गुरुवार, अक्तूबर 18, 2007

मीर की गज़ल सा.......

आज कुछ ऐसे ही लिख देने का मन हुआ. देखिये, आपको कैसा लगा!!!

मीर की गज़ल सा.......

गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.

पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....

अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.

-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!

मीर की गज़ल सा................

--समीर लाल ’समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

43 टिप्‍पणियां:

kamlesh madaan ने कहा…

समीर जी पहली बार आपके लिये टिप्पणी कर रहा हूं क्योंकि आपको टिप्पणी देने की कोई जरूरत नहीं लगती क्योंकि आप खुद दूसरों के लिये प्रेरणादायक हैं आप के सागर रूपी कद के आगे हमारा कद तो एक बूंद के समान है,


आपकी इस कविता में जो दर्द छिपा हुआ है वो आज के हिन्दुस्तान में नहीं बचा है लेकिन मेरे बचपन के भारत में कहीं बसता था.

आखों में आँसू आ गये!

kamlesh madaan ने कहा…

कमेंट मोडरेशन इनेबल करके आपने हमें दुविधा में भी डाल दिया है क्योंकि आपके लिये कोई क्या अनुचित लिखेगा?

सुनीता शानू ने कहा…

अरे आपको कैसे मालूम यह तो हमारी कहानी है गुरूदेव...वह माई जिसे हम जमनी माई कहा करती थी...हमे मारने को दौड़ा करती थी नानी कहते ही प्यार से लाल-लाल बेर देती थी दो ज्यादा भी देती थी...वह पेड़ कट गया है बहुत सी दुकाने बन गई है वहाँ मगर माई जहाँ बैठा करती थी वो जगह आज भी खाली है...हमारे दिल में भी...

सुनीता(शानू)

ALOK PURANIK ने कहा…

क्या खाक बूढे हुए है जी आप।
बाल चाहे सफेद हो जायें, दिल काला ही रहना ही चाहिए।
उसमें कोई कमी नहीं ना होनी चाहिए।

Atul Chauhan ने कहा…

वाकई 'मीर की गजल सा'…………समीर जी,"माल और सुलभ शौचालय" ही आज लोगों को चाहिये,'नाना-नानी'…………"गरीबी" अब 'भारत' में नहीं रहती। क्योंकि हम कर्ज लेकर विकसित बन गये है। अब यहां 'मीर तकी मीर 'की गजल भी चन्द लोग गुनगुनाते हैं,वर्तमान व्यवस्था पर आपकी कविता ने करारी चोट की है।

अनिल रघुराज ने कहा…

तथाकथित विकास के अमानवीय चेहरे को उजागर किया है आपने। वैसे निराला की एक छोटी सी कविता याद आ गई तो पेश कर रहा हूं, हालांकि संदर्भ भिन्न हैं...
बांधो न नांव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु
यह घाट वही जिस पर धंसकर वह कभी नहीं नहाती थी हंसकर
आंखें रह जाती थीं फंसकर, कंपते थे दोनों पांव बंधु।
बांधो न नांव इस ठांव बंधु...
वह हसीं बहुत कुछ कहती थी, फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी सहती थी, देती थी सबके दांव बंधु
बांधो न नांव इस ठांव बंधु...

पंकज बेंगाणी ने कहा…

दुनिया आगे जा रही है. दुनिया आगे जी रही है. आप पीछे रह गए. दुनिया बुढा रही है. आप युवा रह गए.

यह भी तकलीफ है. :)

रंजू भाटिया ने कहा…

समीर जी .यही आज कल के वक्त की सच्चाई है जिसे आपने अपने लफ्जों में ढाल दिया है
पढ़ते पढ़ते आँखे नम हो गई ....इंसानी फितरत भी अजब है हम उन्नति भी चाहते हैं पर इसकी कीमत
हमे उन चीजों को यादों को दे कर चुकानी पड़ रही है जो हमारे दिल से जुड़ी हैं ...मीर की ग़ज़ल सी यह सीधे
दिल में उतर गई ..शुक्रिया !!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

ऐसे सच्चे भावोँ से ओत प्रोत कविता भा गई समीर भाई !
स्नेह,
-लावण्या

बेनामी ने कहा…

आप फिर सेंटी कर गये. बचपन याद हो आया, अब जब गाँ जाते है न तो मिट्टी वाली गलियाँ बची है न लालटेन की रोशनी. सब कुछ खत्म हो गया या फिर कहें तो बदल गया है.

यही नियम हैं. हम कौन से पहले जैसे रहे हैं :)

डॉ. अजीत कुमार ने कहा…

समीर साहब, मैंने जब भी अपनी पोस्ट लिखी आपने मेरा उत्साह वर्धन किया, आज मैं आपके पोस्ट कमेंट करते हुए ख़ुद को टू एक बच्चा ही समझ रहा हूँ.
सच में, भारतीय चाहे दुनिया के किसी भी कोने में रहें, भारत उनकी आत्मा में हमेशा बसता है. आपने सच कहा समीर जी, अब यहाँ माई बेरी बेचने के लिए नहीं बैठती है.और बैठे भी क्यों, आज के बच्चे बेरी थोड़े ही खायेंगे? उन्हें तो चाहिए बस perk और james.

बेनामी ने कहा…

the poem and emotions are all good but reality is harsh and its not easy to keep the memories alive with harsh realities of life. you are doing it , its good
rachna

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

मन को छूने वाली रचना!

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा है। अबकी फिर आइये भारत देखिये आकर और कितने बदलाव आये।

Neeraj Rohilla ने कहा…

पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....

अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.

समीरजी, बहुत कुछ बदल गया है । मथुरा में भी माल बन गया है और हम अभी तक अपने को हाई-फ़ाई मथुरा से एडजस्ट नहीं कर पाये हैं ।

हम मथुरा में १४ नवम्बर तक हैं । आज शाम को अनूपजी के घर जाने का कार्यक्रम है । उसके बारे में विस्तार से लिखेंगे ।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

परिवर्तन हो रहे हैं और होते रहेंगे। बचपन याद आता रहेगा और लुभाता भी रहेगा, दर्द भी देता रहेगा।
जिन्दगी मीर की गजल सी भी होगी और मॉल से सामान भी खरीदेगी।
अभी तो हमें याद आ रही है; फिर हम किसी की याद का हिस्सा बनेंगे।

चलता रहेगा। समय चलता रहेगा।

PD ने कहा…

दिल को छू लेने वाली कविता...
मीर की गजल सा....

मीनाक्षी ने कहा…

मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!

बहुत भाव भीनी रचना !
बहुत कुछ याद दिला दिया. अब यादों का सैलाब कैसे रोकूँ. शायद शब्दों के बाँध से.

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

शब्द कम हों भाव गहरे
देते हैं सदा अर्थ सुनहरे

Suvichar ने कहा…

कहते है परिवर्तन समय की मांग है , परन्तु मैं ये पूछता हू की ये कैसा परिवर्तन है जहा मानव समवेदनायें धीरे धीरे ख़त्म होती जा रही है, कभी सुनने मे आता है कि फलाने ने पैसू के लिए उसका खून कर दिया, बीवी ने अपने पति और पति ने बीवी का खून कर दिया, बेटे ने माँ बाप को घर से निकाल दिया या उनको दोलत के लिए मार दिया.

कौन समझे उस बरगद के पेड के आत्म पीड़ा को, क्यौकी समवेदना तो हमारी ..............

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सब खोते जा रहे हैं हम!!

अपने बचपन के मोहल्ले में जब भी जाता हूं एक पीपल पेड़ के नीचे बिज़ली खंबे के पास बैठने वाली एक बुढ़िया माई की याद ज़रुर आती है जो बच्चों के लिए चना, आमरस आदि लेकर बैठा करती थी, अब वहां आसपास पक्की दुकानें हैं, और वो बुढ़िया माई कहां है कोई खबर नही!!

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत खूब....

दरख्त बूढ़े नहीं होते,
घने होते हैं।
घनत्व होता है छाया का,
स्नेह की माया का, अनुभव का,
दृष्टि का।
इसी में
भला है
हमारी सृष्टि का...
माई भी एक दरख्त थी..

बहुत अच्छा लिखा समीर जी। शुक्रिया...

योगेश समदर्शी ने कहा…

bahut achi lagi sahab. badhaai gaanv ki yaad kabhi kabhi aisi lagti hai jaise maa baap ki pooja kar lee ho. main to bada aanand paataa hoon gaanv ki gali gali kalpana men nihaar letaa hoon kai saare gaanv ke log tab jo kuch nahi the aaj hamare liye door se hi bahut kuch hain.

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा ने कहा…

रचना दिल को छू गई समीरजी। अब भारत में कहां रहे वो पेड़ और प्यार से खिलाने वाली माई। अब तो कमर्शियलाइजेशन का दौर है। पैसा फेंको और तमाशा देखो। झूठी चमक-दमक में प्यार कहीं खो गया गया है।

dpkraj ने कहा…

अब बहुत भावपूर्ण लिख्ने लगे हैं।
दीपक भारतदीप

Manas Path ने कहा…

नव उदारीकरण के साथ ऐसे ही भावनाएं मर रहीं हैं
अतुल

Manas Path ने कहा…

नव उदारीकरण के दौर में भावनाएं ऐसे ही मरती जा रही हैं
अतुल

बेनामी ने कहा…

यह क्यों होता है की विकास का शिकार मानवीय संवेदनाएं हो जाती हैं? क्या माल और माई का एक साथ चलना सम्भव नहीं.एक मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई .

बालकिशन ने कहा…

सच में उड़न तश्तरी का जवाब नहीं. अति सुंदर कविता. एक कड़वे सच को बाखूबी दर्शाती कविता.

काकेश ने कहा…

सुबह टिपियाया था कहीं खो गया.

अभी तो सिर्फ यही कहना है मीर की गजल कभी बूढ़ी नहीं होती.

फिर आप अच्छा लिख गये. धन्यवाद.

Udan Tashtari ने कहा…

काकेश मित्र

आपकी ही बात कही है रचना में. मीर की गज़ल उम्र हासिल करती है बदलते समय के साथ, होती जवान ही है. जैसे कि मैं हूँ जवान ही, मगर इन सब घटना क्रमों को देखकर लगने लगा है कि एक उम्र हासिल कर ली है.(जैसे बूढ़े हासिल करते हैं) :)

बोधिसत्व ने कहा…

किसी अश्वनी कुमार को पकड़ा जाए क्या.....

Sagar Chand Nahar ने कहा…

हमारे यहा भी एक चुकी भुवा तली हुई नलियाँ बेचा करती थी, जिसे उंगली में पहन कर खाते थे हम। सन 1980 मे उनके बड़े कर्जदार थे, उस जमाने में भुवा ने हमें पैंतीस पैसे का उधार दिया था और हम कई सालों तक उसे चुका नहीं पाये। और जब चुकाने के समर्थ हुए और चुकाने के लिये गये भी तब तक...........

बरगद का वह पेड़ कट चुका था।

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

राजमार्ग पर जब चलता हूँ, रहता डरा डरा सहमा
हर चौराहे पर दिखती है गलियों वाली बूढ़ी मां

Anita kumar ने कहा…

और जी अपनी पोस्ट डालने के एक मिनट बाद जो उड़न तश्तरी पर सर नवा जाएगा उसके सफ़लता के कित्ते चानस है जी।॥…॥:)

मीर जैसा …कविता बहुत अच्छी है जी, ऐसी बुढ़ियांए आज जहाँ तहाँ मर रही है, पर लोगों को क्या वो तो और कारे खरीदेगे एक लाख में, ठंडे में सगींत का मजा लेते हुए सब्जी खरीदेंगे। सच लाल सरकारे भी सफ़ेद हो गयी, हंसिया छोड़ भीख का कटोरा जो हाथ में थाम लिया। भीख का सिर्फ़ आश्वास्न ही मिला वो भी कितना कुछ लुटा कर्।

विनोद पाराशर ने कहा…

ग्रामीण परिवेश को उजाडकर ही,आज शहर बसाये जा रहे हॆ.ऎसा प्रतीत होता हॆ आज के इस पदार्थवादी युग में,मानवीय मूल्यों का अकाल पड गया हॆ.समीर जी, सुन्दर रचना के लिए साधुवाद.

Asha Joglekar ने कहा…

इतने सारी टिप्पणियों के बाद मेरी क्या टिप्पणी ?
पर रहा नही गया । अब तो ऐसा ही हो रहा है । हर बार भारत लौटने पर लगता है कहीं कुछ और टूट गया है जिससे अपनी पहचान जुडी थी ।

आपको हौसला अफजाई के लिये बहुत बहुत धन्यवाद । ऐसेही हौसला बढाते रहें ।

Dharni ने कहा…

बहुत सही!

Sajeev ने कहा…

sameer bhai, bhaav vibhor kar diya aaj, aap to kavita ke bhi maharathi hain,

आभा ने कहा…

समय बड़ा बलवाल होता है भाई और परिवर्तन एक सत्य है....

Pankaj Oudhia ने कहा…

आँखे नम हो गयी। और क्या कहूँ----

malhanrakesh ने कहा…

दिल को छू लिया आपकी कविता ने।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

eakdam bhav vibhor kar dene vali rachna ha kafi samaya bad itni achi rachna padhne ko mila bahut khub bahut bahut badhai..