मंगलवार, मार्च 27, 2012

सुना है तुम सभ्य हो..

हिन्दुस्तान की समस्या यह नहीं है कि हम क्या करते हैं? जो हम करते हैं वह मानव स्वभाव है, वो कोई समस्या नहीं.. सारी दुनिया वही करती है मगर समस्या यह है कि हम जो भी करते हैं अति में करते हैं. यही हमें औरों से अलग विशिष्ट पहचान देता है. विशिष्टता नामी और बदनामी दोनों की ही होती है.

ज्ञानी तो हर हिन्दुस्तानी होता ही है. हो न हो मगर मानता तो है ही. शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी हो जिसे आप अपनी कैसी भी कठिन से कठिन समस्या या बीमारी बतायें और वो सलाह न दे. चाहे फ़िर आपको मात्र खरोच आई हो,या पेट दर्द हो,,केंसर हुआ हो, एडस हो जाये, हर हिन्दुस्तानी के पास हर मर्ज की देशी विदेशी दवा का नुस्खा जेब में हाजिर मिलेगा. करेले से लेकर लहसुन, अर्जुन की छाल से लेकर इसबगोल की भूसी तक, मंत्र से केले में भस्म भर कर पीलिया के ईलाज तक, आरंडी के बीज से लेकर सौंफ के पानी से गठिया वात के ईलाज की, बुखार में बिना वजह जाने क्रोसिन से कॉम्बीफ्लेम तक और तो और एन्टीबायोटिक भी बिना खून के जांच के और मिर्चे और नीबू शहद विनेगर के घोल से हार्ट ब्लॉकेड खोलने का तरीका तक बताने को लोग हर क्षण तैयार बैठे हैं.

पीलिया का ईलाज तो मंत्र से ऐसा करते हैं कि हाथ धुलवा कर परात भर पानी में पूरा पीला पानी उतार देते हैं. गले में कंठा पहना कर उसे नाभी तक चार दिन में पहुँचा देना तो हर पीलिया रोगी जानता है. गुप्त समस्याओं के चूरण और शिलाजीत की गोली देना तो लगता है कि भारतीयों के मौलिक अधिकार में से एक है.

आप समस्या बताने चलें और उसके पहले हर समस्या का उपाय और सलाह हाजिर. दिल्ली शिफ्ट होना हो,या फिर आपको विदेश जाना हो,जन्म मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाना हो या पासपोर्ट,. पान की दुकान पर अनजान सलाह देकर निकल जायेगा और आप सोचते रह जायेंगे कि यह बंदा कौन था. सब के सब देवीय शक्ति लिए घूमते हैं चप्प्पल फटकाते गली गली. उनकी सलाह पर चलता तो सचिन कब का सौ शतक लगा चुका होता. अन्ना भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेक चुके होते और भारत अमेरीका से ज्यादा विकसित राष्ट्र होता. मगर सलाह देते देते इतना अति कर गये कि लोगों ने उनकी सलाह ही सुनना बन्द कर दी. मगर वो सलाह देने से अब भी बाज नहीं आते.

कोई डॉक्टर का पता नहीं बताता और न ही डाईग्नोसिस सेंटर का. हड्डी में दर्द- पुत्तुर में जाकर अंडा मलवा लो. सांस भरती है, केरल जाकर जिन्दा मछली वाला ईलाज करा लो, केंसर है- हिसार वाले बाबा जी की रोटी खा लो...पगला गये हो मतलब गधे से कम तो होगे नहीं..फलाने खेत की घास चर लो....न सुधार दिखे तो लोकसभा का चुनाव लड़ लो...सारे साथी एक जगह तो ईक्कठे हो लोगे कम से कम..हद है सलाहकारी की.

कहीं तो रुको...हर व्यवसाय के गुर जानने वाले अलग अलग विशेषज्ञ है, उन्हें मौका तो दो. मगर मौका देते तब हो जब बाकी सलाहकारी से निपट कर आखिरी दिनों मे पहुँचते हो. कोई राह बच नहीं रहती. अब विशेषज्ञ कोई भगवान तो है नहीं कि हर बिगड़ी स्थिति ठीक ही कर दे. जब शुरुवात थी तब मित्रों का साथ निभाते रहे और अंत में कोसने को विशेषज्ञ बचा.

सलाहकारी के क्षेत्र में अति- ज्ञान उपजाने में अति.

भारत के इंजिनियर विश्व को अपनी सेवायें देकर लुभाने क्या लगे कि उनकी ऐसी खेती शुरु हुई कि पान की दुकानों से ज्यादा इंजिनियरिंग कालेज खुल गये. बेटा नालायक निकल जाये तो उसे पहले एल एल बी करवाते थे और अब इंजिनियरिंग. बात डिमांड एंड सप्लाई की है जी.

निख्खटू से निख्खटू बेटा बेटी आज जब कुछ नहीं कर पा रहे तो इंजिनियर बन जा रहे हैं. ऐसे में वकील कौन बनेगा...चलो, वो कोई और बन जायेगा तो ठेकेदार कौन बनेगा.चलो, वो भी कोई न कोई बन जाये तो नेता कौन बनेगा...फिर तो कोई बचेगा ही नहीं फिर साईकिल और हाथी चुनाव चिन्ह का क्या दोष. निकॄष्ट मे से निकॄष्ट्तम चुनना भी तो हम भारतीयों की ही पहचान है.

अति की सीमा देखनी हो तो टी वी पर भारतीय सिरियल की महिमा देखिये. जरा सी टी आर पी मिल भर जाये फिर तो मानो सिरियल ने अमरत्व प्राप्त कर लिया. उस सिरियल के हीरो हीरोईन वैसे के वैसे ही टमाटर बने रहेंगे और आप समय के साथ अपना सर धुनेंगे कि सिरियल देखते देखते बाल काले से सफेद हो गये, संख्या में भी आधे से अधिक विदा हो चुके और बच्चे स्कूल से कालेज में जा चुके मगर सिरियल है कि चले ही जा रहा है. ये तब तक नहीं मानते जब तक बढ़ी हुई टी आर पी घट कर शून्य न हो जाये. फिर वो चाहे प्रतिज्ञा हो या छोटी बहु...छोटी बहु कायदे से अब तक सास बन कर भी गुजर भी चुकी होती मगर अति की महिमा कि छोटी बहु अभी तक छोटी बहु ही है.

बुराई कितनी भी बुरी हो या चाहे गंधाती हो मगर हर बुराई में भी एक न एक अच्छाई तो होती ही है. कम से कम इसी बात का महत्व समझ कर ही पाकिस्तान से सिरियल समय पर खत्म करना सीख लें. अब उनके ही सिरियल ’धूप किनारे’ की हिन्दी कॉपी ’कुछ तो लोग कहेंगे’ को भी उसी राह पर ले चल पड़े हैं..देखना अति करके ही मानेंगे. अभी तो ऐसा ही लग रहा है.

वही हाल परिवारवाद का है राजनिति में-पांचवी पीढ़ी तैयार है जी हुजूरी करवाने को..तैयार क्या है-करवा ही रही है. छटवीं भी इस उ.प्र. विधानसभा में हल्की सी झलक दिखाई ही गई अपनी मम्मी के साथ मंच पर. कुछ अति तो इसमें भी है. इतनी विकल्पहीनता की दुहाई भी ठीक नहीं.

हम भारतीय जानते हैं दुर्गति की गति को धीमा करना..काश!! सीख पाते इसकी दिशा बदल कर बेहतरी के तरफ ले जाना.

होली आई. हर साल आती है. अब बधाई का सिलसिला ऐसा शुरु हुआ कि उसकी भी अति हो ली है इस होली पर. फेस बुक पर आये तो हर घंटे बधाई ही दिये जा रहे हैं. हर बार हमको टैग कर देते हैं. अब उस पर जो कमेंट आयें सारे हमारे ईमेल में. रंग तो एक बार नहा लो तो छूट जाये. छूटना ही होगा आखिर नकली रंग की भी तो अति है. मगर हम ईमेल साफ ही किये जा रहे हैं और टैग हैं कि खत्म ही नहीं हो रहे. मुबारकबाद में टैगिंग कैसी? वो तो हम यूँ भी ले लेंगे- अब टैग करके क्या साबित करना चाह रहे हो भाई.

एक सज्जन ने मुबारकबाद भेजी और सी सी में १२०० ईमेल एड्रेस...अब वे सारे जबाब देंगे और हम १२०० ईमेल की सफाई करने में जुटे नजर आयेंगे. मानो हमें होली खेलना ही नहीं है बस नगर निगम ने जमादार की नौकरी दी है कि चलो, ईमेल की सफाई करो.

बक्शो मित्र. माना तुम अच्छे कार्टून बना लेते हो, फोटोशॉप में काट छांट कर इसकी तस्वीर उसकी बना देते हो..तुकबंदी कर मुक्तक रच लेते हो, बधाई संदेश देने के नये आयाम गढ़ लेते हो मगर उन सब से उपर..यह टैगिंग क्यूँ करते हो? यह फेस बुक की सुविधा है या मेरी दुविधा.

ईमेल में सीसी के बाद ठीक नीचे बीसीसी भी है,,वो तुम्हारी मोतियाबिंदी आँखें क्यूँ नहीं देख पाती? कहीं तो तुम यह तो दिखाना नहीं चाह रहे कि तुम्हारी पहुँच कहाँ कहाँ तक है? पहुँच से होता क्या है? मात्र तिहाड़ में बेहतर सुविधा और अच्छी सैल. रहोगे तो तिहाड़ में ही और कहलाओगे तो अपराधी ही.

अति बन्द करो,प्लीज!!

दो चार करोड खा जाओ- वादा है कि कोई हिदुस्तानी जो जुबां भी खोले..हम आदी हैं मान कर चलते हैं कि इतनी तो बनती है. मगर अब २००० करोड़ खा जाओगे एक खेल आयोजन में और सोचो कि सब चुप रह जायेंगे हमेशा की तरह- तो यह तो तुम्हारी ही बेवकूफी कहलाई. इतनी अति भी कैसे बर्दाश्त करें?

कलमाड़ी न बनो, कनुमोजी भी न बनो, तेलगी का फेस बुक से क्या लेना देना, २ जी को राजनिति में रहने दो, ईमेल को इससे दूर रखो....यहाँ तो अति न करो वैसी.

वरना एक दिन फेसबुक पर भी एक अन्ना जन्म लेगा...ईमेल पर बाबा रामदेव रामलीला करेंगे सलवार सूट पहन कर...प्रशासन अपनी चाल चलेगा और फिर...तुम कहोगे कि यह ठीक नहीं हुआ...

ऐसी नौबत ही क्यूँ लाते हो...पहले ही संभल जाओ!!!

excessive

सुना है तुम सभ्य हो..

कभी शहर में रहे नहीं...

फिर यह विष कहाँ से पाया...

आश्चर्य में मत डालो मित्र..

मैं अज्ञेय नहीं हूँ...

हो तो तुम भी साँप नहीं!!!

-समीर लाल ’समीर’

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मंगलवार, मार्च 20, 2012

बस!! यूँ ही एक गज़ल बन गई..

इधर व्यस्तता के दौर में समय समय पर आस पास देखते, अखबार पढ़ते, टीवी देखते तरह तरह के विचार आते गये और मैं उन्हें अलग अलग कागज पर लिखता रहा.

कभी घर के पिछली सर्दी में बर्फीले तूफान के दौरान पानी से हुए एक्सीडेन्ट के बाद का रीनोवेशन होते समय यहाँ के मकानों की लकड़ी की दीवारें देख और ऐसे मौके पर कुछ याद आते पुराने रिश्ते, कभी अनजानों के द्वारा अभिभूत करता अपनापन, कभी वेलेन्टाईन डे, मदर डे आदि पर होती चहल पहल देख, तो कभी भारत की खबरें- वहाँ का राष्ट्रव्यापि आन्दोलन, चुनाव, नेताओं की कूटनितियाँ, चालबाजी, तो इस बीच जापान में आये भूकम्प और सुनामी की तबाही का मंजर.

हर बार एक नया भाव, बस दर्ज करता चला गया और आज जब पलटाया उन कागज के पन्नों को तो लगा कि एक गज़ल बन गई जो मेरी हर बात, वो हर भाव जो इस दौरान उठे, कह रही है.

बस, मन किया कि आपसे साझा करुँ:

Tsunamis

पत्थर बिन दीवार बनाना, इन्सानों ने सीख लिया

पत्थर दिल इन्सान बनाना, भगवानों ने सीख लिया.

 

दूर हुए सब रिश्ते-नाते,दूर हुआ मिलना-जुलना

अपनों का किरदार निभाना बेगानों ने सीख लिया

 

प्रेम के इजहारों के दिन भी, त्यौहारों में बदले हैं

इनसे भी अब लाभ कमाना, बाज़ारों ने सीख लिया

 

कौन है हमको लूटने वाला काश कभी हम जान सकें

खादी में भी खुद को छुपाना मक्कारों ने सीख लिया

 

घड़ियाली आंसू बहते हैं, संसद के गलियारों में

ज्यूँ मछली से प्यार जताना, मछुआरों ने सीख लिया

 

एक नहीं लाखों मरते हैं, धरती के इक कंपन से

ढेरों कुनबे साथ जलाना, शमशानों ने सीख लिया

 

डोल गई दिल्ली की सत्ता, ऐसा मतिभ्रम खूब हुआ

जनता को ही मूर्ख बनाना, सरकारों ने सीख लिया.

-समीर लाल 'समीर'

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सोमवार, मार्च 12, 2012

अतिथि- तुम कब जाओगे..मात्र फिल्म नहीं, एक हकीकत!!

कहते हैं कि दर्द अपनों संग बांट लेने से कम हो जाता है, सो बांट ले रहे हैं वरना बांटने जैसा कुछ है नहीं.

कुछ माह पूर्व भारत से फोन आया था. उस तरफ से आवाज आई कि कैसे हैं भाई साहब..ठीक थे सो बता दिया कि ठीक हैं. उसने बताया कि वो भारत में मेरे पड़ोस वाले शर्मा जी का भतीजा है और कनाडा आ रहा है तीन चार दिन रह कर चला जायेगा फिर चार महिने बाद परिवार को लेकर आयेगा. कोई आश्चर्य नहीं हुआ. अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं. फिर शर्मा जी तो पुराने मित्र ठहरे हमारे तो औपचारिकतावश हमने इनसे कह दिया कि अब तीन चार दिन के लिए कहाँ भटकोगे. घर पर ही रुक जाओ. उसने भी उतनी ही औपचारिकतावश थोड़ा सकुचाते हुए बात मान ली. कहता था कि आपकी बात नहीं मानूँगा तो चाचा जी गुस्सा हो जायेंगे. सिर्फ आपको ही जानता हूँ कनाडा में.

फिर अन्य बातों के बाद उसने कहा कि आपके घर तक आऊँगा कैसे? उनके कनाडा पहुँचने का दिन रविवार था तो हमने कह दिया कि एयरपोर्ट पर हम आ जायेंगे आपको लेने. बहुत खुश हो गया वह, उसकी बाँछे खिल गई. यूँ भी ऐसे न जाने कितने ऐसे मेहमानों को एयरपोर्ट से ला चुका हूँ जिनसे पहली बार एयरपोर्ट पर ही मिला हूँ...अब उसकी बारी थी- पूछने लगा कि आपके लिए कुछ लाना है क्या भाई साहब या भाभी से पूछ लिजिये, उनके लिए कुछ लाना हो तो. अब क्या कहते- कह दिया कि नहीं, कुछ विशेष तो नहीं चाहिये. सोचा कि दिल्ली से डोडा मिठाई और ड्यूटी फ्री से बॉटल तो खुद ही लोग समझ कर ले आते हैं, उससे ज्यादा क्या बोलना. हमेशा ही तो गेस्ट आते हैं. कभी बोलना कहाँ पड़ता, अपने आप ही लेते आते हैं बेचारे....सो फोन बन्द और हमारा इन्तजार शुरु रविवार का.

ईमेल से उसने फोटो और अपनी फ्लाईट वगैरह बता दी थी, तो रविवार को उसे एयरपोर्ट पर देखते ही पहचान गये.एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही साकेत (यही नाम है उसका) ठंड से कांपने लगा. मैने उससे कहा कि गर्म जैकेट निकाल लो अपने सामान से. ठंड बहुत है.

वो कहने लगा कि दिल्ली में तो बहुत गर्मी थी और यहाँ इतनी ठंड का अंदाजा नहीं था.. तो गरम कपड़े लाया ही नहीं है. खैर, कार में हीटिंग तेज कर दी. सोचा कि कल उसे बाजार लेते जायेंगे तो खरीद लेगा.

घर पहुँचते ही उसने भाभी जी को पैर छूकर और सुन्दर बता कर प्रसन्न कर दिया. बातूनी ऐसा कि पूछो मत!! लगातार बात करता जाये. एक बार जो शुरु हुआ तो बन्द होने का नाम ही नहीं ले रहा था..तुरंत घुलमिल गया. भाभी जी मैं प्याज काट देता हूँ. मैं चिकन बना देता हूँ और न जाने क्या क्या..प्याज तो क्या कटवाते मगर उस चक्कर में चिकन तुरंत बनाना पड़ा क्यूँकि पत्नी ने तो शर्मा जी सुनकर शाकाहारी भोजन बनाया था.

उनको कमरा दिखा दिया गया. बाथरुम दिखा दिया. नहाने घुसा तो पूरे एक घंटे नहाता रहा और जब वो निकला तो मुझे लगा कि शैम्पू और बॉडी वाश से मानो नहाया न हो, पी गया हो. एकदम नई नई बोतलों में आधे से भी ज्यादा समाप्त. मेहमानों के बाथरुम में वैसे भी नया ही रखा जाता है. शैविंग क्रीम भी बंदे ने तबीयत से लगाई और ऑफ्टर शेव से तो जैसे डुबकी लगा कर निकला हो. पूरा बाथरुम गमक रहा था. खुद से मेरे ड्रेसिंग रुम में आकर परफ्यूम लगा लिया वो भी वो वाला जो मैं खुद भी कभी कभार पार्टी आदि में जाने के लिए इस्तेमाल करता हूँ.

फिर टहलते हुए पहुँच गया मेरे बार तक. अरे वाह, आप तो बहुत शौकीन हैं भाई साहब. कौन कौन सी रखे हैं? और बस, ब्लैक लेबल की बोतल उठाकर प्रसन्नता से गिलास बनाने लगा. मुझसे भी पूछा कि आपके लिए भी बनाऊँ? बनाना तो था ही हाँ कर दी. फ्रिज से बरफ, सोडा निकाल कर शुरु हो गये.

यहाँ वैसे भी ड्रिंक्स के साथ ज्यादा स्नैकिंग की आदत नहीं होती मगर अब वो- भाभी जी, जरा दो चार अंडे की भुर्जी बना दिजिये तो मजा ही आ जाये. क्या बढ़िया खाना महक रहा है. इतनी खुशबू से ही पता लग रहा है कि आप बहुत अच्छा खाना बनाती है और फिर भाई साहब की काया तो खुद गवाही दे रही है कि आप कितना लजीज बनाती होंगी. ये लो, बात बात में हमें मोटा भी बोल गया.

उधर उनकी भाभी जी अपनी तारीफ सुनकर भरपूर प्रसन्न. कौन महिला न होगी भला. खूब रच कर अंडे की भुजिया बनी. तब तक उन्हें ड्रिंक्स के साथ भारत में पकोड़े खाते थे, भी याद आ गया सो वो भी मांग बैठे. प्याज, मिरची, पालक के पत्ते की भजिया तली गई.

शाम ७ बजे से पीना शुरु किया तो रात ग्यारह बज गये. हम तो दो से ज्यादा पी नहीं पाते मगर वो मोर्चा संभाले रहे जब तक की बोतल में बस हमारे अगले दिन के लिए दो ही पैग न बचे रह गये.

तब खाना खाया गया. तारीफ कर करके भरपूर खाया. पत्नी ने भी तारीफ सुन सुन कर घी लगा लगा कर गरम गरम रोटियाँ खिलाईं. तब वो सोने चले.

अगले दिन की मैने छुट्टी ली हुई थी. जब तक मैं सो कर उठा वो ठंड में ही बाहर टहलने निकल गया था. मैने सोचा कि इतनी ठंड में कैसे निकल पाया होगा बेचारा मगर वो लौटा तो मेरा ब्रेण्ड न्यू, खास पार्टियों के लिए खरीदा स्पेशल जैकेट पहने था. साथ में ही मेरी गरम टोपी, और दस्ताने भी पहने हुए थे. आते ही पूछा भाभी, कैसा लग रहा हूँ? भाई साहब मोटे दिखते जरुर हैं मगर उनका जैकेट देखिये मुझे कितना फिट आया है. खुद को मोटा तो वो कहने से रहा.

फिर नाश्ता- भाभी जी, बस, अंडा पराठे बना दो तो मजा आ जाये. साथ में दूध कार्नफ्लेक्स. फिर मैने उससे पूछा कि बाजार चलें. कुछ तुमको खरीदना हो तो खरीद लो. मुझे लग रहा था कि जैकेट परफ्यूम वगैरह तो खरीदना होगा ही उसे. मगर वो कहाँ जाने वाले. कहने लगा कि अब दो दिन को तो हैं मात्र. क्या खरीदें, क्या बेचें. यूँ भी यहाँ सब इतना मंहगा होता है कि हम यहाँ खरीदने लगे तो दीवाला ही निकल जायेगा.

रात देर हो गई थी तो उम्मीद थी सुबह बैग वगैरह खोलेगा- तब मिठाई ड्रिंक वगैरह निकालेगा. मगर सुबह क्या दिन भर खाते, हमारे साथ जगह जगह घूमते शाम हो गई, कहीं कॉफी पी गई तो कहीं बर्गर तो कभी आईसक्रीम मगर उनका पर्स नहीं निकला- उस पर से तुर्रा यह कि कितना मँहगा है, हम तो बर्बाद हुए जा रहे हैं. दुनिया में दाम खर्चने की बजाय मात्र सुनकर बर्बाद होते उस पहले शक्स को देखा - सब जस का तस. उस पर से तारीफ भी करते जाये कि आप लोगों ने भारत की संस्कृति को बचा कर रखा है यहाँ भी. मेहमान को तो पे ही नहीं करने देते. अरे, करोगे, जब न करने देंगे कि छीन कर पे कर दें??

रात वोडका की बोतल उठा ली कि रोज स्कॉच पीना ठीक नहीं. आज वोदका पीते हैं. मैने तो वो ही बची स्कॉच के दो पैग किनारे कर लिए. और इन्होंने पुनः पूरी श्रृद्धा और लगन से बोतल खत्म करते हुए दो पैग हमारे लिए छोड़ दिये. कभी हरी मटर तल कर तो कभी कोफ्ता तो कभी मटन कबाब- जैसे कि मेनु घर से बनाकर निकला हो- डिमांड और तारीफ कर कर बनवाता रहा और छक कर खाता रहा.

अगले दिन मेरे बाथरुम से आकर शैम्पू भी ले गया कि वहाँ खत्म हो गया है.

चार दिन चार महिने से गुजरे. चौथे दिन मन तो किया कि बस से एयरपोर्ट भेज दूँ मगर जैकेट मेरी पहने था. सोचा कि एयरपोर्ट में घुसने के बाद तो जरुरत रहेगी नहीं तो लौटा देगा वरना गई जैकेट हाथ से. चलते चलते मफलर भी लपेट लिया जो पत्नी ने शादी की सालगिरह पर मुझे दिया था. दस्ताने और टोपी तो खैर पहने ही था मेरी वाली. पत्नी उसके लिए गिफ्ट खरीद लाई थी. उसे भी कार में रख हम दोनों चल पड़े उसे छोड़ने.

एयरपोर्ट पर सामान चैक इन कराया. चरण स्पर्श - वंदन और ये चले साकेत शर्मा जी. हमें ठगे से उनको जाते देखते रहे और दूर तक नजर आती रही मेरी वो प्यारी जैकेट. छोड़ कर लौटने लगे तो देखा कि गिफ्ट तो पत्नी ने उसे दिया ही नहीं. हाथ में ही पैकेट थामी थी.

मैने पूछा तो बता रही थी कि सोचा था कि अगर जैकेट और मफलर वापस दे जायेगा तो ही दूँगी. मैं भी उसकी होशियारी पर प्रसन्नता जाहिर करने के सिवाय क्या करता. कुछ तो बचा. मुझे मालूम है जब भारत जाऊँगा-तब भी उसका पर्स जब्त ही रहेगा कि भाई साहब, अब आपके डालर के सामने हम क्या निकालें. यूँ भी आप बाहर से आये हैं, हमें पे थोड़े न करने देंगे.

विदेश में रहने वालों के लिए यह मंजर बहुत आम है- यहाँ वो आयें तो अतिथि और हम वहाँ जायें तो डॉलर कमाने वाले!! दोनों तरफ से लूजर और यूँ भी अपनी जमीन से तो लूजर हैं ही!!!

बस, घर लौट कर कुछ यूँ अपने आप रच गया:

nashta

मैं उस पर ज़रा क्या मेहरबान हो गया

अपने ही घर में खुद का, मेहमान हो गया

वो झूम झूम कर नहाया ऐसे सुबह सवेरे

कतरे भर पानी के लिए मैं परेशाँ हो गया.

अंडे की भुर्जी खाने की जिद थी नाश्ते में

डायटिंग का फैसला मेरा यों कुरबान हो गया

खाने की प्लेट देखिये, सदियों की भूख हो

देखा जो ये नजारा, तो मैं हैरान हो गया

वो जब चला तो सूट भी मेरा पहन चला

खातिरदारी में ’समीर’ आज नीलाम हो गया..

-समीर लाल ’समीर’

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शुक्रवार, मार्च 02, 2012

६ साल पूरे हुए और हम जहाँ के तहाँ: मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

जब ३ मार्च २००६ को अपना ब्लॉग शुरु किया था तो बताया गया था कि बस एक साल की मेहनत और फिर इससे कमाई शुरु हो जायेगी. बड़े मन से जुटे. फिर साल दर साल बीतते गये. हर साल यही उम्मीद कहीं न कहीं बँधाई गई कि अगले साल से ...कमाई शुरु.

आज ६ साल बीत गये. मगर लोगों की बात सुन आज भी आशांवित हूँ कि बस, अगले साल से कमाई शुरु होने वाली है और फिर नौकरी छोड़ो और बस, दिन भर ब्लॉगिंग...जितना करोगे, उतना मजा...उतनी कमाई...क्या बात है!!

आज हो गये हैं ६ साल पूरे इस ब्लॉग का नशा लगे. समय के पंख दिखते नहीं मगर इस तरह अहसास तो करा ही देते है. फोटो वही पुराना लगाया हुआ है ६ साल पहले का. यही विडंबना है अधेड़ावस्था की कि जवानी का जाना मानो स्वीकार ही न हो...कई बार सोचता हूँ कि इससे बेहतर तो राजनिति मे उतर जाऊँ...वहाँ स्वीकार्य है चिर युवा रहना....आडवानी जी जैसे युवा अब भी प्रधान मंत्री बनने का स्वपन पाले लगे ही हैं रथ यात्रा निकालने में तो हमारी स्थिति तो थोड़ी बेहतर ही कहलायेगी.

खैर यह सब छोड़ें..६ साल के ब्लॉगर की कविता पढ़े...बधाई दें, मुस्करायें या जो मन आये सो करें मगर शुभकामनाएँ तो दे ही जायें:

कभी मन में था कि साहित्यकार कहलाऊँ ब्लॉग लिख लिख कर...हा हा...ब्लॉग और साहित्य...कितने न मुस्करा देंगे..अनभिज्ञ एवं बेवकूफ...मगर मैं चुप रहूँगा...क्यूँ कुछ कह कर अपने संबंध खराब करुँ....अब मन नहीं हैं साहित्यकार कहलाने का...मगर मन पर तो लोभ ने कब्जा जमाया हुआ है..उसका क्या करुँ...इस कविता में दृष्य देखें तो शायद आपका मन भी बदले:

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मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

बूँद एक चली

छोड़ बादल को

प्रसन्न मन

मिलेगी नीचे धरा पर

एक तत्काल बनी नाली में

जहाँ तेरती होंगी

नन्ही नन्ही किश्तियाँ

कागज़ की

वहीं

बनायेगी साथी बून्दों को

दोस्त अपना...

खेलेगी, गुनगुनायेगी

उमंगों में डूब

उन के साथ

गली में अक्स्मात बनी

एक नाली खुश हुई

आकर मिलेंगीं और बून्दें

तो वह मिल सकेगी

शहर भर की नालियों के संग..

पूछेगी हाल सारे शहर का...

गपियायेगी..खिलखिलायेगी और

मिलेंगी

इक नदिया में जाकर

नदी खुश थी

उमड़ती हुई धाराओं से मिल

जा सकेगी वह

उस गहरे सागर तक

जहाँ आती हैं सब नदियाँ उसकी तरह

बाँटेगी उनकी खुशियाँ..

हँस लेगी उनके साथ..

रहेगी खुश...

और सागर...

समाहित कर सबको अपने भीतर

शांत और गंभीर.....

फिर एक दिन एक हिस्सा

बन जाता वाष्प...

सूर्य की उष्मा से...

और उठ जा मिलती

उष्मा से बनी वाष्पकिरणें...बूँदें...

पुनः उन्हीं बादलोंमें...

जीवन के

अनवरत गतिक्रम सी

एकाएक एक बूँद रो उठती है

इस बार विदा होते...

कहीं मैं नाली की जगह

सीप में न समा जाऊँ...

मैं मोती बनना नहीं चाहती...

माना मोती कीमती होता है पर

मुझे...हाँ.....मुझे

फिर वापस आना है

अपनों से मिलने

और बनाये रखनी है

अपने होने की अस्मिता

आज फिर एक बार

आँख नम है मेरी...

मुझे वापस आना है...

अपनों में मिल जाना है!!!!

-मैं मोती होना नहीं चाहता!!!

-समीर लाल ’समीर’

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