."
बहुत सुंदर रचनाएँ हैं....
मेरा नया ब्लाग जो बनारस के रचनाकारों पर आधारित है,जरूर देंखे...
www.kaviaurkavita.blogspot.com
पत्थर!!
न हँसते हैं
न रोते हैं...
मौन
बस!!
मौन रहकर
सारी ठोकरें
और अपमान
सहते हैं...
इसीलिये शायद!!
सजाकर उन्हें
हम
भगवान
कहते हैं!!
बहुत अच्छी नज़्म ....अंतिम वाली भी अच्छी लगी ...और एक बात पहली बार जाना आप कितने संवेदनशील हैं ..... !!
आपने संजीदा कर दिया था और अरविन्द मिश्रा जी की टिप्पणी पढ़ मुस्कराहट तैर गयी ...!!
आपने इस बीते पल को फिर से याद किया,
इस शौकिया-ए-दिल को तहे दिल से शुक्रिया.
सिगरेट की डिब्बे पर भी,आपने कविताएँ लिखी,
सच मे बड़े ही अनोखे अंदाज है,आपके लेखनी के.
Thanks for comment
i want to be perfact bloger
कांटों पर ही
खिलते हैं...
गुलाब !!
कितने सुन्दर होते हैं न...
गुलाब!!!
in panktiyon ke saath pooree post achchhee hai badhaaiyan
खूबसूरत!
'काश!! आँसूओं की बारिश से बचने का कोई छाता होता'
waah!yah jabardast punch line hai!
Gazab ki bhaavabhivyakti thi un dino bhi Sir..
bahut achchee lagin sabhi rachnayen!
यदि आपने उन सिगरेट की डिब्बों को फेंक दिया होता तो इन उत्कृष्ट पंक्तियों को पढने से हम वंचित रह जाते.
समझता हूँ कि उन सिगरेट के कागजों पे लिखी अभिव्यक्तियों को मौलिक स्वरुप में ही पेश किया जाए। स्कैन कर के दाल दीजिये। क्यों यादों के साथ खाम्खाह छेड़ छाड़ करना चाहते हैं। मेरी तरफ़ से ४ पंक्तियाँ समर्पित हैं:
सिगरेट के कुछ आवारा पन्ने
अपनी पहचान से पूरी तरह अनजान
फ़िर पड़ी किसे है, जिसकी गरज हो वो जाने
ख़ुद तो धुंए के खेल में लिपटे हैं
पर किसे मालूम कि बड़ी गहरियों में उतरेंगे एक दिन
सिगरेट के वही कुछ गिने चुने पन्ने
थोड़े लापरवाह, काफी कुछ बेलगाम
गुजरे वक्त को सहजे हुए बिना किसी खुदगर्जी के
वो तो वक्त के साथ ही थम गए थे,
ये तो हम तुम हैं जिन्हें पड़ी है वक्त से आगे जाने की
और जब कभी आराम के पलों में याद आए
पीछे छूटी अनगिनत अनमोल घड़ियों की
तो फ़िर ढूँढने पड़ते हैं वही
सिगरेट के बेकदर, इधर उधर ठोकर खाते पन्ने
किस्मत अच्छी कि कुछ अभी भी सलामत है
नही तो वक्त ने अच्छे अच्छों को धूल चटाया है
कुछ के निशान बाकी हैं तो कईओं को पूरा मिटाया है
चलो, दिन अच्छा है कि फ़िर याद कर रहे हैं हम और आप
अनजाने में ज़िन्दगी का हिस्सा बन गए वो सिगरेट के कुछ पन्ने
आपका यह अंदाज लाजबाब रहा.
Sir, First time visit kiya aapka blog...canada mein rahkar hindi se pyaar aur maharat bhi.....harbaar mera utsaah badhate hain aap .. bahut- bahut shukriya ......abhi theek se nahi padha.... kabhi fursat mein aapki post padhoongi
समीर भाई
"विल्स कार्ड पर उतरी बातें "
पोस्ट की तीनों क्षणिकाएँ हृदय स्पर्शी हैं.
बधाई
- विजय
समीर भाई
"विल्स कार्ड पर उतरी बातें "
पोस्ट की तीनों क्षणिकाएँ हृदय स्पर्शी हैं.
बधाई
- विजय
यादें...हाँ यादें.....बस यादें
वाह! हमारा तो आज भी यही ब्रांड है...छोड़ने का हम भी सोच रहे हैं अर्से से।
ग्राहक, मौत, और कविता कब आ जाये कोई भरोसा नहीं ।
सुबीर भाई ने जबर्दस्त बात कह दी।
पोस्ट का जवाब नही।
विल्सकार्ड तो इसका मतलब है क्रिस्टीज़ और सोथबीज़ में आपको करोड़पति बना ही देंगे...कब करा रहे हैं नीलामी?
पुरानी बातों को याद करना अच्छा लगता है...
सुन्दर कविताएँ
पंकज उपाध्याय का आभार! उन्होंने बज़ की ये पोस्ट तभी यहाँ तक पहुँचा। सुखद संयोग है कि आज ही विल्स कार्ड पर से उतरी ग़ुलाब की कविता पढ़ी, और आज ही आपकी बगिया के ग़ुलाबों की बज़।
आपके विल्स से उस वक़्त धुआँ होता होगा, अब तो ख़ुश्बू फैल रही है।
वैसे ये वक़्त कब का रहा होगा? 1987 में मैं भी मुम्बई में था…
आज मेरा बेटा वहाँ पढ़ रहा है।
प्रवास हम सबके जीवन चक्र से जुड़ा है…
मैंने सिगरेट आज तक कभी नहीं पी।
बस, नहीं पी। ख़रीदी बहुत बार, मेरे मामा पीते थे - और इसीलिए उस दौर की हर सिगरेट के ब्राण्ड, धुएँ और स्तर के बारे में जानकारी है। चारमीनार से लेकर मार्कोपोलो होते हुए हिन्द्सवार तक…
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